Thursday, September 17, 2020

जैन दर्शन और उसके उद्देश्य एवं ग्रन्थ परिचय

 दर्शन और उसका उद्देश्य  

'कर्मारातीन् जयतीति जिन:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने राग द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह 'जिन' है।


अर्हत, अरहन्त, जिनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट दर्शन जैनदर्शन हैं।

आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है।

जैन दर्शन का निर्देश है कि आचार का अनुपालन विचारपूर्वक किया जाये। धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। *अत: जैन धर्म का जो 'आत्मोदय' के साथ 'सर्वोदय'- सबका कल्याण उद्दिष्ट है।[1] उसका समर्थन करना जैन दर्शन का लक्ष्य हैं जैन धर्म में अपना ही कल्याण नहीं चाहा गया है, अपितु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और विश्व के जनसमूह, यहाँ तक कि प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है।[2]

जैन दर्शन के प्रमुख अंग

द्रव्य-मीमांसा

तत्त्व-मीमांसा

पदार्थ-मीमांसा

पंचास्तिकाय-मीमांसा

अनेकान्त-विमर्श

स्याद्वाद विमर्श

सप्तभंगी विमर्श


 

द्रव्य-मीमांसा

मुख्य लेख : द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन

वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में द्रव्य और पदार्थ दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा सांख्य दर्शन और बौद्ध दर्शनों में क्रमश: तत्त्व और आर्य सत्यों का कथन किया गया है, वेदान्त दर्शन में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और चार्वाक दर्शन में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक्-पृथक् विस्तृत निरूपण किया गया है।[3]


जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना ज़रूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं।

तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है।

भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि 'अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:' मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है।

अस्तिकाय की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो 'अस्ति' और 'काय' दोनों है। 'अस्ति' का अर्थ 'है' है और 'काय' का अर्थ 'बहुप्रदेशी' है अर्थात् जो द्रव्य है' होकर कायवाले- बहुप्रदेशी हैं, वे 'अस्तिकाय' हैं।[4] ऐसे पाँच द्रव्य हैं-

पुद्गल

धर्म

अधर्म

आकाश

जीव

कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।

तत्त्व मीमांसा

मुख्य लेख : तत्त्व मीमांसा -जैन दर्शन

तत्त्व का अर्थ है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। 'तस्य भाव: तत्त्वम्' अर्थात् वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है[5]। जैन दर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।[6]


बहिरात्मा,

अन्तरात्मा और

परमात्मा।

मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक, पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर अभ्यास से कर्म-कलङ्क से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर) हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन, आत्म विद्या की ओर लगाव अपूर्व है।


 

पदार्थ मीमांसा

मुख्य लेख : पदार्थ मीमांसा -जैन दर्शन

उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।[7]


पंचास्तिकाय मीमांसा

मुख्य लेख : पंचास्तिकाय मीमांसा -जैन दर्शन

जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं।[8]


अनेकान्त विमर्श

मुख्य लेख : अनेकान्त विमर्श -जैन दर्शन

'अनेकान्त' जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता।


स्याद्वाद विमर्श

मुख्य लेख : स्याद्वाद विमर्श -जैन दर्शन

स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है।


समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और विद्यानन्द ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।


 

आगम (श्रुत)

शब्द, संकेत, चेष्टा आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह आगम है। जैसे- 'मेरु आदिक है' शब्दों को सुनने के बाद सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है।[9] शब्द श्रवणादि मतिज्ञान पूर्वक होने से यह ज्ञान (आगम) भी परोक्ष प्रमाण है। इस तरह से स्मृत्यादि पाँचों ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं। स्मरण में धारणा रूप अनुभव (मति), प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में अनुभव, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्ति स्मरण और आगम में शब्द, संकेतादि अपेक्षित हैं- उनके बिना उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है। अतएव ये और इस जाति के अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।


