Wednesday, July 31, 2019

कुंडली में सातवां भाव का फल

जन्म कुंडली में सातवें घर को सप्तम भाव कहते हैं एवं इसके  स्वामी को सप्तमेश कहते हैं ।

सप्तम भाव से पति पत्नी , वैवाहिक सुख , दैनिक रोजगार , पार्टनरशिप , काम शक्ति , मुतेन्द्रीय ,  गुप्तेन्द्रीय , वीर्य , नपुंसकता इत्यादि के बारे में विचार किया जाता है ।

सप्तम भाव का कारक शुक्र ग्रह होता है ।
पुरुषों के विवाह का कारक शुक्र को माना जाता है एवं स्त्रियों के विवाह का  कारण गुरु को माना जाता है ।

यदि सप्तम भाव , सप्तमेश एवं शुक्र ( गुरु ) पीड़ित ना हो तो  सामान्यतः  निम्न उम्र में विवाह होने की संभावना रहती है ।
 ( आधुनिक युग में सरकार के नियम एवं कानून के कारण कम उम्र में विवाह करना कानूनन अपराध है परंतु ज्योतिष के ग्रंथों में जो मान्य है मैं वह बता रहा हूँ । जिन ग्रहों के विवाह का समय  बिल्कुल कम  उम्र में बताए गए हैं  इसका मतलब यही मानना चाहिए कि विवाह बहुत जल्द होगा । )

बुध सप्तमेश हो तो  16 - 18 वर्ष में । मंगल 18 वर्ष में । शुक्र 20 वर्ष में । चंद्र 22 वर्ष में । गुरु 24 वर्ष में । सूर्य 26 वर्ष में । शनि 28 वर्ष में ।

सप्तमेश तथा शुक्र यदि लग्न पंचम नवम अथवा एकादश भाव में इकट्ठे हो तो व्यक्ति को विवाह के फलस्वरूप स्त्री  पक्ष से अच्छे धन की प्राप्ति होती है ।

सप्तम भाव में सम राशि हो ,  सप्तमेश भी सम राशि में विराजमान हो और सप्तम का कारक शुक्र सम राशि में हो तथा सप्तमेश शुभ एवं बलवान है तो ऐसे व्यक्ति को सुंदर पत्नी प्राप्त होती है ।

सूर्य , शनि  , राहु या द्वादशेश  में से दो अथवा दो से अधिक ग्रहों का प्रभाव   सप्तम भाव , सप्तमेश तथा सप्तम भाव के कारक शुक्र पर पड़ता है तो मनुष्य अपने जीवन साथी से पृथक (तलाक ) हो जाता है ।

सप्तम भाव के स्वामी को मारकेश  भी कहते हैं जिसका वर्णन द्वितीय भाव में कर चुका हूँ ।

यदि सप्तमेश एवं शुक्र कमजोर हो एवं सप्तम भाव पर किसी मित्र ग्रह की दृष्टि ना हो तो ऐसे व्यक्ति के विवाह में समस्या होती है या कई बार ऐसे व्यक्ति की विवाह नहीं  होती  है ।

सप्तम भाव या सप्तमेश पर किसी क्रूर एवं शत्रु ग्रह का प्रभाव  हो या किसी प्रकार का संबंध हो तो पति-पत्नी में आपस में मतभेद बना रहता हैं ।

जन्म कुंडली में यदि मंगल प्रथम भाव में , चतुर्थ भाव में ,  सप्तम भाव में , अष्टम भाव में या द्वादश भाव में विराजमान हो तो मांगलिक योग का निर्माण होता है।  परंतु कोई आवश्यक नहीं है की मांगलिक दोष के कारण वैवाहिक जीवन में परेशानी हो ।  उसके लिए और भी ग्रहों की दृष्टि का प्रभाव एवं मंगल के बल को देखना भी आवश्यक है । ( कुछ लोगो का मानना है कि  ऐसे भी योग हैं जिसके कारण इन भावों में मंगल के विराजमान होने के बाद भी मांगलिक दोष नहीं लगता है । )

( सप्तम भाव से संबंधित बहुत सारे योग होते हैं जैसे प्रेम विवाह ,  नपुंसकता ,  चारित्रिक दोष परंतु मेरा मानना है कि ऐसे योगों को बारे में सोशल मीडिया पर नहीं लिखना चाहिए क्योंकि कई बार किसी की जन्म कुंडली गलत होती है और उसमें ऐसा योग दिख जाए तो  बिना वजह पति पत्नी में मतभेद हो सकता है।

राजयोग कैसे बनता है -नीच ग्रहों के द्वारा

नीच ग्रह भी बना सकते हैं राजयोग

किसी जन्म कुंडली में ग्रह जितने अधिक बली होते हैं, जन्म कुंडली उतनी ही अधिक प्रभाव शाली मानी जाती हैं । माना जाता हैं कि जिस जन्म कुंडली में जितने अधिक उच्च ग्रह होंगे वह उतनी ही मजबूत जन्म कुंडली होती है । इसके विपरीत नीच के ग्रह होने पर जन्म कुंडली प्रभाव हीन मानी जाती हैं, आजकल तो यह प्रथा सी बन गयी हैं कि नीच ग्रह को देखते ही सारे अशुभ फल का कारक उसे ही घोषित कर दिया जाता हैं । भले ही वह प्रभाव किसी भी अन्य ग्रह के द्वारा दिया गया हो । इस सबमे सबसे बडे दुर्भाग्य कि बात यह होती हैं की जिस वजह से व्यक्ति वास्तविक रूप से परेशान था, उस वजह को गौण कर दिया जाता हैं, और समस्या जैसी की तैसी बनी रहती हैं । उनके फलित में जमीन आसमान का फर्क होता हैं ।
हमारे अलग अलग ज्योतिषिय ग्रन्थो में इस बात का वर्णन हैं की जन्म कुंडली में नीच ग्रह का बुरा प्रभाव भंग भी हो जाता हैं । कई परिस्थिति में तो यह नीच ग्रह राजयोग तक का निर्माण करते हैं । इनका फल आश्चर्य जनक रूप से प्राप्त होता हैं । जो दिखता हैं वो वैसा ही हो यह जरुरी नही हैं, अर्थात हकीकत बिल्कुल विपरीत हैं जन्म कुंडली में सभी नीच ग्रह अशुभ फल नही देते हैं । अधिकतर इनका फल उसकी स्थिति तथा अन्य ग्रहो का उस पर पडने वाले फल पर निर्भर करता हैं ।
जिन जातको की जन्म कुंडली में नीचभंग राजयोग होता हैं वो जातक चट्टानो से जल निकालने की क्षमता रखते हैं । ऐसे जातक बहुत अधिक मेहनती होते है, और अपने दम पर एक मुकाम हासिल करते हैं । ये जातक जिस क्षेत्र में भी जाते हैं वही अपनी अमिट छाप बना देते हैं । चाहे दुनिया इनके पक्ष में हो या विपक्ष में इनको सफलता मिलना तय होता हैं । कैसे बनते हैं ये योग इस पर चर्चा करे –
1- किसी नीच ग्रह से कोई उच्च का ग्रह जब दृष्टी सम्बंध या क्षेत्र सम्बंध बनाता हैं तो यह स्थिति नीच भंग राज योग बनाने वाली होती हैं ।
2- नीच का ग्रह अपनी उच्च राशि के स्वामी के प्रभाव में हो ( युति या दृष्टी सम्बंध हो) नीच भंग योग बनता हैं ।
3- परस्पर दो नीच ग्रहो का एक दूसरे को देखना भी नीच भंग योग होता हैं ।
4- नीच राशि के स्वामी ग्रह के साथ होना या उसके प्रभाव में होना नीच भंग होता हैं ।
5- चंद सूर्य से केंद्रगत होने पर भी नीच ग्रह का दोष समाप्त हो जाता हैं ।
6- जन्म कुंडली के योगकारक ग्रह तथा लग्नेश से सम्बंध होने पर नीच भंग राजयोग बनता हैं
7- नीच ग्रह नवांश कुंडली में उच्च का हो तो नीच भंग राजयोग बनता हैं ।
8- दो उच्च ग्रहो के मध्य स्थित नीच ग्रह भी उच्च समान फल दायी होता हैं ।
9- नीच का ग्रह वक्री हो तो नीच भंग राज योग बनता हैं ।
10- नीच राशि में स्थित ग्रह उच्च ग्रह के साथ स्थित हो तो नीच भंग राजयोग बनाता हैं ।

