Sunday, May 19, 2019

हस्त रेखाओं को जानिये

*क्या है हस्तरेखा ज्ञान?*
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हस्तरेखा को भारतीय ज्योतिष का एक प्रमुख अंग माना जाता है। प्राचीन काल से इस विद्या का महत्त्व बहुत ज्यादा रहा है। माना जाता है कि जो व्यक्ति इस विद्या का ज्ञान प्राप्त कर लेता है वह किसी का भी हाथ देखकर उसके भविष्य में घटने वाली घटनाओं को जान सकता है। हस्त रेखा की दुनिया में सबसे बड़ा नाम है कीरो का और भारत में हस्त रेखा की सबसे ज्यादा पुस्तक कीरो की ही मिलती है. कीरो ने वैज्ञानिक पद्धति से भविष्य की गणना करना आरंभ किया था जो बहुत ही सटीक बैठती है और भारतीय ज्योतिष के ज्ञानी भी कीरो को अपना आदर्श मानते है।

हस्त रेखा विज्ञान के दो भेद माने जाते है। जहाँ हाथ की रेखाओं से व्यक्ति के भूतकाल और भविष्य की घटनाओं का आकलन करने में सहायक होती है वाही हाथ एवं उँगलियों की बनावट से व्यक्ति के स्वभाव, उसका कार्य क्षेत्र इत्यादि का आकलन करने में सहायक होती है।

 *हाथ की रेखाएं:-*

हाथ एवं उँगलियों की बनावट
 मैं आपको हस्त रेखा की मुख्य-मुख्य रेखाओं और उनका मानव जीवन पर प्रभाव से सम्बंधित जानकारी देने वाला हूँ.

 हाथ की प्रमुख रेखाएं

हाथ की हथेली में मुख्यत: सात बड़ी और सात छोटी रेखाओं का महत्त्व सबसे ज्यादा है क्यूँकि ये रेखाए व्यक्ति के जीवन से सम्बंधित समस्त बातों को अपने में समेट लेती है और व्यक्ति के वर्तमान एवं भविष्य का निर्धारण करती है और वो सात बड़ी रेखाएं है 
1. आयु रेखा
2. ह्रदय रेखा
3. मस्तिष्क रेखा
4. भाग्य रेखा
5. सूर्य रेखा
6. स्वास्थ्य रेखा
7. शुक्र मुद्रिका

इसके अलावा सात और छोटी रेखाएं हैं-
1. मंगल रेखा
2. चन्द्र रेखा
3. विवाह रेखा
4. निकृष्ट रेखा
इसके अतिरिक्त तीन मणिबंध रेखाएं होती हैं इनका स्थान हथेली की जड़ और हाथ की कलाई है।

यह सात रेखाएं व्यक्ति के जीवन के बारे में बहुत कुछ बता देती है. उदाहरण के लिए जीवन रेखा से किसी भी व्यक्ति की आयु का अनुमान हो जाता है जबकि वहीँ मस्तिष्क रेखा व्यक्ति की मनोदशा, उसकी विद्या बुद्धि एवं जीवन में सफलता के आयाम इत्यादि की सूचक होती है, इसी तरह ह्रदय रेखा से व्यक्ति के स्वाभाव, उसके वैवाहिक जीवन का आकलन, और आपसी रिश्ते इत्यादि का आकलन होता है और भाग्य रेखा स्वयं अपने नाम से ही अपना परिचय दे देती है. आइये इन सात महत्त्वपूर्ण रेखाओं के बारे में थोडा सा विस्तार से जानते है.

सबसे पहले जानते हैं आयु रेखा के बारे में:-
1. आयु रेखा
आयु रेखा यानी जीवन रेखा शब्द से ही इस रेखा का अनुमान हो जाता है. जीवन रेखा हाथ के अंगूठे और तर्जनी उंगली के मध्य से आरम्भ होकर हथेली के आधार तक जाती है. जीवन रेखा जितनी लम्बी और स्पष्ट होती है व्यक्ति की आयु उतनी ही लम्बी होती है यदि जीवन रेखा बीच में कही अस्पष्ट या टूटी हुई होती है तो उसे अल्प आयु या स्वाथ्य का नुक्सान होने का आभास कराता है. यदि जीवन रेखा पूर्ण स्पष्ट होकर हथेली के आधार तक जाती है तो व्यक्ति स्वस्थ जीवन व्यतीत करता है जबकि अस्पष्ट और और टूटी हुई रेखा आयु में बाधा का आभास कराती है।