नय-विमर्श

नय-स्वरूप— अभिनव धर्मभूषण ने[10] न्याय का लक्षण करते हुए कहा है कि 'प्रमाण-नयात्मको न्याय:'- प्रमाण और नय न्याय हैं, क्योंकि इन दोनों के द्वारा पदार्थों का सम्यक् ज्ञान होता है। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र के, जिसे 'महाशास्त्र' कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रमाण और मय को जीवादि तत्त्वार्थों को जानने का उपाय बताया गया है और वह है- 'प्रमाणनयैरधिगम:[11]'। वस्तुत: जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के आधार पर निर्मित हुआ है।


नय-भेद


उपर्युक्त प्रकार से मूल नय दो हैं[12]-


द्रव्यार्थिक और

पर्यायार्थिक।

इनमें द्रव्यार्थिक तीन प्रकार का हैं[13]-

नैगम,

संग्रह,

व्यवहार। तथा

पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं[14]-

ऋजुसूत्र,

शब्द,

समभिरूढ़ और

एवम्भूत।

नैगम नय जो धर्म और धर्मी में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें 'सुख' धर्म की प्रधानता और 'जीव' धर्मी की गौणता है अथवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें 'जीव' धर्मी की प्रधानता है, क्योंकि वह विशेष्य है और 'सुख' धर्म गौण है, क्योंकि वह विशेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण किया गया है। जो भावी कार्य के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है।


संग्रह नय जो प्रतिपक्ष की अपेक्षा के साथ 'सन्मात्र' को ग्रहण करता है वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है, किन्तु सर्वथा 'सत्' कहने पर 'चेतन, अचेतन विशेषों का निषेध होने से वह संग्रहाभास है। विधिवाद इस कोटि में समाविष्ट होता है।


व्यवहार नय संग्रहनय से ग्रहण किये 'सत्' में जो नय विधिपूर्वक यथायोग्य भेद करता है वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत 'सत्' द्रव्य हे या पर्याप्त है या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है।


ऋजुसूत्र नय भूत और भविष्यत पर्यायों को गौण कर केवल वर्तमान पर्याय को जो नय ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है। वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानना ऋजुसूत्रनय है, क्योंकि इसमें वस्तु में होने वाली भूत और भविष्यत की पर्यायों तथा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप हो जाता है।


शब्द नय


जो काल, कारक और लिङ्ग के भेद से शब्द में कथं चित् अर्थभेद को बतलाता है वह शब्दनय है। जैसे 'नक्तं निशा' दोनों पर्यायावाची हैं, किन्तु दोनों में लिंग भेद होने के कथं चित् अर्थभेद है। 'नक्तं' शब्द नंपुसक लिंग है और 'निशा' शब्द स्त्रीलिंग है। 'शब्दभेदात् ध्रुवोऽर्थभेद:' यह नय कहता है। अर्थभेद को कथं चित् माने बिना शब्दों को सर्वथा नाना बतलाकर अर्थ भेद करना शब्दनयाभास हैं


समभिरूढ़ नय


जो पर्याय भेद पदार्थ का कथंचित् भेद निरूपित करता है वह समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्याय शब्द होने से उनके अर्थ में कथं चित् भेद बताना। पर्याय भेद माने बिना उनका स्वतंत्र रूप से कथन करना समभिरूढ नयाभास है।[15]'


एवंभूत नय


जो क्रिया भेद से वस्तु के भेद का कथन करता है वह एवंभूत नय हैं जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अथवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह नय क्रिया पर निर्भर है। इसका विषय बहुत सूक्ष्म है। क्रिया की अपेक्षा न कर क्रिया वाचक शब्दों का कल्पनिक व्यवहार करना एवंभूतनयाभास है।



 

जैन दर्शन का उद्भव और विकास

उद्भव


आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निबद्ध 'षट्खंडागम' में, जो दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, 'सिया पज्जत्ता', 'सिया अपज्जता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया', 'अखंखेज्जा* 'जैसे 'सिया' (स्यात्) शब्द और प्रश्नोत्तरी शैली को लिए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।

