Thursday, December 30, 2021

यूरिया की जगह खेती में दही का उपयोग करे

 2 किलो दही 25 किलो यूरिया के बराबर करता है काम! 

🙏🙏 Mor Dairy Farm (एक नई सोच)  🙏🙏

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हाल के दिनों में यूरिया की किल्लत से परेशानी की खबर देश के हर जिले से आ रही है। घंटों मशक्कत के बाद भी किसानों को 1-2 बोरी यूरिया मिलने में परेशानी आ रही है। इस तरह के परेशानियों का सामना करने वाले सभी किसान भाइयों के लिए एक बड़ी खुशखबरी है।

दरअसल खेती में दही का उपयोग करके आप यूरिया सहित अन्य उर्वरकों का दाम बचा सकते हैं।


दही का उपयोग करने के कई लाभ हैं।

 दही के उपयोग से खेती से लागत का 95 प्रतिशत बचता है और कृषि उत्पादन में कम से कम 15 प्रतिशत की वृद्धि होती है। दही के फायदों को देखकर, कई किसानों ने इसकी ओर रुख किया है। खासकर जब से इसका प्रयोग भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और गुजरात के कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा किया गया है।  दही का उपयोग अब खेत में किया जा रहा है। 


पानी की बचत

अगर आप अपने खेतों में दही का उपयोग करते हैं तो

15 दिनों तक सिंचाई करने की आवश्यकता नहीं है, इसलिए यह प्रति एकड़ 1000 रुपये बचाता है। रासायनिक उर्वरक की प्रति एकड़ लागत रु 1100 है, लेकिन दही की कीमत 110 रुपये प्रति 2 किलो दूध है। कीटनाशकों पर 1500 रुपये प्रति एकड़ खर्च नहीं होता है। इस प्रकार, एक को प्रति एकड़ 3600 रुपये खर्च करने पड़ते हैं, लेकिन केवल 155 रुपये की मामूली लागत पर दहीं से काम चलता है।


दही कैसे बनाये

दही बनाने के लिए मिट्टी के बर्तन में देशी गाय का दो लीटर दूध डालें। दो किलो दही में एक तांबे का टुकड़ा या एक तांबे का चम्मच डुबोएं और इसे 8 से 15 दिनों के लिए ढककर छाया में रखें। इसमें हरे रंग का तार होगा। तांबे या पीतल को धोकर दही में मिलाएं। 5 लीटर मिश्रण बनाने के लिए दो किलो दही में 3 लीटर पानी मिलाएं। एक एकड़ में एक पंप द्वारा पानी का छिड़काव किया जाता है। फिर 1 एकड़ में फसल पर पानी छिड़का जाता है। ऐसा करने से पौधे 25 से 45 दिनों तक हरे रहेंगे। नाइट्रोजन की अब जरूरत नहीं है,फसल हरी हो जाएगी।


2 किलो दही से 25 किलो यूरिया बचता है

उत्तर बिहार में 1 लाख किसान यूरिया की जगह दही का इस्तेमाल करते हैं। अनाज, सब्जी और बागों के उत्पादन में 25 से 30 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई है। 30 मिलीलीटर दही का मिश्रण एक लीटर पानी में डाला जाता है। दिल्ली के आसपास, 9 साल से यूरिया के बजाय दही का उपयोग किया जाता है।


सभी फसलों में उपयोगी

यह सभी प्रकार की फसलों जैसे मक्का, गेहूं, आम, केला, सब्जियां, लीची, धान, गन्ना पर छिड़का जा सकता है।


गार्डन

बगीचे में फूल आने से 25 दिन पहले दही पानी का उपयोग किया जाता है। यह बगीचों को फास्फोरस और नाइट्रोजन प्रदान करता है। फसल पर जैविक पदार्थ तैयार हो जाएगा। सभी फल एक समान आकार के होते हैं।


जहरीला मक्खन

छाछ से निकलने वाला मक्खन किट नियंत्रक के रूप में काम करेगा। जहरीले मक्खन में वर्मीकम्पोस्ट डाल कर पौधे की जड़ों में रगड़ें। कीड़े और कीट चले जाएंगे। विषाक्त पदार्थों के बारे में पता होना महत्वपूर्ण है।


निस्संक्रामक

अगर ये किसान इसमें दही के अलावा मेथी का पेस्ट या नीम का तेल मिलाते हैं और इसे कीटनाशक के रूप में स्प्रे करते हैं, तो फसल को फंगस नहीं लगेगा। ऐसा करने से नाइट्रोजन प्रदान करता है, कीटों को समाप्त करता है और अनुकूल कीटों से बचाता है।


मिट्टी में खाद

दही का उपयोग मिट्टी में भी किया जा सकता है। 2 किलो दही प्रति एकड़ के हिसाब से लगायें। मिट्टी में माइक्रोबियल दर अधिक है। ऐसा करने से सभी फसलों में उत्पादन 25-30 प्रतिशत बढ़ सकता है। दही का उपयोग पंचगव्य में किया जाता है।


पानी की खपत कम हो जाती है

गर्मी में दही में 300 ग्राम और पानी में 300 ग्राम सेंधा नमक मिलाकर 300 ग्राम सेंधा नमक छिड़कने से फसल को 15 दिनों तक पानी की जरूरत नहीं होती है।


कृषि अनुसंधान संस्थान

जैसा कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने मार्च 2017 में इस नवाचार को मान्यता दी थी, मुजफ्फरपुर के किसानों को दही की खेती करके सम्मानित किया गया था।


भारत में, सालाना 500 लाख टन उर्वरक का उपयोग किया जाता है। उपर के अनुभव किसानो का है। कृषि अधिकारी से जानकर ही इसे उपयोग करना चाहीए।


🙏🙏 🙏🙏

Wednesday, December 29, 2021

योग एवं रोग से सम्बंधित 100 महत्वपूर्ण जानकारियां

 *योग की कुछ 100 जानकारी जिसका ज्ञान सबको होना चाहिए*


1. योग, भोग और रोग ये तीन अवस्थाएं है।

2. *लकवा* - सोडियम की कमी के कारण होता है।

3. *हाई वी पी में* -  स्नान व सोने से पूर्व एक गिलास जल का सेवन करें तथा स्नान करते समय थोड़ा सा नमक पानी मे डालकर स्नान करे।

4. *लो बी पी* - सेंधा नमक डालकर पानी पीयें।

5. *कूबड़ निकलना*- फास्फोरस की कमी।

6. *कफ* - फास्फोरस की कमी से कफ बिगड़ता है, फास्फोरस की पूर्ति हेतु आर्सेनिक की उपस्थिति जरुरी है। गुड व शहद खाएं‌।

7. *दमा, अस्थमा* - सल्फर की कमी।

8. *सिजेरियन आपरेशन* - आयरन , कैल्शियम की कमी।

9. *सभी क्षारीय वस्तुएं दिन डूबने के बाद खायें*।

10. *अम्लीय वस्तुएं व फल दिन डूबने से पहले खायें*।

11. *जम्भाई*- शरीर में आक्सीजन की कमी।

12. *जुकाम* - जो प्रातः काल जूस पीते हैं वो उस में काला नमक व अदरक डालकर पिये।

13. *ताम्बे का पानी* - प्रातः खड़े होकर नंगे पाँव पानी ना पियें।

14.  *किडनी* - भूलकर भी खड़े होकर गिलास का पानी ना पिये।

15. *गिलास* एक रेखीय होता है तथा इसका सर्फेसटेन्स अधिक होता है। गिलास अंग्रेजो ( पुर्तगाल) की सभ्यता से आयी है अतः लोटे का पानी पियें,  लोटे का कम  सर्फेसटेन्स होता है।

16. *अस्थमा, मधुमेह, कैंसर* से गहरे रंग की वनस्पतियाँ बचाती हैं।

17. *वास्तु* के अनुसार जिस घर में जितना खुला स्थान होगा उस घर के लोगों का दिमाग व हृदय भी उतना ही खुला होगा।

18. *परम्परायें* वहीँ विकसित होगीं जहाँ जलवायु के अनुसार व्यवस्थायें विकसित होगीं।

19. *पथरी* - अर्जुन की छाल से पथरी की समस्यायें ना के बराबर है।

20. *RO* का पानी कभी ना पियें यह गुणवत्ता को स्थिर नहीं रखता। कुएँ का पानी पियें। बारिस का पानी सबसे अच्छा, पानी की सफाई के लिए *सहिजन* की फली सबसे बेहतर है।

21. *सोकर उठते समय* हमेशा दायीं करवट से उठें या जिधर का *स्वर* चल रहा हो उधर करवट लेकर उठें।

22. *पेट के बल सोने से* हर्निया, प्रोस्टेट, एपेंडिक्स की समस्या आती है। 

23.  *भोजन* के लिए पूर्व दिशा, *पढाई* के लिए उत्तर दिशा बेहतर है।

24.  *HDL* बढ़ने से मोटापा कम होगा LDL व VLDL कम होगा।

25. *गैस की समस्या* होने पर भोजन में अजवाइन मिलाना शुरू कर दें।

26.  *चीनी* के अन्दर सल्फर होता जो कि पटाखों में प्रयोग होता है, यह शरीर में जाने के बाद बाहर नहीं निकलता है। चीनी खाने से *पित्त* बढ़ता है। 

27.  *शुक्रोज* हजम नहीं होता है *फ्रेक्टोज* हजम होता है और भगवान् की हर मीठी चीज में फ्रेक्टोज है।

28. *वात* के असर में नींद कम आती है।

29.  *कफ* के प्रभाव में व्यक्ति प्रेम अधिक करता है।

30. *कफ* के असर में पढाई कम होती है।

31. *पित्त* के असर में पढाई अधिक होती है।

33.  *आँखों के रोग* - कैट्रेक्टस, मोतियाविन्द, ग्लूकोमा, आँखों का लाल होना आदि ज्यादातर रोग कफ के कारण होता है।

34. *शाम को वात*-नाशक चीजें खानी चाहिए।

35.  *प्रातः 4 बजे जाग जाना चाहिए।* 

36. *सोते समय* रक्त दवाव सामान्य या सामान्य से कम होता है।

37. *व्यायाम* - *वात रोगियों* के लिए मालिश के बाद व्यायाम, *पित्त वालों* को व्यायाम के बाद मालिश करनी चाहिए। *कफ के लोगों* को स्नान के बाद मालिश करनी चाहिए।

38. *भारत की जलवायु* वात प्रकृति की है, दौड़ की बजाय सूर्य नमस्कार करना चाहिए।

39. *जो माताएं* घरेलू कार्य करती हैं उनके लिए व्यायाम जरुरी नहीं।

40. *निद्रा* से *पित्त* शांत होता है, मालिश से *वायु* शांति होती है, उल्टी से *कफ* शांत होता है तथा *उपवास* ( लंघन ) से बुखार शांत होता है।

41.  *भारी वस्तुयें* शरीर का रक्तदाब बढाती है, क्योंकि उनका गुरुत्व अधिक होता है।

42. *दुनियां के महान* वैज्ञानिक का स्कूली शिक्षा का सफ़र अच्छा नहीं रहा, चाहे वह 8 वीं फेल न्यूटन हों या 9 वीं फेल आइस्टीन हों। 

43. *माँस खाने वालों* के शरीर से अम्ल-स्राव करने वाली ग्रंथियाँ प्रभावित होती हैं।

44. *तेल हमेशा* गाढ़ा खाना चाहिएं सिर्फ लकडी वाली घाणी का, दूध हमेशा पतला पीना चाहिए।

45. *छिलके वाली दाल-सब्जियों से कोलेस्ट्रोल हमेशा घटता है।* 

46. *कोलेस्ट्रोल की बढ़ी* हुई स्थिति में इन्सुलिन खून में नहीं जा पाता है। ब्लड शुगर का सम्बन्ध ग्लूकोस के साथ नहीं अपितु कोलेस्ट्रोल के साथ है।

47. *मिर्गी दौरे* में अमोनिया या चूने की गंध सूँघानी चाहिए। 

48. *सिरदर्द* में एक चुटकी नौसादर व अदरक का रस रोगी को सुंघायें।

49. *भोजन के पहले* मीठा खाने से बाद में खट्टा खाने से शुगर नहीं होता है। 

50. *भोजन* के आधे घंटे पहले सलाद खाएं उसके बाद भोजन करें। 

51. *अवसाद* में आयरन, कैल्शियम, फास्फोरस की कमी हो जाती है। फास्फोरस गुड और अमरुद में अधिक है 

52.  *पीले केले* में आयरन कम और कैल्शियम अधिक होता है। हरे केले में कैल्शियम थोडा कम लेकिन फास्फोरस ज्यादा होता है तथा लाल केले में कैल्शियम कम आयरन ज्यादा होता है। हर हरी चीज में भरपूर फास्फोरस होती है, वही हरी चीज पकने के बाद पीली हो जाती है जिसमे कैल्शियम अधिक होता है।

53.  *छोटे केले* में बड़े केले से ज्यादा कैल्शियम होता है।

54. *रसौली* की गलाने वाली सारी दवाएँ चूने से बनती हैं।

55.  हेपेटाइट्स A से E तक के लिए चूना बेहतर है।

56. *एंटी टिटनेस* के लिए हाईपेरियम 200 की दो-दो बूंद 10-10 मिनट पर तीन बार दे।

57. *ऐसी चोट* जिसमे खून जम गया हो उसके लिए नैट्रमसल्फ दो-दो बूंद 10-10 मिनट पर तीन बार दें। बच्चो को एक बूंद पानी में डालकर दें। 

58. *मोटे लोगों में कैल्शियम* की कमी होती है अतः त्रिफला दें। त्रिकूट ( सोंठ+ कालीमिर्च+ मघा पीपली ) भी दे सकते हैं।

59. *अस्थमा में नारियल दें।* नारियल फल होते हुए भी क्षारीय है। दालचीनी + गुड + नारियल दें।

60. *चूना* बालों को मजबूत करता है तथा आँखों की रोशनी बढाता है। 

61.  *दूध* का सर्फेसटेंसेज कम होने से त्वचा का कचरा बाहर निकाल देता है।

62.  *गाय की घी सबसे अधिक पित्तनाशक फिर कफ व वायुनाशक है।* 

63.  *जिस भोजन* में सूर्य का प्रकाश व हवा का स्पर्श ना हो उसे नहीं खाना चाहिए। 

64.  *गौ-मूत्र अर्क आँखों में ना डालें।*

65.  *गाय के दूध* में घी मिलाकर देने से कफ की संभावना कम होती है लेकिन चीनी मिलाकर देने से कफ बढ़ता है।

66.  *मासिक के दौरान* वायु बढ़ जाता है, 3-4 दिन स्त्रियों को उल्टा सोना चाहिए इससे गर्भाशय फैलने का खतरा नहीं रहता है। दर्द की स्थति में गर्म पानी में देशी घी दो चम्मच डालकर पियें।

67. *रात* में आलू खाने से वजन बढ़ता है।

68. *भोजन के* बाद बज्रासन में बैठने से *वात* नियंत्रित होता है।

69. *भोजन* के बाद कंघी करें कंघी करते समय आपके बालों में कंघी के दांत चुभने चाहिए। बाल जल्द सफ़ेद नहीं होगा।

70. *अजवाईन* अपान वायु को बढ़ा देता है जिससे पेट की समस्यायें कम होती है 

71. *अगर पेट* में मल बंध गया है तो अदरक का रस या सोंठ का प्रयोग करें।

72. *कब्ज* होने की अवस्था में सुबह पानी पीकर कुछ देर एडियों के बल चलना चाहिए।

73. *रास्ता चलने*, श्रम कार्य के बाद थकने पर या धातु गर्म होने पर दायीं करवट लेटना चाहिए। 

74. *जो दिन मे दायीं करवट लेता है तथा रात्रि में बायीं करवट लेता है उसे थकान व शारीरिक पीड़ा कम होती है।* 