2.  हृदय रेखा
यह रेखा सबसे छोटी उंगली (कनिष्ठिका) के नीचे से निकलकर तर्जनी उंगली के मध्य तक पहुँचती है. यह रेखा व्यक्ति के स्वाभाव को दर्शाती है. ह्रदय रेखा जितनी लम्बी होती है व्यक्ति उतना ही मृदुभाशी, सरल और जनप्रिय होता है इस प्रकार के व्यक्ति समाज में सर्व स्वीकार होते है और व्यक्तिगत जीवन में सम्मान और प्रतिष्ठा के साथ जीवन यापन करते है. इन लोगों के मन में छल कपट बहुत ही कम पाया जाता है और संतोषी प्रवत्ति के होते है. और जिन लोगों की ह्रदय रेखा छोटी होती है वह व्यक्ति असंतोषी, चिडचिडा, शंकालु अवं समाज से दूर रहने वाले वाली प्रवत्ति के होते है. ऐसे व्यक्ति छोटी सोच वाले होते है और जल्दी किसी पर विश्वास नहीं करते है. आम तौर पर इस प्रकार के व्यक्ति क्रूर प्रवत्ति के होते है।

3.  मस्तिष्क रेखा
यह रेखा तर्जनी उंगली के नीचे से और जीवन रेखा के आरंभ स्थान से निकलती है और सबसे छोटी छोटी ऊँगली कनिष्का के नीचे हथेली तक जाती है किसी-किसी व्यक्ति के हाथ में यह रेखा कनिष्का तक पहुचने से पहले ही समाप्त हो जाती है मस्तिष्क रेखा कहलाती है. मस्तिष्क रेखा जितनी लम्बी होती है व्यक्ति का मानसिक संतुलन उतना ही अच्छा होता है. ऐसे लोग भाग्य से ज्यादा मेहनत पर विश्वास करते है. इन लोगों की स्मरण शक्ति काफी अच्छी होती है और प्रत्येक कार्य को सोच समझ कर करते है. इस प्रकार के लोगों में हमेशा कुछ न कुछ सीखने की ललक रहती है. जबकि इसके विपरीत छोटी मस्तिस्क रेखा वाले लोग जल्दबाजी में रहते है, कर्म से से ज्यादा भाग्य पर विश्वास करते है और किसी जल्दबाजी में निर्णय लेते है. जिसका पछतावा उन्हें बाद में होता है।

4. भाग्य रेखा
यह रेखा मध्यमिका और अनामिका के बीच से निकलकर नीचे हथेली तक जाती है. यह रेखा प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में नहीं पायी जाती है. भाग्य रेखा जितनी स्पष्ट होती है व्यक्ति का जीवन उतना ही सरल होता है जबकि इसके विपरीत जिन व्यक्तियों के हाथ में यह रेखा अस्पष्ट या टूटी हुई हो वह व्यक्ति जीवन में थोडा बहुत संघर्ष करता है और जिन व्यक्ति के हाथ में यह रेखा नहीं होती है इससे तात्पर्य यह होता है कि इस प्रकार के व्यक्ति कर्मवादी, मेहनती होते है और जीवन में संघर्षों से घिरे रहते है. भाग्य रेखा की व्याख्या बहुत कुछ मस्तिस्क रेखा पर भी निर्भर करती है।

5. सूर्य रेखा
यह रेखा सभी व्यक्तियों के हाथ में नहीं होती है. यह रेखा चन्द्र पर्वत से आरम्भ होकर ऊपर तीसरी उंगली अनामिका तक जाती जाती है. जिस व्यक्ति के हाथ में यह रेखा होती है वह व्यक्ति निडर, स्वाभिमानी, द्र? इच्छाशक्ति वाला होता है. इस प्रकार के व्यक्ति जीवन में कभी हार नहीं मानते है और नेतृत्व प्रिय होते है।

६.  स्वास्थ्य रेखा
यह रेखा सबसे छोटी उंगली कनिष्का से आरम्भ होकर हथेली के नीचे की और चली जाती है. यह रेखा व्यक्ति के स्वास्थ की सूचक होती है।

7. शुक्र मुद्रिका

यह रेखा कनिष्का और अनामिका के मध्य से आरंभ होकर तर्जनी और अनामिका के मध्य तक चंद्राकार रूप में होती है. यह रेखा आम तौर पर उन लोगों में पायी जाती है जो विलासी जीवन जीते है. इस प्रकार के लोग कामुक, खर्चीले और भौतिकतावादी होते हैं।

