सामाजिक पतन के समसामयिक कारण: एक चिंतन
लेखक-डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य
परामर्शदाताCMCLDP-. दमोह
M
ग्रामोदय विश्वविद्यालय चित्रकूट सतना
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसका विकास समाज में रहकर ही होता है । सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक उन्नति के लिए वह समाज में आपसी संबंधों को व्यक्ति, परिवार, समूह और समुदाय से अपनी एवं परिवार की मनोसामाजिक, आर्थिक,सामाजिक ,सांस्कृतिक, धार्मिक आदि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव व्यवहार के द्वारा मानवीय सम्बन्धों को स्थापित कर उसमें संतुष्टि का अनुभव करता है। यही वास्तविक उन्नति है जो समाज को सामाजिक पतन होने से बचाती है ।
समाज एक वृक्ष की भांति होता है जिसकी सभी शाखाएं समान रूप से वृद्धि को प्राप्त होती हैं । समुचित विकास जिसका मूल उद्देश्य होता है परंतु यह तभी सम्भव है जब उस वृक्ष का यथायोग्य ध्यान रखा जाए अन्यथा वह वृक्ष अपनी ही शाखाओं -प्रशाखाओं में उलझकर स्वयं का अस्तित्व समाप्त कर लेता है ।
आज वर्तमान में हम सभी यही देख रहे हैं कि -हम स्वयं का समुचित विकास तो चाहते हैं परंतु समाज का समुचित विकास नहीं । समाज के समुचित विकास को छोड़कर स्वयं के विकास में संलग्न हो गए हैं । हम वृक्ष की एक शाखा को सिंचित कर रहे हैं उसके जड़ मूल को नहीं। जो हमारे सामाजिक पतन में निमित्त बन रहा है ।
इस लेख के माध्यम से मैंने अभी तक सामाजिक क्षेत्र में रहकर जो सामाजिक अनुभव प्राप्त किये उन्हें आपके समक्ष प्रत्यर्पित करने का प्रयास कर रहा हूँ। जिन समसामयिक कारणों से सामाजिक पतन हो रहा है उनको बताने का उपक्रम कर रहा हूँ।
सामाजिक पतन के कारण
1.स्वयं की श्रेष्ठता
2.वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा
3.संघर्ष
4.सामाजिक अनियंत्रण
5.असहयोग
6.बहु-संस्थावाद
7.जातिवाद
8.परिवारवाद
9.हठ धर्मिता
10.चरित्र हीन संचालकत्व
1.स्वयं की श्रेष्ठता-आज समाज के पतन का मुख्य कारण सर्व समुदाय अपने आप को एक दूसरे को श्रेष्ठ प्रमाणित करने में लगा हुआ है । ज्ञान, पद, परिवार, जीवन शैली आदि अनेक प्रकार के अहंकार को जन्म देता है और सामाजिक पतन में प्रबल कारण बनता है ।
2. वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा- सामाजिक दृष्टि से प्रतिस्पर्धा एक असहयोगी अथवा व्यक्तियों और समूहों, संस्थाओं को एक दूसरे से अलग -थलग करने की सामाजिक प्रकिया है । प्रतिस्पर्था अवैयक्तिक होना चाहिए जो ईष्या में कारण ना बने । सीमित वस्तु और अधिकारों को प्राप्त करने के लिए एक दूसरे से आगे निकल जाने किस प्रयत्न होता है। जिसमें द्वेष-ईष्या ,प्रतिशोध की भावना उत्पन्न होती हैं।जो समाज का नैतिक पतन कराती है
3.संघर्ष- स्वयं की श्रेष्ठता, वैयक्तिक स्पर्धा से भी बढ़कर सामाजिक पतन करने का साक्षात कारण एवं समाज की असहयोगी प्रक्रिया का एक चर्म रूप है संघर्ष । इस प्रक्रिया में स्वयं के हित लाभ के लिये सामाजिक दबाव,बल प्रयोग अथवा उत्पीड़न के द्वारा किसी सामाजिक संस्था, समूहों, व्यक्ति के अधिकारों का हनन अपने लक्ष्यों की पूर्ति के लिए हिंसात्मक प्रयोग डराकर, धमकाकर, किया जाता है। आज वर्तमान में हम इनसे भली भांति परिचित हैं।