75.  *बिना कैल्शियम* की उपस्थिति के कोई भी विटामिन व पोषक तत्व पूर्ण कार्य नहीं करते है।

76. *स्वस्थ्य व्यक्ति* सिर्फ 5 मिनट शौच में लगाता है।

77. *भोजन* करते समय डकार आपके भोजन को पूर्ण और हाजमे को संतुष्टि का संकेत है।

78. *सुबह के नाश्ते* में फल, *दोपहर को दही* व *रात्रि को दूध* का सेवन करना चाहिए। 

79. *रात्रि* को कभी भी अधिक प्रोटीन वाली वस्तुयें नहीं खानी चाहिए। जैसे - दाल, पनीर, राजमा, लोबिया आदि। 

80.  *शौच और भोजन* के समय मुंह बंद रखें, भोजन के समय टी वी ना देखें। 

81. *मासिक चक्र* के दौरान स्त्री को ठंडे पानी से स्नान, व आग से दूर रहना चाहिए।

82. *जो बीमारी जितनी देर से आती है, वह उतनी देर से जाती भी है।*

83. *जो बीमारी अंदर से आती है, उसका समाधान भी अंदर से ही होना चाहिए।*

84. *एलोपैथी* ने एक ही चीज दी है, दर्द से राहत। आज एलोपैथी की दवाओं के कारण ही लोगों की किडनी, लीवर, आतें, हृदय ख़राब हो रहे हैं। एलोपैथी एक बिमारी खत्म करती है तो दस बिमारी देकर भी जाती है। 

85. *खाने* की वस्तु में कभी भी ऊपर से नमक नहीं डालना चाहिए, ब्लड-प्रेशर बढ़ता है। 

86 .  *रंगों द्वारा* चिकित्सा करने के लिए इंद्रधनुष को समझ लें, पहले जामुनी, फिर नीला.... अंत में लाल रंग। 

87 . *छोटे* बच्चों को सबसे अधिक सोना चाहिए, क्योंकि उनमें वह कफ प्रवृति होती है, स्त्री को भी पुरुष से अधिक विश्राम करना चाहिए। 

88. *जो सूर्य निकलने* के बाद उठते हैं, उन्हें पेट की भयंकर बीमारियां होती है, क्योंकि बड़ी आँत मल को चूसने लगती है।

89.  *बिना शरीर की गंदगी* निकाले स्वास्थ्य शरीर की कल्पना निरर्थक है, मल-मूत्र से 5%, कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ने से 22 %, तथा पसीना निकलने लगभग 70 % शरीर से विजातीय तत्व निकलते हैं। 

90. *चिंता, क्रोध, ईर्ष्या करने से गलत हार्मोन्स का निर्माण होता है जिससे कब्ज, बबासीर, अजीर्ण, अपच, रक्तचाप, थायरायड की समस्या उतपन्न होती है।* 

91.  *गर्मियों में बेल, गुलकंद, तरबूजा, खरबूजा व सर्दियों में सफ़ेद मूसली, सोंठ का प्रयोग करें।*

92. *प्रसव* के बाद माँ का पीला दूध बच्चे की प्रतिरोधक क्षमता को 10 गुना बढ़ा देता है। बच्चो को टीके लगाने की आवश्यकता नहीं होती  है।

93. *रात को सोते समय* सर्दियों में देशी मधु लगाकर सोयें त्वचा में निखार आएगा।

94. *दुनिया में कोई चीज व्यर्थ नहीं, हमें उपयोग करना आना चाहिए*।

95. *जो अपने दुखों* को दूर करके दूसरों के भी दुःखों को दूर करता है, वही मोक्ष का अधिकारी है। 

96. *सोने से* आधे घंटे पूर्व जल का सेवन करने से वायु नियंत्रित होती है, लकवा, हार्ट-अटैक का खतरा कम होता है। 

97. *स्नान से पूर्व और भोजन के बाद पेशाब जाने से रक्तचाप नियंत्रित होता है*। 

98 . *तेज धूप* में चलने के बाद, शारीरिक श्रम करने के बाद, शौच से आने के तुरंत बाद जल का सेवन निषिद्ध है। 

99. *त्रिफला अमृत है* जिससे *वात, पित्त, कफ* तीनो शांत होते हैं। इसके अतिरिक्त भोजन के बाद पान व चूना।  देशी गाय का घी, गौ-मूत्र भी त्रिदोष नाशक है‌

100. इस विश्व की सबसे मँहगी *दवा लार* है, जो प्रकृति ने तुम्हें अनमोल दी है, इसे ना थूके।


डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य

Monday, December 27, 2021

मैथी और अजवायन के पानी के लाभ

 मेथी और अजवाइन का पानी पीने से सेहत को मिलते हैं ये 5 फायदे, जानें बनाने का तरीका

methi ajwain water: मेथी और अजवाइन पोषक तत्वों से भरपूर होता है। आप इन दोनों का पानी पीकर कई समस्याओं को दूर कर सकते हैं। 


Methi and Ajwain Water Benefits in Hindi: अगर आप हेल्दी मॉर्निग ड्रिंक के बारे में सोच रहे हैं, तो मेथी और अजवाइन का पानी फायदेमंद हो (healthy morning drink) सकता है। इस पानी को सुबह खाली पेट पीने से स्वास्थ्य समस्याएं दूर होने लगती हैं। अजवाइन और मेथी का पानी वजन कम करने, कब्ज को ठीक करने में लाभकारी होता है। इसके अलावा इस पानी को पीने से शरीर की रोग प्रतिरोधक (methi ajwain water for immunity) क्षमता भी बढ़ती है। जानें मेथी और अजवाइन का पानी पीने से होने वाले फायदे-


अजवाइन मेथी का पानी कैसे बनाये? (how to make ajwain methi water)

अगर आप रोज सुबह खाली पेट अजवाइन मेथी का पानी पीना चाहते हैं, तो आपको तैयारी रात को ही करनी पड़ेगी। इसके लिए 1 चम्मच अजवाइन और 1 चम्मच मेथी दाना रात को एक गिलास पानी में भिगोकर रख दें। सुबह इस पानी को छानकर खाली पेट पी जाएं। इस पानी को रोज पीने से वजन घटाने में मदद मिलती है। 


मेथी और अजवाइन की तासीर गर्म होती है, इसलिए सर्दियों में इस पानी को पीने से शरीर में गर्माहट भी बनी रहती है। इनकी तासीर गर्म होने की वजह से पित्त प्रकृति के लोगों को इसका सेवन डॉक्टर की सलाह पर ही करना चाहिए।


मेथी अजवाइन का पानी पीने के फायदे (methi ajwain water benefits)

मेथी अजवाइन का पानी पाने से सेहत को कई फायदे मिलते हैं। मेथी में प्रोटीन, वसा, कैल्शियम, आयरन, फाइबर, मैग्नीशियम, फॉस्फोरस, पोटैशियम, सोडियम, जिंक, कार्बोहाइड्रेट, एंटीऑक्सीडेंट, एंटी बैक्टीरियल और एंटी इंफ्लेमेटरी गुण पाए जाते हैं। इसके अलावा अजवाइन में प्रोटीन, फाइबर, कैल्शियम, आयरन और निकोटिनिक एसिड पाया जाता है। मेथी अजवाइन खाने से आप अपनी कई समस्याओं को दूर कर सकते हैं। जानें मेथी और अजवाइन का पानी पीने के फायदे (methi ajwain water benefits)-


वजन कम करे मेथी अजवाइन का पानी (methi ajwain water for weight loss)

मेथी अजवाइन का पानी वजन कम करने के लिए बेहतरीन घरेलू उपाय के तौर पर कार्य करता है। दरअसल, मेथी और अजवाइन में एंटी ऑक्सीडेंट्स होते हैं, जो मेटाबॉलिज्म को मजबूत बनाते हैं। इसके साथ ही मेथी अजवाइन का पानी फैट बर्न करता है। अगर आप वजन कम करना चाहते हैं, तो इसे अपनी मॉर्निग ड्रिंक में शामिल कर सकते हैं। यह वेट लॉस ड्रिंक (weight loss drink) का काम करता है।


2. कब्ज से राहत दिलाए मेथी अजवाइन का पानी (how to get rid from constipation in hindi)

अगर आपको गैस, कब्ज और अपच की समस्या रहती है, तो सुबह खाली पेट मेथी अजवाइन का पानी पानी (methi aur ajwain ka pani) पी सकते हैं। इस पानी को पीने से बॉडी डिट्रॉक्स होती है। अजवाइन और मेथी में फाइबर होता है, जो कब्ज से राहत दिलाता है। वहीं इनमें मौजूद पोषक तत्व गैस निकालने में भी मदद करता है। इस डिटॉक्स ड्रिंक को अपनी डाइट में जरूर शामिल करें। इससे शरीर में जमा गंदगी, अपशिष्ट पदार्थ आसानी से निकल जाएंगे। इससे मतली जैसी समस्या भी ठीक होती है।


ब्लड शुगर लेवल कंट्रोल करे (Control blood sugar level)

अस्वस्थ खान-पान और इनएक्टिव लाइफस्टाइल डायबिटीज का कारण बनता जा रहा है। आजकल अधिकतर लोगों को डायबिटीज है। अगर आपका ब्लड शुगर लेवल कंटोल में नहीं रहता है, तो आप मेथी अजवाइन का पानी पी सकते हैं। इससे शरीर में शुगर लेवल को कंट्रोल रखने में मदद मिलती है। इसके अलावा यह बैड कोलेस्ट्रॉल को भी कम करता है।


इसे भी पढ़ें - मेथी की चाय पीने से कम होगा बलगम, फेफड़ों (लंग्स) को हेल्दी रखने के तरीके जानें Luke Coutinho से


4. तनाव दूर करे मेथी अजवाइन का पानी

आजकल अधिकतर लोग तनाव, चिंता और एंग्जायटी का सामना कर रहे हैं। इसके साथ ही बॉडी स्ट्रेस भी एक समस्या है। अगर आप भी स्ट्रेस फील करते हैं, तो सुबह खाली पेट मेथी और अजवाइन का पानी पी सकते हैं। इस पानी में फाइबर, मैग्नीशियम जैसे पोषक तत्व होते हैं।


5. इम्यूनिटी बढ़ाए मेथी अजवाइन का पानी (methi ajwain water to boost your immunity)

मेथी और अजवाइन के पानी में विटामिन सी, आयरन, जिंक, एंटीऑक्सीडेंट और कैल्शियम भरपूर मात्रा में होता है। ऐसे में आप इस ड्रिंक को इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए भी पी सकते हैं। सर्दी में खाली पेट मेथी अजवाइन का पानी पीने (methi aur ajwain ka pani) से सर्दी, खांसी और जुकाम ठीक होता है। मेथी और अजवाइन का पानी इम्यूनिटी बढ़ाने का अच्छा उपाय है।


मेथी अजवाइन का पानी इम्यूनिटी बढ़ाने और ब्लड शुगर लेवल को कंट्रोल करने के साथ ही त्वचा के लिए भी फायदेमंद होता है। रोज इस ड्रिंक को पीने से रक्त साफ होता है। इसे पीने से कील-मुहांसे दूर होते हैं। झुर्रियों भी ठीक होती है।

Monday, December 20, 2021

मैथी दाना के फायदे

 *मेथी के बीज बढ़ा सकते हैं टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन, डॉक्टर से जानें पुरुषों के लिए इसे खाने के 5 फायदे*


पौष्टिक तत्वों से भरपूर न केवल खाने का स्वाद बढ़ाती है बल्कि इसका सेवन टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन लेवल भी बढ़ाता है। जानते हैं इसके अन्य लाभ।


पुरुषों के लिए मेथी के बीज के 5 फायदे-Fenugreek seeds benefits for men

1. स्पर्म क्वालिटी और वॉल्यूम को बढ़ाने में सहायक (Sperm Quality Gets Improve) 

स्पर्म और टेस्टोस्टेरॉन दोनों का उत्पादन पुरुष की टेस्टिकल द्वारा होता है। इसलिए इन दोनों में भी एक संबंध है। मेथी के बीजों का सेवन करने से स्पर्म क्वालिटी में भी सुधार आता है और इसकी वॉल्यूम भी बढ़ाता है। साथ ही लो टेस्टोस्टेरॉन लेवल में भी बढ़ोतरी होती है।


2. ब्लड शुगर लेवल नियंत्रण (Controls Blood Sugar)

मेथी के बीजों का सेवन करने से ब्लड शुगर लेवल में स्थिरता आती है जो इसे डायबिटिक लोगों के लिए एक अच्छा विकल्प बनाता है। ब्लड ग्लूकोज लेवल में भी मेथी के बीजों का सेवन करने से कमी देखने को मिली है। रेड ब्लड सेल्स के सर्कुलेशन में भी मेथी के बीज अहम भूमिका निभाते हैं।


3. मूड और एनर्जी बूस्टर (Improves Mood)

कई बार लो टेस्टोस्टेरॉन लेवल के कारण भी मूड स्विंग अधिक होते रहते हैं। मूड हमेशा चिड़चिड़ा और खराब रहता है। साथ ही एनर्जी में भी थोड़ी कमी महसूस होती है। मेथी के बीजों का सेवन करने से आपकी इमोशनल सेहत काफी अच्छी रहती है और इससे आपके हार्मोन्स में संतुलन पैदा होता है जिस कारण आपका मूड अच्छा रहता है।


4.बाल बढ़ाने में फायदेमंद (Good For Hair Health)

जब पुरुषों में टेस्टोस्टेरॉन लेवल कम होने लगते हैं तो उनके सिर से बाल उड़ना शुरू हो जाते हैं और बहुत से पुरुषों में तो गंजेपन का भी यही कारण होता है। मेथी के बीजों से यह प्रभाव कम हो सकता है और आपके हेयर फॉलिकल भी मजबूत हो सकते हैं। इस प्रकार के उम्र बढ़ने से जुड़े लक्षणों में मेथी के बीजों का सेवन करने से राहत पाई जा सकती है।


. स्ट्रेंथ और मसल मास बढ़ाता है (Increases Muscle Mass)

जिन पुरुषों में टेस्टोस्टेरॉन लेवल कम होता है उनका फिटनेस लेवल भी कम होना शुरू हो जाता है। इसी वजह से उनका मसल मास भी काफी कम होना शुरू हो जाता है। मेथी के बीजों का सेवन करने से आपके शरीर में टेस्टोस्टेरॉन लेवल बढ़ते हैं। जिससे आपका मसल मास भी बढ़ता है और आपके शरीर में मजबूती भी आती है।


5.मेथी के बीजों से मोटापा बढ़ने से भी बचा जा सकता है। हालांकि मेथी के बीजों का सेवन करने से कुछ लोगों को पाचन तंत्र से जुड़ी समस्याएं होने लग जाती हैं। इसलिए आपको अपने डॉक्टर से राय लेकर ही इनका सेवन करना चाहिए और गर्भवती महिलाओं को मेथी के बीजों को अवॉइड करना चाहिए।

Friday, October 29, 2021

राहु के साथ अन्य ग्रहों की युति का फल

 वैवाहिक जीवन को प्रभावित करने वाले योग


1. चन्द्र +राहू युति होतो - मानसिक चिंता , पति / पत्नी की मानसिक स्थिति में असंतुलन होता है।


2. मंगल+राहू की युति से - अड़ियल स्वभाव अथवा एक दूसरे की भावनाओं को ठेस पहुँचाना।


3. शुक्र +राहू की युति से - जातक के पत्नी के अलावा अन्य स्त्री से सम्बन्ध के कारण अथवा माता-पिता की इच्छा के बिना विवाह कारण तलाक।


4. सूर्य+राहू - पति, पत्नि के पद , ओहदे अथवा आर्थिक स्थिति को लेकर मतभेद , तथा तलाक की नौबत


5. शनि +राहू - एक दूसरे से अलग रहने के कारण , अशांति तथा तलाक।


6. बुध+राहू -दिमागी सोच में असमानता के कारण अशांति तथा तलाक।

Tuesday, September 7, 2021

मंदिर के अंदर और बाहर बैठकर क्या बोले .