'षट्खंडागम' के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के 'पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार' आदि आर्ष ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अधिक उद्गमबीज मिलते हैं। 'सिय अत्थिणत्थि उहयं', 'जम्हा' जैसे युक्ति प्रवण वाक्यों एवं शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूर्वक विषयों को दृढ़ किया गया है।

विकास


काल की दृष्टि से उनके विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-


आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल (ई. 200 से ई. 650)।

मध्यकाल अथवा अकलंक-काल (ई. 650 से ई. 1050)।

उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अथवा प्रभाचन्द्र-काल (ई. 1050 से 1700)। आगे विस्तार में पढ़ें:- जैन दर्शन का उद्भव और विकास

जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ

आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय


ये दोनों ही आचार्य उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंश पत्र्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रसिद्ध हुआ है।

जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण जयधवल टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। आगे विस्तार में पढ़ें:- जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ



 

जैन दर्शन में अध्यात्म

'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत् जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-


जीव,

पुद्गल,

धर्म,

अधर्म,

आकाश और

काल। आगे विस्तार में पढ़ें:- जैन दर्शन में अध्यात्म

जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ

बीसवीं शती के जैन तार्किक


बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित दर्शन और न्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय के साथ ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं। सन्तप्रवर न्यायचार्य पं. गणेशप्रसाद वर्णी न्यायचार्य, पं. माणिकचन्द्र कौन्देय, पं. सुखलाल संघवी, डा. पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री, पं. दलसुख भाइर मालवणिया एवं इस लेख के लेखक डा. पं. दरबारी लाला कोठिया न्यायाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ



 

त्रिभंगी टीका

आस्रवत्रिभंगी,

बंधत्रिभंगी,

उदयत्रिभंगी और

सत्त्वत्रिभंगी-इन 4 त्रिभंगियों को संकलित कर टीकाकार ने इन पर संस्कृत में टीका की है।

आस्रवत्रिभंगी 63 गाथा प्रमाण है।

इसके रचयिता श्रुतमुनि हैं।

बंधत्रिभंगी 44 गाथा प्रमाण है तथा उसके कर्ता नेमिचन्द शिष्य माधवचन्द्र हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- त्रिभंगी टीका

पंचसंग्रह टीका

मूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ प्राकृत भाषा में है। इस पर तीन संस्कृत-टीकाएँ हैं।


श्रीपालसुत डड्ढा विरचित पंचसंग्रह टीका,

आचार्य अमितगति रचित संस्कृत-पंचसंग्रह,

सुमतकीर्तिकृत संस्कृत-पंचसंग्रह।

पहली टीका दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत-अनुष्टुपों में परिवर्तित रूप है। इसकी श्लोक संख्या 1243 है। कहीं कहीं कुछ गद्यभाग भी पाया जाता है, जो लगभग 700 श्लोक प्रमाण है। इस तरह यह लगभग 2000 श्लोक प्रमाण है। यह 5 प्रकरणों का संग्रह है। वे 5 प्रकरण निम्न प्रकार हैं-

जीवसमास,

प्रकृतिसमुत्कीर्तन,

कर्मस्तव,

शतक और

सप्ततिका।

इसी तरह अन्य दोनों संस्कृत टीकाओं में भी समान वर्णन है।

विशेष यह है कि आचार्य अमितगति कृत पंचसंग्रह का परिमाण लगभग 2500 श्लोक प्रमाण है। तथा सुमतकीर्ति कृत पंचसंग्रह अति सरल व स्पष्ट है।

इस तरह ये तीनों टीकाएँ संस्कृत में लिखी गई हैं और समान होने पर भी उनमें अपनी अपनी विशेषताएँ पाई जाती हैं।

कर्म साहित्य के विशेषज्ञों को इन टीकाओं का भी अध्ययन करना चाहिए। आगे विस्तार में पढ़ें:- पंचसंग्रह टीका


 

