*दिगम्बराचार्य 108 श्री विद्यासागर महामुनिराज जी का शैक्षिक दृष्टिकोण*
✍️ ©डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य
उपलक्ष्य -53 वे दीक्षादिवस पर
दिनांक 25/06/2020 आषाढ शुक्ल पंचमी
संत शिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज जी का व्यक्तित्व अपार वारिधि की राशि सम अनंत,विराट, विशाल ,अनुपमेय ,अतुलनीय ,अकथनीय ,गंभीर एवं अवर्णनीय है ,फिर भी केवल आत्म संतुष्टि के लिए उनके व्यापक शैक्षिक दृष्टिकोण को दृष्टि में रखकर उनके व्यक्तित्व एवं व्यापक चिंतन के द्वारा आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं । कहा भी गया है - अचिंत्यो हि महामना प्रभावः
शिक्षा का अर्थ
*शिक्षा की उत्पत्ति संस्कृत की शिक्ष धातु से आ प्रत्यय लगाने से हुई है ,जिसका अर्थ है सीखना और सिखाना ।*
शिक्षा -विद्योपादने = शिर्क्षेजिज्ञासायाम
*शिक्षा नाम अभ्यासः- शिक्षा कस नाम अभ्यास है ।*
बीसवीं शताब्दी के भारतीय दिगम्बर शिक्षाचार्य श्री विद्यासागर जी यतिराज जी ने शिक्षा को सीखने -सीखने की प्रक्रिया माना है,जो मानव जीवन के किसी विशिष्ट स्तर तक सीमित नहीं रहती अपितु सतत प्रवर्तमान रहती है ।
[
उनका मानना है कि--
*शिक्षा एक ऐसी सामाजिक एवं गतिशील प्रकिया है जो व्यक्ति के जन्मजात गुणों का विकास करके अर्जित अनुभवों एवं सीखने-सिखाते उसके व्यक्तित्व को इतना निखरती है जिससे वह उम्र के अनुसार सामाजिक-आध्यात्मिक वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके और कर्तव्य एवं आचार-विचार-व्यवहार में कल्याणकारी परिवर्तन हो सके ।*
शिक्षा वह है जो मृत्यु -पर्यंत सहायक बनकर मृत्यु के बाद भी आत्मोत्कर्ष में निमित्त बने ।
कहा भी गया है
*सा विद्या या विमुक्तये -विद्या वह है जो मुक्ति दिलाये ।*
आचार्य श्री ने शिक्षा को सत्यान्वेषण के साथ चरित्र और चारित्र को चरितार्थ करने वाली माना है ।जो व्यक्ति का नैतिक उत्थान कर सके ।
*आचार्य श्री के निम्न शैक्षणिक दृष्टिकोण -*
मानवीय गुणों के विकास का दृष्टिकोण
सामूहिक नैतिक उत्थान का दृष्टिकोण
अंतर्निहित योग्यता के विकास का दृष्टिकोण
सम्यक व्यक्तित्व के उचित विकास का दृष्टिकोण
राष्ट्रीय एकता की भावना का दृष्टिकोण
सार्वजनिक एवं सामाजिक हित का दृष्टिकोण
शिक्षा का धार्मिक दृष्टिकोण
शिक्षा का साहित्यिक दृष्टिकोण आदि
*मानवीय गुणों के विकास का दृष्टिकोण*
मानवीय गुणों के विकास का दृष्टिकोण - आचार्य श्री की शिक्षा की प्रत्यक्ष विधि से -मानव में मानवीय गुणों- आपसी प्रेम, सद्भावना, सहकारिता,दया आदि गुणों का विकास होता है । जिससे घृणा,द्वेष, क्रोध -कुंठा आदि से छुटकारा मिलता है । इसे सफल करने के लिए उन्होंने सागर और जबलपुर में ब्राह्मी-विद्या आश्रम खोला, जीव दया के लिए दयोदय संघ , जीव पालन एवं आत्म निर्भरता के लिए शान्ति धारा आदि के प्रेरित किया ।
