Tuesday, March 3, 2020

संज्ञा और संधि प्रकरण

*संज्ञाप्रकरणम् तथा सन्धिप्रकरणम्:-*

*माहेश्वर सूत्राणि:-*
माहेश्वर सूत्र (संस्कृत: शिवसूत्राणि या महेश्वर सूत्राणि) को संस्कृत व्याकरण का आधार माना जाता है। पाणिनि ने संस्कृत भाषा के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत एवं नियमित करने के उद्देश्य से भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों यथा ध्वनि-विभाग (अक्षरसमाम्नाय), नाम (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), पद, आख्यात, क्रिया, उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों का समावेश अष्टाध्यायी में किया है। अष्टाध्यायी में ३२ पाद हैं जो आठ अध्यायों मे समान रूप से विभक्त हैं।

*उत्पत्ति:-*

माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शिव) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से मानी गयी है।

*नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।*
*उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ॥*
अर्थात:- "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना का उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपंच (चौदह) बार डमरू बजाया। इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) प्रकट हुयी।"

डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ। इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है। प्रसिद्धि है कि महर्षि पाणिनि ने इन सूत्रों को देवाधिदेव शिव के आशीर्वाद से प्राप्त किया जो कि पाणिनीय संस्कृत व्याकरण का आधार बना।

सूत्र संपादित करें
माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या १४ है जो निम्नलिखित हैं:
१. अइउण्।
२. ऋऌक्।
३. एओङ्।
४. ऐऔच्।
५. हयवरट्।
६. लण्।
७. ञमङणनम्।
८. झभञ्।
९. घढधष्।
१०. जबगडदश्।
११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्।
१३. शषसर्।
१४. हल्।

*माहेश्वर सूत्र:-*
उपर्युक्त्त १४ सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है। फलतः, पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं। माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं। प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।

इन १४ सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है। प्रथम ४ सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष १० सूत्र व्यंजन वर्णों की गणना की गयी है। संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है। अच् एवं हल् भी प्रत्याहार हैं।

*प्रत्याहार  प्रत्याहार:-*

प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।

*आदिरन्त्येन सहेता;-*
 (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।
उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है। यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है। अतः,

अच् = अ इ उ ऋ ऌ ए ऐ ओ औ।

इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ह को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। फलतः,

हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण (ण् क् ं च् आदि) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है। इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है।
[2/14, 09:29] अक्षितादेवी: *अभिव्यंजना:-*
कालिदास की कविता की प्रमुख विशेषता है कि वह चित्रों के निर्माण में सबकुछ न कहकर भी अभिव्यंजना द्वारा पूरा चित्र खींच देते हैं।
जैसे:-
*एवं वादिनि देवर्शौ पार्श्वे पितुरधोमुखी।*
*लीला कमल पत्राणि गणयामास पार्वती।।*
अर्थात् देवर्षि के द्वारा ऐसी (पार्वती के विवाह प्रस्ताव की) बात करने पर, पिता के समीप बैठी पार्वती ने सिर झुका कर हाथ में लिये कमल की पंखुड़ियों को गिनना शुरू कर दिया।

*"परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथः!! "-श्री गीता 3‘11!!*

*ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् !*

*संस्कृत प्रथम सत्र- पाठ्यक्रम*

*1.संज्ञा प्रकरणम् -*
v     
*माहेश्वरसूत्राणि -*
पाणिनी रचित अष्टाध्यायी (माहेश्वराणि) सूत्राणि -
1. अइउण्
2. ऋलृक्
3. एओङ् 
4. ऐऔच् 
5. हयवरट् 
6. लण् 
7. ञ् मङणनम् 
8. झभञ् 
9. घढ़धष् 
10. जबगड़दश् 
11. खफछठथचटतव् 
12. कपय् 
13. शषसर् 
14. हल्।

*प्रत्याहार सूत्राणि:-*
                 प्रत्याहार सूत्र में दो वर्ण होते हैं। पहला पूर्ण होता है तथा दूसरा हल् होता है जैसे:-
अच्,
हल्,
जश्, ,
खर्,
झष्,
अल् इत्यादि।
     इसको बनाने के लिये - कोई भी माहेश्वर सूत्र के पूर्ण वर्ण से लेकर कोई भी हलन्त वर्ण तक लेकर इसको बनाया जा सकता है। जिसमें वे सूत्र प्रथम उस पूर्ण वर्ण से लेकर अन्तिम हल् वर्ण के पहले तक के सभी पूर्ण को निरूपित करता हैं। जैसे-
*अच्* -  अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ।
*जश्* - ज, ब, ग, ड़, द।
*झष्* - झ, भ, घ, ढ़, ध।
चर् - च, ट, त, व, क, प, श, ष, स।
*खर्* - ख, फ, छ, ठ, थ, च, ट, त, क, प, श, ष, स। आदि।
  इसी प्रकार और भी प्रत्याहार सूत्र बनाये जा सकते हैं।

*इत्संज्ञा:-*
1. हलन्त्यम् - (हल् $ अन्त्यम्) अर्थात् उपदेश की अवस्था के अन्तिम हल् (व्यंजन) की इत् संज्ञा होती है।
*जैसे:-*
अइउण्, ऋलृक्, चर्, हल्, खर्, अच्, सुप्, इत्यादि। इनमें ण्, क्, र्, ल्, र्, च् और प् हलन्त्य वर्ण होने से इत्संज्ञक होंगे।

*2. तस्य लोपः* - अर्थात्  जिसकी इत्संज्ञा होती है उसका लोप हो जाता है। जैसे- अइउण् में ण् इत्संज्ञक होने से इसका लोप हो जाएगा।