मन्द्रप्रबोधिनी

शौरसेनी प्राकृत भाषा में आचार्य नेमिचन्द्र सि0 चक्रवर्ती द्वारा निबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की संस्कृत भाषा में रची यह एक विशद् और सरल व्याख्या है। इसके रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। यद्यपि यह टीका अपूर्ण है किन्तु कर्मसिद्धान्त को समझने के लिए एक अत्यन्त प्रामाणिक व्याख्या है। केशववर्णी ने इनकी इस टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिसका नाम कर्नाटकवृत्ति है, किया है। इससे ज्ञात होता है कि केशववर्णी ने उनकी इस मन्दप्रबोधिनी टीका से लाभ लिया है।

गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा लिखा गया कर्म और जीव विषयक एक प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण प्राकृत-ग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं-

एक जीवकाण्ड और

दूसरा कर्मकाण्ड।

जीवकाण्ड में 734 और कर्मकाण्ड में 972 शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गाथाएं हैं। कर्मकाण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाएं लिखी गई हैं। वे हैं-


गोम्मट पंजिका,

मन्दप्रबोधिनी,

कन्नड़ संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्वप्रदीपिका,

संस्कृत में ही रचित अन्य नेमिचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीपिका। इन टीकाओं में विषयसाम्य है पर विवेचन की शैली इनकी अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और सरलता इनमें देखी जा सकती है।

आगे विस्तार में पढ़ें:- मन्द्रप्रबोधिनी


टीका टिप्पणी और संदर्भ

 सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव–समन्तभद्र युक्त्यनु. का. 61

 क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल: काले वर्ष प्रदिशतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्। दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके, जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि॥

 त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्काय - लेश्या:, पंचान्ये चास्तिकाया व्रत समिति-गति-ज्ञान- चारित्रभेदा:। इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितै: प्रोक्तमर्हदिभरीशै: प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:॥ - स्तवनसंकलन।

 पंचास्तिकाय, गा. 4-5 द्रव्य सं. गा. 24

 श्रोतव्य:श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:। मत्वा च स्ततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥

 कुन्दकुन्द, मोक्ष प्राभृत गा. 4, 5, 6, 7

 जीवा जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठ॥–पंचास्ति., गा. 108

 द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25

 परी.मु. 3-99, 100, 101

 न्यायदीपिका, पृ. 5, संपादन डॉ. दरबारीलाल कोठिया, 1945

 तत्त्वार्थसूत्र, 1-6

 प्रमयरत्नमाला 6/74, पृ. 206, सं. 1928

 प्रमयरत्नमाला, 6/74

 प्रमयरत्नमाला, पृ. 207

 'तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च। तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्यम् श्रुतं पुन: स्वार्थं भवति परार्थं च। - सर्वार्थसिद्धि 1-6, भा. ज्ञा. संस्करण

विक्रमादित्य के 9 रत्न

 अकबर के नौरत्नों से इतिहास भर दिया पर

महाराजा विक्रमादित्य के नवरत्नों की कोई चर्चा पाठ्यपुस्तकों में नहीं है !

जबकि सत्य यह है कि अकबर को महान सिद्ध करने के लिए महाराजा विक्रमादित्य की नकल करके कुछ धूर्तों ने इतिहास में लिख दिया कि अकबर के भी नौ रत्न थे ।

राजा विक्रमादित्य के नवरत्नों को जानने का प्रयास करते हैं ...📷

राजा विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों के विषय में बहुत कुछ पढ़ा-देखा जाता है। लेकिन बहुत ही कम लोग ये जानते हैं कि आखिर ये नवरत्न थे कौन-कौन।

राजा विक्रमादित्य के दरबार में मौजूद नवरत्नों में उच्च कोटि के कवि, विद्वान, गायक और गणित के प्रकांड पंडित शामिल थे, जिनकी योग्यता का डंका देश-विदेश में बजता था। चलिए जानते हैं कौन थे।