4.सामाजिक अनियंत्रण-सभ्य समाज का निर्माण सामाजिक संबंधों तथा सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था से होता है ।दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं । सामाजिक अनियंत्रण के कारण आज समाज में व्यक्ति तथा समूह अपनी शक्ति के द्वारा दूसरे पर अधिकार करने के लिए एक-दूसरे से सतत संघर्ष में संलग्न हैं । व्यक्ति के व्यवहारों को नियंत्रण करने के लिए धार्मिक विश्वासों की अहम भूमिका है । पर धर्म के जानकार उनकी अज्ञानता का लाभ उठाकर अपने कार्यो को करने में लिप्त हैं । वे ही संस्था के नियम बनाते हैं वे ही स्वयं उन्हें तोड़ते हैं । है ना दोहरा चरित्र
5.असहयोग- अप्रत्यक्ष विरोध का नाम असहयोग है जो अनिश्चय की दशा में रहता है । जब हम किसी व्यक्ति ,समूह,संस्था विशेष को संदेह की दृष्टि से देखने लगे जाते हैं तब उसके प्रति अप्रत्यक्ष विरोध असहयोग की भावना पैदा होती है । जो समाज के पतन में कारण बनता है ।
6.बहु-संस्थावाद -आज हर समाज में संस्थावाद का बोल-वाला है। जो अपनी अपनी संस्थाओ के विकास में लगे हैं जिस कारण से वे अन्य संस्थाओं एवं उनके सदस्यों को अपना प्रतिद्वन्दी भी समझ कर उन्हें संदेह की दृष्टि से देखने लगे हैं। । निजी लाभ के कारण आरोप-प्रत्यारोपों का खेल खेला जाने लगा है । जिस कारण से समाज का पतन होने में यह भी एक कारण उभर कर सामने आया है।
7.जातिवाद- हम भले ही अपने आपको सभ्य कहने लगे गए हों पर आज भी समाज से जातिवाद का अभिकरण आज भी अस्तित्व में है। मैंने समाज अच्छे से अच्छे धर्मोपदेशकों जो गृह त्याग करके समाज को अपना निर्देशक बतलाते हैं उनके द्वारा ही समाज में ऊंच -नीच का जातिवाद वाला जहर भितर घाती तरीके से फेलाते हुए देखा है । जो सबके सामने मंच,पर माइक पर हमें राग-द्वेष त्याग का उपदेश देते हैं वे ही उसको नहीं छोड़ पाये ।
8.परिवारवाद-आज समाज के पतन का एक कारण परिवार वाद भी है। जिस कारण से सामाजिक संस्थाओं ,ट्रस्ट, समितियों में पीढ़ी दर पीढ़ी स्वयं के परिवार के सदस्यों का मनोनयन, सामाजिक दबाव से चयन एवं साम-दाम-दंड भेदन प्रतिचयन एक आप बात और परंपरा सी हो गई है । जिस कारण से समाज में शक्ति का वितरण सामाजिक न्याय के अनुसार नहीं हो पाता है और पारदर्शीता समाप्ति की ओर चली गई है जिससे सामाजिक पतन होना सुनिश्चित है ।
9.हठ धर्मिता- समाज में स्वयं को स्वंयभू ,संप्रभु ,स्वयं को सर्वोपरि ज्ञानी, गुरु भक्त, प्रभु भक्त मानने वालों की कमी नहीं रही है और उन्हें मान्यता देने वाले अल्पज्ञानी, भावुक भक्तों की की भी कमी नहीं रही है । आयोजनों की सफलता, गुरू के नाम पर स्वयं की उदरपूर्ति उद्देश्यपूर्ति आदि अनेक प्रकल्पों की पूर्णता के कारण उनमें हठधर्मिता का विकास हुआ है । जो समाज एवं स्वयं के लिए घातक सिद्ध होता है । इसी हठ धर्मिता के कारण वे मनमाने तरीके से जनाधार को जनादेश में बदलने में सफल होकर स्वयं के मत की स्थापना, स्वयं की पूजा कराने में सफल हो रहें हैं जो धर्म देश और समाज के पतन का कारण है ।
10.चरित्रहीन संचालकत्व- छिद्रान्वेषी ,चरित्रहीन, छली कपटी, दोषी लोगों के हाथ में समाज का संचालन समाज के पतन का कारण है । जिन लोगों ने शासन-प्रशासन,सामाजिक संस्थाओं के धन, सामग्री का उपयोग स्वयं के लिए किया ,गबन किया , भ्रस्टाचार किया आज उन लोगों के हाथों में धार्मिकता का दिखावा करते हुए समाज का संचालन करने का भार दिया जाना । उन्हें हर बार अनदेखा करना समाज के पतन का समसामयिक कारण है ।
इसके अतिरिक्त भी कई कारण हैं जो समाज का पतन करने में मुख्य भूमिका निभाते हैं । पर उपरोक्त कारणों में अंतर्भूत हो गए हैं ।
मैं समाज से कहना चाहता हूं जिनका दोहरा चरित्र और चरित्र है उन्हें संस्था के पदों से स्वयं निवृत्त हो जाना चाहिए या समाज को उनको तत्काल प्रभाव से संस्थाओं से पृथक कर देना चाहिये जो समाज हित में रहेगा ।