*सामूहिक नैतिक उत्थान का दृष्टिकोण*
सामूहिक नैतिक उत्थान का दृष्टिकोण-आचार्य श्री ने शिक्षा में चरित्र की अभिन्न भूमिका को स्वीकार किया है । उन्होंने चरित्र और चारित्र को उच्च स्थान प्रदान किया है। जिससे शिक्षार्थी में गुण-दुर्गुण, सज्जन-दुर्जन,विवेक-अविवेक सद वृत्ति-दुरवृत्ति के भेद का ज्ञान होता है। जो सामुदायिक नैतिक पतन से बचाता है । समाज में अपराध वृत्ति पाप वृत्ति को रोकता है । जिसे सफल करने के लिए आचार्य संघ का जीवंत कृतित्व अहम भूमिका निभा रहा है । मुनि प्रमाण सागर, मुनि सुधा सागर , आर्यिका गुरूमती जी, आर्यिका आदर्शमती ,प्रभावना मति जी आदि।
*अंतर्निहित योग्यता के विकास का दृष्टिकोण*
अंतर्निहित योग्यता के विकास का दृष्टिकोण - आचार्य श्री का मानना है कि शिक्षा मनुष्य की अंतर्निहित योग्यताओं, क्षमताओं एवं शक्तियों का विकास करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । जिससे अभ्यर्थी में अंतर्निहित आत्म निर्णय क्षमता, आत्म शक्ति, आत्मानुशासन, प्रबन्धकीय एवं प्रशासकीय क्षमता का विकास किया जा सकता है । इस दृष्टिकोण को दृष्टि में रखते हुए उन्होंने अनुशासन प्रशासकीय सेवा प्रशिक्षण संस्थान दिल्ली -भोपाल में एवं भारत वर्षीय दिगम्बर जैन प्रशासकीय प्रशिक्षण संस्थान जबलपुर में खोला ।
*सम्यक व्यक्तित्व के उचित विकास का दृष्टिकोण*
सम्यक व्यक्तित्व के उचित विकास का दृष्टिकोण- आचार्य श्री का ऐसा मानना है कि शिक्षा के द्वारा व्यक्ति के शारीरिक ,मानसिक,धार्मिक, नैतिक, आध्यात्मिक ,संवेगात्मक एवं आत्म निर्भर सम्यक व्यक्तित्व का विकास होता है । अतः उन्होंने भारत के शारीरिक -मानसिक आदि व्यक्तित्वों के विकास को ध्यान में रखते हुए स्वावलंबीता की भावना से हथकरघा -वस्त्रोद्योग की प्रेरणा प्रदान की जिससे श्रावकों में अहिंसक वस्त्र निर्माण-प्रयोग की भावना को स्थान मिला साथ ही जेल के बन्दियों में जीवन की आशा ने जन्म लिया ।
*सार्वजनिक एवं सामाजिक हित का दृष्टिकोण*
सार्वजनिक एवं सामाजिक हित का दृष्टिकोण- आचार्य श्री का शिक्षा -दर्शन यह कहता है कि शिक्षा स्वयं के उद्धार एवं कल्याण के साथ स्वतः परमार्थी होना चाहिए केवल स्वान्तः सुखाय नहीं। शिक्षा स्वयं के हित को केंद्र में रखकर बहुजन हिताय -बहुजन सुखाय ,परोपकार जीव दया, प्राणी रक्षा एवं सेवा भविता युक्त होना चाहिये। जिससे पर के भाग्योदय का चिंतन स्वयं के भाग्योदय में निमित्त भूत होगा। आपने प्राणियों की सेवा, उनकी स्वास्थ्य रक्षा के लिए सागर मध्यप्रदेश में भाग्योदय तीर्थ जैसा चिकित्सा सेवा संस्थान सामाजिक सार्वजनिक हित के दृष्टिकोण से खोला जो समाज को परोपकार एवं सेवा की शिक्षा प्रदान करता है ।