*3. अदर्शनं लोपः* - अर्थात् विद्यमान शब्द किन्तु न दिखाई दे न सुनाई दे वह लोप कहलाता है। और अदर्शन का लोप होता है।

*4. आदिरन्त्येन संहेताः* - (आदिः अन्त्येन संहेताः) अर्थात् अन्तिम इत्संज्ञक वर्ण के साथ उच्चारित होने वाला आदि वर्ण अपना तथा बीच में आने वाले अन्य वर्णों का बोध कराता है।
जैसे - अच् - अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ।

*5.       उपदेशेऽजनुनासिक इत्* - अर्थात् उपदेश की अवस्था में जो अनुनासिक है उसकी इत्संज्ञा होती है। जैसे - ण्, ङ्, ´् आदि।

*6.       ऊकालोझ्रस्वदीर्घप्लुतः* - अर्थात् उ, ऊ और ऊ३ काल वाले स्वरों की क्रमशः ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत संज्ञा होती हैं। अथवा एकमात्रिक स्वर ह्रस्व, द्विमात्रिक स्वर दीर्घ और त्रिमात्रिक स्वर प्लुत कहलाता है।
जैसे -  अ, इ, उ -   (ह्रस्व)
        आ, ई, ऊ -  (दीर्घ)
        आ३, ई३, ऊ३ - (प्लुत)

*7. उच्चैरुदा त्तः* - अर्थात् जिस स्वर का उच्चारण अपने निर्धारित स्थान से ऊपर वाले भाग से होता है वह उदात्त  कहलाता है।

*8.नीचैरनुदात्तः*  - अर्थात् अपने निर्धारित स्थान से नीचे वाले भाग से उच्चारण होने वाले स्वर अनुदाŸा कहलाते हैं।

*9.समाहारः स्वरितः* - जिस स्वर का उच्चारण उदात्त और अनुदात्त के एकीकरण से हो वह स्वरित कहलाता है।

*10. मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः* - अर्थात् जिस वर्ण का उच्चारण मुख और नासिका दोनों से ही होता है, वह अनुनासिक कहलाता है। और जिस वर्ण का उच्चारण केवल मुख से होता है वह अननुनासिक कहलाता है।

                                                 *वर्णों का उच्चारण स्थान*

*11. तुल्यास्य प्रयत्नं सवर्णम्*- (तुल्य+आस्य(मुख आदि)+ प्रयत्नम्+ सवर्णम्) अर्थात् जिन वर्णों के कण्ठ मुख आदि स्थान और अभ्यान्तर यत्न दोनों ही समान होते हैं, वे परस्पर एक- दूसरे के सवर्ण कहलाते हैं।

*12. अकूहविसर्जनीयानां कण्ठः* - अर्थात् अ, कवर्ग (क, ख, ग, घ, ङ), ह और विसर्ग (:) का उच्चारण स्थान कण्ठ है।


*13.इचुयशानां तालु* - अर्थात् इ, चवर्ग (च, छ, ज, झ, ´), य और श का उच्चारण स्थान तालु है।

*14.ऋटुरषाणां मूर्धा* - अर्थात् ऋ, टवर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण), र और ष का उच्चारण स्थान मूर्धा है।

*15. लृतुलसानां दन्ताः* - लृ, तवर्ग (त, थ, द, ध, न) स और ल का उच्चारण स्थान दांत हैं।

*16. उपूपध्मानीयानां ओष्ठौ* - उ, पवर्ग (प, फ, ब, भ, म), का उच्चारण स्थान ओष्ठ हैं।

*17. ञमङणनानां नासिका च*  ´, म, ङ, ण, न का उच्चारण स्थान नाक भी है

*18. एदैतोः कण्ठ तालुः*  ए, और ऐ दोनों का उच्चारण स्थान कण्ठ और तालु है।

*19. ओदौतोः कण्ठोष्ठम्* - ओ और औ का उच्चारण स्थान कण्ठ और औष्ठ है।

*20. वकारस्य दन्तोष्ठम्* - व का उच्चारण स्थान दांत और ओष्ठ है।

*21.जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम्*  जिह्वामूलीय का उच्चारण स्थान जीभ का मूलभाग है।

*22. नासिकाऽनुस्वारस्य* - अनुस्वारों ( ं ) का उच्चारण स्थान नाक भी है।

                                      *यत्न विचार:-*

*23. यत्नो द्विधा* :- यत्न दो प्रकार के होते हैं- 
*‘‘अभ्यान्तरो बाह्यश्च’’* -
1.अभ्यांतर(आंतरिक) 2.बाह्य ।

*आद्याः पंचधा* -  आद्याः (पहला,) अभ्यान्तर पाँच प्रकार का होता है-
*स्पृष्टेषत्स्पृष्टेषद्विवृतविवृतसंवृतभेदात्* :-
अर्थात् स्पृष्ट्, ईषत्स्पृष्ट्, ईषत् विवृत, विवृत, संवृत।

 *स्पर्श* - (कुचुटुतुपु) वर्ग की स्पृष्ट संज्ञा होती है
कुचुटुतुपु - कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग और पवर्ग।