 मान्यता रही है कि जब भी किसी मंदिर में दर्शन के लिए जाएं तो दर्शन करने के बाद #बाहर आकर मंदिर की #पेडी या ऑटले पर थोड़ी देर #बैठते हैं । क्या आप जानते हैं इस #परंपरा का क्या कारण है?


आजकल तो लोग मंदिर की पैड़ी पर बैठकर अपने घर की व्यापार की, राजनीति की चर्चा करते हैं। परंतु यह प्राचीन परंपरा एक विशेष #उद्देश्य के लिए बनाई गई थी । वास्तव में मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर हमें एक श्लोक बोलना चाहिए। यह श्लोक आजकल के लोग भूल गए हैं । आप इस लोक को सुनें और आने वाली पीढ़ी को भी इसे बताएं...  यह श्लोक इस प्रकार है -

🌹

अनायासेन मरणम्, बिना देन्येन जीवनम्।

देहान्त तव सानिध्यम्, देहि में परमेश्वरम् ।।🌹


इस #श्लोक का अर्थ है...


 #अनायासेन_मरणम्...... अर्थात बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो, हम कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर न पड़ें, कष्ट उठाकर मृत्यु को प्राप्त ना हों,, चलते फिरते ही मेरे प्राण निकल जाएं।


#बिना_देन्येन_जीवनम्......... 

अर्थात... परवशता का जीवन ना हो,

मतलब कि हमें कभी किसी के सहारे ना पड़े रहना पड़े। जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है, वैसे परवश या बेबस ना हों । ठाकुर जी की कृपा से बिना भीख के ही जीवन बसर हो सके।


#देहांते_तव_सानिध्यम ........अर्थात जब भी मृत्यु हो तब भगवान के सम्मुख हों। जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं ठाकुर जी उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए। उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले ।


#देहि_में_परमेशवरम्..... हे परमेश्वर ऐसा वरदान हमें देना ।

यह #प्रार्थना करनी चाहिए....


#विशेष:

गाड़ी, लाड़ी, लड़का, लड़की, पति, पत्नी, घर धन यह नहीं मांगना है,, यह तो आप की पात्रता के हिसाब से खुद आपको मिलते हैं। इसीलिए मंदिर में ईश्वर के दर्शन करने के बाद बैठकर यह प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए ।

यह प्रार्थना है, याचना नहीं है । 

#याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है,, जैसे कि घर, व्यापार, नौकरी, पुत्र, पुत्री, सांसारिक सुख, धन या अन्य बातों के लिए जो मांग की जाती है वह याचना है, वह भीख है।


हम प्रार्थना करते हैं.... प्रार्थना का विशेष अर्थ होता है... अर्थात विशिष्ट, श्रेष्ठ । 

अर्थना अर्थात निवेदन। 

ईश्वर से प्रार्थना करें और प्रार्थना क्या करनी है, यह श्लोक बोलना है।


#सब_से_जरूरी_बात


जब हम मंदिर में #दर्शन करने जाते हैं, तो #खुली आंखों से भगवान को देखना चाहिए, निहारना चाहिए । उनके दर्शन करना चाहिए। कुछ लोग वहां आंखें बंद करके खड़े रहते हैं । आंखें #बंद क्यों करना हम तो दर्शन करने आए हैं । भगवान के #स्वरूप का, #श्री_चरणों का ,#मुखारविंद का, #श्रंगार का, #संपूर्णानंद लें । आंखों में भर लें ईश्वर के स्वरूप को । दर्शन करें और दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठें तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किए हैं उस स्वरूप का ध्यान करें । मंदिर में नेत्र नहीं बंद करना। बाहर आने के बाद पैड़ी पर बैठकर जब ईश्वर का ध्यान करें तब नेत्र बंद करें और अगर ईश्वर का स्वरूप ध्यान में नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं और भगवान का दर्शन करें । नेत्रों को बंद करने के पश्चात उपरोक्त श्लोक का पाठ करें।


यहीं शास्त्र हैं यही बड़े बुजुर्गों का कहना है

हिंदू ग्रंथों की विशेषता

 हिंदू धर्मग्रंथों का सार, जानिए किस ग्रंथ में क्या है?


अधिकतर हिंदुओं के पास अपने ही धर्मग्रंथ को पढ़ने की फुरसत नहीं है। वेद, उपनिषद पढ़ना तो दूर वे गीता तक को नहीं पढ़ते जबकि गीता को एक घंटे में पढ़ा जा सकता है। हालांकि कई जगह वे भागवत पुराण सुनने या रामायण का अखंड पाठ करने के लिए समय निकाल लेते हैं या घर में सत्यनारायण की कथा करवा लेते हैं। लेकिन आपको यह जानकारी होना चाहिए कि पुराण, रामायण और महाभारत हिन्दुओं के धर्मग्रंथ नहीं है। धर्मग्रंथ तो वेद ही है। 


शास्त्रों को दो भागों में बांटा गया है:- श्रुति और स्मृति। श्रुति के अंतर्गत धर्मग्रंथ वेद आते हैं और स्मृति के अंतर्गत इतिहास और वेदों की व्याख्‍या की पुस्तकें पुराण, महाभारत, रामायण, स्मृतियां आदि आते हैं। हिन्दुओं के धर्मग्रंथ तो वेद ही है। वेदों का सार उपनिषद है और उपनिषदों का सार गीता है। आओ जानते हैं कि उक्त ग्रंथों में क्या है।


वेदों में क्या है?


वेदों में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, संस्कार, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है। वेद चार है ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।

 

ऋग्वेद :ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। इसमें भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन के मंत्रों के साथ बहुत कुछ है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा आदि की भी जानकारी मिलती है।


यजुर्वेद :यजु अर्थात गतिशील आकाश एवं कर्म। यजुर्वेद में यज्ञ की विधियां और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। तत्व ज्ञान अर्थात रहस्यमयी ज्ञान। ब्रम्हांड, आत्मा, ईश्वर और पदार्थ का ज्ञान। इस वेद की दो शाखाएं हैं शुक्ल और कृष्ण।

 

सामवेद : साम का अर्थ रूपांतरण और संगीत। सौम्यता और उपासना। इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है। इसमें सविता, अग्नि और इंद्र देवताओं के बारे में जिक्र मिलता है। इसी से शास्त्रिय संगीत और नृत्य का जिक्र भी मिलता है। इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। इसमें संगीत के विज्ञान और मनोविज्ञान का वर्णन भी मिलता है।


अथर्वदेव :थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन। इस वेद में रहस्यमयी विद्याओं, जड़ी बूटियों, चमत्कार और आयुर्वेद आदि का जिक्र है। इसमें भारतीय परंपरा और ज्योतिष का ज्ञान भी मिलता है।

 

उपनिषद् क्या है?


उपनिषद वेदों का सार है। सार अर्थात निचोड़ या संक्षिप्त। उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक चिंतन के मूल आधार हैं, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के स्रोत हैं। ईश्वर है या नहीं, आत्मा है या नहीं, ब्रह्मांड कैसा है आदि सभी गंभीर, तत्व ज्ञान, योग, ध्यान, समाधि, मोक्ष आदि की बातें उपनिषद में मिलेगी। उपनिषदों को प्रत्येक हिन्दुओं को पढ़ना चाहिए। इन्हें पढ़ने से ईश्वर, आत्मा, मोक्ष और जगत के बारे में सच्चा ज्ञान मिलता है।

 

वेदों के अंतिम भाग को 'वेदांत' कहते हैं। वेदांतों को ही उपनिषद कहते हैं। उपनिषद में तत्व ज्ञान की चर्चा है। उपनिषदों की संख्या वैसे तो 108 हैं, परंतु मुख्य 12 माने गए हैं, जैसे- 1. ईश, 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. मुण्डक, 6. माण्डूक्य, 7. तैत्तिरीय, 8. ऐतरेय, 9. छांदोग्य, 10. बृहदारण्यक, 11. कौषीतकि और 12. श्वेताश्वतर।


षड्दर्शन क्या है?


वेद से निकला षड्दर्शन : वेद और उपनिषद को पढ़कर ही 6 ऋषियों ने अपना दर्शन गढ़ा है। इसे भारत का षड्दर्शन कहते हैं। दरअसल यह वेद के ज्ञान का श्रेणीकरण है। ये छह दर्शन हैं:- 1.न्याय, 2.वैशेषिक, 3.सांख्य, 4.योग, 5.मीमांसा और 6.वेदांत। वेदों के अनुसार सत्य या ईश्वर को किसी एक माध्यम से नहीं जाना जा सकता। इसीलिए वेदों ने कई मार्गों या माध्यमों की चर्चा की है।

 

गीता में क्या है?


महाभारत के 18 अध्याय में से एक भीष्म पर्व का हिस्सा है गीता। गीता में भी कुल 18 अध्याय हैं। 10 अध्यायों की कुल श्लोक संख्या 700 है। वेदों के ज्ञान को नए तरीके से किसी ने व्यवस्थित किया है तो वह हैं भगवान श्रीकृष्ण। अत: वेदों का पॉकेट संस्करण है गीता जो हिन्दुओं का सर्वमान्य एकमात्र ग्रंथ है। किसी के पास इतना समय नहीं है कि वह वेद या उपनिषद पढ़ें उनके लिए गीता ही सबसे उत्तम धर्मग्रंथ है। गीता को बार बार पढ़ने के बाद ही वह समझ में आने लगती है।

 

गीता में भक्ति, ज्ञान और कर्म मार्ग की चर्चा की गई है। उसमें यम-नियम और धर्म-कर्म के बारे में भी बताया गया है। गीता ही कहती है कि ब्रह्म (ईश्वर) एक ही है। गीता को बार-बार पढ़ेंगे तो आपके समक्ष इसके ज्ञान का रहस्य खुलता जाएगा। गीता के प्रत्येक शब्द पर एक अलग ग्रंथ लिखा जा सकता है।


गीता में सृष्टि उत्पत्ति, जीव विकासक्रम, हिन्दू संदेवाहक क्रम, मानव उत्पत्ति, योग, धर्म, कर्म, ईश्वर, भगवान, देवी, देवता, उपासना, प्रार्थना, यम, नियम, राजनीति, युद्ध, मोक्ष, अंतरिक्ष, आकाश, धरती, संस्कार, वंश, कुल, नीति, अर्थ, पूर्वजन्म, जीवन प्रबंधन, राष्ट्र निर्माण, आत्मा, कर्मसिद्धांत, त्रिगुण की संकल्पना, सभी प्राणियों में मैत्रीभाव आदि सभी की जानकारी है।

 

श्रीमद्भगवद्गीता योगेश्वर श्रीकृष्ण की वाणी है। इसके प्रत्येक श्लोक में ज्ञानरूपी प्रकाश है, जिसके प्रस्फुटित होते ही अज्ञान का अंधकार नष्ट हो जाता है। ज्ञान-भक्ति-कर्म योग मार्गो की विस्तृत व्याख्या की गयी है, इन मार्गो पर चलने से व्यक्ति निश्चित ही परमपद का अधिकारी बन जाता है। गीता को अर्जुन के अलावा और संजय ने सुना और उन्होंने धृतराष्ट्र को सुनाया। गीता में श्रीकृष्ण ने- 574, अर्जुन ने- 85, संजय ने 40 और धृतराष्ट्र ने- 1 श्लोक कहा है।

 

उपरोक्त ग्रंथों के ज्ञान का सार बिंदूवार :


1.ईश्वर के बारे में :


ब्रह्म (परमात्मा) एक ही है जिसे कुछ लोग सगुण (साकार) कुछ लोग निर्गुण (निराकार) कहते हैं। हालांकि वह अजन्मा, अप्रकट है। उसका न कोई पिता है और न ही कोई उसका पुत्र है। वह किसी के भाग्य या कर्म को नियंत्रित नहीं करता। ना कि वह किसी को दंड या पुरस्कार देता है। उसका न तो कोई प्रारंभ है और ना ही अंत। वह अनादि और अनंत है। उसकी उपस्थिति से ही संपूर्ण ब्रह्मांड चलायमान है। सभी कुछ उसी से उत्पन्न होकर अंत में उसी में लीन हो जाता है। ब्रह्मलीन।

 

2.ब्रह्मांड के बारे में :


यह दिखाई देने वाला जगत फैलता जा रहा है और दूसरी ओर से यह सिकुड़ता भी जा रहा है। लाखों सूर्य, तारे और धरतीयों का जन्म है तो उसका अंत भी। जो जन्मा है वह मरेगा। सभी कुछ उसी ब्रह्म से जन्में और उसी में लीन हो जाने वाले हैं। यह ब्रह्मांड परिवर्तनशील है। इस जगत का संचालन उसी की शक्ति से स्वत: ही होता है। जैसे कि सूर्य के आकर्षण से ही धरती अपनी धूरी पर टिकी हुई होकर चलायमान है। उसी तरह लाखों सूर्य और तारे एक महासूर्य के आकर्षण से टिके होकर संचालित हो रहे हैं। उसी तरह लाखों महासूर्य उस एक ब्रह्मा की शक्ति से ही जगत में विद्यमान है।

 

3.आत्मा के बारे में :


आत्मा का स्वरूप ब्रह्म (परमात्मा) के समान है। जैसे सूर्य और दीपक में जो फर्क है उसी तरह आत्मा और परमात्मा में फर्क है। आत्मा के शरीर में होने के कारण ही यह शरीर संचालित हो रहा है। ठीक उसी तरह जिस तरह कि संपूर्ण धरती, सूर्य, ग्रह नक्षत्र और तारे भी उस एक परमपिता की उपस्थिति से ही संचालित हो रहे हैं।


आत्मा का ना जन्म होता है और ना ही उसकी कोई मृत्यु है। आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है। यह आत्मा अजर और अमर है। आत्मा को प्रकृति द्वारा तीन शरीर मिलते हैं एक वह जो स्थूल आंखों से दिखाई देता है। दूसरा वह जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं जो कि ध्यानी को ही दिखाई देता है और तीसरा वह शरीर जिसे कारण शरीर कहते हैं उसे देखना अत्यंत ही मुश्लिल है। बस उसे वही आत्मा महसूस करती है जो कि उसमें रहती है। आप और हम दोनों ही आत्मा है हमारे नाम और शरीर अलग अलग हैं लेकिन भीतरी स्वरूप एक ही है।

 

4.स्वर्ग और नरक के बारे में :


वेदों के अनुसार पुराणों के स्वर्ग या नर्क को गतियों से समझा जा सकता है। स्वर्ग और नर्क दो गतियां हैं। आत्मा जब देह छोड़ती है तो मूलत: दो तरह की गतियां होती है:- 1.अगति और 2. गति।


1.अगति: अगति में व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता है उसे फिर से जन्म लेना पड़ता है।


2.गति :गति में जीव को किसी लोक में जाना पड़ता है या वह अपने कर्मों से मोक्ष प्राप्त कर लेता है।


अगति के चार प्रकार है-1.क्षिणोदर्क, 2.भूमोदर्क, 3. अगति और 4.दुर्गति।


क्षिणोदर्क : क्षिणोदर्क अगति में जीव पुन: पुण्यात्मा के रूप में मृत्यु लोक में आता है और संतों सा जीवन जीता है।


भूमोदर्क :भूमोदर्क में वह सुखी और ऐश्वर्यशाली जीवन पाता है।


अगति :अगति में नीच या पशु जीवन में चला जाता है।

दुर्गति :दुर्गति में वह कीट, कीड़ों जैसा जीवन पाता है।


गति के भी 4 प्रकार :-गति के अंतर्गत चार लोक दिए गए हैं:- 1.ब्रह्मलोक, 2.देवलोक, 3.पितृलोक और 4.नर्कलोक। जीव अपने कर्मों के अनुसार उक्त लोकों में जाता है।