सात लघु रेखाएं
1. मंगल रेखा
यह रेखा जीवन रेखा और अंगूठे के बीच से निकलती है और मंगल पर्वत तक जाती जाती है। मंगल रेखा जितनी स्पस्ट होती है व्यक्ति उन्तना ही तीव्र बुद्धि का होता है, प्रत्येक कार्य को सोच समझ कर करने वाला होता है. ऐसे व्यक्ति अपने लक्ष्य के प्रति बहुत ही जुझारू होते है जब किसी कार्य को ठान लेते है उसे पूरा कर के छोड़ते हैं।

2. *चन्द्र रेखा*
यह रेखा कनिष्ठिका और अनामिका के मध्य से निकर कर नीचे मणिबंध तक जाती है. यह रेखा धनुषाकार होती है. इस रेखा को प्रेरणादायक रेखा भी कहते है. जिस व्यक्ति के हाथ में यह रेखा पायी जाती है वह व्यक्ति अपनी उन्नति के लिए सदैव लगा रहता है. इस प्रकार के व्यक्ति व्यवहार कुशल होते है जल्दी ही लोगों से घुल मिल जाते है।

3. *विवाह रेखा*
कनिष्ठिका उंगली के नीचे एक या दो छोटी-छोटी रेखाएं होती है और ह्रदय रेखा के सामानांतर चलती है विवाह रेखा कहलाती है. इसे प्रेम रेखा भी कहते है. यह रेखाए जितनी स्पष्ट होती है व्यक्ति रिश्तों को उतना ही महत्त्व देता है।

4. *निकृष्ट रेखा*
यह रेखा दु:ख देनी वाली रेखा होती है इसलिए इसे निकृष्ट रेखा कहते है. यह चन्द्र रेखा की ओर से चलती है और स्वास्थ्य रेखा के साथ चलकर शुक्र स्थान में प्रवेश करती है।

डॉ आशीष जैन शिक्षाशास्त्री

Monday, May 6, 2019

जैनागम में अक्षय तृतीया पर्व

जैनागम में अक्षय तृतीया

   

     भारतीय संस्कृति में पर्व, त्याहारों और व्रतों का अपना एक अलग महत्व है। ये हमें हमारी सांस्कृतिक परंपरा से जहां जोड़ते हैं वहीं हमारे आत्मकल्याण में भी कार्यकारी होते हैं। वैशाख शुक्ला तृतीया को अक्षय तृतीया पर्व मनाया जाता है। इस दिन जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ ) ने राजा श्रेयांस के यहां इक्षु रस का आहार लिया था, जिस दिन तीर्थंकर ऋषभदेव का आहार हुआ था, उस दिन वैशाख शुक्ला तृतीया थी। उस दिन राजा श्रेयांस के यहां भोजन, अक्षीण (कभी खत्म न होने वाला ) हो गया था। अतः आज भी लोग इसे अक्षय तृतीया कहते हैं। जैनधर्म के अनुसार भरत क्षेत्र में इसी दिन से आहार दान की परम्परा शुरू हुई। ऐसी मान्यता है कि मुनि का आहार देने वाला इसी पर्याय से या तीसरी पर्याय से मोक्ष प्राप्त करता है। राजा श्रेयांस ने भगवान आदिनाथ को आहारदान देकर अक्षय पुण्य प्राप्त किया था, अतः यह तिथि अक्षय तृतीया के रूप में मानी जाती है। यह दिन बहुत ही शुभ होता है, इस दिन बिना मुर्हूत निकाले शुभ कार्य संपन्न होते हैं।

जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विजयार्ध पर्वत से दक्षिण की ओर मध्य आर्यखण्ड में कुलकरों में अंतिम कुलकर नाभिराज हुए। उनके मरूदेवी नाम की पट्टरानी थी। रानी के गर्भ में जब जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आये तब गर्भकल्याणक उत्सव देवों ने बडे़ ठाठ से मनाया और जन्म होने पर जन्म कल्याणक मनाया। फिर दीक्षा कल्याणक होने के बाद ऋषभदेव ने छःमाह तक घोर तपस्या की। छः माह के बाद चर्या (आहार) विधि के लिए ऋषभदेव भगवान ने अनेक ग्राम नगर शहर में विहार किया, किन्तु जनता व राजा लोगों को आहार की विधि मालूम न होने के कारण भगवान को धन, कन्या, पैसा, सवारी आदि अनेक वस्तु भेंट की। भगवान ने यह सब अंतराय का कारण जानकर पुनः वन में पहुंच छःमाह की तपश्चरण योग धारण कर लिया।