ज्योतिष के आधार तत्व

अगर आप पता लगाना चाहें कि आपकी राशि क्या है और आपकी संगत राशियां कौन सी हैं, तो आप सही जगह पर हैं। यहाँ आप राशि ज्योतिष, राशि संगतता और राशि की तिथियों के बारे में सभी जानकारी प्राप्त कर पाएंगे।

कुल 12 ज्योतिष राशियाँ होती हैं, और प्रत्येक राशि की अपनी ताकत और कमजोरियां, अपने स्वयं के विशिष्ट गुण, इच्छा एवं जीवन तथा लोगों के प्रति रवैया होता है। आकाश की छवियों, या जन्म के समय ग्रहों की स्थिति के विश्लेषण के आधार पर ज्योतिष हमें एक व्यक्ति की बुनियादी विशेषताओं, प्राथमिकताओं, कमियों और भय की एक झलक दे सकता है। अगर हम राशियों की बुनियादी विशेषताओं को जान लें तो हम वास्तव में लोगों को बहुत बेहतर जान सकते हैं।

राशिफल की 12 राशियों में से प्रत्येक एक विशिष्ट राशि तत्व के अंतर्गत आती हैं। चार राशिचक्र तत्व हैं: वायु, अग्नि, पृथ्वी और जल और उनमें से हरेक हमारे भीतर कार्यरत एक अनिवार्य प्रकार की उर्जा का प्रतिनिधित्व करते हैं। ज्योतिष का लक्ष्य हमें सकारात्मक पहलुओं पर इन ऊर्जा का ध्यान केंद्रित करना और हमारे सकारात्मक गुणों की एक बेहतर समझ पाने और नकारात्मकता से निपटने में मदद करना है।

हम सभी में यह चार तत्व मौजूद हैं और वे ज्योतिषीय राशियों से जुड़े चार विलक्ष्ण व्यक्तित्व प्रकारों का वर्णन करते हैं। चार राशिचक्र तत्व बुनियादी चरित्र गुणों, भावनाओं, व्यवहार और सोच पर गहरा प्रभाव दर्शाते हैं।

जल राशि
जल राशि के जातक असाधारण भावनात्मक और अति संवेदनशील लोग होते हैं। वे अत्यंत सहज होने के साथ ही समुद्र के समान रहस्यमयी भी हो सकते हैं। जल राशि की स्मृति तीक्ष्ण होती है और वे गहन वार्तालाप और अंतरंगता से प्यार करते है। वे खुले तौर पर अपनी आलोचना करते हैं और अपने प्रियजनों का समर्थन करने के लिए हमेशा मौजूद रहते हैं। जल राशियाँ हैं: कर्क, वृश्चिक और मीन।

अग्नि राशि
अग्नि राशि के जातक भावुक, गतिशील और मनमौजी प्रवृति के होते हैं। उन्हें गुस्सा जल्दी आता है, लेकिन वे सरलता से माफ भी कर देते हैं। वे विशाल ऊर्जा के साथ साहसी होते हैं। वे शारीरिक रूप से बहुत मजबूत और दूसरों के लिए प्रेरणा स्रोत होते हैं। अग्नि राशि के जातक हमेशा कार्रवाई के लिए तैयार, बुद्धिमान, स्वयं जागरूक, रचनात्मक और आदर्शवादी होते हैं। अग्नि राशियाँ हैं: मेष, सिंह और धनु।

पृथ्वी राशि
पृथ्वी राशि के लोग ग्रह पर "धरती" से जुड़े हुए होते हैं और वे हमें व्यवहारिक बनाते हैं। वे ज्यादातर रूढ़िवादी और यथार्थवादी होते हैं, लेकिन साथ ही वे बहुत भावुक भी हो सकते हैं। उन्हें विलासिता और भौतिक वस्तुओं से प्यार होता है। वे व्यावहारिक, वफादार और स्थिर होते हैं और वे कठिन समय में अपने लोगों का पूरा साथ देते हैं। पृथ्वी राशियाँ हैं: वृष, कन्या और मकर।

वायु राशि
वायु राशि के लोग अन्य लोगों के साथ संवाद करने और संबंध बनाने वाले होते हैं। वे मित्रवत्, बौद्धिक, मिलनसार, विचारक, और विश्लेषणात्मक लोग हैं। वे दार्शनिक विचार विमर्श, सामाजिक समारोह और अच्छी पुस्तकें पसंद करते हैं। सलाह देने में उन्हें आनंद आता है, लेकिन वे बहुत सतही भी हो सकती है। वायु राशियाँ हैं: मिथुन, तुला और कुंभ।

राशि प्रेम संगतता चार्ट
ज्योतिष में कोई भी असंगत राशि नहीं होती जिसका अर्थ है कि कोई भी दो राशि अधिक या कम संगत होती हैं। जिन दो लोगों की राशियों में अत्यधिक संगतता होती है, वे सरलता से निर्वाह करेंगे क्योंकि उनकी प्रवृति एक समान है। परंतु, ऐसे लोग जिनकी राशियों में संगतता कम होती हैं, उन्हें एक खुश और सौहार्दपूर्ण संबंध हासिल करने के क्रम में अधिक धैर्यवान एवं विनम्र बने रहने की आवश्यकता होगी।

जैसा कि हम सभी जानते हैं, राशियाँ चार तत्वों से संबंधित हैं:

अग्नि: मेष, सिंह, धनु

पृथ्वी: वृष, कन्या, मकर

वायु: मिथुन, तुला, कुंभ

जल: कर्क, वृश्चिक, मीन

राशियाँ जिनके तत्व एक समान हैं, स्वाभाविक रूप से उनमें संगतता होती है क्योंकि वे एक दूसरे को सबसे बेहतर समझते हैं। ज्योतिष की एक शाखा काम ज्योतिष है जहाँ राशियों के बीच प्रेम संबंध की गुणवत्ता जानने के लिए दो जातक कुंडलियों में तुलना करते हैं। काम ज्योतिष या एक लग्न राशिफल उन जातकों के लिए एक उपयोगी उपकरण हो सकता है, जो अपने रिश्ते में शक्तियों और कमजोरियों का पता लगाना चाहते हैं। राशियों की तुलना करना जीवनसाथी को बेहतर समझ पाने में भी मदद कर सकता है, जिसका परिणाम एक बेहतर संबंध के रूप में होगा।

निम्नलिखित चार्ट राशियों की ज्योतिष प्रेम संगतता दर्शाता है। चार्ट पर एक नज़र डालें और देखें कौन सी राशियाँ एक साथ बेहतर कर रही हैं!

राशि संगतता चार्ट को पढ़ने के लिए, बस बाएँ कॉलम में अपनी राशि खोजें और अपने साथी की राशि के लिए संगत स्तंभ में स्थित दिल के आकार को देखें। जितना बड़ा दिल होगा, आपकी संगतता उतनी ही ज्यादा होगी!