ये हैं नवरत्न –

1–धन्वन्तरि-

नवरत्नों में इनका स्थान गिनाया गया है। इनके रचित नौ ग्रंथ पाये जाते हैं। वे सभी आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र से सम्बन्धित हैं। चिकित्सा में ये बड़े सिद्धहस्त थे। आज भी किसी वैद्य की प्रशंसा करनी हो तो उसकी ‘धन्वन्तरि’ से उपमा दी जाती है।

2–क्षपणक-

जैसा कि इनके नाम से प्रतीत होता है, ये बौद्ध संन्यासी थे।

इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि प्राचीन काल में मन्त्रित्व आजीविका का साधन नहीं था अपितु जनकल्याण की भावना से मन्त्रिपरिषद का गठन किया जाता था। यही कारण है कि संन्यासी भी मन्त्रिमण्डल के सदस्य होते थे।

इन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे जिनमें ‘भिक्षाटन’ और ‘नानार्थकोश’ ही उपलब्ध बताये जाते हैं।

3–अमरसिंह-

ये प्रकाण्ड विद्वान थे। बोध-गया के वर्तमान बुद्ध-मन्दिर से प्राप्य एक शिलालेख के आधार पर इनको उस मन्दिर का निर्माता कहा जाता है। उनके अनेक ग्रन्थों में एक मात्र ‘अमरकोश’ ग्रन्थ ऐसा है कि उसके आधार पर उनका यश अखण्ड है। संस्कृतज्ञों में एक उक्ति चरितार्थ है जिसका अर्थ है ‘अष्टाध्यायी’ पण्डितों की माता है और ‘अमरकोश’ पण्डितों का पिता। अर्थात् यदि कोई इन दोनों ग्रंथों को पढ़ ले तो वह महान् पण्डित बन जाता है।

4–शंकु –

इनका पूरा नाम ‘शङ्कुक’ है। इनका एक ही काव्य-ग्रन्थ ‘भुवनाभ्युदयम्’ बहुत प्रसिद्ध रहा है। किन्तु आज वह भी पुरातत्व का विषय बना हुआ है। इनको संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् माना गया है।

5–वेतालभट्ट –

विक्रम और वेताल की कहानी जगतप्रसिद्ध है। ‘वेताल पंचविंशति’ के रचयिता यही थे, किन्तु कहीं भी इनका नाम देखने सुनने को अब नहीं मिलता। ‘वेताल-पच्चीसी’ से ही यह सिद्ध होता है कि सम्राट विक्रम के वर्चस्व से वेतालभट्ट कितने प्रभावित थे। यही इनकी एक मात्र रचना उपलब्ध है।

6–घटखर्पर –

जो संस्कृत जानते हैं वे समझ सकते हैं कि ‘घटखर्पर’ किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता। इनका भी वास्तविक नाम यह नहीं है। मान्यता है कि इनकी प्रतिज्ञा थी कि जो कवि अनुप्रास और यमक में इनको पराजित कर देगा उनके यहां वे फूटे घड़े से पानी भरेंगे। बस तब से ही इनका नाम ‘घटखर्पर’ प्रसिद्ध हो गया और वास्तविक नाम लुप्त हो गया।

इनकी रचना का नाम भी ‘घटखर्पर काव्यम्’ ही है। यमक और अनुप्रास का वह अनुपमेय ग्रन्थ है।

इनका एक अन्य ग्रन्थ ‘नीतिसार’ के नाम से भी प्राप्त होता है।

7–कालिदास –

ऐसा माना जाता है कि कालिदास सम्राट विक्रमादित्य के प्राणप्रिय कवि थे। उन्होंने भी अपने ग्रन्थों में विक्रम के व्यक्तित्व का उज्जवल स्वरूप निरूपित किया है। कालिदास की कथा विचित्र है। कहा जाता है कि उनको देवी ‘काली’ की कृपा से विद्या प्राप्त हुई थी। इसीलिए इनका नाम ‘कालिदास’ पड़ गया। संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से यह कालीदास होना चाहिए था किन्तु अपवाद रूप में कालिदास की प्रतिभा को देखकर इसमें उसी प्रकार परिवर्तन नहीं किया गया जिस प्रकार कि ‘विश्वामित्र’ को उसी रूप में रखा गया।