अवधि पूर्ण होने के बाद पारणा करने के लिए चर्या मार्ग से ईर्यापथ शुद्धि करते हुए ग्राम, नगर में भ्रमण करते-करते कुरूजांगल नामक देश में पधारे। वहां हस्तिनापुर में कुरूवंश के शिरोमणि महाराज सोम राज्य करते थे। उनके श्रेयांस नाम का एक भाई था उसने सर्वार्थसिद्धि नामक स्थान से चयकर यहां जन्म लिया था।

एक दिन रात्रि के समय सोते हुए उसे रात्रि के आखिरी भाग में कुछ स्वप्न आये। उन स्वप्नों में मंदिर, कल्पवृक्ष, सिंह, वृषभ, चंद्र, सूर्य, समुद्र, आग, मंगल द्रव्य यह अपने राजमहल के समक्ष स्थित हैं ऐसा उस स्वप्न मंे देखा तदनंतर प्रभात बेला मंे उठकर उक्त स्वप्न अपने जेष्ठ भ्राता से कहे, तब ज्येष्ठ भ्राता सोमप्रभ ने अपने विद्वान पुरोहित को बुलाकर स्वप्नों का फल पूछा। पुरोहित ने जबाव दिया- हे राजन! आपके घर श्री ऋषभदेव भगवान पारणा के लिए पधारेंगे, इससे सबको आनंद हुआ।

इधर भगवान ऋषभदेव आहार (भोजन) हेतु ईर्या समितिपूर्वक भ्रमण करते हुए उस नगर के राजमहल के सामने पधारे तब सिद्धार्थ नाम का कल्पवृक्ष की मानो अपने सामने आया है, ऐसा सबको भास हुआ। राजा श्रेयांस को भगवान ऋषभदेव का श्रीमुख देखते ही उसी क्षण अपने पूर्वभव में श्रीमती वज्रसंघ की अवस्था में एक सरोवर के किनारे दो चारण मुनियों को आहार दिया था-उसका जाति स्मरण हो गया। अतः आहारदान की समस्त विधि जानकर श्री ऋषभदेव भगवान को तीन प्रदक्षिणा देकर पड़गाहन किया व भोजन गृह में ले गये।


‘प्रथम दान विधि कर्ता’ ऐसा वह दाता श्रेयांस राजा और उनकी धर्मपत्नी सुमतीदेवी व ज्येष्ठ बंधु सोमप्रभ राजा अपनी लक्ष्मीपती आदि ने मिलकर श्री भगवान ऋषभदेव को सुवर्ण कलशों द्वारा तीन खण्डी (बंगाली तोल) इक्षुरस (गन्ना का रस) तो अंजुल में होकर निकल गया और दो खण्डी रस पेट में गया।

इस प्रकार भगवान ऋषभदेव की आहारचर्या निरन्तराय संपन्न हुई। इस कारण उसी वक्त स्वर्ग के देवों ने अत्यंत हर्षित होकर पंचाश्चर्य (रत्नवृष्टि, गंधोदक वृष्टि, देव दुदभि, बाजों का बजना व जय-जयकार शब्द होना) वृष्टि हुई और सभी ने मिलकर अत्यंत प्रसन्नता मनाई।

आहारचर्या करके वापस जाते हुए ऋषभदेव भगवान ने सब दाताओं को ‘अक्षय दानस्तु’ अर्थात् दान इसी प्रकार कायम रहे, इस आशय का आशीर्वाद दिया, यह आहार वैशाख सुदी तीज को सम्पन्न हुआ था।

जब ऋषभदेव निरंतराय आहार करके वापस विहार कर गए उसी समय से अक्षय तीज नाम का पुण्य दिवस (जैनधर्म के अनुसार) का शुभारंभ हुआ। इसको आखा तीज भी कहते हैं। यह दिन हिन्दू धर्म में भी बहुत पवित्र माना जाता है। इस दिन अनबूझा मुर्हूत मानकर शादी, विवाह एवं मंगलकार्य प्रचुर मात्रा में होते हैं।

जैनधर्म में दान का प्रवर्तन इसी तिथि से माना जाता है, क्योंकि इससे पूर्व दान की विधि किसी को मालूम नहीं थी। अतः अक्षय तृतीया के इस पावन पर्व को देश भर के जैन श्रद्धालु हर्षोल्लास व अपूर्व श्रद्धा भक्ति से मनाते हैं। इस दिन हस्तिनापुर में भी विशाल आयोजन किया जाता है। इस दिन व्रत, उपवास रखकर इस पर्व के प्रति अपनी प्रगाढ आस्था दिखाते हैं।