राशि प्रेम संगतता चार्ट


चीनी ज्योतिष
चीनी ज्योतिष पारंपरिक खगोल विज्ञान पर आधारित है। चीनी ज्योतिष का विकास उस खगोल विज्ञान से बंधा है जो हान राजवंश के दौरान पनपा था। चीनी राशिचक्र दुनिया में सबसे पुरानी ज्ञात राशिफल प्रणाली मानी जाती है और बारह जानवर किसी विशेष वर्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं। चीनी ज्योतिष के अनुसार, एक व्यक्ति के जन्म का वर्ष इन जानवरों में से किसी एक का प्रतिनिधित्व करता है। बारह पशु राशियां या राशि प्रतीक हैं चूहा, बैल, बाघ, खरगोश, ड्रैगन, सांप, घोड़ा, भेड़, बंदर, मुर्गा, कुत्ता और सुअर। चीनी ज्योतिष में भी प्रकृति के पांच तत्व हैं अर्थात्: जल, लकड़ी, अग्नि, पृथ्वी एवं धातु। चीनी ज्योतिष के अनुसार, एक व्यक्ति की किस्मत को ग्रहों की स्थिति और व्यक्ति के जन्म के समय सूर्य और चंद्रमा की स्थिति से निर्धारित किया जा सकता है। चीनी लोग मानते हैं कि हमारा जन्म वर्ष हमारे दृष्टिकोण और क्षमता का पता लगा सकता है, और यह कि जानवर जन्म राशि में प्रतीकवाद होता है और किसी विशिष्ट व्यवहार को दर्शाते हैं।

वैदिक ज्योतिष
खगोल विज्ञान एवं ज्योतिषशास्त्र की पारंपरिक हिंदू प्रणाली ज्योतिष है, जिसे हिन्दू या भारतीय ज्योतिषशास्त्र या विगत कुछ समय से वैदिक ज्योतिष के रूप में जाना जाता है। वैदिक ज्योतिष राशिफल तीन मुख्य शाखाओं में विभाजित हैं: भारतीय खगोल विज्ञान, सांसारिक ज्योतिष और भविष्यसूचक ज्योतिष। भारतीय ज्योतिष में हमारे चरित्र को प्रकट किया जा सकता है, हमारे भविष्य की भविष्यवाणी की जा सकती है, और हमारी सबसे संगत राशियों को प्रकट किया जा सकता है। वैदिक ज्योतिष द्वारा हमें दिया गये सबसे उत्तम उपकरणों में से एक राशिफल संगतता है। निरायण (नक्षत्र राशिचक्र) 360 डिग्री का एक काल्पनिक क्षेत्र है, जिसे उष्णकटिबंधीय राशिचक्र की तरह बारह बराबर भागों में विभाजित किया गया है। पश्चिमी ज्योतिष के विपरीत जिसमें चलते राशिचक्र का उपयोग किया जाता है, वैदिक ज्योतिष स्थिर राशिचक्र का उपयोग करता है। तो, वैदिक राशिचक्र प्रणाली में आपकी ग्रह राशि वह नहीं है जो आपने सोची थी।

माया ज्योतिष
माया ज्योतिष माया कैलेंडर पर आधारित है और यह सबसे आगे की सोच रखने वाले ज्योतिष में से एक है। माया कैलेंडर या ज़ोल्किन ब्रह्मांड की अमूर्त ऊर्जा और सृष्टि के विकास पर आधारित है। ज़ोल्किन कैलेंडर में बीस दिवस राशियाँ (सौर जनजातियाँ) और तेरह आकाशगंगा संख्या होती हैं, जो 260 दिन का एक कैलेंडर वर्ष बनाते हैं। प्राचीन मायावासी मानते थे कि जीवन में शांति और सद्भाव के लिए, आपको इस सार्वभौमिक ऊर्जा को समझना और उसके साथ अपने आप को समायोजित करना होता था। इन बीस राशियों में से प्रत्येक माया कैलेंडर में एक दिन को दर्शाती हैं, इस प्रकार विभिन्न महीने और वर्ष के व्यक्तियों में एक समान दिवस चित्रलिपि साझा करने की अनुमति देती है। किसी की माया दिवस राशि उसकी/उसके व्यक्तित्व को परिभाषित करती है।

हम ज्योतिष में विश्वास क्यों करते हैं
हम जीवन में किसी भी अंधविश्वास पर विश्वास क्यों करते हैं, उपरोक्त प्रश्न का उत्तर उस दायरे में ही निहित है। लोग ज्योतिष में विश्वास करते हैं क्योंकि यह कई प्रकार की वांछनीय बातें प्रदान करता है जैसे जानकारी और भविष्य के बारे में आश्वासन, उनकी परेशानियों को हल करने, और अपने साथियों, परिवार और मित्रों के साथ अपने रिश्तों में सुधार करने के तरीके आदि।

ज्योतिषशास्त्र का दावा है कि जीवन में कुछ भी संयोगवश नहीं होता, और हमें जो कुछ भी होता है वह सब किसी एक विशेष कारण से है। ज्योतिष हमें कुछ अच्छे उत्तर प्रदान कर सकता है कि ऐसी चीजें हमारे साथ क्यों होती हैं, और यह उन्हें पहले से भविष्यवाणी भी कर सकता है। इस तरह, वास्तव में ज्योतिष लोगों को उनके चारों ओर दुनिया को बहुत बेहतर समझने में मदद करता है।

जैसा आज अभ्यास किया जाता है, ज्योतिष काफी अच्छी तरह से काम कर सकता है। ज्योतिषियों के पास जाने वाले या नियमित रूप से अपनी राशिफल का अध्ययन करने वाले लोग अंततः सबसे ज्यादा खुश और संतुष्ट महसूस करते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी राशिफल तिथि के आधार पर ज्योतिषियों ने उनके भविष्य के लिए बिलकुल सटीक भविष्यवाणी की है, लेकिन इसका मतलब है कि वास्तव में एक राशिफल होना अपने आप में एक पूर्ण अनुभव हो सकता है।

पृथ्वी तारामंडल के नीचे स्थित है जिसे अब हर कोई अपनी ग्रहराशि के रूप में जानता है। बहुत से लोग लगन से अपनी राशिफल का अनुकरण करते हैं और अपनी ज्योतिष राशि के अर्थ में विश्वास करते हैं। यह आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि ज्योतिष व्यापक रूप से लोकप्रिय है और दुनिया में हर कोई अपनी राशिफल तिथि और राशियों को जानता है। लोग अपनी राशिफल राशियों की भविष्यवाणी को पढ़ने का आनंद लेते हैं और अक्सर यह व्यक्तित्व, व्यवहार और निर्णय लेने की प्रक्रिया में परिवर्तन की ओर ले जाता है।

ज्योतिषशास्त्र एक वास्तविक जीवन रक्षक हो सकता है क्योंकि यह आपको अग्रिम में भविष्य की बाधाओं और समस्याओं को बता देता है। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप एक राशिफल अध्ययन में दी गई सलाह और सावधानियों पर विश्वास करते हैं, और ज्यादा मेहनत किए बिना कष्ट से खुद को बचाना चाहते हैं अथवा नहीं।

लोग ज्योतिष में विश्वास करते हैं, क्योंकि यह बस मजेदार है। राशिचक्र तिथि, राशियाँ, थोड़ा भाग्य बताने के उपाय और बहुत कुछ। हम अपने जीवन के लगभग सभी पहलुओं को राशियों से संबद्ध कर सकते हैं और हम देखेंगे कि वे सही मायने में व्यावहारिक और ठीक हैं। हमारी राशिफल विलक्ष्ण होती है और वे हमारी ताकत, कमजोरी खोजने में मदद के साथ ही हमारे प्राकृतिक गुणों को भी प्रकट कर सकती है।

ज्योतिष हमें यह जानने में मदद कर सकता है कि कौन से रिश्ते संगत हैं - और कौन से नहीं। राशिफल संगतता अन्य राशियों के साथ हमारे रिश्तों में सुधार कर सकती है। अपने प्यार की क्षमता के बारे में जान कर, आप अवसरों का सबसे अच्छा उपयोग करते हुए एक खुशनुमा प्यारभरा या विवाहित जीवन व्यतीत करने के लिए उचित उपाय कर सकते हैं।

ज्योतिष दो प्रमुख पहलुओं को ध्यान में रखता है - हमारे संभावित जन्म और हमारी व्यक्तिगत राशिफल पर सितारों व ग्रहों का प्रभाव। यह हमें एक अच्छा और सफल जीवन व्यतीत करने के क्रम में हमारे लिए सही करियर और शिक्षा पथ चुनने में मदद कर सकता है।

अंततः हम ज्योतिष में विश्वास करते हैं क्योंकि यह हमारे बारे में है। मेरी राशिफल मेरे जीवन में उस एक ब्लूप्रिंट की तरह है, जिसे ठीक उस समय बनाया गया जब मैं पैदा हुआ था। इसका मतलब है कि मेरी जन्म राशिफल भी मेरी उंगलियों के निशान की तरह ही एकदम विलक्ष्ण है। मेरी राशिफल में प्रत्येक ग्रह की स्थिति मेरे व्यक्तित्व और भाग्य के बारे में बहुत कुछ बता सकती है।