*ईषत्स्पृष्ट* :-  अन्तःस्थों (य, व, र, ल ) की संज्ञा होती है।

*ईषद्विवृत*  ऊष्मकों (श,ष,स,,ह) की संज्ञा होती है।

  *विवृत* -  जितने स्वर हैं उनकी विवृत संज्ञा होती है। जैसे- अ, इ, उ, ऋ, लृ आदि।

 *संवृत* -  लिखने की अवस्था में ‘अ’ की संवृत संज्ञा होती है।

*2. बाह्यप्रयत्न एकादशधा* : -
1.विवारः,
2.संवारः,
3.श्वासः,
4.नाद,
5.घोष,
6.अघोष,
7.अल्पप्राण,
8.महाप्राण,
9.उदात्त,
10.अनुदात्त,
11.स्वरित।

*24.हशः संवारानादघोषाश्च* :-- हश् प्रत्याहार के अन्तर्गत संवार, नाद और घोष आते हैं।

*25. खरः विवाराः श्वासा अघोषश्च* :-  खर् प्रत्याहार के अन्तर्गत विवार, श्वास और अघोष आते हैं।

*26.वर्गाणां प्रथमतृतीयपंचमयणश्चाल्पप्राणाः* - वर्गों के प्रथम, तृतीय तथा पंचम और यण् प्रत्याहार (य, व, र, ल) अल्पप्राण कहलाते हैं।

*27.वर्गाणां द्वितीयचतुर्थाैशलश्च महाप्राणाः* - वर्ग का दूसरा, चैथा और शल् प्रत्याहार (श, ष, स, ह) महाप्राण कहलाते हैं।

*28.अनुदित् सवर्णस्य चाऽप्रत्ययः*  अविधियमान अण् प्रत्याहार (अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ, ह, य, व, र, ल) और उदित प्रत्याहार (कुचुटुतुपु) वर्ग अपने तथा अपने सवर्ण स्वरूप की संज्ञा होती है।

*29.परः सन्निकर्षः संहिता* - वर्णों की अत्यन्त समीपता को संहिता कहते हैं। जैसे- राम +कुमारः - रामकुमार। अन् +अनुनासिक-  अननुनासिक।

*30.हलोऽनन्तरा संयोगः*  दो हलों के बीच में किसी अच् का व्यवधान न हो उसकी संयोग संज्ञा होती है। जैसे - प्र,श्र, द्य, उन्नति आदि।

*31.सुप्तिङ्न्तं पदम्* - सुबन्त और तिङ्न्त की पदम् (पद) संज्ञा होती है। जिसके अन्त में सुप् प्रत्यय हो वह सुबन्त और जिसके अन्त में तिङ् प्रत्यय हो उसे तिङ्न्त कहते हैं।

सुप् + अन्त -  सुबन्त
तिङ् + अन्त - तिङ्न्त

                                        *!! इति संज्ञाप्रकरणम् !!*

 *संधि विच्छेद, संस्कृत में संधि, संस्कृत व्याकरण*

*SANDHI:- Sanskrit Sandhi*

संस्कृत में संधि विच्छेद दो वर्णों के निकट आने से उनमें जो विकार होता है उसे ‘सन्धि’ कहते है। इस प्रकार की सन्धि के लिए दोनों वर्णो का निकट होना आवश्यक है, क्योकि दूरवर्ती शब्दो या वर्णो में सन्धि नहीं होती है। वर्णो की इस निकट स्थिति को ही सन्धि कहते है। अतः संक्षेप में यह समझना चाहिए कि दो वर्णो के पास-पास आने से उनमें जो परिवर्तन या विकार होता है उसे संस्कृत व्याकरण में सन्धि कहते है।
उदाहरण -
हिम + आलयः = हिमालयः
रमा + ईशः = रमेंशः
सूर्य + उदयः = सूर्योदयः

संस्कृत संधि के भेद/प्रकार
*संस्कृत भाषा में संधियां तीन प्रकार* की होती है-
●स्वर संधि
●व्यंजन संधि
●विसर्ग संधि

*1. स्वर संधि* - अच् संधि
नियम - दो स्वरों के मेल से होने वाले विकार (परिवर्तन) को स्वर-संधि कहते हैं।
*उदाहरण-*
हिम+आलय= हिमालय।
रवि + इंद्र = रवींद्र
मुनि + इंद्र = मुनींद्र
नारी + इंदु = नारींदुई
मही + ईश = महीश
भानु + उदय = भानूदय
लघु + ऊर्मि = लघूर्मि
वधू + उत्सव = वधूत्सव
भू + ऊर्ध्व = भूर्ध्व

संस्कृत में *स्वर-संधि आठ प्रकार की होती हैं-*
●दीर्घ संधि - अक: सवर्णे दीर्घ:
●गुण संधि - आद्गुण:
●वृद्धि संधि - ब्रध्दिरेचि
●यण् संधि - इकोऽयणचि
●अयादि संधि - एचोऽयवायाव:
●पूर्वरूप संधि - एडः पदान्तादति
●पररूप संधि - एडि पररूपम्
●प्रकृति भाव संधि - ईदूद्विवचनम् प्रग्रह्यम्

*2. व्यंजन संधि :-* हल् संधि
व्यंजन का स्वर या व्यंजन के साथ मेल होने पर जो परिवर्तन होता है, उसे व्यंजन संधि कहते है। उदाहरण-
उत + उल्लास = उल्लास
अप + ज = अब्ज

*व्यंजन संधि (हल् संधि) के प्रकार -*
●श्चुत्व संधि - स्तो श्चुनाश्चु
●ष्टुत्व संधि - स्तो ष्टुनाष्टु
●जश्त्व संधि - झालम् जशोऽन्ते

*3. विसर्ग संधि:-*
विसर्ग का स्वर या व्यंजन के साथ मेल होने पर जो परिवर्तन होता है ,उसे विसर्ग संधि कहते है। *उदाहरण–*
निः + चय = निश्चय
दुः + चरित्र = दुश्चरित्र
ज्योतिः + चक्र = ज्योतिश्चक्र
निः + छल = निश्छल