 

तीन मार्गों से यात्रा :


जब भी कोई मनुष्य मरता है या आत्मा शरीर को त्यागकर यात्रा प्रारंभ करती है तो इस दौरान उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं। ऐसा कहते हैं कि उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर करता है। ये तीन मार्ग हैं- अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग। अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है।

 

5.धर्म और मोक्ष के बारे में :


धर्मग्रंथों के अनुसार धर्म का अर्थ है यम और नियम को समझकर उसका पालन करना। नियम ही धर्म है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से मोक्ष ही अंतिम लक्ष्य होता है। हिंदु धर्म के अनुसार व्यक्ति को मोक्ष के बारे में विचार करना चाहिए। मोक्ष क्या है? स्थितप्रज्ञ आत्मा को मोक्ष मिलता है। मोक्ष का भावर्थ यह कि आत्मा शरीर नहीं है इस सत्य को पूर्णत: अनुभव करके ही अशरीरी होकर स्वयं के अस्तित्व को पूख्‍ता करना ही मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है।


6.व्रत और त्योहार के बारे में :


हिन्दु धर्म के सभी व्रत, त्योहार या तीर्थ सिर्फ मोक्ष की प्राप्त हेतु ही निर्मित हुए हैं। मोक्ष तब मिलेगा जब व्यक्ति स्वस्थ रहकर प्रसन्नचित्त और खुशहाल जीवन जीएगा। व्रत से शरीर और मन स्वस्थ होता है। त्योहार से मन प्रसन्न होता है और तीर्थ से मन और मस्तिष्क में वैराग्य और आध्यात्म का जन्म होता है।

 

मौसम और ग्रह नक्षत्रों की गतियों को ध्यान में रखकर बनाए गए व्रत और त्योहार का महत्व अधिक है। व्रतों में चतुर्थी, एकादशी, प्रदोष, अमावस्या, पूर्णिमा, श्रावण मास और कार्तिक मास के दिन व्रत रखना श्रेष्ठ है। यदि उपरोक्त सभी नहीं रख सकते हैं तो श्रावण के पूरे महीने व्रत रखें। त्योहारों में मकर संक्रांति, महाशिवरात्रि, नवरात्रि, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी और हनुमान जन्मोत्सव ही मनाएं। पर्व में श्राद्ध और कुंभ का पर्व जरूर मनाएं।

 

व्रत करने से काया निरोगी और जीवन में शांति मिलती है। सूर्य की 12 और 12 चंद्र की संक्रांति होती है। सूर्य संक्रांतियों में उत्सव का अधिक महत्व है तो चंद्र संक्रांति में व्रतों का अधिक महत्व है। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन। इसमें से श्रावण मास को व्रतों में सबसे श्रेष्ठ मास माना गया है। इसके अलावा प्रत्येक माह की एकादशी, चतुर्दशी, चतुर्थी, पूर्णिमा, अमावस्या और अधिमास में व्रतों का अलग-अलग महत्व है। सौरमास और चंद्रमास के बीच बढ़े हुए दिनों को मलमास या अधिमास कहते हैं। साधुजन चतुर्मास अर्थात चार महीने श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक माह में व्रत रखते हैं।

 

उत्सव, पर्व और त्योहार सभी का अलग-अलग अर्थ और महत्व है। प्रत्येक ऋतु में एक उत्सव है। उन त्योहार, पर्व या उत्सव को मनाने का महत्व अधिक है जिनकी उत्पत्ति स्थानीय परम्परा या संस्कृति से न होकर जिनका उल्लेख वैदिक धर्मग्रंथ, धर्मसूत्र, स्मृति, पुराण और आचार संहिता में मिलता है। चंद्र और सूर्य की संक्रांतियों अनुसार कुछ त्योहार मनाएं जाते हैं। 12 सूर्य संक्रांति होती हैं जिसमें चार प्रमुख है:- मकर, मेष, तुला और कर्क। इन चार में मकर संक्रांति महत्वपूर्ण है। सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ, संक्रांति और कुंभ। पर्वों में रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, गुरुपूर्णिमा, वसंत पंचमी, हनुमान जयंती, नवरात्री, शिवरात्री, होली, ओणम, दीपावली, गणेशचतुर्थी और रक्षाबंधन प्रमुख हैं। हालांकि सभी में मकर संक्रांति और कुंभ को सर्वोच्च माना गया है।


7.तीर्थ के बारे में :


तीर्थ और तीर्थयात्रा का बहुत पुण्य है। जो मनमाने तीर्थ और तीर्थ पर जाने के समय हैं उनकी यात्रा का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं। तीर्थों में चार धाम, ज्योतिर्लिंग, अमरनाथ, शक्तिपीठ और सप्तपुरी की यात्रा का ही महत्व है। अयोध्या, मथुरा, काशी और प्रयाग को तीर्थों का प्रमुख केंद्र माना जाता है, जबकि कैलाश मानसरोवर को सर्वोच्च तीर्थ माना है। बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम और जगन्नाथ पुरी ये चार धान है। सोमनाथ, द्वारका, महाकालेश्वर, श्रीशैल, भीमाशंकर, ॐकारेश्वर, केदारनाथ विश्वनाथ, त्र्यंबकेश्वर, रामेश्वरम, घृष्णेश्वर और बैद्यनाथ ये द्वादश ज्योतिर्लिंग है। काशी, मथुरा, अयोध्या, द्वारका, माया, कांची और अवंति उज्जैन ये सप्तपुरी। उपरोक्त कहे गए तीर्थ की यात्रा ही धर्मसम्मत है।

 

8.संस्कार के बारे में :


संस्कारों के प्रमुख प्रकार सोलह बताए गए हैं जिनका पालन करना हर हिंदू का कर्तव्य है। इन संस्कारों के नाम है-गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अंत्येष्टि। प्रत्येक हिन्दू को उक्त संस्कार को अच्छे से नियमपूर्वक करना चाहिए। यह मनुष्य के सभ्य और हिन्दू होने की निशानी है। उक्त संस्कारों को वैदिक नियमों के द्वारा ही संपन्न किया जाना चाहिए।

 

9.पाठ करने के बारे में : 


वेदो, उपनिषद या गीता का पाठ करना या सुनना प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है। उपनिषद और गीता का स्वयंम अध्ययन करना और उसकी बातों की किसी जिज्ञासु के समक्ष चर्चा करना पुण्य का कार्य है, लेकिन किसी बहसकर्ता या भ्रमित व्यक्ति के समक्ष वेद वचनों को कहना निषेध माना जाता है। प्रतिदिन धर्म ग्रंथों का कुछ पाठ करने से देव शक्तियों की कृपा मिलती है। हिन्दू धर्म में वेद, उपनिषद और गीता के पाठ करने की परंपरा प्राचीनकाल से रही है। वक्त बदला तो लोगों ने पुराणों में उल्लेखित कथा की परंपरा शुरू कर दी, जबकि वेदपाठ और गीता पाठ का अधिक महत्व है।

 

10.धर्म, कर्म और सेवा के बारे में : 


धर्म-कर्म और सेवा का अर्थ यह कि हम ऐसा कार्य करें जिससे हमारे मन और मस्तिष्क को शांति मिले और हम मोक्ष का द्वार खोल पाएं। साथ ही जिससे हमारे सामाजिक और राष्ट्रिय हित भी साधे जाते हों। अर्थात ऐसा कार्य जिससे परिवार, समाज, राष्ट्र और स्वयं को लाभ मिले। धर्म-कर्म को कई तरीके से साधा जा सकता है, जैसे- 1.व्रत, 2.सेवा, 3.दान, 4.यज्ञ, 5.प्रायश्चित, दीक्षा देना और मंदिर जाना आदि।

 

सेव का मतलब यह कि सर्व प्रथम माता-पिता, फिर बहन-बेटी, फिर भाई-बांधु की किसी भी प्रकार से सहायता करना ही धार्मिक सेवा है। इसके बाद अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना पुण्य का कार्य माना गया है। इसके अलवा सभी प्राणियों, पक्षियों, गाय, कुत्ते, कौए, चींटी आति को अन्न जल देना। यह सभी यज्ञ कर्म में आते हैं।


11.दान के बारे में : 


दान से इंद्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूटती है। मन की ग्रथियां खुलती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। देव आराधना का दान सबसे सरल और उत्तम उपाय है। वेदों में तीन प्रकार के दाता कहे गए हैं- 1.उक्तम, 2.मध्यम और 3.निकृष्‍ट। धर्म की उन्नति रूप सत्यविद्या के लिए जो देता है वह उत्तम। कीर्ति या स्वार्थ के लिए जो देता है तो वह मध्यम और जो वेश्‍यागमनादि, भांड, भाटे, पंडे को देता वह निकृष्‍ट माना गया है। पुराणों में अन्नदान, वस्त्रदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान को ही श्रेष्ठ माना गया है, यही पुण्‍य भी है। 


12.यज्ञ के बारे में : 


यज्ञ के प्रमुख पांच प्रकार हैं- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ। यज्ञ पालन से ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृ ऋण, धर्म ऋण, प्रकृति ऋण और मातृ ऋण समाप्त होता है। नित्य संध्या वंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करने से ब्रह्म यज्ञ संपन्न होता है। देवयज्ञ सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से सम्पन्न होता है। अग्नि जलाकर होम करना अग्निहोत्र यज्ञ है। पितृयज्ञ को श्राद्धकर्म भी कहा गया है। यह यज्ञ पिंडदान, तर्पण और सन्तानोत्पत्ति से सम्पन्न होता है। वैश्वदेव यज्ञ को भूत यज्ञ भी कहते हैं। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ कहलाता है। अतितिथ यज्ञ से अर्थ मेहमानों की सेवा करना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इसके अलावा अग्निहोत्र, अश्वमेध, वाजपेय, सोमयज्ञ, राजसूय और अग्निचयन का वर्णण यजुर्वेद में मिलता है।


13.मंदिर जाने के बारे में :


प्रति गुरुवार को मंदिर जाना चाहिए: घर में मंदिर नहीं होना चाहिए। प्रति गुरुवार को मंदिर जाना चाहिए। मंदिर में जाकर परिक्रमा करना चाहिए। भारत में मंदिरों, तीर्थों और यज्ञादि की परिक्रमा का प्रचलन प्राचीनकाल से ही रहा है। मंदिर की 7 बार (सप्तपदी) परिक्रमा करना बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह 7 परिक्रमा विवाह के समय अग्नि के समक्ष भी की जाती है। इसी प्रदक्षिण को इस्लाम धर्म ने परंपरा से अपनाया जिसे तवाफ कहते हैं। प्रदक्षिणा षोडशोपचार पूजा का एक अंग है। प्रदक्षिणा की प्रथा अतिप्राचीन है। हिन्दू सहित जैन, बौद्ध और सिख धर्म में भी परिक्रमा का महत्व है। इस्लाम में मक्का स्थित काबा की 7 परिक्रमा का प्रचलन है। पूजा-पाठ, तीर्थ परिक्रमा, यज्ञादि पवित्र कर्म के दौरान बिना सिले सफेद या पीत वस्त्र पहनने की परंपरा भी प्राचीनकाल से हिन्दुओं में प्रचलित रही है। मंदिर जाने या संध्यावंदन के पूर्व आचमन या शुद्धि करना जरूरी है। इसे इस्लाम में वुजू कहा जाता है।

 

14.संध्यावंदनके बारे में :


संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। मंदिर में जाकर संधि काल में ही संध्या वंदन की जाती है। वैसे संधि आठ वक्त की मानी गई है। उसमें भी पांच महत्वपूर्ण है। पांच में से भी सूर्य उदय और अस्त अर्थात दो वक्त की संधि महत्वपूर्ण है। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। संध्योपासना के चार प्रकार है- 1.प्रार्थना, 2.ध्यान, 3.कीर्तन और 4.पूजा-आरती। व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है।

 

15..धर्म की सेवा के बारे में :


धर्म की प्रशंसा करना और धर्म के बारे में सही जानकारी को लोगों तक पहुंचाना प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य होता है। धर्म प्रचार में वेद, उपनिषद और गीता के ज्ञान का प्रचार करना ही उत्तम माना गया है। धर्म प्रचारकों के कुछ प्रकार हैं। हिन्दू धर्म को पढ़ना और समझना जरूरी है। हिन्दू धर्म को समझकर ही उसका प्रचार और प्रसार करना जरूरी है। धर्म का सही ज्ञान होगा, तभी उस ज्ञान को दूसरे को बताना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को धर्म प्रचारक होना जरूरी है। इसके लिए भगवा वस्त्र धारण करने या संन्यासी होने की जरूरत नहीं। स्वयं के धर्म की तारीफ करना और बुराइयों को नहीं सुनना ही धर्म की सच्ची सेवा है।

 

16.मंत्र के बारे में :


वेदों में बहुत सारे मंत्रों का उल्लेख मिलता है, लेकिन जपने के लिए सिर्फ प्रणव और गायत्री मंत्र ही कहा गया है बाकी मंत्र किसी विशेष अनुष्ठान और धार्मिक कार्यों के लिए है। वेदों में गायत्री नाम से छंद है जिसमें हजारों मंत्र है किंतु प्रथम मंत्र को ही गायत्री मंत्र माना जाता है। उक्त मंत्र के अलावा किसी अन्य मंत्र का जाप करते रहने से समय और ऊर्जा की बर्बादी है। गायत्री मंत्र की महिमा सर्वविदित है। दूसरा मंत्र है महामृत्युंजय मंत्र, लेकिन उक्त मंत्र के जप और नियम कठिन है इसे किसी जानकार से पूछकर ही जपना चाहिए।

 

17.प्रायश्चित के बार में :-प्राचीनकाल से ही हिन्दु्ओं में मंदिर में जाकर अपने पापों के लिए प्रायश्चित करने की परंपरा रही है। प्रायश्‍चित करने के महत्व को स्मृति और पुराणों में विस्तार से समझाया गया है। गुरु और शिष्य परंपरा में गुरु अपने शिष्य को प्रायश्चित करने के अलग-अलग तरीके बताते हैं। दुष्कर्म के लिए प्रायश्चित करना , तपस्या का एक दूसरा रूप है।   यह मंदिर में देवता के समक्ष 108 बार साष्टांग प्रणाम , मंदिर के इर्दगिर्द चलते हुए साष्टांग प्रणाम और कावडी अर्थात वह तपस्या जो भगवान मुरुगन को अर्पित की जाती है, जैसे कृत्यों के माध्यम से की जाती है। मूलत: अपने पापों की क्षमा भगवान शिव और वरूणदेव से मांगी जाती है, क्योंकि क्षमा का अधिकार उनको ही है।

 

18.दीक्षा देने के बारे में :


गृहस्थों को नियम व्रत दीक्षा देने का प्रचलन वैदिक ऋषियों ने प्रारंभ किया था। प्राचीनकाल में पहले शिष्य और ब्राह्मण बनाने के लिए दीक्षा दी जाती थी। माता-पिता अपने बच्चों को जब शिक्षा के लिए भेजते थे तब भी दीक्षा दी जाती थी। हिन्दू धर्मानुसार दिशाहीन जीवन को दिशा देना ही दीक्षा है। दीक्षा एक शपथ, एक अनुबंध और एक संकल्प है।  दीक्षा के बाद व्यक्ति द्विज बन जाता है। द्विज का अर्थ दूसरा जन्म। दूसरा व्यक्तित्व। सिख धर्म में इसे अमृत संचार कहते हैं।

 

यह दीक्षा देने की परंपरा जैन धर्म में भी प्राचीनकाल से रही है, जैन धर्म मे दिगम्बर दीक्षा को मान्यता प्राप्त है । जो परम् कल्याणकारी  है । मोक्ष का साक्षात मार्ग दिगम्बर दीक्षा ही है। 

 हालांकि दूसरे धर्मों में दीक्षा को अपने धर्म में धर्मांतरित करने के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा। धर्म से इस परंपरा को ईसाई धर्म ने अपनाया जिसे वे बपस्तिमा कहते हैं। अलग-अलग धर्मों में दीक्षा देने के भिन्न-भिन्न तरीके हैं।

Wednesday, July 21, 2021

संतान प्राप्ति में : गुण सूत्र ,वंश एवं गोत्र की भूमिका

 गुण सूत्र, गोत्र और वंश का वैज्ञानिक तथ्य 

                                          डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य

                                          संकाय प्रमुख, विभागाध्यक्ष                                                संस्कृत विभाग एकलव्य विश्विद्यालय                                                                    दमोह म. प्र.