ज्योतिषशास्त्र के बारे में कुछ सच्चे तथ्य
1999 में हुए एक अध्ययन के अनुसार, राशिफल और ज्योतिष शब्द इंटरनेट पर दो सबसे अधिक खोजे गये विषय हैं।

ज्योतिषशास्त्र को कला और विज्ञान दोनों माना जाता है। ज्योतिषशास्त्र कला है क्योंकि किसी व्यक्ति के चारित्रिक गुणों पर विचार बनाने के लिए अलग-अलग पहलुओं को एक साथ लाने के लिए व्याख्या करने की जरूरत होती है। हालांकि, ज्योतिषशास्त्र को विज्ञान भी माना जाता है क्योंकि इसमें खगोल विज्ञान और गणित की समझ होना अति आवश्यक है।

सिक्सटस चतुर्थ राशिफल बनाने और उसकी व्याख्या करने वाला प्रथम कैथोलिक पोप था, लियो दशम और पॉल तृतीय ने सलाह के लिए हमेशा ज्योतिषियों पर भरोसा किया था, जबकि जूलियस द्वितीय ने अपनी ताजपोशी की तिथि को ज्योतिष की दृष्टि से चुना था।

नाजी जर्मनी के तानाशाह एडॉल्फ हिटलर के लिए ज्योतिषशास्त्र बहुत महत्वपूर्ण था। माना जाता है कि इस जर्मन नेता ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ज्योतिषियों से विचार विमर्श किया था।

स्थानिक ज्योतिषशास्त्र की एक विधि ज्योतिषीय मानचित्रीकरण है जो भौगोलिक स्थिति में अंतर के माध्यम से बदलती जीवन परिस्थितियों की पहचान करने का दावा करती है। कथित तौर पर आप सबसे अधिक सफल कहाँ होंगे, अपनी जन्म-पत्री की तुलना दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों के लिए करके उस क्षेत्र का निर्धारण कर सकते हैं।

Monday, July 29, 2019

सूर्य ग्रह का लग्नों का फल

लग्न में सूर्य का प्रभाव

लग्न में सूर्य की स्थिति सौभाग्य एवं प्रगति का प्रतीक  है. मकर, कुम्भ, मीन, मेष, वृषभ और मिथुन में लग्नस्थ सूर्य जातक को अहंकारी, स्वार्थी तथा सत्ता लोभी बनाता है तथा कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक तथा धनु में लग्नस्थ सूर्य जातक को गुणी, विनम्र, दयालु तथा बुद्धिमान बनाता है.

लग्न में सूर्य जातक को लम्बा कद और दुबली पतली देह सुंदर एवं स्वस्थ बनता है .  दृढ स्वभाव, धैर्यशीलता, स्वाभिमान, उदार व् महत्वाकांक्षी भी लग्नस्थ सूर्य ही बनाता .

लग्न में सूर्य होने से जातक का जीवन सूर्य के समान उन्नति करता है. बाल्यकाल में जितना सुख मिलता है उससे कहीं अधिक सुख युवावस्था या प्रौढ़ावस्था में भोगता है.


लग्नस्थ सूर्य प्रबल इच्छा शक्ति देता है. आत्मविश्वास और नेतृत्व के गुण भी लग्न में बैठे सूर्य के परिचायक हैं, इसी कारण जिनके लग्न में सूर्य हो वह अपने अधिकारों के प्रति बहुत सजग होते हैं और अपने अधिकारों का हनन उनको बर्दाश्त नहीं होता है. कभी कभी अपने और अपने लक्ष्यों के प्रति सजगता इतनी हावी हो जाती है कि वह दूसरों के प्रति लापरवाह हो जाते हैं.

लगन्स्थ सूर्य सिर में रोग या चोट का खतरा देता है. नेत्र रोग और पित्त रोग का खतरा भी बना रहता है.

लग्न में सूर्य कभी कभी जातक को विदेशी सम्बन्ध या विदेश जाकर धन कमाने की स्थितियां पैदा करता है.

लग्नस्थ सूर्य जातक को असंतोषी भी बनता है परन्तु दूसरों को उत्साहित करने की क्षमता ऐसे जातकों में बहुत अच्छी होती है.

पारिवारिक सम्बन्ध सामान्य रहता है. अपितु जीवन साथी से कलेश या दुःख मिलता है.

मेष , मिथुन, कर्क, सिंह, तुला, मकर, कुम्भ तथा मीन राशि का सूर्य लग्न में होने से जातक मंच कलाकार , अभिनेता , कुशल नाटककार होता है.

धनु, कर्क, वृश्चिक और मीन राशि का लग्नस्थ सूर्य जातक को विद्वान् एवं गुणी बनाता है.

कर्क लग्न में लग्नस्थ सूर्य जातक को अपने परिवार से बहुत प्रेम करने वाल बनाती है.  वृश्चिक लग्न में लग्नस्थ सूर्य जातक को कुशल चिकित्सक बनाता है.

उच्च राशी स्थित सूर्य या शुभ ग्रह की दृष्टि युक्त लग्नस्थ  सूर्य जातक को नैतिकतावादी, श्रद्धा एवं विशवास पात्र बनाती है. सामाजिक पद प्रतिष्ठा एवं सम्मान की स्थिति भी बनती है.

अग्नि तत्व राशि (मेष, सिंह, धनु ) के लग्नस्थ सूर्य के लक्षण

रोग: बाल्यावस्था में चेचक और खसरा रोग देता है.

स्वभाव : जातक शांत और विनम्र दिखाई पड़ता है परन्तु सूर्य अग्नितत्व क्रूर गृह होने के कारण जातक महत्वाकांक्षी , सत्ता लोभी, क्रोधी , हठी तथा कभी कभी आक्रामक भी हो जाता है.

भूतत्व तत्व राशि (वृषभ, मकर, कन्या ) के लग्नस्थ सूर्य के लक्षण

रोग: नेत्र रोग देता है.

स्वभाव : जातक उद्दंड , मनमानी करने वाला तथा प्रतिष्ठित लोगों को उचित सम्मान न देने वाला परन्तु अपनी धुन का पक्का एवं परिश्रमी होता है.

वायु तत्व राशि (तुला, कुम्भ, मिथुन) के लग्नस्थ सूर्य के लक्षण

रोग: ज्वर की संभावना अधिक रहती है.

स्वभाव : जातक न्यायप्रिय , उदार , कला व् साहित्य प्रेमी होता है.

जल तत्व राशि (कर्क, वृश्चिक, मीन  ) के लग्नस्थ सूर्य के लक्षण

रोग: ह्रदय रोग, रक्त सम्बन्धी विकार , खांसी तथा ज्वर की संभावना अधिक रहती है.

स्वभाव : जातक सुंदर स्त्रियों के प्रति आकर्षित रहता है.