जो हो, कालिदास की विद्वता और काव्य प्रतिभा के विषय में अब दो मत नहीं है। वे न केवल अपने समय के अप्रितम साहित्यकार थे अपितु आज तक भी कोई उन जैसा अप्रितम साहित्यकार उत्पन्न नहीं हुआ है। उनके चार काव्य और तीन नाटक प्रसिद्ध हैं। शकुन्तला उनकी अन्यतम कृति मानी जाती है।

8–वराहमिहिर –

भारतीय ज्योतिष-शास्त्र इनसे गौरवास्पद हो गया है। इन्होंने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनमें-‘बृहज्जातक‘, सुर्यसिद्धांत, ‘बृहस्पति संहिता’, ‘पंचसिद्धान्ती’ मुख्य हैं। गणक तरंगिणी’, ‘लघु-जातक’, ‘समास संहिता’, ‘विवाह पटल’, ‘योग यात्रा’, आदि-आदि का भी इनके नाम से उल्लेख पाया जाता है।

9–वररुचि-

कालिदास की भांति ही वररुचि भी अन्यतम काव्यकर्ताओं में गिने जाते हैं। ‘सदुक्तिकर्णामृत’, ‘सुभाषितावलि’ तथा ‘शार्ङ्धर संहिता’, इनकी रचनाओं में गिनी जाती हैं।

इनके नाम पर मतभेद है। क्योंकि इस नाम के तीन व्यक्ति हुए हैं उनमें से-

1.पाणिनीय व्याकरण के वार्तिककार-वररुचि कात्यायन,

2.‘प्राकृत प्रकाश के प्रणेता-वररुचि

3.सूक्ति ग्रन्थों में प्राप्त कवि-वररुचि

पढ़ने की प्रेरणादायक कहानी

 : पढ़ना लिखना बुरा नहीं होता है।        *पढ़ते  रहो, बढ़ते रहो*


42 यूनिवर्सिटी में पढ़े और 20 डिग्रियों वाले श्रीकांत जिचकर (Shrikant Jichkar) को देश का सबसे योग्य, सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा शख्स कहा जाता है. उन्होंने हर परीक्षा फर्स्ट डिविजिन में पास की. पहले वो  डॉक्टर बने, फिर आईएएस (IAS Officer) लेकिन महज 4 महीने में ही नौकरी से इस्तीफा देकर चुनाव लड़ा. फिर विधायक (MLA) और मंत्री (Ministar) भी बने.


: इस युवक का नाम डॉ श्रीकांत जिचकर था. उन्हें भारत का सबसे पढ़ा-लिखा शख्स कहा जाता है. उन्होंने करियर की शुरुआत एमबीबीएस डॉक्टर के रूप में की थी. फिर नागपुर से एमडी की. उन्हें उस वक्त देश का सबसे ज्यादा लिखा-पढ़ा शख्स कहा जाता था. उनके पास 20 से ज्यादा डिग्रियां थीं. पहले वो आईपीएस बने. फिर आईएएस सेलेक्ट हुए. दोनों ही बार उन्होंने इन शानदार नौकरियों को ठुकरा दिया. 14 सितंबर 1954 के दिन जिचकर का जन्म हुआ था. लिम्का बुक ने उन्हें देश का सबसे योग्य व्यक्ति बताया था.


श्रीकांत 1978 में इंडियन सिविल सर्विसेज एग्जाम में बैठे. उनका सेलेक्शन भारतीय पुलिस सेवा यानी आईपीएस में हुआ. उन्होंने इसे छोड़ दिया. वो फिर इसी एग्जाम में बैठे. अबकी बार उनका चयन एक आईएएस के रूप में हो गया. चार महीने बाद ही उन्होंने इस नौकरी से इस्तीफा दे दिया. वजह थी चुनाव मैदान में कूदना. 1980 में वो महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में विजयी रहे. 26 साल की उम्र में देश के सबसे युवा विधायक बने.