*विसर्ग संधि के प्रकार -*
●सत्व संधि
●उत्व् संधि
●रुत्व् संधि
●विसर्ग लोप संधि

*"परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथः!! "-श्री गीता 3‘11!!*

*ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् !*

*SWAR SANDHI , अच् (स्वर) सन्धिः* Samskritam
By *तोलाराम मीना* April 07, 2019
*अच्न्धि प्रकरणम् :-*
दो वर्णों के मेल से जो विकार उत्पन्न होता है, उसे सन्धि कहते हैं।

*अच् (स्वर) सन्धिः -*
दो स्वरों के मेल से जो विकार उत्पन्न होता है, उसे स्वर सन्धि कहते हैं।

*इसके निम्न प्रकार हैं -*

*1. दीर्घ स्वर सन्धिः -  ‘‘अकः सवर्णे दीर्घः’’ -* अर्थात् अक् प्रत्याहार के बाद में यदि कोई सवर्ण स्वर वर्ण हो तो पूर्व और पर दोनों के स्थान पर दीर्घ एकादेश होता है। जैसे-
अ, आ + अ, आ = आ
इ, ई +इ, ई = ई
उ, ऊ + उ, ऊ = ऊ
ऋ, ऋृ + ऋ, ऋृ = ऋृ

*उदाहरण* - 
राम + आलयः = रामालयः (अ+आ)
दैत्य + अरिः = दैत्यारिः (अ+अ)
विष्णु + उदयः = विष्णूदयः (उ+उ)
श्री + ईशः = श्रीशः (इ+ई)
होतृ + ऋकारः = होतृकारः (ऋ+ऋ) आदि।

*2. गुणस्वर सन्धिः -  ‘‘आद्गुणः’’* - आत् (अवर्ण- अ, आ) से इक् (इ,उ,ऋ,लृ) परे होने पर पूर्व- पर के स्थान पर गुण एकादेश होता है।

जैसे- 
अ, आ + इ, ई = ए
 अ, आ + उ, ऊ = ओ
 अ, आ + ऋ, ऋृ = अर्
  अ, आ + लृ = अल्

नोटः- गुण तीन प्रकार के होते हैं-
*‘‘अदेङ्गुणः’’* -   अर्थात् अत् (अ), एङ् (ए, ओ) का नाम गुण है।
जैसे-
गंगा + उदकम् = गंग् आ + उदकम् = गंग् ओ दकम् = गंगोदकम्
उप + इन्द्रः = उपेन्द्रः (अ + इ = ए)

*3. वृद्धि सन्धिः - ‘‘वृद्धिरेचि’’*-  अवर्ण (अ, आ) से एच् (ए, ओ, ऐ, औ) परे होने पर पूर्व और पर के स्थान पर वृद्धि संज्ञक एकादेश होता है।

*वृद्धि* = 
अ, आ + ए, ऐ = ऐ
अ, आ + ओ, औ = औ

जैसे :-
तथा +एव = तथैव
एक + एकम् = एकैकम्
महा +औषधिः = महौषधिः
शर्करा +ओदनः = शर्करौदनः
राज + ऐश्वर्यम् = राजैश्वर्यम्

*4. पररूप सन्धिः -  ‘‘एङिपररूपम्’’* -   अवर्णान्त (जिसके अन्त में ‘अ’ हो) उपसर्ग से एङ आदि (जिसके अन्त में ए और ओ हो) धातु के परे होने पर  पर और पूर्व के स्थान पर पररूप एकादेश होता है। 
जैसे-
प्र +एजते = प्रेजते
उप + एहि = उपेहि
प्र + ओषति = प्रोषति

*5. पूर्वरूप सन्धिः -   ‘‘एङ्पदान्तादति’’*    - पद के अन्त में यदि एङ् (ए, ओ) हो तो उनके बाद में यदि ह्रस्व अकार है तो पूर्व और पर के स्थान पर पूर्वरूप एकादेश होता है।
ए + अ = ए
ओ + अ = ओ
जैसे -
हरे + अव = हरेऽव
विष्णो + अव = विष्णोऽव
नमो + अस्तु = नमोऽस्तु
लोके + अस्मिन् = लोकेऽस्मिन्
   
*6. अयादि सन्धिः -  ‘‘एचोऽयवायावः’’*  -  एचः अय् अव् आय् आव् अर्थात् एच् (ए, ऐ, ओ, औ) के बाद यदि अच् हो तो एच् के स्थान पर अय्, आय्, अव्, आव् आदेश होता है।
‘‘यथा संख्यः मनुदेशः समानाम्’’  -  बराबर संख्या वाली विधि क्रम से होती है।
ए = अय्
ओ = अव्
ऐ = आय्
औ = आव्

जैसे- 
भो + अति = भ् ओ + अति = भ् अव् + अति = भवति
करौ + एतौ  = करावेतौ (औ + ए)
गै + अति = गायति(ऐ+अ)
मनो + ए = मनवे

*7. यण् सन्धिः  -  ‘‘इकोयणचि’’*   -  इक् (इ, उ, ऋ, लृ) के स्थान पर यण् (य्, व्, र्, ल्) आदेश होता है यदि ‘अच्’ परे हो तो।

इ, ई + अच् हो  = य्
उ, ऊ +   अच् हो   = व्
ऋ, ऋृ +  अच् हो   = र्
लृ + अच् हो  = ल्
जैसे - 
यदि + अपि = यद् इ अपि = यद् यपि = यद्यपि
   