#गुणसूत्र #वंश_का_वाहक

हमारे धार्मिक ग्रंथ और हमारी सनातन हिन्दू परंपरा के अनुसार पुत्र (बेटा) को कुलदीपक अथवा वंश को आगे बढ़ाने वाला माना जाता है..... 

अर्थात.... उसे गोत्र का वाहक माना जाता है.


क्या आप जानते हैं कि.... आखिर क्यों होता है कि सिर्फ पुत्र को ही वंश का वाहक माना जाता है ????


असल में इसका कारण.... पुरुष प्रधान समाज अथवा पितृसत्तात्मक व्यवस्था नहीं .... 

बल्कि, हमारे जन्म लेने की प्रक्रिया है.


अगर हम जन्म लेने की प्रक्रिया को सूक्ष्म रूप से देखेंगे तो हम पाते हैं कि......


एक स्त्री में गुणसूत्र (Chromosomes) XX होते है.... और, पुरुष में XY होते है. 


इसका मतलब यह हुआ कि.... अगर पुत्र हुआ (जिसमें XY गुणसूत्र है)... तो, उस पुत्र में Y गुणसूत्र पिता से ही आएगा क्योंकि माता में तो Y गुणसूत्र होता ही नही है


और.... यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र) तो यह गुणसूत्र पुत्री में माता व् पिता दोनों से आते है.


XX गुणसूत्र अर्थात पुत्री


अब इस XX गुणसूत्र के जोड़े में एक X गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा X गुणसूत्र माता से आता है. 


तथा, इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है... जिसे, Crossover कहा जाता है.


जबकि... पुत्र में XY गुणसूत्र होता है.


अर्थात.... जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि.... पुत्र में Y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्योंकि माता में Y गुणसूत्र होता ही नहीं है.


और.... दोनों गुणसूत्र अ-समान होने के कारण.... इन दोनों गुणसूत्र का पूर्ण Crossover नहीं... बल्कि, केवल 5 % तक ही Crossover होता है.


और, 95 % Y गुणसूत्र ज्यों का त्यों (intact) ही बना रहता है.


तो, इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण Y गुणसूत्र हुआ.... क्योंकि, Y गुणसूत्र के विषय में हम निश्चिंत है कि.... यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है.


बस..... इसी Y गुणसूत्र का पता लगाना ही गौत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य है जो हजारों/लाखों वर्षों पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था.


इस तरह ये बिल्कुल स्पष्ट है कि.... हमारी वैदिक गोत्र प्रणाली, गुणसूत्र पर आधारित है अथवा Y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है.


उदाहरण के लिए .... यदि किसी व्यक्ति का गोत्र शांडिल्य है तो उस व्यक्ति में विद्यमान Y गुणसूत्र शांडिल्य ऋषि से आया है....  या कहें कि शांडिल्य ऋषि उस Y गुणसूत्र के मूल हैं.


अब चूँकि....  Y गुणसूत्र स्त्रियों में नहीं होता है इसीलिए विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है.


वैदिक/ हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारण यह है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वह पुरुष व् स्त्री भाई-बहन कहलाए क्योंकि उनका पूर्वज (ओरिजिन) एक ही है..... क्योंकि, एक ही गोत्र होने के कारण...

दोनों के गुणसूत्रों में समानता होगी.


आज की आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार भी.....  यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनके संतान... आनुवंशिक विकारों का साथ उत्पन्न होगी क्योंकि.... ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता एवं ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है.


विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगौत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात् मानसिक विकलांगता, अपंगता, गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं.

शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगौत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था.

यही कारण था कि शारीरिक बिषमता के कारण अग्रेज राज परिवार में आपसी विवाह बन्द हुए। 

जैसा कि हम जानते हैं कि.... पुत्री में 50% गुणसूत्र माता का और 50% पिता से आता है.


फिर, यदि पुत्री की भी पुत्री हुई तो....  वह डीएनए 50% का 50% रह जायेगा...

और फिर....  यदि उसके भी पुत्री हुई तो उस 25% का 50% डीएनए रह जायेगा.


इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री जन्म में यह % घटकर 1% रह जायेगा.


अर्थात.... एक पति-पत्नी का ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुनः पुनः जन्म लेता रहता है....और, यही है "सात जन्मों के साथ का रहस्य".


लेकिन.....  यदि संतान पुत्र है तो .... पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95% गुणों को अनुवांशिकी में ग्रहण करता है और माता का 5% (जो कि किन्हीं परिस्थितियों में एक % से कम भी हो सकता है) डीएनए ग्रहण करता है...

और, यही क्रम अनवरत चलता रहता है.


जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारम्बार जन्म लेते रहते हैं.... अर्थात, यह जन्म जन्मांतर का साथ हो जाता है.


इन सब में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि.... माता पिता यदि कन्यादान करते हैं तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे कन्या को कोई वस्तु समकक्ष समझते हैं...


बल्कि, इस दान का विधान इस निमित किया गया है कि दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिये और उस कुल की कुल धात्री बनने के लिये, उसे गोत्र मुक्त होना चाहिए. 


पुत्रियां..... आजीवन डीएनए मुक्त हो नहीं सकती क्योंकि उसके भौतिक शरीर में वे डीएनए रहेंगे ही, इसलिये मायका अर्थात माता का रिश्ता बना रहता है.


शायद यही कारण है कि..... विवाह के पश्चात लड़कियों के पिता को घर को ""मायका"" ही कहा जाता है.... "'पिताका"" नहीं.


क्योंकि..... उसने अपने जन्म वाले गोत्र अर्थात पिता के गोत्र का त्याग कर दिया है....!


और चूंकि.....  कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिये रज का दान कर मातृत्व को प्राप्त करती है... इसीलिए,  हर विवाहित स्त्री माता समान पूजनीय हो जाती है.


आश्चर्य की बात है कि.... हमारी ये परंपराएं हजारों-लाखों साल से चल रही है जिसका सीधा सा मतलब है कि हजारों लाखों साल पहले.... जब पश्चिमी देशों के लोग नंग-धड़ंग जंगलों में रह रहा करते थे और चूहा ,बिल्ली, कुत्ता वगैरह मारकर खाया करते थे....


उस समय भी हमारे पूर्वज ऋषि मुनि.... इंसानी शरीर में गुणसूत्र के विभक्तिकरण को समझ गए थे.... और, हमें गोत्र सिस्टम में बांध लिया था.


इस बातों से एक बार फिर ये स्थापित होता है कि....  

हमारा सनातन हिन्दू धर्म पूर्णतः वैज्ञानिक है....


बस, हमें ही इस बात का भान नहीं है.


असल में..... अंग्रेजों ने जो हमलोगों के मन में जो कुंठा बोई है..... उससे बाहर आकर हमें अपने पुरातन विज्ञान को फिर से समझकर उसे अपनी नई पीढियों को बताने और समझाने की जरूरत है.



नोट : मैं पुत्र और पुत्री अथवा स्त्री और पुरुष में कोई विभेद नहीं करता और मैं उनके बराबर के अधिकार का पुरजोर समर्थन करता हूँ.


लेख का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ.... गोत्र परंपरा एवं सात जन्मों के रहस्य को समझाना मात्र है।

Monday, July 19, 2021

वैदिक ऋषि एवं उनसे संबंधित ज्ञान आविष्कार

 कौन से ऋषि का क्या है महत्व-

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       महत्वपूर्ण जानकारी

अंगिरा ऋषि👉 ऋग्वेद के प्रसिद्ध ऋषि अंगिरा ब्रह्मा के पुत्र थे। उनके पुत्र बृहस्पति देवताओं के गुरु थे। ऋग्वेद के अनुसार, ऋषि अंगिरा ने सर्वप्रथम अग्नि उत्पन्न की थी।


विश्वामित्र ऋषि👉 गायत्री मंत्र का ज्ञान देने वाले विश्वामित्र वेदमंत्रों के सर्वप्रथम द्रष्टा माने जाते हैं। आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत इनके पुत्र थे। विश्वामित्र की परंपरा पर चलने वाले ऋषियों ने उनके नाम को धारण किया। यह परंपरा अन्य ऋषियों के साथ भी चलती रही।


वशिष्ठ ऋषि👉 ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक वशिष्ठ सप्तऋषियों में से एक थे। उनकी पत्नी अरुंधती वैदिक कर्मो में उनकी सहभागी थीं।


कश्यप ऋषि👉 मारीच ऋषि के पुत्र और आर्य नरेश दक्ष की १३ कन्याओं के पुत्र थे। स्कंद पुराण के केदारखंड के अनुसार, इनसे देव, असुर और नागों की उत्पत्ति हुई।


जमदग्नि ऋषि👉 भृगुपुत्र यमदग्नि ने गोवंश की रक्षा पर ऋग्वेद के १६ मंत्रों की रचना की है। केदारखंड के अनुसार, वे आयुर्वेद और चिकित्साशास्त्र के भी विद्वान थे।


अत्रि ऋषि👉 सप्तर्षियों में एक ऋषि अत्रि ऋग्वेद के पांचवें मंडल के अधिकांश सूत्रों के ऋषि थे। वे चंद्रवंश के प्रवर्तक थे। महर्षि अत्रि आयुर्वेद के आचार्य भी थे।


अपाला ऋषि👉 अत्रि एवं अनुसुइया के द्वारा अपाला एवं पुनर्वसु का जन्म हुआ। अपाला द्वारा ऋग्वेद के सूक्त की रचना की गई। पुनर्वसु भी आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य हुए।


नर और नारायण ऋषि👉  ऋग्वेद के मंत्र द्रष्टा ये ऋषि धर्म और मातामूर्ति देवी के पुत्र थे। नर और नारायण दोनों भागवत धर्म तथा नारायण धर्म के मूल प्रवर्तक थे।


पराशर ऋषि👉 ऋषि वशिष्ठ के पुत्र पराशर कहलाए, जो पिता के साथ हिमालय में वेदमंत्रों के द्रष्टा बने। ये महर्षि व्यास के पिता थे।


भारद्वाज ऋषि👉 बृहस्पति के पुत्र भारद्वाज ने 'यंत्र सर्वस्व' नामक ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें विमानों के निर्माण, प्रयोग एवं संचालन के संबंध में विस्तारपूर्वक वर्णन है। ये आयुर्वेद के ऋषि थे तथा धन्वंतरि इनके शिष्य थे।


आकाश में सात तारों का एक मंडल नजर आता है उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान सात संतों के आधार पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि हुए हैं। यहां प्रस्तुत है वैवस्तवत मनु के काल में जन्में सात महान ‍ऋषियों का संक्षिप्त परिचय।


वेदों के रचयिता ऋषि 👉 ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परंपरा ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं। 


वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- १.वशिष्ठ, २.विश्वामित्र, ३.कण्व, ४.भारद्वाज, ५.अत्रि, ६.वामदेव और ७.शौनक। 


पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :- 


वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत।

विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।।


 अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।


इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है।


महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है। यहां प्रस्तुत है वैदिक नामावली अनुसार सप्तऋषियों का परिचय।


१. वशिष्ठ👉 राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता। ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।


२. विश्वामित्र👉 ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।


माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है। 


३. कण्व👉 माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।


४. भारद्वाज👉 वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे, लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था। माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी।


ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में १० ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम 'रात्रि' था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के ७६५ मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के २३ मन्त्र मिलते हैं। 'भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे। ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।


५. अत्रि👉 ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।


अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।


६. वामदेव👉 वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया। वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते हैं। 


७. शौनक👉 शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे। 


फिर से बताएं तो वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।


इसके अलावा मान्यता हैं कि अगस्त्य, कष्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, ऐतरेय, कपिल, जेमिनी, गौतम आदि सभी ऋषि उक्त सात ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है।

Saturday, July 10, 2021

अलसी ओषधीय गुण जाने

 अलसी के ओषधीय गुण 



 खाली पेट पिसी अलसी खाने के 13 फायदे | Ground flax seeds in hindi

अलसी के बीज के फायदे पुरुषों व महिलाओं के लिए – (Flax seeds) अलसी पुरुषों की सेक्स समस्या ठीक करने और औरतों में हार्मोनल बैलन्स लाने का काम करता है। अलसी का सेवन मोटापा कम करता है और बाल, स्किन, आँखें, नाखून स्वस्थ होते हैं। अलसी खाना कई रोगों में फायदेमंद है।


अलसी को तीसी, अरसी भी कहते हैं। आयुर्वेद में अलसी को ‘बाल्य’ कहा गया है मतलब जो शक्ति देता है। भारत में अलसी के औषधीय गुण का उपयोग आयुर्वेदिक उपचारों और खान-पान में पुराने समय से होता रहा है।अलसी के लड्डू खाना भी अलसी के फायदे पाने का तरीका है। 


अलसी के फायदे और कैसे खाए – Alsi seeds benefits in hindi

Contents [show]


अलसी के बीज में प्रोटीन, आयरन, कैल्सियम, विटामिन C, विटामिन E, विटामिन बी काम्प्लेक्स, जिंक, फाइबर, कॉपर, सेलेनियम, कैरोटीन, पोटैशियम, फोस्फोरस, मैगनिशियम, मैगनीस तत्व पाए जाते हैं। 


अलसी के बीज को English में Flax Seeds कहा जाता है। अलसी के बीज एंटी- बैक्टीरियल, एंटी-फंगल और एंटी-वायरल होते है। इनके उपयोग से शरीर की रोगों से लड़ने की ताकत  (immunity) बढ़ती है। 


1) अलसी के फायदे पुरुषों के लिए – Benefits of Alsi seeds in hindi

– अलसी खाने से पुरुषों की कई सेक्स समस्यायें जैसे सेक्स में रूचि न होना, जल्दी उत्तेजित होना, सेक्स के दौरान नर्वसनेस, शारीरिक दुर्बलता, रक्त संचार (Blood circulation) से जुड़ी दिक्कतों से निजात मिलती है। 


– एक खास बात कि अलसी का सेवन पुरुषों में गंजापन पैदा करने वाले Enzyme को नष्ट करते हैं. अतः Baldness से बचाव के लिए पुरुष अलसी अवश्य खाएं। 


– बढ़ती हुई उम्र के पुरुषों में प्रोस्टेट कैंसर, ब्लैडर कैंसर होने का खतरा होता है। अलसी का सेवन करके इन कैंसर की आशंकाओं से बचा जा सकता है। पुरुषों को अलसी के फायदे का लाभ जरूर उठाना चाहिए। 


2) अलसी पोषण से जुड़ी जानकारी – Tisi seeds benefits in hindi

– अलसी के बीज Omega 3 fatty acids का बहुत अच्छा Source माने जाते हैं। डाईटिशियन और डाक्टर भी इसे खाने की सलाह देते है। अलसी खाना Omega 3 fatty acids के कैप्सूल का अच्छा विकल्प है। 


– ओमेगा-3 फ़ैटी एसिड हमारे शरीर को कई तरह से हेल्दी रखने में मदद करते हैं। ये सबसे अधिक मात्रा में समुद्री मछलियों से प्राप्त होता है लेकिन शाकाहारी लोग अलसी का सेवन करके इसके लाभ प्राप्त कर सकते हैं। 