अक्षय तृतीया व्रत, विधि एवं मंत्र:-

यह व्रत जैन परम्परा के अनुसार वैशाख सुदी तीज से प्रारम्भ होता है। उस दिन शुद्धतापूर्वक एकाशन करें या 2 उपवास या 3 एकाशन करें।

इसकी विधि यह है कि व्रत की अवधि में प्रातः नैत्यिक क्रिया से निवृत्त होकर मंदिर जी को जावें। मंदिर जी में जाकर शुद्ध भावों से भगवान की दर्शन स्तुति करें। पश्चात् भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा को सिंहासन पर विराजमान कर कलशाभिषेक करें। नित्य नियम पूजा भगवान आदि तीर्थंकर (ऋषभदेव) की पूजा एवं पंचकल्याणक का मण्डल जी मंडवाकर मण्डल जी की पूजा करें। तीनों काल (प्रातः, मध्यान्ह, सांय) निम्नलिखित मंत्र जाप्य करें एवं सामायिक करें-

मंत्र – ओम् ह्रीं श्रीं क्लीं अर्हं श्री आदिनाथतीर्थंकराय नमः स्वाहा।

प्रातः सांय णमोकार मंत्र का शुद्धोच्चारण करते हुए जाप्य करें।

व्रत के समय में गृहादि समस्त क्रियाओं से दूर रहकर स्वाध्याय, भजन, कीर्तन आदि में समय यापन करें। दिन भर जिन चैत्यालय में ही रहें। व्रत अवधि में ब्रह्राचर्य से रहें। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों का अणुव्रत रूप से त्याग करें। क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों को शमन करें।

व्रत पूर्ण होने पर यथाशक्ति उद्यापन करें। भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा मंदिरजी में भेंट करें तथा मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका चतुर्विध संघ को चार प्रकार का दान देवें। इस प्रकार शुद्धतापूर्वक विधिवत रूप से व्रत करने से सर्व सुख की प्राप्ति होती है तथा साथ ही क्रम से अक्षय सुख अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है।

-डाॅ0 सुनील जैन: ‘संचय’ संस्कृति में पर्व, त्याहारों और व्रतों का अपना एक अलग महत्व है। ये हमें हमारी सांस्कृतिक परंपरा से जहां जोड़ते हैं वहीं हमारे आत्मकल्याण में भी कार्यकारी होते हैं। वैशाख शुक्ला तृतीया को अक्षय तृतीया पर्व मनाया जाता है। इस दिन जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ ) ने राजा श्रेयांस के यहां इक्षु रस का आहार लिया था, जिस दिन तीर्थंकर ऋषभदेव का आहार हुआ था, उस दिन वैशाख शुक्ला तृतीया थी। उस दिन राजा श्रेयांस के यहां भोजन, अक्षीण (कभी खत्म न होने वाला ) हो गया था। अतः आज भी लोग इसे अक्षय तृतीया कहते हैं। जैनधर्म के अनुसार भरत क्षेत्र में इसी दिन से आहार दान की परम्परा शुरू हुई। ऐसी मान्यता है कि मुनि का आहार देने वाला इसी पर्याय से या तीसरी पर्याय से मोक्ष प्राप्त करता है। राजा श्रेयांस ने भगवान आदिनाथ को आहारदान देकर अक्षय पुण्य प्राप्त किया था, अतः यह तिथि अक्षय तृतीया के रूप में मानी जाती है। यह दिन बहुत ही शुभ होता है, इस दिन बिना मुर्हूत निकाले शुभ कार्य संपन्न होते हैं।

जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विजयार्ध पर्वत से दक्षिण की ओर मध्य आर्यखण्ड में कुलकरों में अंतिम कुलकर नाभिराज हुए। उनके मरूदेवी नाम की पट्टरानी थी। रानी के गर्भ में जब जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आये तब गर्भकल्याणक उत्सव देवों ने बडे़ ठाठ से मनाया और जन्म होने पर जन्म कल्याणक मनाया। फिर दीक्षा कल्याणक होने के बाद ऋषभदेव ने छःमाह तक घोर तपस्या की। छः माह के बाद चर्या (आहार) विधि के लिए ऋषभदेव भगवान ने अनेक ग्राम नगर शहर में विहार किया, किन्तु जनता व राजा लोगों को आहार की विधि मालूम न होने के कारण भगवान को धन, कन्या, पैसा, सवारी आदि अनेक वस्तु भेंट की। भगवान ने यह सब अंतराय का कारण जानकर पुनः वन में पहुंच छःमाह की तपश्चरण योग धारण कर लिया।