लेखक-डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य
परामर्शदाताCMCLDP-. दमोह
M
ग्रामोदय विश्वविद्यालय चित्रकूट सतना
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसका विकास समाज में रहकर ही होता है । सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक उन्नति के लिए वह समाज में आपसी संबंधों को व्यक्ति, परिवार, समूह और समुदाय से अपनी एवं परिवार की मनोसामाजिक, आर्थिक,सामाजिक ,सांस्कृतिक, धार्मिक आदि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव व्यवहार के द्वारा मानवीय सम्बन्धों को स्थापित कर उसमें संतुष्टि का अनुभव करता है। यही वास्तविक उन्नति है जो समाज को सामाजिक पतन होने से बचाती है ।
समाज एक वृक्ष की भांति होता है जिसकी सभी शाखाएं समान रूप से वृद्धि को प्राप्त होती हैं । समुचित विकास जिसका मूल उद्देश्य होता है परंतु यह तभी सम्भव है जब उस वृक्ष का यथायोग्य ध्यान रखा जाए अन्यथा वह वृक्ष अपनी ही शाखाओं -प्रशाखाओं में उलझकर स्वयं का अस्तित्व समाप्त कर लेता है ।
आज वर्तमान में हम सभी यही देख रहे हैं कि -हम स्वयं का समुचित विकास तो चाहते हैं परंतु समाज का समुचित विकास नहीं । समाज के समुचित विकास को छोड़कर स्वयं के विकास में संलग्न हो गए हैं । हम वृक्ष की एक शाखा को सिंचित कर रहे हैं उसके जड़ मूल को नहीं। जो हमारे सामाजिक पतन में निमित्त बन रहा है ।
इस लेख के माध्यम से मैंने अभी तक सामाजिक क्षेत्र में रहकर जो सामाजिक अनुभव प्राप्त किये उन्हें आपके समक्ष प्रत्यर्पित करने का प्रयास कर रहा हूँ। जिन समसामयिक कारणों से सामाजिक पतन हो रहा है उनको बताने का उपक्रम कर रहा हूँ।
सामाजिक पतन के कारण
1.स्वयं की श्रेष्ठता
2.वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा
3.संघर्ष
4.सामाजिक अनियंत्रण
5.असहयोग
6.बहु-संस्थावाद
7.जातिवाद
8.परिवारवाद
9.हठ धर्मिता
10.चरित्र हीन संचालकत्व
1.स्वयं की श्रेष्ठता-आज समाज के पतन का मुख्य कारण सर्व समुदाय अपने आप को एक दूसरे को श्रेष्ठ प्रमाणित करने में लगा हुआ है । ज्ञान, पद, परिवार, जीवन शैली आदि अनेक प्रकार के अहंकार को जन्म देता है और सामाजिक पतन में प्रबल कारण बनता है ।
2. वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा- सामाजिक दृष्टि से प्रतिस्पर्धा एक असहयोगी अथवा व्यक्तियों और समूहों, संस्थाओं को एक दूसरे से अलग -थलग करने की सामाजिक प्रकिया है । प्रतिस्पर्था अवैयक्तिक होना चाहिए जो ईष्या में कारण ना बने । सीमित वस्तु और अधिकारों को प्राप्त करने के लिए एक दूसरे से आगे निकल जाने किस प्रयत्न होता है। जिसमें द्वेष-ईष्या ,प्रतिशोध की भावना उत्पन्न होती हैं।जो समाज का नैतिक पतन कराती है
3.संघर्ष- स्वयं की श्रेष्ठता, वैयक्तिक स्पर्धा से भी बढ़कर सामाजिक पतन करने का साक्षात कारण एवं समाज की असहयोगी प्रक्रिया का एक चर्म रूप है संघर्ष । इस प्रक्रिया में स्वयं के हित लाभ के लिये सामाजिक दबाव,बल प्रयोग अथवा उत्पीड़न के द्वारा किसी सामाजिक संस्था, समूहों, व्यक्ति के अधिकारों का हनन अपने लक्ष्यों की पूर्ति के लिए हिंसात्मक प्रयोग डराकर, धमकाकर, किया जाता है। आज वर्तमान में हम इनसे भली भांति परिचित हैं।