 मनु + आदि = मन्वादि
 पितृ + आज्ञा = पित्राज्ञा

*सत्यमेव जयते जयतु भारतम्:* *"परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथः!! "-श्री गीता 3‘11!!*

*ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् !*

*SWAR SANDHI , अच् (स्वर) सन्धिः* Samskritam
By *तोलाराम मीना* April 07, 2019
*अथ सन्धि प्रकरणम् :-*
दो वर्णों के मेल से जो विकार उत्पन्न होता है, उसे सन्धि कहते हैं।

*अच् (स्वर) सन्धिः -*
दो स्वरों के मेल से जो विकार उत्पन्न होता है, उसे स्वर सन्धि कहते हैं।

*इसके निम्न प्रकार हैं -*

*1. दीर्घ स्वर सन्धिः -  ‘‘अकः सवर्णे दीर्घः’’ -* अर्थात् अक् प्रत्याहार के बाद में यदि कोई सवर्ण स्वर वर्ण हो तो पूर्व और पर दोनों के स्थान पर दीर्घ एकादेश होता है। जैसे-
अ, आ + अ, आ = आ
इ, ई +इ, ई = ई
उ, ऊ + उ, ऊ = ऊ
ऋ, ऋृ + ऋ, ऋृ = ऋृ

*उदाहरण* - 
राम + आलयः = रामालयः (अ+आ)
दैत्य + अरिः = दैत्यारिः (अ+अ)
विष्णु + उदयः = विष्णूदयः (उ+उ)
श्री + ईशः = श्रीशः (इ+ई)
होतृ + ऋकारः = होतृकारः (ऋ+ऋ) आदि।

*2. गुणस्वर सन्धिः -  ‘‘आद्गुणः’’* - आत् (अवर्ण- अ, आ) से इक् (इ,उ,ऋ,लृ) परे होने पर पूर्व- पर के स्थान पर गुण एकादेश होता है।

जैसे- 
अ, आ + इ, ई = ए
 अ, आ + उ, ऊ = ओ
 अ, आ + ऋ, ऋृ = अर्
  अ, आ + लृ = अल्

नोटः- गुण तीन प्रकार के होते हैं-
*‘‘अदेङ्गुणः’’* -   अर्थात् अत् (अ), एङ् (ए, ओ) का नाम गुण है।
जैसे-
गंगा + उदकम् = गंग् आ + उदकम् = गंग् ओ दकम् = गंगोदकम्
उप + इन्द्रः = उपेन्द्रः (अ + इ = ए)

*3. वृद्धि सन्धिः - ‘‘वृद्धिरेचि’’*-  अवर्ण (अ, आ) से एच् (ए, ओ, ऐ, औ) परे होने पर पूर्व और पर के स्थान पर वृद्धि संज्ञक एकादेश होता है।

*वृद्धि* = 
अ, आ + ए, ऐ = ऐ
अ, आ + ओ, औ = औ

जैसे :-
तथा +एव = तथैव
एक + एकम् = एकैकम्
महा +औषधिः = महौषधिः
शर्करा +ओदनः = शर्करौदनः
राज + ऐश्वर्यम् = राजैश्वर्यम्

*4. पररूप सन्धिः -  ‘‘एङिपररूपम्’’* -   अवर्णान्त (जिसके अन्त में ‘अ’ हो) उपसर्ग से एङ आदि (जिसके अन्त में ए और ओ हो) धातु के परे होने पर  पर और पूर्व के स्थान पर पररूप एकादेश होता है। 
जैसे-
प्र +एजते = प्रेजते
उप + एहि = उपेहि
प्र + ओषति = प्रोषति

*5. पूर्वरूप सन्धिः -   ‘‘एङ्पदान्तादति’’*    - पद के अन्त में यदि एङ् (ए, ओ) हो तो उनके बाद में यदि ह्रस्व अकार है तो पूर्व और पर के स्थान पर पूर्वरूप एकादेश होता है।
ए + अ = ए
ओ + अ = ओ
जैसे -
हरे + अव = हरेऽव
विष्णो + अव = विष्णोऽव
नमो + अस्तु = नमोऽस्तु
लोके + अस्मिन् = लोकेऽस्मिन्
   
*6. अयादि सन्धिः -  ‘‘एचोऽयवायावः’’*  -  एचः अय् अव् आय् आव् अर्थात् एच् (ए, ऐ, ओ, औ) के बाद यदि अच् हो तो एच् के स्थान पर अय्, आय्, अव्, आव् आदेश होता है।
‘‘यथा संख्यः मनुदेशः समानाम्’’  -  बराबर संख्या वाली विधि क्रम से होती है।
ए = अय्
ओ = अव्
ऐ = आय्
औ = आव्

जैसे- 
भो + अति = भ् ओ + अति = भ् अव् + अति = भवति
करौ + एतौ  = करावेतौ (औ + ए)
गै + अति = गायति(ऐ+अ)
मनो + ए = मनवे

*7. यण् सन्धिः  -  ‘‘इकोयणचि’’*   -  इक् (इ, उ, ऋ, लृ) के स्थान पर यण् (य्, व्, र्, ल्) आदेश होता है यदि ‘अच्’ परे हो तो।

इ, ई + अच् हो  = य्
उ, ऊ +   अच् हो   = व्
ऋ, ऋृ +  अच् हो   = र्
लृ + अच् हो  = ल्
जैसे - 
यदि + अपि = यद् इ अपि = यद् यपि = यद्यपि
   