सुबह खाली पेट अलसी खाने के फायदे – Ground flax seeds in hindi

सुबह खाली पेट गर्म पानी में एक चम्मच पिसी अलसी मिलाकर पीने और रात को सोने से पहले इसी तरह अलसी लेने से शरीर डेटोक्स होता है। 


अलसी में मौजूद फाइबर व Omega 3 fatty acids शरीर में मौजूद हानिकारक चीजों को लीवर और आंतों से निकालकर शरीर से बाहर करने का काम करते हैं। अलसी द्वारा शरीर के इस Detoxification से अनावश्यक थकान, कमजोरी, सुस्ती, सूजन दूर होता है। 


3) अलसी के बीज वजन कम करे – Alsi ke beej for weight loss in hindi :

– अलसी के बीज से मोटापा कम होता है। अलसी में डाइटरी फाइबर भरपूर मात्रा में पाया जाता है। इस वजह से अलसी खाने पर जल्दी भूख नहीं लगती।


– अलसी का फाइबर पेट के लिए लाभदायक बैक्टीरिया को बढ़ावा देता है जिससे मेटाबोलिज्म की रेट तेज होती है, इससे ज्यादा कैलोरी बर्न होती है। यह फाइबर मल (stool) का निकास भी आसान करता है, जिससे कब्ज नहीं होता। 


– अलसी में अन्य Natural resources की तुलना में 800 गुना ज्यादा Lignans होते हैं। लिग्नास एंटी-ओक्सिडेंट की तरह काम करते हैं और शरीर में हानिकारक फ्री ऑक्सीजन रेडिकल्स को खत्म करते हैं। 


यही फ्री रेडिकल्स मेटाबोलिक रेट धीमा करके वजन बढ़ाते है और शरीर फूल जाता है। अलसी के बीज फ्री रेडिकल्स नष्ट करके मोटापे से मुक्ति दिलाते हैं। 


ground flaxseed in hindi

Flax seeds in hindi

4) अलसी के बीज के फायदे स्किन के लिए – Flax seeds benefits in hindi for skin

असली के बीज खाने से शरीर को मिलने वाले ओमेगा 3 फैटी एसिड्स स्किन के लिए लाजवाब हैं। यह बढती उम्र के असर जैसे झुर्रियों, महीन रेखाओं को दूर करता है।  यह त्वचा के कील-मुहांसों को दूर करके स्किन को नयी चमक देता है, त्वचा का कसाव बनाये रखता है। 


– हाथ-पैर के नाखून को अलसी मजबूत और चिकना बनाता है। अलसी धूप की वजह से होने वाले स्किन डैमेज से सुरक्षा प्रदान करता है और स्किन कैंसर से बचाव करता है। 


– जाड़ों में अलसी का तेल (Flaxseed oil) स्किन पर लगाने से त्वचा रूखी नहीं होती और नर्म, मुलायम बनी रहती है। 


– अलसी का तेल स्किन की खुजली, लालपन, सूजन, दाग-धब्बे दूर करके एक बढ़िया Moisturizer का काम करता है। यह स्किन समस्या Eczema, Psoriasis के उपचार में भी कारगर माना गया है। अलसी के बीज खाने से घाव भी जल्दी भरता है।



 Flaxseed कैसे खाये – Flax seeds khane ka tarika :

एक दिन में 2 टेबलस्पून (40 ग्राम) से ज्यादा अलसी के बीज का सेवन न करें। 

अलसी के साबुत बीज कई बार हमारे शरीर से पचे बिना निकल जाते हैं इसलिए इन्हें पीसकर ही इस्तेमाल करना चाहिए। 

a) 20 ग्राम (1 टेबलस्पून) अलसी पाउडर (Ground flax seeds) को सुबह खाली पेट हल्के गर्म पानी के साथ लेने से शुरुआत करें। 


b) आप इसे फल या सब्जियों के ताजे जूस, दही-छाछ में मिला सकते हैं या अपने भोजन में ऊपर से बुरक कर भी खा सकते हैं। इसे रोटी, पराठे, दलिया बनाते समय भी मिलाया जा सकता है। 


थॉयरॉइड में अलसी के फायदे –  Flaxseed benefits for thyroid in hindi


c) दो कप पानी में दो चम्मच अलसी डालकर उबालें, जब यह आधा रह जाये तो गैस बंद कर दें। पीने लायक गर्म रह जाए तो छानकर सुबह सुबह खाली पेट पी लें। ये उपाय हाइपरथाइरोइड और हाइपोथाइरोइड दोनों प्रकार के थाइरोइड की बीमारी  में फायदेमंद है। 


अलसी से बना यह ड्रिंक डायबिटीज, शुगर कण्ट्रोल करने में भी असरकारक है। इसे पीने से आर्थराइटिस, जोड़ों के दर्द, हार्ट ब्लॉकेज, पेट की दिक्कतों जैसे कब्ज, अपच, मोटापे, बाल झड़ने, स्किन की प्रॉबलम्स में भी लाभ मिलता है।


d) अलसी के बीज हल्का भून कर खाएं अथवा सलाद या दही में मिलाकर खाएं, चाहे तो जूस में मिलाकर पियें। यह जूस के स्वाद को बिना बदले उसकी पोषकता कई गुना बढ़ा देगा। 


e) साबुत अलसी लंबे समय तक खराब नहीं होती लेकिन इसका पाउडर (Ground flax seeds) हवा में मौजूद ऑक्सीजन के प्रभाव में खराब हो जाता है, इसलिए ज़रूरत के मुताबिक अलसी को ताज़ा पीसकर ही इस्तेमाल करें। इसे अधिक मात्रा में पीसकर न रखें। 


अलसी के बीज भूनकर खाना – Roasted flax seeds in hindi


f) बहुत ज्यादा सेंकने या फ्राई करने से अलसी के बीज का फायदा, औषधीय गुण नष्ट हो सकते हैं और इसका स्वाद बिगड़ सकता है। इसलिए अलसी के बीज को इतना भूनना चाहिए कि नमी निकल जाये। 


g) व्रत में अलसी के बीज खा सकते हैं क्योंकि ये कोई अनाज नहीं है। जैसे मूंगफली का सेवन भी व्रत में किया जाता है। मूंगफली भी एक बीज है। अलसी में भरपूर पोषक तत्व होते हैं जोकि व्रत में फायदेमंद भी है। 


6) अलसी के फायदे बालों के लिए –

जैसा कि आप जानते हैं अलसी Omega 3 fatty acids का बढ़िया स्रोत है। ये फैटी एसिड्स बालों की अच्छी बढ़त के लिए जरुरी है। 


– अलसी का सेवन बालों की जड़ों से लेकर सिरों तक को पोषण देता है। इससे बाल लम्बे और मजबूत होते हैं इसलिए कम टूटते-झड़ते हैं। 


नए निकलने वाले बाल भी स्वस्थ और सुंदर होते हैं। Omega 3 fatty acids सर की स्किन को भी सूखने से बचाते हैं, जिससे डैंड्रफ यानि रूसी की समस्या भी नहीं होती। 


7) महिलाओं के लिए अलसी के फायदे – Alsi seeds benefits in hindi

– जिन औरतों का पीरियड रेगुलर नहीं होता और पीरियड के दौरान तेज दर्द रहता हो, उन्हें रोजाना अलसी खाना चाहिए। अलसी स्त्रियों के प्रजनन अंगों को स्वस्थ बनाता है, जिससे पीरियड नियमित होता है। 


– गर्भवती स्त्रियों और स्तनपान कराने वाली माताओं को अलसी का सेवन संतुलित मात्रा में करना चाहिए। अलसी के बीज स्तनपान के दौरान दूध न आने की समस्या को दूर करता है। 


आज भी शहरो और कस्बों के कई परिवारों में स्तनपान कराने वाली स्त्रियों को अलसी (तीसी) के बने लड्डू और अन्य भोज्य पदार्थ दिए जाते हैं। 


ये इस बात का सबूत है कि हमारे पूर्वज अलसी के बीज का महत्व अच्छी तरह जानते थे पर हम इन्हें भुलाकर सिर्फ दवाइयां खाने में विश्वास करने लगे। 


– अलसी के बीज औरतों के हार्मोनल बैलेंस के लिए बहुत सहायक होता है क्योंकि ये बीज Lignans का बहुत अच्छा स्रोत है जोकि Phytoestrogen और Anti-Oxidant गुणों से भरपूर है। 


– अलसी में पाए जाने वाला Phytoestrogen Adaptogenic होता है। अतः ये ऐसी महिलायें जिनके शरीर में एस्ट्रोजन हार्मोन बहुत ज्यादा है या जरुरत से कम है, दोनों को अलसी फायदा पहुँचाता है। 


– महिलाओं में रजोनिवृत्ति (Menopause) के दौरान होने वाली समस्याओं में भी अलसी के उपयोग से राहत मिलती है। यह देखा गया है कि माइल्ड मेनोपॉज़ की समस्या में रोजाना लगभग 40 ग्राम पिसी हुई अलसी खाने से वही लाभ प्राप्त होते हैं जो हार्मोन थैरेपी से मिलते हैं। 


8) अलसी के फायदे आँखों के लिए –

अलसी में मिलने वाला ओमेगा 3 फैटी एसिड्स तत्व नेत्र विकार, आँखों में सूखापन (Dry Eyes) के उपचार में असरदार है और डॉक्टर भी इसकी सलाह देते हैं। 


Omega 3 Fatty acids आँखों में नमी बराबर बनाये रखता है, जिससे ग्लूकोमा, High eye pressure के खतरे कम होते हैं।  


9) अलसी के आयुर्वेदिक गुण – Ayurvedic benefits of flaxseed in hindi :

आयुर्वेद में अलसी को मंद गंधयुक्त, मधुर, बलकारक, पित्तनाशक, स्निग्ध, पचने में भारी, गरम, पौष्टिक, कामोद्दीपक, किंचित कफ वात-कारक, पीठ के दर्द ओर सूजन को मिटानेवाली कहा गया है. जाड़ों में अलसी खाने से शरीर गर्म रहता है। 


– अलसी वात को संतुलित करता है, इसलिए वात बढ़ने की वजह से होने वाले विकारों का उपचार करता है। 


– अलसी के तेल को Flax seed oil या linseed oil कहते हैं।  इसमें Alpha-linolenic Acid (ALA) नामक तत्व होता है जो एक प्रकार का ओमेगा-3 फ़ैटी एसिड (omega-3 fatty acid) है, जिसके कई सारे चिकित्सकीय लाभ हैं। 


10) अलसी के गुण हार्ट के मरीज और ब्लड प्रेशर के लिए – 

– हृदय की धमनियों में कोलेस्ट्रॉल के जमने से हृदय रोग की सम्भावना बढ़ जाती है। इसलिए अलसी कोलेस्ट्रॉल कम करके हृदय रोग होने के खतरे को भी कम करता है। 


अलसी विटामिन B Complex, मैगनिशियम, मैगनीस तत्वों से भरपूर है जोकि LDL नामक बुरे कोलेस्ट्रोल को कम करते है।  अलसी के सेवन से कोलेस्ट्रॉल के लेवल में कमी आना देखा गया है। 


11) अलसी के बीज (Flax seeds in English) ब्लड प्रेशर कंट्रोल करने, हाइपरटेंशन के रोगियों के लिए, ब्लड शुगर कंट्रोल में अत्यंत लाभदायक है। Type 1 और Type 2 Diabetes रोगियों के लिए अलसी डायबिटीज रोकने में कारगर पाया गया है। 


British Journal of Nutrition में प्रकाशित एक स्टडी में भाग लेने वाले लोगों के भोजन में 50 ग्राम अलसी 4 हफ्ते तक शामिल की गयी। नतीजा उनके रक्त में ब्लड शुगर लेवल की मात्रा 27 % तक कम हो गयी। 


12) अलसी किडनी से जुड़ी समस्याओं में भी लाभकारी है। अलसी के बीज गरम पानी में उबालकर इसके साथ एक तिहाई भाग मुलेठी का चूर्ण मिलाकर काढ़ा बनाकर पीने से खूनी दस्त और और मूत्र संबंधी रोगों में लाभ होता है।


13) अमेरिकी वैज्ञानिकों के एक शोध में पता चला है कि अलसी में जो Poly Unsaturated fatty acids होता है, वह विशेष रूप से स्तन का कैंसर, प्रोस्टेट और कोलन कैंसर (पेट के कैंसर) से बचाव करता है। 


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अलसी के नुक्सान, अलसी किसे नहीं खाना चाहिए – Side effects of Flaxseed in hindi  :

1. अलसी खाने से कुछ लोगों को शुरुआत में कब्ज हो सकती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अलसी के बीज में फाइबर ज्यादा होता है। इसलिए अगर आप अलसी का सेवन कर रहे हो तो पानी भरपूर पियें। सही मात्रा में अलसी खाने से कब्ज दूर होती है, लेकिन ज्यादा अलसी खाने से लूज मोशंस भी हो सकता है। 


2. प्रेगनेंसी के दौरान अलसी का सेवन डॉक्टर की सलाह लेकर 1 टेबलस्पून से अधिक नहीं करना चाहिए। बच्चा होने के बाद अलसी की बनी चीजों का सेवन निश्चिंत होकर कर सकते है। 


3. अलसी खून को पतला करती है इसलिए यदि आपको Blood Pressure की समस्या हो तो इसके सेवन से पहले डॉक्टर से एक बार सलाह लें। 


4. जरुरत से ज्यादा अलसी खाने से कुछेक लोगों को एलर्जी की शिकायत हो सकती है। इसके लक्षण हैं : पेट दर्द, उलटी, सांस लेने में दिक्कत, लो ब्लड प्रेशर आदि। 


किसी भी चीज़ की अति अच्छी नहीं होती। लेख में बताई गयी अलसी के बीज (Flaxseed) की सही मात्रा खाने से अलसी के सभी फायदों का लाभ लिया जा सकता है। 


दुनिया के अनेक देशों में अलसी के बीज या Flax seeds लोकप्रिय और सेहतमंद आहार के रूप मे जाना जाता है। 


डिस्कलेमरः खानपान, किसी आयुर्वेदिक क्रिया या औषधि को अपनाने में स्वविवेक से काम लें, अति न करें। जानकार चिकित्सक से भी सलाह लें। इस वेबसाइट के सारे लेखों का उद्देश्य केवल शैक्षिक है। 


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Sunday, June 27, 2021

संस्कृत के श्लोकों ने दिया बिजली उत्पत्ति

 निश्चित ही बिजली का आविष्कार बेंजामिन फ्रेंक्लिन ने किया लेकिन बेंजामिन फ्रेंक्लिन अपनी एक किताब में लिखते हैं कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया। उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे मदद मिली।


महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ऋषि थे। महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है। ऋषि अगस्त्य ने 'अगस्त्य संहिता' नामक ग्रंथ की रचना की। आश्चर्यजनक रूप से इस ग्रंथ में विद्युत उत्पादन से संबंधित सूत्र मिलते हैं-


संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।

छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥


दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।

संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥

-अगस्त्य संहिता


अर्थात : एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगाएं, ऊपर पारा (mercury‌) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा।


अगस्त्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबे या सोने या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि निकाली अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) कहते हैं। —

Wednesday, June 9, 2021

विवाह मिलान में विचारणीय 10 तत्व

 विवाह मिलान में विचारणीय 10 महत्वपूर्ण तत्व



            ✍️डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य

          संकायाध्यक्ष एवं  विभागाध्यक्ष,                संस्कृत विभाग , एकलव्य विश्वविद्यालय दमोह 


विवाह मानव जीवन के लिए अपरिहार्य संस्कार है। विवाह ही एक युवक व युवती को दंपति के रूप में साथ रहने की की वैधता व सामाजिक मान्यता प्रदान करता है। विवाह के पश्चात अनजाने परिवारों(कुलों) के दो सदस्य दाम्पत्य जीवनरूपी नौका में सवार होते हैं। जीवन भर दोनों को एक-दूसरे के पूरक के रूप में साथ निभाते हुए विभिन्न प्रकार के दायित्वों का वहन करना होता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि पति-पत्नी में शारीरिक, मानसिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक तथा भावनात्मक तालमेल हो।