Sunday, July 28, 2019

योग विज्ञान का परिचय

*योग, ध्यान, प्राणायाम, मुद्राएं*

               योगाचार्य
*डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य*

योग का संक्षिप्त इतिहास (History of Yoga)

योग का उपदेश सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने सनकादिकों को, पश्चात विवस्वान (सूर्य) को दिया। बाद में यह दो शाखाओं में विभक्त हो गया। एक ब्रह्मयोग और दूसरा कर्मयोग। ब्रह्मयोग की परम्परा सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरि, वोढु और पच्चंशिख नारद-शुकादिकों ने शुरू की थी। यह ब्रह्मयोग लोगों के बीच में ज्ञान, अध्यात्म और सांख्य योग नाम से प्रसिद्ध हुआ।दूसरी कर्मयोग की परम्परा विवस्वान की है। विवस्वान ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को, इक्ष्वाकु ने राजर्षियों एवं प्रजाओं को योग का उपदेश दिया। उक्त सभी बातों का वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है। वेद को संसार की प्रथम पुस्तक माना जाता है जिसका उत्पत्ति काल लगभग 10,000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। पुरातत्ववेत्ताओं अनुसार योग की उत्पत्ति 5000 ई.पू. में हुई। गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा।भारतीय योग जानकारों के अनुसार योग की उत्पत्ति भारत में लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक समय पहले हुई थी। योग की सबसे आश्चर्यजनक खोज 1920 के शुरुआत में हुई। 1920 में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने ‘सिंधु सरस्वती सभ्यता’ को खोजा था जिसमें प्राचीन हिंदू धर्म और योग की परंपरा होने के सबूत मिलते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता को 3300-1700 बी.सी.ई. पुरानी माना जाती है।

योग का वर्णन वेदों में, फिर उपनिषदों में और फिर गीता में मिलता है लेकिन पतंजलि और  गुरु गोरखनाथ ने  योग के बिखरे हुए ज्ञान को  व्यवस्थित रूप से लिपिबद्ध किया।

योग हिन्दू धर्म के छह दर्शनों में से एक है। ये छह दर्शन हैं..
1. न्याय

2. वैशेषिक

3. मीमांसा

4. सांख्य

5. वेदांत

6. योग।

योग के आठ मुख्य अंग: यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।

इसके अलावा क्रिया, बंध, मुद्रा और अंग-संचालन इत्यादि कुछ अन्य अंग भी गिने जाते हैं, किंतु ये सभी उन आठों के ही उपांग (उप-अंग) हैं। अब हम योग के प्रकार, योगाभ्यास की बाधाएं, योग का इतिहास, योग के प्रमुख ग्रंथ की थोड़ी चर्चा करेंगे।

योग के प्रकार:

राजयोग, 2. हठयोग, 3.लययोग,  4. ज्ञानयोग, 5.कर्मयोग और 6. भक्तियोग।
इसके अलावा बहिरंग योग, नाद योग, मंत्र योग, तंत्र योग, कुंडलिनी योग, साधना योग, क्रिया योग, सहज योग, मुद्रायोग, और स्वरयोग आदि। योग के अनेक आयामों की चर्चा की जाती है। लेकिन सभी उक्त छह में समाहित हैं।




अष्टांग योग
1.पांच यम: अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।

2.पांच नियम: शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान।

3. आसन: किसी भी आसन की शुरुआत  लेटकर अर्थात शवासन (चित्त लेटकर) और मकरासन (औंधा लेटकर) में और बैठकर अर्थात दंडासन और वज्रासन में, खड़े होकर अर्थात सावधान मुद्रा या नमस्कार मुद्रा से होती है। यहां सभी तरह के आसन के नाम दिए गए हैं। कुछ आसनों के नाम….

सूर्यनमस्कार, 2. आकर्णधनुष्टंकारासन, 3. उत्कटासन, 4.उत्तान कुक्कुटासन, 5.उत्तानपादासन, 6.उपधानासन, 7.ऊर्ध्वताड़ासन, 8.एकपाद ग्रीवासन, 9.कटि उत्तानासन10.कन्धरासन, 11.कर्ण पीड़ासन, 12.कुक्कुटासन, 13.कुर्मासन, 14.कोणासन, 15.गरुड़ासन 16.गर्भासन, 17.गोमुखासन, 18.गोरक्षासन, 19.चक्रासन, 20.जानुशिरासन, 21.तोलांगुलासन 22.त्रिकोणासन, 23.दीर्घ नौकासन, 24.द्विचक्रिकासन, 25.द्विपादग्रीवासन, 26.ध्रुवासन 27.नटराजासन, 28.पक्ष्यासन, 29.पर्वतासन, 30.पशुविश्रामासन, 31.पादवृत्तासन 32.पादांगुष्टासन, 33.पादांगुष्ठनासास्पर्शासन, 34.पूर्ण मत्स्येन्द्रासन, 35.पॄष्ठतानासन 36.प्रसृतहस्त वृश्चिकासन, 37.बकासन, 38.बध्दपद्मासन, 39.बालासन, 40.ब्रह्मचर्यासन 41.भूनमनासन, 42.मंडूकासन, 43.मर्कटासन, 44.मार्जारासन, 45.योगनिद्रा, 46.योगमुद्रासन, 47.वातायनासन, 48.वृक्षासन, 49.वृश्चिकासन, 50.शंखासन, 51.शशकासन52.सिंहासन, 53.सिद्धासन, 54.सुप्त गर्भासन, 55.सेतुबंधासन, 56.स्कंधपादासन, 57.हस्तपादांगुष्ठासन, 58.भद्रासन, 59.शीर्षासन, 60.सूर्य नमस्कार, 61.कटिचक्रासन, 62.पादहस्तासन, 63.अर्धचन्द्रासन, 64.ताड़ासन, 65.पूर्णधनुरासन, 66.अर्धधनुरासन, 67.विपरीत नौकासन, 68.शलभासन, 69.भुजंगासन, 70.मकरासन, 71.पवन मुक्तासन, 72.नौकासन, 73.हलासन, 74.सर्वांगासन, 75.विपरीतकर्णी आसन, 76.शवासन, 77.मयूरासन, 78.ब्रह्म मुद्रा, 79.पश्चिमोत्तनासन, 80.उष्ट्रासन, 81.वक्रासन, 82.अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, 83.मत्स्यासन, 84.सुप्त-वज्रासन, 85.वज्रासन, 86.पद्मासन आदि।
4. प्राणायाम : प्राणायाम के पंचक, पांच प्रकार की वायु:  व्यान, समान, अपान, उदान और प्राण।

प्राणायाम के प्रकार:  1.पूरक,  2.कुम्भक और  3.रेचक।

इसे ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भन वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं।  अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्य कुम्भक कहते हैं।

प्रमुखप्राणायाम:  1.नाड़ीशोधन, 2.भ्रस्त्रिका, 3.उज्जाई, 4.भ्रामरी, 5.कपालभाती, 6.केवली, 7.कुंभक, 8.दीर्घ, 9.शीतकारी, 10.शीतली, 11.मूर्छा, 12.सूर्यभेदन, 13.चंद्रभेदन,14.प्रणव, 15.अग्निसार, 16.उद्गीथ, 17.नासाग्र, 18.प्लावनी, 19.शितायु आदि।
अन्य प्राणायाम: 1.अनुलोम-विलोम प्राणायाम, 2.अग्नि प्रदीप्त प्राणायाम, 3.अग्नि प्रसारण प्राणायाम, 4.एकांड स्तम्भ प्राणायाम, 5.सीत्कारी प्राणायाम, 6.सर्वद्वारबद्व प्राणायाम, 7.सर्वांग स्तम्भ प्राणायाम, 8.सप्त व्याहृति प्राणायाम, 9.चतुर्मुखी प्राणायाम, 10.प्रच्छर्दन प्राणायाम, 11.चन्द्रभेदन प्राणायाम, 12.यन्त्रगमन प्राणायाम, 13.वामरेचन प्राणायाम,14.दक्षिण रेचन प्राणायाम, 15.शक्ति प्रयोग प्राणायाम, 16.त्रिबन्धरेचक प्राणायाम, 17.कपाल भाति प्राणायाम, 18.हृदय स्तम्भ प्राणायाम, 19.मध्य रेचन प्राणायाम, 20.त्रिबन्ध कुम्भक प्राणायाम, 21.ऊर्ध्वमुख भस्त्रिका प्राणायाम, 22.मुखपूरक कुम्भक प्राणायाम, 23.वायुवीय कुम्भक प्राणायाम, 24.वक्षस्थल रेचन प्राणायाम, 25.दीर्घ श्वास-प्रश्वास प्राणायाम, 26.प्राह्याभ्न्वर कुम्भक प्राणायाम, 27.षन्मुखी रेचन प्राणायाम 28.कण्ठ वातउदा पूरक प्राणायाम, 29.सुख प्रसारण पूरक कुम्भक प्राणायाम,30.अनुलोम-विलोम नाड़ी शोधन प्राणायाम व नाड़ी अवरोध प्राणायाम आदि।
5. प्रत्याहार: इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियां मनुष्य को बाहरी विषयों में उलझाए रखती है। प्रत्याहार के अभ्यास से साधक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है। जैसे एक कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है उसी प्रकार प्रत्याहरी मनुष्य की स्थिति होती है। यम नियम, आसान, प्राणायाम को साधने से प्रत्याहार की स्थिति घटित होने लगती है।