*राष्ट्रीय एकता की भावना का* दृष्टिकोणआचार्य श्री ने राष्ट्रीय एकता की शैक्षिक भावना को ध्यान में रखकर भारत को पुरातन अस्तित्व में लाने के लिए "इंडिया नहीं भारत बोलो" मातृभाषा रक्षा, स्वेदशी अपनाओ, स्व रोजगार, आत्म निर्भर भारत जैसे राष्ट्रीय अभियान चलाया फलस्वरूप भारत के जातिवाद, राज्यवाद, ,वर्ग वाद में बंटे भारत को राष्ट्रीय एकता की भावना का संदेश जन-जन तक पहुंचाया । जिसका प्रभाव सुप्रीम कोर्ट पर भी पड़ा और उन्होंने इस याचिका का पर शीघ्र ही संज्ञान में लिया । जिससे देश के जन प्रतिनिधियों, शासकों-प्रशासकों,नीति निर्धारकों को एक पथ आवर पाथेय की शिक्षा प्रदान की ।
*स्वावलंबी शिक्षा का दर्शन-*
आचार्य श्री ये कहते हैं -वतन और वेतन ,
आचार्य श्री के शिक्षा सम्बन्धी अनुभव-जो सीख देते हैं हमें
शिक्षा सर्वोपयोगी, सर्वांगी,सर्वोदयी, एवं स्वानुभूति पूर्ण हो ।
छात्रों को ना खोजकर शिक्षकों को खोजें । जो स्वयं सीखें और अपने उत्तराधिकारी को सिखा सके वही शिक्षक है ।
भारत में भारतीयता की शिक्षा के दर्शन हों तभी भारत शैक्षिक रूप से स्वतंत्र हो सकता है ।
हम केवल शरीर से भारतीय ना रहें हम मन से ,संस्कृति और संस्कारों से युक्त विचारों से भी भारतीय बनें ।
शिक्षा स्वाबलंबी हो जो आत्म निर्भर बना सके । दास नहीं ।
शिक्षा वही जो कुशलता और दक्षता आंतरिक स्वच्छता के साथ आत्मिक विकास दे ।
मातृ-भाषा के पल्लवन के बिना शिक्षा अपूर्ण है ।
✍️ ©डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य
उपलक्ष्य -53 वे दीक्षादिवस पर
दिनांक 25/06/2020 आषाढ शुक्ल पंचमी
संत शिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज जी का व्यक्तित्व अपार वारिधि की राशि सम अनंत,विराट, विशाल ,अनुपमेय ,अतुलनीय ,अकथनीय ,गंभीर एवं अवर्णनीय है ,फिर भी केवल आत्म संतुष्टि के लिए उनके व्यापक शैक्षिक दृष्टिकोण को दृष्टि में रखकर उनके व्यक्तित्व एवं व्यापक चिंतन के द्वारा आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं । कहा भी गया है - अचिंत्यो हि महामना प्रभावः
शिक्षा का अर्थ
*शिक्षा की उत्पत्ति संस्कृत की शिक्ष धातु से आ प्रत्यय लगाने से हुई है ,जिसका अर्थ है सीखना और सिखाना ।*
शिक्षा -विद्योपादने = शिर्क्षेजिज्ञासायाम
*शिक्षा नाम अभ्यासः- शिक्षा कस नाम अभ्यास है ।*
बीसवीं शताब्दी के भारतीय दिगम्बर शिक्षाचार्य श्री विद्यासागर जी यतिराज जी ने शिक्षा को सीखने -सीखने की प्रक्रिया माना है,जो मानव जीवन के किसी विशिष्ट स्तर तक सीमित नहीं रहती अपितु सतत प्रवर्तमान रहती है ।
[
उनका मानना है कि--
*शिक्षा एक ऐसी सामाजिक एवं गतिशील प्रकिया है जो व्यक्ति के जन्मजात गुणों का विकास करके अर्जित अनुभवों एवं सीखने-सिखाते उसके व्यक्तित्व को इतना निखरती है जिससे वह उम्र के अनुसार सामाजिक-आध्यात्मिक वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके और कर्तव्य एवं आचार-विचार-व्यवहार में कल्याणकारी परिवर्तन हो सके ।*