 विवाह मिलान के महत्व पूर्ण 10 तत्व



मनुस्मृति के अनुसार विवाह के आठ भेद बताए गए हैं-

ब्रह्मा विवाह- माता-पिता द्वारा गुणी वर तलाश करके कन्या का विवाह करना।

दैव विवाह- यज्ञ के समय पुरोहित को कन्यादान करना।

आर्ष विवाह- किसी विवाह के इच्छुक ऋषि को एक जोड़ी बैल व गाय के बदले कन्यादान करना।

प्राजापत्य विवाह- धर्म प्रसार हेतु कन्या का विवाह करना।

असुर विवाह- कन्या के पिता को धन देकर विवाह करना।

गान्धर्व विवाह- पारस्परिक प्रेम के फलस्वरूप वर-कन्या द्वारा वरमाला डालकर विवाह करना। वर्तमान समय में किया जाने वाला प्रेम विवाह इसी श्रेणी में आता है।

राक्षस विवाह- युद्ध अथवा बलपूर्वक हरणोपरान्त विवाह करना।

पैशाच विवाह- बिना विवाह कन्या को पत्नी बनाकर रखना।

प्रथम चार प्रकार के विवाह उत्कृष्ट माने गए हैं, शेष में से असुर व गान्धर्व विवाह निकृष्ट तथा अंतिम दो राक्षस एवं पैशाच विवाह अधम माने गए हैं। दैव, आर्ष, प्राजापत्य तथा राक्षस विवाह अब नही होते। सामान्य विवाह ब्रह्मा विवाह की श्रेणी में आता है। इसी प्रकार का विवाह सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। दाम्पत्य जीवन सुखद, सरस, स्नेहपूर्ण एवं सफल हो इसके लिए यह आवश्यक है कि पति व पत्नी के शारीरिक गुणों, स्वभाव, प्रकृति, विचारधारा, मनोवृति, मान्यताओं, आस्था तथा जीवनमूल्यों में समानता हो। भावी पति-पत्नी में सुखद तालमेल बना रहे, इसी उद्देश्य से विवाह से पूर्व इसका अनुमान लगाना आवश्यक है। इस हेतु ज्योतिष विज्ञान एक बहुत बड़ा संबल है। यह ज्योतिष विज्ञान ही है जो वर-वधू के भावी तालमेल का पूर्वानुमान विवाह से पूर्व ही लगा सकता है। यह विद्या हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों की अनुपम देन है। इसी कारण विवाह से पूर्व वर-वधू के गुण व अवगुणों के तालमेल की जांच करने हेतु जन्मकुंडलियों के मिलान की व्यवस्था सदियों से चली आ रही है। नवविवाहित वर-वधू का दाम्पत्य जीवन मधुर एवं सफल रहेगा अथवा कटु या असफल, इसी चिंता से दोनों ही पक्ष पीड़ित रहते हैं। इसलिए विवाह से पूर्व वर तथा कन्या की जन्मकुंडलियों के मिलान द्वारा भावी दाम्पत्य जीवन की शुभाशुभता का पूर्वानुमान लगाया जाता है। प्राचीन ऋषि-महाऋषियों ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ मापदंड तय किए हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है-


1. दिन(तारा) कूट– यह मिलान वर-वधू के आयुर्दाय व स्वास्थ्य को दर्शाता है। पहला तारा जन्म, दूसरा सम्पत, तीसरा विपत, चौथा क्षेम, पाँचवा पातक, छठा साधक, सातवां वेध, आठवां मैत्र, और नवां अतिमित्र के नाम से जाना जाता है। 1,3,5,7 तारा अशुभ और 2,4,6,8,9 तारा शुभ होते हैं। उत्तर भारत में पहला तारा भी शुभ माना जाता है जबकि दक्षिण भारत में शुभ नहीं माना जाता है।


2. गण कूट– यह मिलान वर-वधू के जीवन में परस्पर स्वभाव, खुशियाँ व समृद्धि को दर्शाता है।


देव गण का अर्थ स्वाभिमान, अच्छाई, श्रद्धा, दानशीलता है। अश्वनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, हस्त, स्वाति, पुष्य, अनुराधा, श्रवण, और रेवती नक्षत्र का देव गण है।

मनुष्य गण का अर्थ अच्छे और बुरे गुणों का मिश्रण है। भरणी, आर्द्रा, रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र का मनुष्य गण है।

राक्षस गण का अर्थ, संकीर्णता, स्वार्थीपन, द्वेष, अनिष्ट है। चित्रा, अश्लेषा, मघा, मूल, विशाखा, शतभिषा, धनिष्ठा, कृतिका और ज्येष्ठा नक्षत्र का राक्षस गण है।

देव को देव से, मनुष्य को मनुष्य से और राक्षस को राक्षस से, राक्षस गण के वर को देव या मनुष्य गण की कन्या, मनुष्य या राक्षस, वर को देव कन्या, और मनुष्य कन्या को देव

गण के वर से मिलाएं। राक्षस कन्या के लिए देव या मनुष्य वर से विवाह वर्जित है|

3. महेंद्र कूट– यह संतान के द्वारा भाग्य वृद्धि को दर्शाता है तथा दंपति को अच्छी उन्नति व आयुर्दाय प्रदान करता है। कन्या के नक्षत्र से वर के नक्षत्र तक गिनें। गिनती के पश्चात् यदि 4,7,10,13,16,19,22 या 25 आता है तो यह शुभ माना जाता है।


4. स्त्री दीर्घ कूट- यह सभी प्रकार की समृद्धि और धन-संपति देता है। कन्या के नक्षत्र से गिनने पर वर का नक्षत्र 13 के बाद होना चाहिए। यदि राशि कूट और ग्रह मैत्री मिलान सही है तो इसकी उपेक्षा की जा सकती है।


5. योनि कूट– यह रति और शारीरिक आवश्यकता से संबंधित मिलान है जो एक-दूसरे के प्रति प्रेम और रति के रुझान को दर्शाता है। प्रत्येक नक्षत्र का एक पशुवत गुण होता है। इसका आधार ऐसे पशुओं की मानसिक आदतें और स्वभाव का एक जैसा होना और आपस में सामंजस्य होना है।


6. राशि कूट– यह मूल रूप से भकूट का ही विचार है, लेकिन उत्तर भारतीय पद्धति से कुछ भिन्नता है। वहां राशियों में 6-8, 5-9, 2-12 संबंध बने तो वर्जित है। परंतु वहां राशियों में 3-11, 4-10 को शुभाशुभ श्रेणी में रखा है। दक्षिण भारत पद्धति में इसका विचार इस प्रकार है-


वर की राशि कन्या की राशि से दूसरी हो अर्थात उनमें 2-12 का संबंध बने तो मृत्यु संभव है। इसके विपरीत वर की राशि कन्या से बारहवीं हो तो आयु की रक्षा होती है।

इसी तरह 3-11 संबंध में वर की राशि तीसरी हो तो दुःख और ग्याहरवीं हो तो सुख होता है।

वर की राशि कन्या से चौथी हो तो दरिद्रता और दसवीं हो तो धनवृद्धि समझें।

वर की राशि कन्या की राशि से पाँचवीं हो तो वैधव्य और नवीं तो शुभ रहता है।

वर की राशि कन्या की राशि से छठी हो तो संतान हानि और आठवीं हो तो संतान होती है।

दोनों की राशि में समसप्तक बने अर्थात दोनों की राशियां एक-दूसरे से परस्पर सातवीं हो तो शुभ माना जाता है।

7. ग्रह मैत्री(राशीश) कूट– यह संतति की संभावनाओं, मानसिक गुणों और एक-दूसरे के प्रति भावनाओं को दर्शाता है। यदि ग्रह मैत्री नही होती है तो दोनों कुंडलियों में चंद्रमा के नवांश स्वामियों से मैत्री का विचार करना चाहिए। यदि चन्द्रमा के नवांश स्वामी परस्पर मित्र हो तो यह दोष समाप्त हो जाता है।


8. वश्य कूट– यह दंपति के मध्य प्रेम व उत्कंठा तथा एक-दूसरे के प्रति आकर्षण और नियंत्रण को दर्शाता है। प्रत्येक राशि की वश्य राशियाँ इस प्रकार से है-


मेष के लिए सिंह व वृश्चिक वश्य राशियाँ हैं|

वृष के लिए कर्क व तुला वश्य राशियाँ हैं|

मिथुन के लिए कन्या वश्य राशि है|

कर्क के लिए वृश्चिक व धनु वश्य राशियाँ हैं|

सिंह के लिए तुला वश्य राशि है|

कन्या के लिए मिथुन वश्य राशि है|

तुला के लिए कन्या व मकर वश्य राशियाँ हैं|

वृश्चिक के लिए कर्क वश्य राशि है|

धनु के लिए मीन वश्य राशि है|

मकर के लिए मेष व कुंभ वश्य राशियाँ हैं|

कुंभ के लिए मेष वश्य राशि है|

मीन के लिए मकर वश्य राशि है|

9. रज्जू कूट– यह वैवाहिक जीवन के काल का निर्णय करता है। वर-वधू के जन्म नक्षत्रों को एक ही रज्जू में नहीं होना चाहिए।


सिर रज्जू- पति की मृत्यु देता है। इसमें आने वाले नक्षत्र मृगशिरा, चित्रा व धनिष्ठा हैं।

कंठ रज्जू- पत्नी की मृत्यु देता है। इसमें आने वाले नक्षत्र रोहिणी, आर्द्रा, हस्त, स्वाति, श्रवण और शतभिषा हैं।

नाभि रज्जू- संतान की मृत्यु देता है। इसमें आने वाले नक्षत्र कृतिका, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, उत्तराषाढा और पूर्वाभाद्रपद हैं।

उरू रज्जू- निर्धनता देता है। इसमें आने वाले नक्षत्र भरणी, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, अनुराधा, पूर्वाषाढा और उत्तराभाद्रपद हैं।

पाद रज्जू- भौगौलिक दूरी व अंतहीन भटकाव देता है। इसमें आने वाले नक्षत्र अश्वनी, अश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल और रेवती हैं।

10. वेध कूट- नक्षत्रों के कुछ जोड़ों का मिलान निषेध है। ऐसे जोड़े हैं


अश्वनी-ज्येष्ठा

भरणी-अनुराधा

कृतिका-विशाखा

रोहिणी-स्वाति

आर्द्रा-श्रवण

पुनर्वसु-उत्तराषाढा

पुष्य-पूर्वाषाढा

अश्लेषा-मूल

मघा-रेवती

पूर्वाफाल्गुनी-उत्तराभाद्रपद

उत्तराफाल्गुनी-पूर्वाभाद्रपद

हस्त-शतभिषा

मृगशिरा-धनिष्ठा

किसी भी वर-वधू के नक्षत्रों का उपरोक्त जोड़ों में होना वर्जित है।


विशेष नोट– उपरोक्त मिलान मुख्यता नक्षत्र व राशि पर आधारित है। इसके साथ-साथ वर-वधू के विवाह से पूर्व उनके ग्रहों का परस्पर मिलान करना भी अत्यंत आवश्यक है।

Saturday, May 29, 2021

भगवती आराधना में वर्णित आयुर्वेदिक तत्व

 भगवती आराधना (Bhagwati Aaradhana) में वर्णित आयुर्वेद-विद्या

Posted on September 28, 2017 By admin

भगवती आराधना (Bhagwati Aaradhana) में वर्णित आयुर्वेद-विद्या

आर्य सर्वगुप्त के शिष्य आचार्य शिकोटि (अपरनम शिभूति अथवा शिवार्य, प्रथम सदी ईस्वी के आसपास) द्वारा विरचित २१७० गाथा प्रमाण ‘भगवती आराधना’ (Bhagwati Aaradhana) (अपरनाम मूलारधना) नामक ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत के महिमामण्डित-ग्रन्थ वस्तुत: ज्ञान-विज्ञान का अद्भूत विश्व-कोष माना जा सकता है। उसमें वर्णित आयुर्विज्ञान सम्बन्धी सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक वर्णन देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार सम्भवत: दीक्षा-पूर्वकाल में कभी स्वयं ही उस क्षेत्र का सिद्धहस्त चिकित्सक तथा चिकित्सा शास्त्र मर्मज्ञ अनुभवी तथा समाजशास्त्री विद्वान-शिक्षक रहा होगा। बहुत सम्भव है कि उसने आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं शरीर-संरचना विज्ञान सम्बन्धी कोई विशाल स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखा हो, जो किसी परिस्थिति-विशेष में विस्मृत, अथवा प्रच्छन्न या नष्ट हो गया हो ?

प्रस्तुत निबन्ध में उक्त ग्रन्थ में वर्णित समकालीन आयुर्वेद-सम्बन्धी तथ्यों को प्रकाशित करने का प्रयत्न किया गया है। श्रमण-संस्कृति के इतिहास में द्वादशांग वाणी का विशेष महत्त्व है। उसके बारहवें ‘दृष्टिवादांग’ के पाँच भेदों में से ‘पूर्वगत’ नाम का एक प्रमुख भेद है। उसके भी १४ भेदों में से ‘प्राणावाय’ नामक प्रभंद सुप्रसिद्ध रहा है।



१. जैन-परम्परा के अनुसार आयुर्वेद की उत्पत्ति का मूलस्रात वही ‘प्राणावाय’ नाम का पूर्वांग है। यथा – 

‘‘कायचिकित्सादि-अष्टांगायुर्वेद: भूतकर्मजांगुलिप्रक्रम: प्राणापानविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत्प्राणावाय-पूर्वांगं।’’


अर्थात् जिसमें काय, तद्गगतदोष, और उनकी चिकित्सा आदि अष्टांग-आयुर्वेद का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया हो; पृथिवीर आदि भूतों की क्रिया, विषैल जानवर तथा उनकी चिकित्सा आदि और प्राणपान का विभाग जिसमें किया गया वह हो; वह ‘प्राणावाय नाम का पूर्वांगशास्त्र’ कहा गया है। जैनाचार्यों ने उक्त ‘प्राणावाय’ से ही मूलस्रोत ग्रहण कर त्रिकालाबाधित जैनायुर्वेदिक-सिद्धान्तों एवं उनके ग्रन्थों की रचना की।


२. ऐसे आयुर्वेदज्ञ जैनाचार्यों में आचार्य समन्तभद्र

३, पूज्यपाद

४, सिद्धनागार्जुन

५, श्रुतकीर्ति

६, कुमारसेन

७, वीरसेन

८, पात्रकेशरी-स्वामी

९, सिद्धसेन

१०, दशरथगुरु

११, मेघनाद

१२, सिंघनाद

१३, उग्रादित्य

१४, अमृतनन्दि

१५, एवं गुम्मटदेव मुनि

१६ तथा कीर्तिवर्म

१७, मंगराज

१८, अभिनवचन्द्र

१९, देवेन्द्रमुनि

२०, जगदेकमहामन्त्रवादि श्रीधरदेव

२१, साल्व

२२, जगद्दलसोमनाथ

२३ आदि प्रसिद्ध हैं।

एक उल्लेख के अनुसार आचार्य समन्तभद्र ने आयुर्वेद को आठ अंगों में विभक्त किया हैं२४ –


१. कार्य-चिकित्सा – श्वास, कास, प्रमेह, जलोदर, बुखार आदि से सम्बन्धित समस्त धतुक शरीर की चिकित्सा।