 मनु + आदि = मन्वादि
 पितृ + आज्ञा = पित्राज्ञा

*सत्यमेव जयते जयतु भारतम्...सन्धिप्रकरणम् - संस्कृतव्याकरणम्*

*सन्धि* शब्द का
●प्रकृति प्रत्यय - सम्+धा+कि(इ) = सन्धि: ।
●लिङ्ग - पुर्लिंग ।
● *कारण:-* "कि" प्रत्यय द्वारा निर्मित सभी शब्द पुर्लिंग होते हैं। यथा:- सन्धि , विधि , प्रविधि , निधि , व्याधि , उपाधि , समाधि इत्यादि।
*विशेष:-* "कि" प्रत्यय धा धातु में ही लगता है, धा धातु से पूर्व उपसर्ग होना चाहिए।

●परिभाषा:- वर्ण सन्धानं सन्धि: ।
- अर्थ :- दो वर्णों के मेल से उत्पन्न विकार सन्धि कहलाता है।
अर्थात् -
संस्कृत में संधि विच्छेद दो वर्णों के निकट आने से उनमें जो विकार होता है उसे ‘सन्धि’ कहते है। इस प्रकार की सन्धि के लिए दोनों वर्णो का निकट होना आवश्यक है, क्योकि दूरवर्ती शब्दो या वर्णो में सन्धि नहीं होती है। वर्णो की इस निकट स्थिति को ही सन्धि कहते है। अतः संक्षेप में यह समझना चाहिए कि दो वर्णो के पास-पास आने से उनमें जो परिवर्तन या विकार होता है उसे संस्कृत व्याकरण में सन्धि कहते है।
उदाहरण -
१. हिम + आलयः = हिमालयः
२. रमा + ईशः = रमेंशः
३. सूर्य + उदयः = सूर्योदयः

*●संस्कृत संधि के भेद/प्रकार:-*
 *लघुसिद्धान्तकौमुदी* के अनुसार संस्कृत भाषा में संधियां तीन प्रकार की होती है-
१. स्वर संधि
२. व्यंजन संधि
३. विसर्ग संधि
*किन्तु सिद्धान्तकौमुदी* के अनुसार या व्याकरणशास्त्र की दृष्टि से सन्धि के पाँच भेद माने गए हैं। जो निम्नलिखित हैं :-
१. स्वरसन्धि (अच्सन्धि)
२. व्यञ्जनसन्धि (हल्सन्धि)
३. विसर्गसन्धि
४. स्वादिसन्धि
५. प्रकृतिभावसन्धि

*विशेष:-*
आचार्य वरदराज  ने लघुसिद्धान्तकौमुदी में स्वादिसन्धि को विसर्ग सन्धि में तथा प्रकृतिभावसन्धि को अचसन्धि के अन्तर्गत ही समावेशित किया है।

*1. स्वर संधि - अच् संधि:-*
●परिभाषा:-
नियम - दो या दो से अधिक स्वरों के मेल से होने वाले विकार (परिवर्तन) को स्वर-संधि कहते हैं।
उदाहरण-
हिम+आलय= हिमालय।
रवि + इन्द्र = रवीन्द्र:
मुनि + इन्द्र = मुनीन्द्र:
नारी + इन्दु = नारीन्दु
मही + ईश = महीश
भानु + उदय = भानूदय
लघु + ऊर्मि = लघूर्मि
वधू + उत्सव = वधूत्सव
भू + ऊर्ध्व = भूर्ध्व

*●स्वरसन्धि/अचसन्धि के भेद:-*
संस्कृत में स्वर-संधि मुख्य रूप से सात भेद होतें हैं। जिनका उचित क्रम सिद्दांतकौमुदी के अनुसार निम्नलिखित है:-
१. यण् संधि - इकोऽयणचि
२. अयादि संधि - एचोऽयवायाव
३. गुण संधि - आद्गुण:
४. वृद्धि संधि - वृध्दिरेचि
५. पररूप संधि - एडि पररूपम्
६. दीर्घ संधि - अक: सवर्णे दीर्घ:
७. पूर्वरूप संधि - एडः पदान्तादति
*स्वरसन्धि में समावेशित सन्धि:-*
१.प्रकृति भाव संधि - ईदूद्विवचनम् प्रग्रह्यम्

*●१. यणसन्धिप्रकरणम्:-*
*सूत्र:-*  इकोऽयणचि ।
*पदच्छेद:-* इक: यण् अचि।
*वृति:-* इक: स्थाने यण् स्यात् अचि परे संहितायां विषये।
*अर्थ:-* यदि इक् प्रत्याहार (इ उ ऋ लृ)  बाद कोई आसमान स्वर हो तो इक् के स्थान पर यण् (य् व् र् ल्) आदेश हो जाता है।
*नोट:-*  सन्धि सदैव संहिता के विषय में ही होती है।

 इ/ई   -> य् ।
उ/ऊ   -> व् ।
ऋ/ऋ  -> र् ।
लृ/--   -> ल् ।
*●उदाहरण:-*
सुधी+उपास्य = सुद्युपास्य / सुद्ध्पास्य ।
मधु + अरि: = मध्वरि: / मद्ध्वरि: ।
धात्रृ + अंश: = धात्रंश: / धात्त्रंश: ।
लृ + आकृति: = लाकृति:।

*नोट:-* प्रथम तीन उदाहरणों में *अनचि च* सूत्र द्वारा विकल्प से द्वित्व हुआ है।
 
*अन्य उदाहरण:-*
1. पठतु + अत्र = पतत्वत्र।
2. कुरु + इदम् = कुर्विदम् ।

यण् संधि के चार नियम होते हैं!