शिक्षा वह है जो मृत्यु -पर्यंत सहायक बनकर मृत्यु के बाद भी आत्मोत्कर्ष में निमित्त बने ।
कहा भी गया है
*सा विद्या या विमुक्तये -विद्या वह है जो मुक्ति दिलाये ।*
आचार्य श्री ने शिक्षा को सत्यान्वेषण के साथ चरित्र और चारित्र को चरितार्थ करने वाली माना है ।जो व्यक्ति का नैतिक उत्थान कर सके ।
*आचार्य श्री के निम्न शैक्षणिक दृष्टिकोण -*
मानवीय गुणों के विकास का दृष्टिकोण
सामूहिक नैतिक उत्थान का दृष्टिकोण
अंतर्निहित योग्यता के विकास का दृष्टिकोण
सम्यक व्यक्तित्व के उचित विकास का दृष्टिकोण
राष्ट्रीय एकता की भावना का दृष्टिकोण
सार्वजनिक एवं सामाजिक हित का दृष्टिकोण
शिक्षा का धार्मिक दृष्टिकोण
शिक्षा का साहित्यिक दृष्टिकोण आदि
*मानवीय गुणों के विकास का दृष्टिकोण*
मानवीय गुणों के विकास का दृष्टिकोण - आचार्य श्री की शिक्षा की प्रत्यक्ष विधि से -मानव में मानवीय गुणों- आपसी प्रेम, सद्भावना, सहकारिता,दया आदि गुणों का विकास होता है । जिससे घृणा,द्वेष, क्रोध -कुंठा आदि से छुटकारा मिलता है । इसे सफल करने के लिए उन्होंने सागर और जबलपुर में ब्राह्मी-विद्या आश्रम खोला, जीव दया के लिए दयोदय संघ , जीव पालन एवं आत्म निर्भरता के लिए शान्ति धारा आदि के प्रेरित किया ।
*सामूहिक नैतिक उत्थान का दृष्टिकोण*
सामूहिक नैतिक उत्थान का दृष्टिकोण-आचार्य श्री ने शिक्षा में चरित्र की अभिन्न भूमिका को स्वीकार किया है । उन्होंने चरित्र और चारित्र को उच्च स्थान प्रदान किया है। जिससे शिक्षार्थी में गुण-दुर्गुण, सज्जन-दुर्जन,विवेक-अविवेक सद वृत्ति-दुरवृत्ति के भेद का ज्ञान होता है। जो सामुदायिक नैतिक पतन से बचाता है । समाज में अपराध वृत्ति पाप वृत्ति को रोकता है । जिसे सफल करने के लिए आचार्य संघ का जीवंत कृतित्व अहम भूमिका निभा रहा है । मुनि प्रमाण सागर, मुनि सुधा सागर , आर्यिका गुरूमती जी, आर्यिका आदर्शमती ,प्रभावना मति जी आदि।
*अंतर्निहित योग्यता के विकास का दृष्टिकोण*
अंतर्निहित योग्यता के विकास का दृष्टिकोण - आचार्य श्री का मानना है कि शिक्षा मनुष्य की अंतर्निहित योग्यताओं, क्षमताओं एवं शक्तियों का विकास करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । जिससे अभ्यर्थी में अंतर्निहित आत्म निर्णय क्षमता, आत्म शक्ति, आत्मानुशासन, प्रबन्धकीय एवं प्रशासकीय क्षमता का विकास किया जा सकता है । इस दृष्टिकोण को दृष्टि में रखते हुए उन्होंने अनुशासन प्रशासकीय सेवा प्रशिक्षण संस्थान दिल्ली -भोपाल में एवं भारत वर्षीय दिगम्बर जैन प्रशासकीय प्रशिक्षण संस्थान जबलपुर में खोला ।
*सम्यक व्यक्तित्व के उचित विकास का दृष्टिकोण*