अवधि पूर्ण होने के बाद पारणा करने के लिए चर्या मार्ग से ईर्यापथ शुद्धि करते हुए ग्राम, नगर में भ्रमण करते-करते कुरूजांगल नामक देश में पधारे। वहां हस्तिनापुर में कुरूवंश के शिरोमणि महाराज सोम राज्य करते थे। उनके श्रेयांस नाम का एक भाई था उसने सर्वार्थसिद्धि नामक स्थान से चयकर यहां जन्म लिया था।

एक दिन रात्रि के समय सोते हुए उसे रात्रि के आखिरी भाग में कुछ स्वप्न आये। उन स्वप्नों में मंदिर, कल्पवृक्ष, सिंह, वृषभ, चंद्र, सूर्य, समुद्र, आग, मंगल द्रव्य यह अपने राजमहल के समक्ष स्थित हैं ऐसा उस स्वप्न मंे देखा तदनंतर प्रभात बेला मंे उठकर उक्त स्वप्न अपने जेष्ठ भ्राता से कहे, तब ज्येष्ठ भ्राता सोमप्रभ ने अपने विद्वान पुरोहित को बुलाकर स्वप्नों का फल पूछा। पुरोहित ने जबाव दिया- हे राजन! आपके घर श्री ऋषभदेव भगवान पारणा के लिए पधारेंगे, इससे सबको आनंद हुआ।

इधर भगवान ऋषभदेव आहार (भोजन) हेतु ईर्या समितिपूर्वक भ्रमण करते हुए उस नगर के राजमहल के सामने पधारे तब सिद्धार्थ नाम का कल्पवृक्ष की मानो अपने सामने आया है, ऐसा सबको भास हुआ। राजा श्रेयांस को भगवान ऋषभदेव का श्रीमुख देखते ही उसी क्षण अपने पूर्वभव में श्रीमती वज्रसंघ की अवस्था में एक सरोवर के किनारे दो चारण मुनियों को आहार दिया था-उसका जाति स्मरण हो गया। अतः आहारदान की समस्त विधि जानकर श्री ऋषभदेव भगवान को तीन प्रदक्षिणा देकर पड़गाहन किया व भोजन गृह में ले गये।


‘प्रथम दान विधि कर्ता’ ऐसा वह दाता श्रेयांस राजा और उनकी धर्मपत्नी सुमतीदेवी व ज्येष्ठ बंधु सोमप्रभ राजा अपनी लक्ष्मीपती आदि ने मिलकर श्री भगवान ऋषभदेव को सुवर्ण कलशों द्वारा तीन खण्डी (बंगाली तोल) इक्षुरस (गन्ना का रस) तो अंजुल में होकर निकल गया और दो खण्डी रस पेट में गया।

इस प्रकार भगवान ऋषभदेव की आहारचर्या निरन्तराय संपन्न हुई। इस कारण उसी वक्त स्वर्ग के देवों ने अत्यंत हर्षित होकर पंचाश्चर्य (रत्नवृष्टि, गंधोदक वृष्टि, देव दुदभि, बाजों का बजना व जय-जयकार शब्द होना) वृष्टि हुई और सभी ने मिलकर अत्यंत प्रसन्नता मनाई।

आहारचर्या करके वापस जाते हुए ऋषभदेव भगवान ने सब दाताओं को ‘अक्षय दानस्तु’ अर्थात् दान इसी प्रकार कायम रहे, इस आशय का आशीर्वाद दिया, यह आहार वैशाख सुदी तीज को सम्पन्न हुआ था।

जब ऋषभदेव निरंतराय आहार करके वापस विहार कर गए उसी समय से अक्षय तीज नाम का पुण्य दिवस (जैनधर्म के अनुसार) का शुभारंभ हुआ। इसको आखा तीज भी कहते हैं। यह दिन हिन्दू धर्म में भी बहुत पवित्र माना जाता है। इस दिन अनबूझा मुर्हूत मानकर शादी, विवाह एवं मंगलकार्य प्रचुर मात्रा में होते हैं।