*(क) इ, ई के आगे कोई विजातीय (असमान) स्वर होने पर इ ई को ‘य्’ हो जाता है।*
इ + आ = य् --> अति + आचार: = अत्याचार:
इ + अ = य् + अ --> यदि + अपि = यद्यपि
ई + आ = य् + आ --> इति + आदि = इत्यादि।
ई + अ = य् + अ --> नदी + अर्पण = नद्यर्पण
ई + आ = य् + आ --> देवी + आगमन = देव्यागमन


*(ख) उ, ऊ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर उ ऊ को ‘व्’ हो जाता है।*
उ + आ = व् --> सु + आगतम् = स्वागतम्
उ + अ = व् + अ --> अनु + अय = अन्वय
उ + आ = व् + आ --> सु + आगत = स्वागत
उ + ए = व् + ए --> अनु + एषण = अन्वेषण

*(ग) ‘ऋ’ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर ऋ को ‘र्’ हो जाता है। इन्हें यण-संधि कहते हैं।*
ऋ + अ = र् + आ --> पितृ + आज्ञा = पित्राज्ञा

*(घ) ‘ल्र’ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर ऋ को ‘ल्’ हो जाता है। इन्हें यण-संधि कहते हैं।*
लृ + आ = ल् --> लृ + आकृति = लाकृति: ।

*●२.अयादिसन्धिप्रकरणम्:-*

*सूत्र:-* - एचोऽयवायाव: ।
*पदच्छेद:-* एच: अय् अव् आय् आव: ।
*वृति:-* एच: क्रमाद् अय् अव् आय् आव् एतै आदेशा: स्यु: अचि।
*अर्थ:-* यदि एच् प्रत्याहार (ए ओ ऐ औ) के बाद कोई असमान स्वर हो तो इन चारों वर्णों के स्थान पर क्रमशः अय् अव् आय् आव् आदेश हो जाता है।
*उदाहरण:-*
1. हरे + ए = हरये । (हर्+अय्+ए=हरये)
2. विष्णो + इति =विष्णविति।
3. पौ + अक: = पावकः ।
4. नै + अक: = नायक: ।
5. तौ + एकता = तावेकता।
6. इन्द्रौ + उदिते = इन्द्रावुदिते।

●अयादि संधि का सूत्र *एचोऽयवायाव:* होता है।
●अयादि संधि के चार नियम होते हैं!

ए, ऐ और ओ औ से परे किसी भी स्वर के होने पर क्रमशः अय्, आय्, अव् और आव् हो जाता है। इसे अयादि संधि कहते हैं।
(क)
ए + अ = अय् + अ --> ने + अन = नयन
(ख)
ऐ + अ = आय् + अ --> गै + अक = गायक
(ग)
ओ + अ = अव् + अ --> पो + अन = पवन
(घ)
औ + अ = आव् + अ --> पौ + अक = पावक
औ + इ = आव् + इ --> नौ + इक = नाविक

*●३.गुणसन्धिप्रकरणम्:-*

*सूत्र:-  आद्गुण:।
*वृति:-* अवर्णादचि परे पूर्वपरयोरेको गुण आदेश: स्यात्।
*अर्थ:-* अ या आ के बाद इ/ई ,उ/ऊ , ऋ/ऋ , लृ होतो दोनों के स्थान पर गुण एकादेश: हो जाता है अर्थात् ये दोनों स्वर मिलकर क्रमशः ए, ओ,अर् तथा अल् में बदल जाता है।

गुण संधि के चार नियम होते हैं!
अ, आ के आगे इ, ई हो तो ए ; उ, ऊ हो तो ओ तथा ऋ हो तो अर् हो जाता है। इसे गुण-संधि कहते हैं। जैसे -
(क)
उप+इन्द्र: = उपेन्द्र:।
अ + इ = ए ; नर + इंद्र = नरेंद्र
अ + ई = ए ; नर + ईश= नरेश
आ + इ = ए ; महा + इंद्र = महेंद्र
आ + ई = ए महा + ईश = महेश
(ख)
अ + उ = ओ ; ज्ञान + उपदेश = ज्ञानोपदेश ;
आ + उ = ओ महा + उत्सव = महोत्सव
अ + ऊ = ओ जल + ऊर्मि = जलोर्मि ;
आ + ऊ = ओ महा + ऊर्मि = महोर्मि।
(ग)
अ + ऋ = अर् देव + ऋषि = देवर्षि
(घ)
आ + ऋ = अर् महा + ऋषि = महर्षि

*●४. वृद्धिसन्धिप्रकरणम्:-*
*
*सूत्र:-* वृद्धिरेचि ।
*पदच्छेद:-* वृद्धि: एचि।
*वृत्ति:-* आदेचि परे वृद्धिरेकादेश: स्यात्। गुणापवाद।
*अर्थ:-*  अ या आ के बाद एच् प्रत्याहार का कोई वर्ण हो तो दोनों  के स्थान पर वृद्धि एकादेश हो जाता है अर्थात् ये दोनों मिलकर क्रमशः ऐ तथा औ में बदल जाते हैं।
(अ/आ+ए/ऐ = ऐ)
(अ/आ+ओ/औ = औ)
*विशेष:-* वृद्धि सन्धि गुणसंधि का अपवाद है क्योंकि गुणसन्धि में सम्पूर्ण अच् परे होने का विधान है जबकि वृद्धिसंधि केवल एच् परे होने पर ही होती है।
1. कृष्ण+एकत्वम् = कृष्णैकत्वम्।
2. देव+ऐश्वर्यम् = देवैश्वर्यम्।