सम्यक व्यक्तित्व के उचित विकास का दृष्टिकोण- आचार्य श्री का ऐसा मानना है कि शिक्षा के द्वारा व्यक्ति के शारीरिक ,मानसिक,धार्मिक, नैतिक, आध्यात्मिक ,संवेगात्मक एवं आत्म निर्भर सम्यक व्यक्तित्व का विकास होता है । अतः उन्होंने भारत के शारीरिक -मानसिक आदि व्यक्तित्वों के विकास को ध्यान में रखते हुए स्वावलंबीता की भावना से हथकरघा -वस्त्रोद्योग की प्रेरणा प्रदान की जिससे श्रावकों में अहिंसक वस्त्र निर्माण-प्रयोग की भावना को स्थान मिला साथ ही जेल के बन्दियों में जीवन की आशा ने जन्म लिया ।
*सार्वजनिक एवं सामाजिक हित का दृष्टिकोण*
सार्वजनिक एवं सामाजिक हित का दृष्टिकोण- आचार्य श्री का शिक्षा -दर्शन यह कहता है कि शिक्षा स्वयं के उद्धार एवं कल्याण के साथ स्वतः परमार्थी होना चाहिए केवल स्वान्तः सुखाय नहीं। शिक्षा स्वयं के हित को केंद्र में रखकर बहुजन हिताय -बहुजन सुखाय ,परोपकार जीव दया, प्राणी रक्षा एवं सेवा भविता युक्त होना चाहिये। जिससे पर के भाग्योदय का चिंतन स्वयं के भाग्योदय में निमित्त भूत होगा। आपने प्राणियों की सेवा, उनकी स्वास्थ्य रक्षा के लिए सागर मध्यप्रदेश में भाग्योदय तीर्थ जैसा चिकित्सा सेवा संस्थान सामाजिक सार्वजनिक हित के दृष्टिकोण से खोला जो समाज को परोपकार एवं सेवा की शिक्षा प्रदान करता है ।
*राष्ट्रीय एकता की भावना का* दृष्टिकोणआचार्य श्री ने राष्ट्रीय एकता की शैक्षिक भावना को ध्यान में रखकर भारत को पुरातन अस्तित्व में लाने के लिए "इंडिया नहीं भारत बोलो" मातृभाषा रक्षा, स्वेदशी अपनाओ, स्व रोजगार, आत्म निर्भर भारत जैसे राष्ट्रीय अभियान चलाया फलस्वरूप भारत के जातिवाद, राज्यवाद, ,वर्ग वाद में बंटे भारत को राष्ट्रीय एकता की भावना का संदेश जन-जन तक पहुंचाया । जिसका प्रभाव सुप्रीम कोर्ट पर भी पड़ा और उन्होंने इस याचिका का पर शीघ्र ही संज्ञान में लिया । जिससे देश के जन प्रतिनिधियों, शासकों-प्रशासकों,नीति निर्धारकों को एक पथ आवर पाथेय की शिक्षा प्रदान की ।
*स्वावलंबी शिक्षा का दर्शन-*
आचार्य श्री ये कहते हैं -वतन और वेतन ,
आचार्य श्री के शिक्षा सम्बन्धी अनुभव-जो सीख देते हैं हमें
शिक्षा सर्वोपयोगी, सर्वांगी,सर्वोदयी, एवं स्वानुभूति पूर्ण हो ।
छात्रों को ना खोजकर शिक्षकों को खोजें । जो स्वयं सीखें और अपने उत्तराधिकारी को सिखा सके वही शिक्षक है ।
भारत में भारतीयता की शिक्षा के दर्शन हों तभी भारत शैक्षिक रूप से स्वतंत्र हो सकता है ।
हम केवल शरीर से भारतीय ना रहें हम मन से ,संस्कृति और संस्कारों से युक्त विचारों से भी भारतीय बनें ।
शिक्षा स्वाबलंबी हो जो आत्म निर्भर बना सके । दास नहीं ।
शिक्षा वही जो कुशलता और दक्षता आंतरिक स्वच्छता के साथ आत्मिक विकास दे ।
मातृ-भाषा के पल्लवन के बिना शिक्षा अपूर्ण है ।