6.धारणा: चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है। प्रत्याहार के सधने से धारणा स्वत: ही घटित होती है। धारणा धारण किया हुआ चित्त कैसी भी धारणा या कल्पना करता है, तो वैसे ही घटित होने लगता है। यदि ऐसे व्यक्ति किसी एक कागज को हाथ में लेकर यह सोचे की यह जल जाए तो ऐसा हो जाता है।

7. ध्यान: जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।



ध्यान के रूढ़ प्रकार: स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान।

ध्यान विधियां: श्वास ध्यान, साक्षी भाव, नासाग्र ध्यान, विपश्यना ध्यान,

ओशो द्वारा प्रदत्त: सक्रिय ध्यान, नादब्रह्म ध्यान, कुंडलिनी ध्यान, नटराज ध्यान, मंडल ध्यान आदि  115 ध्यान विधियों का अभ्यास

ओशो कम्यून में किया जाता है। विज्ञान भैरव तंत्र में भगवान शिव ने उमा को 112 तरह की ध्यान विधियाँ बताई हैं।

8. समाधि: यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही

मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है। समाधि की भी दो श्रेणियां हैं , 1. सम्प्रज्ञात और 2. असम्प्रज्ञात।

सम्प्रज्ञात समाधि में वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है। इसे बौद्ध धर्म में संबोधि, जैन धर्म में केवल्य और हिन्दू धर्म में मोक्ष प्राप्त करना कहते हैं। इस सामान्य भाषा में मुक्ति कहते हैं।

पुराणों में मुक्ति के 6 प्रकार बताएं गए है जो इस प्रकार हैं: 1. साष्ट्रि, (ऐश्वर्य), 2. सालोक्य (लोक की प्राप्ति), 3. सारूप्य (ब्रह्मस्वरूप), 4. सामीप्य, (ब्रह्म के पास),5. साम्य (ब्रह्म जैसी समानता) 6. सायुज्य, या लीनता (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।

योग क्रियाएं : प्रमुख 13 क्रियाएं: 1.नेती– सूत्र नेति, घॄत नेति, 2.धौति– वमन धौति, वस्त्र धौति, दण्ड धौति,  3.गजकरणी, 4.वस्ती- जल बस्ति, 5.कुंजर, 6.नौली, 7.त्राटक, 8.कपालभाति, 9.धौंकनी, 10.गणेश क्रिया, 11.बाधी, 12.लघु शंख प्रक्षालन और 13.शंख प्रक्षालन।

मुद्राएं कई हैं: 1.विरत मुद्रा, 2.अश्विनी मुद्रा, 3.महामुद्रा, 4.योग मुद्रा, 5.विपरीत करणी मुद्रा, 6.शाम्भवी मुद्रा।

पंच राजयोग मुद्राएं: 1.चाचरी, 2.खेचरी, 3.भोचरी, 4.अगोचरी, 5.उन्न्मुनी मुद्रा।

10 हस्त मुद्राएं: उक्त के अलावा हस्त मुद्राओं में प्रमुख दस मुद्राओं का महत्व है जो निम्न है: – 1.ज्ञान मुद्रा, 2.पृथवि मुद्रा, 3.वरुण मुद्रा, 4.वायु मुद्रा, 5.शून्य मुद्रा, 6.सूर्य मुद्रा, 7.प्राण मुद्रा, 8.लिंग मुद्रा, 9.अपान मुद्रा, 10.अपान वायु मुद्रा।

अन्य मुद्राएं :– 1.सुरभी मुद्रा, 2.ब्रह्ममुद्रा, 3.अभयमुद्रा, 4.भूमि मुद्रा, 5.भूमि स्पर्शमुद्रा, 6.धर्मचक्रमुद्रा, 7.वज्रमुद्रा, 8.वितर्कमुद्रा, 9.जनाना मुद्रा, 10.कर्णमुद्रा, 11.शरणागतमुद्रा, 12.ध्यान मुद्रा, 13.सुची मुद्रा, 14.ओम मुद्रा, 15.जनाना और चिन् मुद्रा, 16.पंचांगुली मुद्रा 17.महात्रिक मुद्रा, 18.कुबेर मुद्रा, 19.चित्त मुद्रा, 20.वरद मुद्रा, 21.मकर मुद्रा, 22.शंख मुद्रा, 23.रुद्र मुद्रा, 24.पुष्पपूत मुद्रा, 25.वज्र मुद्रा, 26. श्वांस मुद्रा, 27.हास्य बुद्धा मुद्रा, 28.योग मुद्रा, 29.गणेश मुद्रा 30.डॉयनेमिक मुद्रा, 31.मातंगी मुद्रा, 32.गरुड़ मुद्रा, 33.कुंडलिनी मुद्रा, 34.शिव लिंग मुद्रा, 35.ब्रह्मा मुद्रा, 36.मुकुल मुद्रा, 37.महर्षि मुद्रा, 38.योनी मुद्रा, 39.पुशन मुद्रा, 40.कालेश्वर मुद्रा, 41.गूढ़ मुद्रा, 42.मेरुदंड मुद्रा, 43.हाकिनी मुद्रा, 45.कमल मुद्रा, 46.पाचन मुद्रा, 47.विषहरण मुद्रा या निर्विषिकरण मुद्रा, 48.आकाश मुद्रा, 49.हृदय मुद्रा, 50.जाल मुद्रा आदि।

योगाभ्यास की बाधाएं : आहार, प्रयास, प्रजल्प, नियमाग्रह, जनसंग और लौल्य।

इसी को सामान्य भाषा में आहार अर्थात अतिभोजन, प्रयास अर्थात आसनों के साथ जोर-जबरदस्ती,  प्रजल्प अर्थात अभ्यास का दिखावा, नियामाग्रह अर्थात योग करने के कड़े नियम बनाना,  जनसंग अर्थात अधिक जनसंपर्क और अंत में लौल्य का मतलब शारीरिक और मानसिक चंचलता।

राजयोग : यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और  समाधि यह पतंजलि के  राजयोग के आठ अंग हैं।  इन्हें अष्टांग योग भी कहा जाता है। यही राजयोग है।

हठयोग : षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि:–ये हठयोग के सात अंग है, लेकिन हठयोगी का जोर आसन एवं कुंडलिनी जागृति के लिए आसन, बंध, मुद्रा और प्राणायम पर अधिक रहता है। यही क्रिया योग है।

लययोग : यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। उक्त आठ लययोग के अंग है।

ज्ञानयोग : साक्षीभाव द्वारा विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही ज्ञान योग है। यही ध्यानयोग है।

कर्मयोग : शास्त्र विहित कर्म करना ही कर्म योग है। इसका उद्येश्य है कर्मों में कुशलता लाना।

भक्तियोग : भक्त श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रूप-इन नौ अंगों को नवधा भक्ति कहा जाता है। भक्ति योगानुसार व्यक्ति सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य तथा सायुज्य-मुक्ति को प्राप्त होता है, जिसे क्रमबद्ध मुक्ति कहा जाता है।

अंग संचालन: 1.शवासन, 2.मकरासन, 3.दंडासन और 4. नमस्कार मुद्रा में अंग संचालन किया जाता है, जिसे सूक्ष्म व्यायाम कहते हैं।इसके अंतर्गत आंखें, कोहनी, घुटने, कमर, अंगुलियां, पंजे, मुंह आदि अंगों की एक्सरसाइज की जाती है।

प्रमुख बंध: 1.महाबंध, 2.मूलबंध, 3.जालन्धरबंध और 4.उड्डियान बांध।

कुंडलिनी योग : कुंडलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी में नाभि के निचले हिस्से में सोई हुई अवस्था में रहती है, जो ध्यान के गहराने के साथ ही सभी चक्रों से गुजरती हुई सहस्रार चक्र तक पहुंचती है।