जैनधर्म में दान का प्रवर्तन इसी तिथि से माना जाता है, क्योंकि इससे पूर्व दान की विधि किसी को मालूम नहीं थी। अतः अक्षय तृतीया के इस पावन पर्व को देश भर के जैन श्रद्धालु हर्षोल्लास व अपूर्व श्रद्धा भक्ति से मनाते हैं। इस दिन हस्तिनापुर में भी विशाल आयोजन किया जाता है। इस दिन व्रत, उपवास रखकर इस पर्व के प्रति अपनी प्रगाढ आस्था दिखाते हैं।

अक्षय तृतीया व्रत, विधि एवं मंत्र:-

यह व्रत जैन परम्परा के अनुसार वैशाख सुदी तीज से प्रारम्भ होता है। उस दिन शुद्धतापूर्वक एकाशन करें या 2 उपवास या 3 एकाशन करें।

इसकी विधि यह है कि व्रत की अवधि में प्रातः नैत्यिक क्रिया से निवृत्त होकर मंदिर जी को जावें। मंदिर जी में जाकर शुद्ध भावों से भगवान की दर्शन स्तुति करें। पश्चात् भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा को सिंहासन पर विराजमान कर कलशाभिषेक करें। नित्य नियम पूजा भगवान आदि तीर्थंकर (ऋषभदेव) की पूजा एवं पंचकल्याणक का मण्डल जी मंडवाकर मण्डल जी की पूजा करें। तीनों काल (प्रातः, मध्यान्ह, सांय) निम्नलिखित मंत्र जाप्य करें एवं सामायिक करें-

मंत्र – ओम् ह्रीं श्रीं क्लीं अर्हं श्री आदिनाथतीर्थंकराय नमः स्वाहा।

प्रातः सांय णमोकार मंत्र का शुद्धोच्चारण करते हुए जाप्य करें।

व्रत के समय में गृहादि समस्त क्रियाओं से दूर रहकर स्वाध्याय, भजन, कीर्तन आदि में समय यापन करें। दिन भर जिन चैत्यालय में ही रहें। व्रत अवधि में ब्रह्राचर्य से रहें। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों का अणुव्रत रूप से त्याग करें। क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों को शमन करें।

व्रत पूर्ण होने पर यथाशक्ति उद्यापन करें। भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा मंदिरजी में भेंट करें तथा मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका चतुर्विध संघ को चार प्रकार का दान देवें। इस प्रकार शुद्धतापूर्वक विधिवत रूप से व्रत करने से सर्व सुख की प्राप्ति होती है तथा साथ ही क्रम से अक्षय सुख अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है।


Saturday, May 4, 2019

धर्म सभा समवशरण

🙏 समवशरण के बारे मे, जानते है🙏

*प्रशन---१--*
समवशरण किसे कहते है
उत्तर---- तीर्थंकर भगवान की उपदेश सभा अर्थात धर्मसभा को समवशरण कहते है समता का जहा पर हो अवतरण उसे कहते है समवशरण । जहाँ पर बैठकर तिर्यंच ,मनुष्य ,देव दिव्यध्वनि का श्रवन कर सुख -- शान्ति का अनुभव करते है और वर्तमान, भूत व भविष्य को जानते है ,देखते है ,उसे समवशरण कहते है।

*प्रशन--२--*
समवशरण मे कितने भवो के बारे मे देखा व जाना जा सकता है ?

उत्तर---- समवशरण मे स्थित जीव तीन भूतकाल के ,तीन भविष्य काल के और एक वर्तमान भव को भामण्डल मे दर्पण की भाति देखकर जान सकता है भगवान से पूछने पर अनेक भवो के बारे मे ग्यान प्राप्त कर सकता है।

 *प्रशन--३--*
समवशरण की रचना कब होती है ?

उत्तर---- जब तीर्थंकर को तपस्या के पश्चात केवलग्यान प्राप्त होता है तब समवशरण की रचना होती है।

*प्रशन--४--*
समवशरण की रचना कहा होती है ?

उत्तर----आकाश मे पृथ्वी से पांच हजार धनुष ( २० हजार हाथ ) की ऊँचाई पर अधर मे समवशरण की रचना होती है।

*प्रशन--५--*
समवशरण की रचना कौन करता है ?
उत्तर---- सौधर्म इंद्र की आग्या से कुबेर विक्रिया के द्वारा सम्पूर्ण तीर्थंकरो के समवशरण की विचित्र रूप से रचना करता

*प्रशन--६--*
समवशरण मे मनुष्य व तिर्यंच कैसे पहुचते है?