4.सामाजिक अनियंत्रण-सभ्य समाज का निर्माण सामाजिक संबंधों तथा सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था से होता है ।दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं । सामाजिक अनियंत्रण के कारण आज समाज में व्यक्ति तथा समूह अपनी शक्ति के द्वारा दूसरे पर अधिकार करने के लिए एक-दूसरे से सतत संघर्ष में संलग्न हैं । व्यक्ति के व्यवहारों को नियंत्रण करने के लिए धार्मिक विश्वासों की अहम भूमिका है । पर धर्म के जानकार उनकी अज्ञानता का लाभ उठाकर अपने कार्यो को करने में लिप्त हैं । वे ही संस्था के नियम बनाते हैं वे ही स्वयं उन्हें तोड़ते हैं । है ना दोहरा चरित्र
5.असहयोग- अप्रत्यक्ष विरोध का नाम असहयोग है जो अनिश्चय की दशा में रहता है । जब हम किसी व्यक्ति ,समूह,संस्था विशेष को संदेह की दृष्टि से देखने लगे जाते हैं तब उसके प्रति अप्रत्यक्ष विरोध असहयोग की भावना पैदा होती है । जो समाज के पतन में कारण बनता है ।
6.बहु-संस्थावाद -आज हर समाज में संस्थावाद का बोल-वाला है। जो अपनी अपनी संस्थाओ के विकास में लगे हैं जिस कारण से वे अन्य संस्थाओं एवं उनके सदस्यों को अपना प्रतिद्वन्दी भी समझ कर उन्हें संदेह की दृष्टि से देखने लगे हैं। । निजी लाभ के कारण आरोप-प्रत्यारोपों का खेल खेला जाने लगा है । जिस कारण से समाज का पतन होने में यह भी एक कारण उभर कर सामने आया है।
7.जातिवाद- हम भले ही अपने आपको सभ्य कहने लगे गए हों पर आज भी समाज से जातिवाद का अभिकरण आज भी अस्तित्व में है। मैंने समाज अच्छे से अच्छे धर्मोपदेशकों जो गृह त्याग करके समाज को अपना निर्देशक बतलाते हैं उनके द्वारा ही समाज में ऊंच -नीच का जातिवाद वाला जहर भितर घाती तरीके से फेलाते हुए देखा है । जो सबके सामने मंच,पर माइक पर हमें राग-द्वेष त्याग का उपदेश देते हैं वे ही उसको नहीं छोड़ पाये ।
8.परिवारवाद-आज समाज के पतन का एक कारण परिवार वाद भी है। जिस कारण से सामाजिक संस्थाओं ,ट्रस्ट, समितियों में पीढ़ी दर पीढ़ी स्वयं के परिवार के सदस्यों का मनोनयन, सामाजिक दबाव से चयन एवं साम-दाम-दंड भेदन प्रतिचयन एक आप बात और परंपरा सी हो गई है । जिस कारण से समाज में शक्ति का वितरण सामाजिक न्याय के अनुसार नहीं हो पाता है और पारदर्शीता समाप्ति की ओर चली गई है जिससे सामाजिक पतन होना सुनिश्चित है ।
9.हठ धर्मिता- समाज में स्वयं को स्वंयभू ,संप्रभु ,स्वयं को सर्वोपरि ज्ञानी, गुरु भक्त, प्रभु भक्त मानने वालों की कमी नहीं रही है और उन्हें मान्यता देने वाले अल्पज्ञानी, भावुक भक्तों की की भी कमी नहीं रही है । आयोजनों की सफलता, गुरू के नाम पर स्वयं की उदरपूर्ति उद्देश्यपूर्ति आदि अनेक प्रकल्पों की पूर्णता के कारण उनमें हठधर्मिता का विकास हुआ है । जो समाज एवं स्वयं के लिए घातक सिद्ध होता है । इसी हठ धर्मिता के कारण वे मनमाने तरीके से जनाधार को जनादेश में बदलने में सफल होकर स्वयं के मत की स्थापना, स्वयं की पूजा कराने में सफल हो रहें हैं जो धर्म देश और समाज के पतन का कारण है ।
10.चरित्रहीन संचालकत्व- छिद्रान्वेषी ,चरित्रहीन, छली कपटी, दोषी लोगों के हाथ में समाज का संचालन समाज के पतन का कारण है । जिन लोगों ने शासन-प्रशासन,सामाजिक संस्थाओं के धन, सामग्री का उपयोग स्वयं के लिए किया ,गबन किया , भ्रस्टाचार किया आज उन लोगों के हाथों में धार्मिकता का दिखावा करते हुए समाज का संचालन करने का भार दिया जाना । उन्हें हर बार अनदेखा करना समाज के पतन का समसामयिक कारण है ।
इसके अतिरिक्त भी कई कारण हैं जो समाज का पतन करने में मुख्य भूमिका निभाते हैं । पर उपरोक्त कारणों में अंतर्भूत हो गए हैं ।
मैं समाज से कहना चाहता हूं जिनका दोहरा चरित्र और चरित्र है उन्हें संस्था के पदों से स्वयं निवृत्त हो जाना चाहिए या समाज को उनको तत्काल प्रभाव से संस्थाओं से पृथक कर देना चाहिये जो समाज हित में रहेगा ।