ये चक्र 7 होते हैं : मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार।



72 हजार नाड़ियों में से प्रमुख रूप से तीन है: इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इड़ा और पिंगला नासिका के दोनों छिद्रों से जुड़ी है जबकि सुषुम्ना भृकुटी के बीच के स्थान से।स्वरयोग इड़ा और पिंगला के विषय में विस्तृत जानकारी देते हुए स्वरों को परिवर्तित करने,रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त करने के विषय में गहन मार्गदर्शन होता है। दोनों नासिका से सांस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है। इस समय दिया हुआ आशीर्वाद या अभिशाप के फलित होने की संभावना अधिक होती है।

योग ग्रंथ -(Yoga Books) : वेद, उपनिषद्, भगवदगीता, हठयोग प्रदीपिका, योगदर्शन, शिव संहिता, विज्ञान भैरव तंत्र और विभिन्न तंत्र ग्रंथों में योग विद्या का उल्लेख मिलता है। सभी को आधार बनाकर पतंजलि ने योग सूत्र लिखा। योग पर लिखा गया सर्वप्रथम सुव्यव्यवस्थित ग्रंथ है – योगसूत्र। योगसूत्र को पतंजलि ने 200 ई.पूर्व लिखा था। इस ग्रंथ पर अब तक हजारों भाष्य लिखे गए हैं, लेकिन कुछ खास भाष्यों का यहां उल्लेख करते हैं।

व्यास भाष्य : व्यास भाष्य का रचना काल 200-400 ईसा पूर्व का माना जाता है। महर्षि पतंजलि का ग्रंथ योगसूत्र योग की सभी विद्याओं का ठीक-ठीक संग्रह माना जाता है। इसी रचना पर व्यासजी के ‘व्यास भाष्य’ को योग सूत्र पर लिखा प्रथम प्रामाणिक भाष्य माना जाता है। व्यास द्वारा महर्षि पतंजलि के योगसूत्र पर दी गई विस्तृत लेकिन सुव्यवस्थित व्याख्या।

तत्त्ववैशारदी : पतंजलि योगसूत्र के व्यास भाष्य के प्रामाणिक व्याख्याकार के रूप में वाचस्पति मिश्र का ‘तत्त्ववैशारदी’ प्रमुख ग्रंथ माना जाता है। वाचस्पति मिश्र ने योगसूत्र एवं व्यास भाष्य दोनों पर ही अपनी व्याख्या दी है। तत्त्ववैशारदी का रचना काल 841 ईसा पश्चात माना जाता है।

योगवार्तिक : विज्ञानभिक्षु का समय विद्वानों के द्वारा 16वीं शताब्दी के मध्य में माना जाता है। योगसूत्र पर महत्वपूर्ण व्याख्या विज्ञानभिक्षु की प्राप्त होती है जिसका नाम ‘योगवार्तिक’ है।

भोजवृत्ति : भोज के राज्य का समय 1075-1110 विक्रम संवत माना जाता है। धरेश्वर भोज के नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति ने योगसूत्र पर जो ‘भोजवृत्ति’ नामक ग्रंथ लिखा है वह भोजवृत्ति योगविद्वजनों के बीच समादरणीय एवं प्रसिद्ध माना जाता है। कुछ इतिहासकार इसे 16वीं सदी का ग्रंथ मानते हैं।

Thursday, July 25, 2019

संस्कृत भाषा का चमत्कार -एक श्लोक से द्विसन्धान

संस्कृत ग्रथों की परंपरा में जैन कवि धनंजय कृत द्विसन्धान काव्य जिसमें हरिवंश और रघुवंश की कथा का वर्णन उपलब्ध है उसी तरह यह ग्रंथ भी इसी परंपरा का पोषक ग्रंथ है ।

यह है दक्षिण भारत का एक ग्रन्थ

क्या ऐसा संभव है कि जब आप किताब को सीधा पढ़े तो राम कथा के रूप में पढ़ी जाती है और जब उसी किताब में लिखे शब्दों को उल्टा करके पढ़े
तो कृष्ण कथा के रूप में होती है ।

जी हां, कांचीपुरम के 17वीं शदी के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ "राघवयादवीयम्" ऐसा ही एक अद्भुत ग्रन्थ है।

इस ग्रन्थ को
‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। पूरे ग्रन्थ में केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे
पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और
विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा (उल्टे यानी विलोम)के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक।

पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है ~ "राघवयादवीयम।"

उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक हैः

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

अर्थातः
मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं, जो
जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे।

अब इस श्लोक का विलोमम्: इस प्रकार है

सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

अर्थातः
मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के
चरणों में प्रणाम करता हूं, जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ
विराजमान है तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है।

 " राघवयादवीयम" के ये 60 संस्कृत श्लोक इस प्रकार हैं:-

राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

विलोमम्:
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ॥ २॥

विलोमम्:
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥ २॥

कामभारस्स्थलसारश्रीसौधासौघनवापिका ।
सारसारवपीनासरागाकारसुभूरुभूः ॥ ३॥

विलोमम्:
भूरिभूसुरकागारासनापीवरसारसा ।
कापिवानघसौधासौ श्रीरसालस्थभामका ॥ ३॥

रामधामसमानेनमागोरोधनमासताम् ।
नामहामक्षररसं ताराभास्तु न वेद या ॥ ४॥

विलोमम्:
यादवेनस्तुभारातासंररक्षमहामनाः ।
तां समानधरोगोमाननेमासमधामराः ॥ ४॥

यन् गाधेयो योगी रागी वैताने सौम्ये सौख्येसौ ।
तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमानामाश्रीहाता त्रातम् ॥ ५॥

विलोमम्:
तं त्राताहाश्रीमानामाभीतं स्फीत्तं शीतं ख्यातं ।
सौख्ये सौम्येसौ नेता वै गीरागीयो योधेगायन् ॥ ५॥

मारमं सुकुमाराभं रसाजापनृताश्रितं ।
काविरामदलापागोसमावामतरानते ॥ ६॥

विलोमम्:
तेन रातमवामास गोपालादमराविका ।
तं श्रितानृपजासारंभ रामाकुसुमं रमा ॥ ६॥

रामनामा सदा खेदभावे दया-वानतापीनतेजारिपावनते ।
कादिमोदासहातास्वभासारसा-मेसुगोरेणुकागात्रजे भूरुमे ॥ ७॥

विलोमम्:
मेरुभूजेत्रगाकाणुरेगोसुमे-सारसा भास्वताहासदामोदिका ।
तेन वा पारिजातेन पीता नवायादवे भादखेदासमानामरा ॥ ७॥

सारसासमधाताक्षिभूम्नाधामसु सीतया ।
साध्वसाविहरेमेक्षेम्यरमासुरसारहा ॥ ८॥

विलोमम्:
हारसारसुमारम्यक्षेमेरेहविसाध्वसा ।
यातसीसुमधाम्नाभूक्षिताधामससारसा ॥ ८॥

सागसाभरतायेभमाभातामन्युमत्तया ।
सात्रमध्यमयातापेपोतायाधिगतारसा ॥ ९॥

विलोमम्:
सारतागधियातापोपेतायामध्यमत्रसा ।
यात्तमन्युमताभामा भयेतारभसागसा ॥ ९॥

तानवादपकोमाभारामेकाननदाससा ।
यालतावृद्धसेवाकाकैकेयीमहदाहह ॥ १०॥

विलोमम्:
हहदाहमयीकेकैकावासेद्ध्वृतालया ।
सासदाननकामेराभामाकोपदवानता ॥ १०॥

वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरादहो ।
भास्वरस्थिरधीरोपहारोरावनगाम्यसौ ॥ ११॥

विलोमम्:
सौम्यगानवरारोहापरोधीरस्स्थिरस्वभाः ।
होदरादत्रापितह्रीसत्यासदनमारवा ॥ ११॥