उत्तर---- पृथ्वी से लेकर समवशरण तक एक-- एक हाथ की ऊंची ,लम्बी व चौडी स्वर्णमय समवशरण के  चारो ओर  बीस -- बीस हजार सीढिया होती है जिन्हे प्रत्येक प्राणी मात्र 48 मिन्ट से पहले ही चढ़कर पहुच जाता है?

*प्रशन--6--*
समवशरण मे पहुंचने के बाद वहा क्या करते है?

उत्तर---- जो भव्य जीव समवशरण मे प्रवेश करते है वह साक्षात् भगवान के दर्शनों से व उनकी अमृतमय वाणी से नेत्र ,कर्ण व जीवन को सफल करता है ।

*प्रशन--7--*
समवशरण की रचना किस आकार की होती है?

उत्तर---- समवशरण की रचना गोल आकार की होती है।

*प्रशन--8---*
समवशरण मे कितनी भूमिया होती है ?

 उत्तर---- समवशरण मे आठ भूमिया होती है ।

*प्रशन--9--*
समवशरण मे स्थित भूमियो के नाम क्या -- क्या होते है ?

उत्तर---- चैत्य प्रासाद भूमि , खातिका भूमि , लता भूमि ,उपवन भूमि , ध्वजा भूमि , कल्पवृक्ष भूमि , भवन भूमि , और श्री मण्डप भूमि यह आठ प्रकार की भूमिया होती है

*प्रशन--10--*
इन आठ भूमियो मे तीर्थकर भगवान कहां पर विराजमान रहते है ?

 उत्तर---- समवशरण मे जो आठवीं श्री मण्डप भूमि होती है उसके बीचोबीच तीन कटनी से युक्त गन्धकुटी बनी होती है उसमे तीर्थंकर भगवान पद्मासन मे विराजमान होते है ।

 *प्रशन--11--*
समवशरण मे कितनी सभा कहां पर व किस प्रकार लगती है ?

उत्तर---- समवशरण मे श्री मण्डप नामक अष्टम भूमि मे गन्धकुटी के निकट चारो ओर गोलाकार मे बारह सभाएं लगती है ।

*प्रशन--12--*
समवशरण मे कौन जीव कहा तक प्रवेश कर पाते है  ?

 उत्तर---- समवशरण मे अत्यन्त भावुक ,श्रद्धालु व भव्य जीव ही अष्टम भूमि मे प्रवेश कर पाते है ,अन्य जीव प्रारम्भ की सात मनोरम ,मनोरंजक भूमि मे मनोरंजन करते रहते है अष्टम भूमि मे प्रवेश नही कर पाते है ।

*प्रशन--13--*
समवशरण की आठवी भूमि मे अभव्य जीव प्रवेश क्यो नही कर पाते है ?

उत्तर-- समवशरण मे सातवीं भूमि के आगे भव्य कूट नामक स्तूप होते है जिन्हे अभव्य जीव देख नही पाते है और उनके नेत्रो के सामने अंधकार छा जाता है।

*प्रशन--14--*
क्या समवशरण मे मिथ्यादृष्टि जीव सम्यकदर्शन प्राप्त कर सकते है?

उत्तर---- हां , समवशरण की सातवीं भूमि के बाद आठवीं भूमि मे प्रवेश से पहले मानस्तम्भ के दर्शन करने से और पात्रता और योग्यता तैयार हो तो सम्यकदर्शन प्राप्त हो सकता है ।

*प्रशन-15-*
मानस्तम्भ किसे कहते है?
उत्तर---- जिसके देखने मात्र से मान युक्त मिथ्यादृष्टि जीव का अभिमान गलित हो जाता है उसे मानस्तम्भ कहते है ।

*प्रशन--- १६--*
दिव्यध्वनि किसे कहते है ?

उत्तर---- तीर्थकर केवली के सर्वांग से एक विचित्र गर्जना  रूप जो ऊँकार ध्वनि अर्द्ध मागधी भाषा मे खिरती है उसे दिव्यध्वनि कहते है।

*प्रशन-- १७--*
भगवान आदिनाथ जी के समवशरण मे प्रमुख गणधर कौन थे ?

उत्तर---- भगवान् आदिनाथ जी के समवशरण मे प्रमुख गणधर वृषभसेन जी थे ।

 *प्रशन-- १८--*
भगवान् महावीर स्वामी जी के समवशरण मे प्रमुख गणधर कौन थे ?

उत्तर---- भगवान् महावीर स्वामी जी के समवशरण मे प्रमुख गणधर इन्द्रभूति गौतम स्वामी थे
🙏🙏🙏 जय जिनेंद्र 🙏🙏

गाय के गोबर का महत्व

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