वृद्धि संधि के दो नियम होते हैं!
अ, आ का ए, ऐ से मेल होने पर ऐ तथा अ, आ का ओ, औ से मेल होने पर औ हो जाता है। इसे वृद्धि संधि कहते हैं। जैसे -
(क)
अ + ए = ऐ --> एक + एक = एकैक ;
अ + ऐ = ऐ --> मत + ऐक्य = मतैक्य
आ + ए = ऐ --> सदा + एव = सदैव
आ + ऐ = ऐ --> महा + ऐश्वर्य = महैश्वर्य
(ख)
अ + ओ = औ --> वन + औषधि = वनौषधि ;
आ + ओ = औ --> महा + औषधि = महौषधि ;
अ + औ = औ --> परम + औषध = परमौषध ;
आ + औ = औ --> महा + औषध = महौषध

*●५. पररूपसन्धिप्रकरणम्:-*

 *सूत्र:-* - एडि पररूपम्,
पररूप संधि के नियम
नियम - पदांत में अगर "अ" अथवा "आ" हो और उसके परे 'एकार/ओकार' हो तो उस उपसर्ग के एकार/ओकार का लोप हो जाता है। लोप होने पर अकार/ओकार 'ए/ओ' उपसर्ग में मिल जाता है।
पररूप संधि के उदाहरन्
प्र + एजते = प्रेजते
उप + एषते = उपेषते
परा + ओहति = परोहति
प्र + ओषति = प्रोषति
उप + एहि = उपेहि

यह संधि वृद्धि संधि का अपवाद भी होती है।

*●६. दीर्घसन्धिप्रकरणम्:-*

 *सूत्र:-*  अक: सवर्णे दीर्घ:।

दीर्घ संधि के चार नियम होते हैं!
सूत्र-अक: सवर्णे दीर्घ: अर्थात् अक् प्रत्याहार के बाद उसका सवर्ण आये तो दोनो मिलकर दीर्घ बन जाते हैं। ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ, ऋ के बाद यदि ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ, ऋ आ जाएँ तो दोनों मिलकर दीर्घ आ, ई और ऊ, ॠ हो जाते हैं। जैसे -


(क) अ/आ + अ/आ = आ
अ + अ = आ --> धर्म + अर्थ = धर्मार्थ
अ + आ = आ --> हिम + आलय = हिमालय
अ + आ =आ--> पुस्तक + आलय = पुस्तकालय
आ + अ = आ --> विद्या + अर्थी = विद्यार्थी
आ + आ = आ --> विद्या + आलय = विद्यालय
(ख) इ और ई की संधि
इ + इ = ई --> रवि + इंद्र = रवींद्र ; मुनि + इंद्र = मुनींद्र
इ + ई = ई --> गिरि + ईश = गिरीश ; मुनि + ईश = मुनीश
ई + इ = ई --> मही + इंद्र = महींद्र ; नारी + इंदु = नारींदु
ई + ई = ई --> नदी + ईश = नदीश ; मही + ईश = महीश .
(ग) उ और ऊ की संधि
उ + उ = ऊ --> भानु + उदय = भानूदय ; विधु + उदय = विधूदय
उ + ऊ = ऊ --> लघु + ऊर्मि = लघूर्मि ; सिधु + ऊर्मि = सिंधूर्मि
ऊ + उ = ऊ --> वधू + उत्सव = वधूत्सव ; वधू + उल्लेख = वधूल्लेख
ऊ + ऊ = ऊ --> भू + ऊर्ध्व = भूर्ध्व ; वधू + ऊर्जा = वधूर्जा


(घ) ऋ और ॠ की संधि
ऋ + ऋ = ॠ --> पितृ + ऋणम् = पित्रणम्

*●७. पूर्वरूपसन्धिप्रकरणम्:-*
*सूत्र:-*  एडः पदान्तादति ।

पूर्वरूप संधि के नियम
नियम - पदांत में अगर "ए" अथवा "ओ" हो और उसके परे 'अकार' हो तो उस अकार का लोप हो जाता है। लोप होने पर अकार का जो चिन्ह रहता है उसे ( ऽ ) 'लुप्ताकार' या 'अवग्रह' कहते हैं।
पूर्वरूप्  संधि के उदाहरन्


ए / ओ + अकार = ऽ --> कवे + अवेहि = कवेऽवेहि
ए / ओ + अकार = ऽ --> प्रभो + अनुग्रहण = प्रभोऽनुग्रहण
ए / ओ + अकार = ऽ --> लोको + अयम् = लोकोSयम्
ए / ओ + अकार = ऽ --> हरे + अत्र = हरेSत्र

यह संधि आयदि संधि का अपवाद भी होती है।

*●८. प्रकृतिभावसन्धिप्रकरणम्:-*
*सूत्र:-*  - ईदूद्विवचनम् प्रग्रह्यम्।


प्रकृति भाव संधि के नियम
नियम - ईकारान्त, उकारान्त , और एकारान्त द्विवचन रूप के वाद यदि कोइ स्वर आये तो प्रक्रति भाव हो जाता है। अर्थात् ज्यो का त्यो रहता है ।
*प्रकृति भाव संधि के उदाहरन्*
हरी + एतो = हरी एतो
विष्णू + इमौ = विष्णु इमौ
लते + एते = लते एते
अमी + ईशा = अमी ईशा
फ़ले + अवपतत: = फ़ले अवपतत:

*इति अच्सन्धिप्रकरणम्....*

गाय के गोबर का महत्व

 आयुर्वेद ग्रंथों  में हमारे ऋषि मुनियों ने पहले ही बता दिया गया  था कि   *धोवन पानी पीने का वैज्ञानिक तथ्य और आज की आवश्यकता* वायुमण्डल में...