 यानी इंटरनेशनल लॉ में पोस्ट ग्रेजुएशन किया. फिर डीबीएम और एमबीए (मास्टर्स इन बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन) किया. बात यहीं तक नहीं रही. श्रीकांत ने पत्रकारिता की भी पढाई की, बेचलर ऑफ जर्नलिज्म की डिग्री हासिल की. फिर संस्कृत में डीलिट (डॉक्टर ऑफ लिटरेचर) हासिल किया. जो किसी भी यूनिवर्सिटी की सबसे उच्च डिग्री होती है.

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 उन्होंने समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, इतिहास, अंग

उन्होंने समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, इतिहास, अंग्रेजी साहित्य, दर्शन शास्त्र, राजनीति विज्ञान, प्राचीन भारतीय इतिहास, पुरातत्व और मनोविज्ञान में भी एमए किया था. गौरतलब बात ये भी है कि उन्होंने ये सारी डिग्रियां मेरिट में रहकर हासिल की. पढ़ाई के दौरान उन्हें कई बार गोल्ड मेडल मिले. 1973 से लेकर 1990 तक उन्होंने 42 यूनिवर्सिटी एग्जाम दिए.

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 श्रीकांत यहीं नहीं रुके वो महाराष्ट्र के सबसे �

श्रीकांत यहीं नहीं रुके वो महाराष्ट्र के सबसे ताकवर मंत्री भी बने. उनके पास उस समय 14 विभाग थे. वहां उन्होंने 1982 से 85 तक काम किया.  इसके अलगे साल यानि 1986 में वो महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्य बने. यहां पर 1992 तक रहे. 1992 से 1998 के बीच वो राज्यसभा में भी रहे.

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 जब 1999 में डॉ. जिचकर राज्यसभा का चुनाव हार गए तो उन

जब 1999 में डॉ. जिचकर राज्यसभा का चुनाव हार गए तो उन्होंने अपना फोकस यात्राओं पर केंद्रीत किया. वो देश के कई हिस्सों में गए और वहां स्वास्थ्य, शिक्षा और धर्म के बारे में भाषण देते रहे. उन्होंने यूनेस्को में भारत का प्रतिनिधित्व किया. श्रीकांत के पास देश की सबसे बड़ी पर्सनल लाइब्रेरी थी. जिसमें 52000 से ज्यादा किताबें थीं. डॉ. जिचकर का नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में भारत के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे व्यक्ति के तौर पर शुमार हुआ.

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 जिचकर एक अकादमिक, पेंटर, प्रोफेशनल फोटोग्राफर �

जिचकर एक अकादमिक, पेंटर, प्रोफेशनल फोटोग्राफर और स्टेज एक्टर थे. उन्होंने 1992 में एक स्कूल की स्थापना की. अपनी उम्र में बाद में उन्होंने अकेले दम पर महाराष्ट्र में संस्कृत यूनिवर्सिटी स्थापित की और उसके चांसलर बने.

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 इस प्रतिभाशाली शख्स का जल्दी ही देहांत भी हो गय�

इस प्रतिभाशाली शख्स का जल्दी ही देहांत भी हो गया. 02 जून 2004 की रात श्रीकांत कार से अपने दोस्त के फॉर्म से घर के लिए नागपुर निकले. वो खुद कार ड्राइव कर रहे थे. रास्ते में उनकी कार एक बस से टकरा गई. इस हादसे में 49 साल की उम्र में उनका निधन हो गया. बेशक उनकी उम्र कम थी लेकिन ये काफी मायने वाली रही. उन्होंने कई भूमिकाएं अदा कीं. खूब पढाई की. राजनीतिक के तौर पर भी भरपूर काम किया.

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