यानयानघधीतादा रसायास्तनयादवे ।
सागताहिवियाताह्रीसतापानकिलोनभा ॥ १२॥

विलोमम्:
भानलोकिनपातासह्रीतायाविहितागसा ।
वेदयानस्तयासारदाताधीघनयानया ॥ १२॥

रागिराधुतिगर्वादारदाहोमहसाहह ।
यानगातभरद्वाजमायासीदमगाहिनः ॥ १३॥

विलोमम्:
नोहिगामदसीयामाजद्वारभतगानया ।
हह साहमहोदारदार्वागतिधुरागिरा ॥ १३॥

यातुराजिदभाभारं द्यां वमारुतगन्धगम् ।
सोगमारपदं यक्षतुंगाभोनघयात्रया ॥ १४॥

विलोमम्:
यात्रयाघनभोगातुं क्षयदं परमागसः ।
गन्धगंतरुमावद्यं रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥

दण्डकां प्रदमोराजाल्याहतामयकारिहा ।
ससमानवतानेनोभोग्याभोनतदासन ॥ १५॥

विलोमम्:
नसदातनभोग्याभो नोनेतावनमास सः ।
हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम् ॥ १५॥

सोरमारदनज्ञानोवेदेराकण्ठकुंभजम् ।
तं द्रुसारपटोनागानानादोषविराधहा ॥ १६॥

विलोमम्:
हाधराविषदोनानागानाटोपरसाद्रुतम् ।
जम्भकुण्ठकरादेवेनोज्ञानदरमारसः ॥ १६॥

सागमाकरपाताहाकंकेनावनतोहिसः ।
न समानर्दमारामालंकाराजस्वसा रतम् ॥ १७ विलोमम्:
तं रसास्वजराकालंमारामार्दनमासन ।
सहितोनवनाकेकं हातापारकमागसा ॥ १७॥

तां स गोरमदोश्रीदो विग्रामसदरोतत ।
वैरमासपलाहारा विनासा रविवंशके ॥ १८॥

विलोमम्:
केशवं विरसानाविराहालापसमारवैः ।
ततरोदसमग्राविदोश्रीदोमरगोसताम् ॥ १८॥

गोद्युगोमस्वमायोभूदश्रीगखरसेनया ।
सहसाहवधारोविकलोराजदरातिहा ॥ १९॥

विलोमम्:
हातिरादजरालोकविरोधावहसाहस ।
यानसेरखगश्रीद भूयोमास्वमगोद्युगः ॥ १९॥

हतपापचयेहेयो लंकेशोयमसारधीः ।
राजिराविरतेरापोहाहाहंग्रहमारघः ॥ २०॥

विलोमम्:
घोरमाहग्रहंहाहापोरातेरविराजिराः ।
धीरसामयशोकेलं यो हेये च पपात ह ॥ २०॥

ताटकेयलवादेनोहारीहारिगिरासमः ।

हासहायजनासीतानाप्तेनादमनाभुवि  ॥ २१॥

विलोमम्:
विभुनामदनाप्तेनातासीनाजयहासहा ।
ससरागिरिहारीहानोदेवालयकेटता ॥ २१॥

भारमाकुदशाकेनाशराधीकुहकेनहा ।
चारुधीवनपालोक्या वैदेहीमहिताहृता ॥ २२॥

विलोमम्:
ताहृताहिमहीदेव्यैक्यालोपानवधीरुचा ।
हानकेहकुधीराशानाकेशादकुमारभाः ॥ २२॥

हारितोयदभोरामावियोगेनघवायुजः ।
तंरुमामहितोपेतामोदोसारज्ञरामयः ॥ २३॥

विलोमम्:
योमराज्ञरसादोमोतापेतोहिममारुतम् ।
जोयुवाघनगेयोविमाराभोदयतोरिहा ॥ २३॥

भानुभानुतभावामासदामोदपरोहतं ।
तंहतामरसाभक्षोतिराताकृतवासविम् ॥ २४॥

विलोमम्:
विंसवातकृतारातिक्षोभासारमताहतं ।
तं हरोपदमोदासमावाभातनुभानुभाः ॥ २४॥

हंसजारुद्धबलजापरोदारसुभाजिनि ।
राजिरावणरक्षोरविघातायरमारयम् ॥ २५॥

विलोमम्:
यं रमारयताघाविरक्षोरणवराजिरा ।
निजभासुरदारोपजालबद्धरुजासहम् ॥ २५॥

सागरातिगमाभातिनाकेशोसुरमासहः ।
तंसमारुतजंगोप्ताभादासाद्यगतोगजम् ॥ २६॥

विलोमम्:
जंगतोगद्यसादाभाप्तागोजंतरुमासतं ।
हस्समारसुशोकेनातिभामागतिरागसा ॥ २६॥

वीरवानरसेनस्य त्राताभादवता हि सः ।
तोयधावरिगोयादस्ययतोनवसेतुना ॥ २७॥

विलोमम्
नातुसेवनतोयस्यदयागोरिवधायतः ।
सहितावदभातात्रास्यनसेरनवारवी ॥ २७॥

हारिसाहसलंकेनासुभेदीमहितोहिसः ।
चारुभूतनुजोरामोरमाराधयदार्तिहा ॥ २८॥

विलोमम्
हार्तिदायधरामारमोराजोनुतभूरुचा ।
सहितोहिमदीभेसुनाकेलंसहसारिहा ॥ २८॥

नालिकेरसुभाकारागारासौसुरसापिका ।
रावणारिक्षमेरापूराभेजे हि ननामुना ॥ २९॥

विलोमम्:
नामुनानहिजेभेरापूरामेक्षरिणावरा ।
कापिसारसुसौरागाराकाभासुरकेलिना ॥ २९॥

साग्र्यतामरसागारामक्षामाघनभारगौः ॥
निजदेपरजित्यास श्रीरामे सुगराजभा ॥ ३०॥

विलोमम्:
भाजरागसुमेराश्रीसत्याजिरपदेजनि ।स
गौरभानघमाक्षामरागासारमताग्र्यसा ॥ ३०॥

॥ इति श्रीवेङ्कटाध्वरि कृतं श्री  ।।

कृपया अपना थोड़ा सा कीमती वक्त निकाले और उपरोक्त श्लोको को गौर से अवलोकन करें कि यह दुनिया में कहीं भी ऐसा न पाया जाने वाला ग्रंथ है ।


Thursday, July 11, 2019

ग्रहों के फल

*कौन सा ग्रह क्या अशुभ फल देता है*

 *सूर्य*

सरकारी नौकरी या सरकारी कार्यों में परेशानी, सिर दर्द, नेत्र रोग, हृदय रोग, अस्थि रोग, चर्म रोग, पिता से अनबन आदि।

 *चंद्र*

मानसिक परेशानियां, अनिद्रा, दमा, कफ, सर्दी, जुकाम, मूत्र रोग, स्त्रियों को मासिक धर्म, निमोनिया।

 *मंगल*

अधिक क्रोध आना, दुर्घटना, रक्त विकार, कुष्ठ रोग, बवासीर, भाइयों से अनबन आदि।

 *बुध*

गले, नाक और कान के रोग, स्मृति रोग, व्यवसाय में हानि, मामा से अनबन आदि।

 *गुरु*

धन व्यय, आय में कमी, विवाह में देरी, संतान में देरी, उदर विकार, गठिया, कब्ज, गुरु व देवता में अविश्वास आदि।

 *शुक्र*

जीवन साथी के सुख में बाधा, प्रेम में असफलता, भौतिक सुखों में कमी व अरुचि, नपुंसकता, मधुमेह, धातु व मूत्र रोग आदि।

 *शनि*

वायु विकार, लकवा, कैंसर, कुष्ठ रोग, मिर्गी, पैरों में दर्द, नौकरी में परेशानी आदि।

 *राहु*

त्वचा रोग, कुष्ठ, मस्तिष्क रोग, भूत प्रेत वाधा, दादा से परेशानी आदि।

 *केतु*

नाना से परेशानी, भूत-प्रेत, जादू टोने से परेशानी, रक्त विकार, चेचक आदि।

इस प्रकार ग्रहों के कारकत्व को ध्यान में रखते हुए शास्त्र सम्मत उपाय करना चाहिए

गाय के गोबर का महत्व

 आयुर्वेद ग्रंथों  में हमारे ऋषि मुनियों ने पहले ही बता दिया गया  था कि   *धोवन पानी पीने का वैज्ञानिक तथ्य और आज की आवश्यकता* वायुमण्डल में...