२. बाल-चिकित्सा अथवा कौमारमृत्य – बालरोगादि तथा माताओं के रोगों की चिकित्सा।


३. ग्रह-चिकित्सा – नाड़ीचक्र में दोषोत्पन्न रोगों की चिकित्सा।


४. ऊध्र्वांग-चिकित्सा – आँख, कान, गला, नाक, दन्त एवं शिरोरोगें की चिकित्सा।


५. शल्य-चिकित्सा – शस्त्रास्त्रों द्वारा ऑपरेशन कर उनकी चिकित्सा।


६. अगदतन्त्र अथवा द्रंष्ट्रा-चिकित्सा – सर्पादि विष-जन्तुओं द्वारा काटे जाने पर तथा स्थावर, जंगम के द्वारा विष के शरीर में प्रविष्ट हो जाने पर उसकी चिकित्सा।


७. रसायनतन्त्र अथवा जरा-चिकित्सा – पुनयौवन प्राप्त करने की चिकित्सा। एवं


८. वृष्य-चिकित्सा – बाजीकरण चिकित्सा अथवा वीर्यशोधन, वीर्यवर्धन एवं सन्तानोत्पति के उपाय।


उक्त विषयों पर परवर्ती आयुर्वेदज्ञ जैनाचार्यों ने स्वरुचिपूर्वक अनेक ग्रन्थों की रचना की। इन ग्रन्थों एवं ग्रन्थकारों की प्रशंसा जैनेत्तर आयुर्वेदज्ञों ने भी मुक्तकण्ठ से की है।


आयुर्वेद के ख्यातिलब्ध विद्वान् पं० गंगाधर गोपाल गुणे ने उनके प्रति आदरभाव व्यक्त करते हुये लिखा है२५- ‘‘राशास्त्र पर जैनाचार्यों ने विशेष श्रमसाध्य शोध-खोज की है। आज जो भी अनेकानेक सिद्वौषधियाँ आयुर्वेदीय वैद्य प्रचार में लाते हैं, वे जैनाचार्यों की प्रतिभा व अविश्रान्त खोजों की सुपरिणाम है। अनेक प्रतिभावन, त्यागी, विरागी आचार्यों ने जीवनभर गहन वनों में एकान्तवास कर तथा विचारपूर्वक परिश्रम-प्रयोगपूर्वक अनुभव लेकर अनेक औषाधरत्नों का भण्डार संग्रहीत कर रखा है। रसशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, निघण्टू एवं औषधिगुण-धर्मशास्त्र आदि अनेक शास्त्रों का निर्माण अप्रतिमरूप से करके इन जैनाचार्यों ने समस्त आयुर्वेद-जगत पर बड़ा उपकार किया है।’’


अभी तक उपलब्ध जैन ग्रन्थों में नोवी सदी के प्रथम चरण के आचार्य उग्रादित्य२६ कृत ‘कल्याणकारक’ ही प्रकाशित हो सका है, जो अष्टांग आयुर्वेद-विद्याका सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। उक्त ग्रन्थ के २५ अध्यायों में आयुर्वेद की उत्पत्ति एवं विकास की कथा बतलाकर पूर्ववत्र्ती जैनाचार्योंं के अनेक सन्दर्भ प्रस्तुत किए हैं, जो आयुर्वेदिक इतिहास की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।


जैन आयुर्वेदज्ञों की यह विशेषता रही है कि आयुर्वेद को उन्होंने पीड़ित प्राणियों की सेवा का ही माध्यम बनाया, न कि अपनी स्वार्थपूर्ति अथवा धनार्जन का माध्यम। उन्होंने निरन्तर ही अहिंसक वस्तुओं के मिश्रण से औषधियों के निर्माण किए। क्षणभुगुर शरीर की रक्ष के लिए अन्य जीवों के शरीरावयवों को उदरस्थ कर लेने का उपदेश या विधान उसमें भूलकर भी नहीं किया गया। जहाँ जैनेतर आयुर्वेदज्ञों ने औषधियों के निर्माण में मल-मूत्र, अस्थि, चर्म, रक्त एवं माँस आदि के प्रयोग से स्पष्ट विधान किए हैं; तथा क्वचित् कदाचित् गोरक्त, गौमाँस, मानवावयव तक के योग जैनेतर वैद्यक-ग्रन्थों में मिलते हैं; जब कि जैनाचार्यों ने मद्य एवं मधु तक को त्याज्य बतलाया है। आसव एवं अरिष्ट, जिनमें एकेन्द्रिय तो क्या, दो इन्द्रिय जीव तक आँखों से देखे जा सकते हैं; जैन औषधि-निर्माण में त्याज्य बतलाए गए हैं। अवलेह आदि की भी मार्यादा बतलाई गई है; क्योंकि उनमें सीमावधि के बाद आधुनिक खुर्दबीन आदि के द्वारा दो इन्द्रिय जीव देखे गए हैं। इन्हीं कारणों से जैनाचार्यों ने तरल पदार्थों द्वारा चिकित्सा के स्थान पर रसादि-चिकित्सा पर अधिक जोर दिया है। ‘पुष्पायुर्वेद’ जैनाचार्यों की ही देन है, जो जैन औषधि-निर्माण की आश्चर्यजनक अहिंसक पद्धति है और जैनाचार्यों ने ई०पू० की सदियों में ही लगभग १८००० प्रकार के पक्व एवं स्वयं-पतित पुष्पों के प्रयोग से अनेक चूर्ण एवं रसायन तैयार कर पीड़ित प्राणियों की अचूक सेवा की थी। इस ‘पुष्पायुर्वेद’ की विश्व के अनेक चिकित्सकों ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है।२७ वर्तमान के के अनुसार भारत में केवल १५००० प्रकार की पुष्प जातियाँ ही बची हैं, बाकी किन्हीं कारणों से नष्ट हो चुकी हैं।


इस निबन्ध का मुख्य उद्देश्य शौरसेनी प्राकृत में लिखित ‘भगवती-आराधना’ में उपलब्ध आयुर्वेदविद्या-समबन्धी सामग्री को मुखर करना है। ‘भगवती आराधना’ का मूल विषय वस्तुत: आयुर्वेद नहीं, बल्कि मुनि आचार है। प्राप्त परम्परा के अनुसार सुपात्रों को मुनि-दीक्षा के पूर्व देश एवं समाज की सभी परिस्थितियों का यथासम्भव सम्यकज्ञान तथा लोकजीवन एवं लोकचार का पारदर्शी ज्ञान अनिवार्य माना गया है। क्योंकि मुनि-आचार्यग अध्यात्मयोगी होने के साथ-साथ शास्त्रकार, साहित्यकार, प्रचवनकार एवं इतिहास-निर्माता भी होते थे। अत: उन्हें धर्म-साधना के साथ-साथ प्राय: सभी विद्याओं तथा प्राय: समस्त प्राणधारियों का वैज्ञानिक एवं मनोविज्ञानिक ज्ञान भी अनिवार्य था। अत: पूर्ण शिक्षा की प्राप्ति के बाद ही उन्हें दीक्षा-योग्य माना जाता था। इन सभी की जानकारी के लिए सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ‘भगवती आराधना’ में मिलता है, जिसमें उसके लेखक ने मुनि आचार और जैनधर्म के विविध सिद्धान्तों के साथ-साथ ‘अष्टांग-आयुर्वेद’ के काय-चिकित्सा, ग्रह-चिकित्सा, शल्य-चिकित्सा, ऊध्र्वाग-चिकित्सा, आदि पर सुन्दर प्रकाश डाला है। इनके अतिरिक्त भी उसमें शरीर-संरचना, भ्रूण-विज्ञान विविध व्याधियों एवं उनके निदान तथा औषधियों आदि विषयों पर भी सुन्दर प्रकाश डाला गया है। उसके लेखक ने यद्यपि अपने ग्रन्थ-लेखन की स्रोत-सामग्री की चर्चा नहीं की; किन्तु विदित होता है कि जिन ग्रन्थों का उसने अध्ययन किया होगा, बाद में वेग्रन्थ या तो नष्ट हो गये या वर्तमान में देश-विदेश के प्राच्य शास्त्रभण्डारों में कही अप्रकाशितरूप में छिपे पड़े हैं। फिर भी मेरी दृष्टि से परवत्र्ती आयुर्वेदज्ञ जैनाचार्यों के सम्मुख ‘भगवती-आराधना’ ग्रन्थ अवश्य रहा होगा और उससे विषय-सामग्री लेकर आचार्यों ने अपने ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर उसे पर्याप्त विकसित किया है। जैनेतर आयुर्वेदाचार्यों ने भी जैनायुर्वेद-ग्रन्थों से पर्याप्त प्रकणाएँ ली हैं, इसके अनेक सन्दर्भ ‘माधवनिदान’ आदि ग्रन्थों में मिलते हैं।२८


‘भगवती-आराधना’ में वर्णित शारीरिक संरचना, रोगों एवं विभिन्न चिकित्साओं का संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत है –


शारीरिक संरचना –

१. मानव-शरीर का ढाँचा अस्थियों से बना है। उसे ‘अस्थिपंजर’ भी कहा जाता हैं, जो माँस, चर्म, शिराएँ, धमनियाँ, स्नायु आदि कोमल अंगों को शरीर के भीतरी गहवरों में सुरक्षित रखने का आधार है। माँस, पेशी, पेशीबन्धन, बन्धनी, सौत्रिक-तन्तु आदि इसी से लिपटे रहते हैं। आचार्य शिवकोटि के अनुसार मनुष्याकार के अस्थिपंजर में कुल ३०० सौ अस्थियाँ है, जो ‘मज्जा’ नाम की धातु से भरी हुई हैं। इसीप्रकार उसमें ३०० सन्धि-स्थ्ल (व्दग्हूे) है। यथा-

अट्ठीणाी हुंति तिण्णि हु सदाणि भरिदाणि कुणिममज्जाए ।

सव्वम्मि चेव देहे संधीणी हवंति तावदिया ।। 

(गा० १०२७)

२. मानव शरीर में ९०० स्नायु तन्त्र हैं, ७०० सिराएँ और ५०० मांसपेशियाँ है यथा –


ण्हारुण णवसदाइं सिरा सदाणि हवंति सत्तेव ।

देहम्मि मंसपेसीण हुंति पंचेव य सदाणि ।। 

(गा० १०२८)

३. मानव शरीर में शिराओं के ४ जाल है, १६ कंडरा (रक्तभरित महाशिराएँ अर्थात् बड़ी मोटी नसें) हैं, ६ मूल शिराएँ है और २ माूंसरज्जू (एक पीठ एवं एक पेट के आश्रित) हैं। यथा-


चत्तारि सिराजालाणि हुंति सोलस य कंडराणि तहा ।

छच्चेव सिराकुच्चा देहे दो मंसरज्जू य ।। 

(गा० १०२९)

४. इस मानव-देह में ७ त्वचाएँ (एव्ग्ह) हैं और ७ कालेयक (माँस-खण्ड) और ८० लाख कोटि रोम हैं। यथा-


सत्त तयाओं कालेज्जयाणि सत्तेव होंति देहम्मि ।

देहम्मि रोकोडीण होंती सीदी सदसहस्सा ।। 

(गा० १०३०)

५. पक्वाशय एवं आमाशय में सोलह आँते रहती है। मानव देह में दुर्गन्धित मलवाले ७ आशय है। यथा-


पक्कासयासयत्था य अंतगुजाओ सोलह हवंति ।

कुणिमस्स आसया सत्त हुंति देहे मणुसस्स ।। 

(गा० १०३१)

६. मानव-शरीर में ३ स्थूणा अर्थात् वात, पित्त एवं कफ हैं और १०७ मर्मस्थान हैं। ९ व्रणमुख या मलद्वार हैं। यथा-


थुणाओ तिण्णि देहम्मि होंति सत्तुत्तरं च मम्मसदं ।

णव होंति वणमुहाइं 

(गा० १०३२)

७. मानव-शरीर में मस्तक अपनी अंजुलि से एक अंजुलि-प्रमाण है। मेद, ओज, अर्थात् शुक्र ये दोनों भी १-१ स्वांजुलि-प्रमाण जानना चाहिए। तीन अंजुली-प्रमाण वसा (चर्बी) तथा पित्त का प्रमाण ६ अंजुलि मात्र हैं; श्लेष्म अर्थात् कफ की मात्रा भी ६ अंजुलि मात्र है; श्लेष्म अर्थात् कफ की मात्रा भी ६ अंजुलि-प्रमाण तथा रुधिर का प्रमाण आधा आढक है। यथा –


देहम्मि मच्छुलिंगं अंजलिमित्तं सयप्पमाणेण ।

अंजलि मित्ता मेदो उज्जोवि य तत्तिओ चेव ।।

तिण्णि य वसंजलीओ छच्चेव य अंजलीओ पित्तस्स ।

सिंभो पित्त-समाणो लोहिदमद्धाढगं होदि ।। 

(गाथा १०३३-३४)

८. मानव देह में मूत्र एक आढक प्रमाण है और उच्चार-विष्ठ ६ प्रस्थ प्रमाण है। स्वाभाविकरूप से नख-संख्या २० और दन्त संख्या ३२ है। यथा –


मुत्तं आढयमेत्तं उच्चारस्स य हवंति छप्पच्छा ।

वीस णहाणि दंता बत्ीसं होंति पगदीए ।। 

(गा० १०३५)

९. मानव देह कृमियों से व्याप्त है। उसमें ५ प्रकार की वायु (प्राण, आपान, उदान, समान एवं व्यान) का संचार रहता है। यथा –


किमिणो व वणो भरिदं सरीरं किमिकुलेहिं बहुगेहिं ।

सव्वं देहं अप्पंदिदूणं वादसा ठिदा पंच ।। 

(गा० १०३६)

१०. यह शरीर मक्खी के पंख के समान पतली चमड़ी से ढँका है। यथा –


मच्छियापत्तसरसियाएथमिदं ।

(गा० १०३९)

११. केवल एक आूंख में ही ९६ प्रकार के रोग उत्पन्न हो सकते हैं। यथा –


रोगा एकम्मि चेव अच्छिम्मि होंति छण्णवदी

(गा० १०५४)

१२. सारे शरीर में कुल मिलाकर ५,६८,९९,५८५ रोग होते हैं। पंचेव य कोडीओ भवंति तह अट्ठसट्ठिलक्खाइं। णव णवरिंच सहस्सा पंचसया होंति चुलसीदी।। -गा० १०४८ टीका


भ्रूण विज्ञान

भौतिक एवं आध्यात्मिक विद्या-सिद्धियों के प्रमुख साधन-केन्द्र इस मानव-तन का निर्माण किस-किस प्रकार होता है, गर्भ में वह किस प्रकार आता है तथा किस प्रकार उसके शरीर का क्रमिक विकास होता है? -उसकी क्रमिक विकसित अववस्थओं का ग्रन्थकार ने स्पष्ट चित्रण इस प्रकार किया है। यथा – (१) कललावस्था – माता के उदर में शुक्राणुओं के प्रविष्ट होने पर १० दिनों तक मानव-तन गले हुए तांबे एवं रजत के मिश्रित रंग के समान रहता है।२९

(२) कलुषावस्था – अगले १० दिनों में वह कृष्ण वर्ण का हो जाता है।३०


(३) स्थिरावस्था – तत्पश्चात् अगले १० दिनों में वह यािावत् स्थिर रहता है।३१


(४) बुब्बुदभूत – दूसरे महीने में मानव-तन क स्थिति एक बबूले के समान हो जाती है।३२


(५) घनभूत – तीसरे मास में वह बबूला कुछ कड़ा हो जाता है।३३


(६) मांसपेशीभूत – चौथे मास में उसमें माँसपेशियों का बनना प्रारम्भ हो जाता है।३४


(७) पुलकभूत – पाँचवे मास में उक्त मांस-पेशियों में पाूंच पुलक अर्थात् ५ अंकुर फुट जाते हैं, जिनमें से नीचे के दो अंकुरों से दो पैर और ऊपर के ३ अंकुरों में से बीच के अंकुर से मस्तक तथा दोनों बाजुओं में से दो हाथों के अंकुर फुटते हैं।३५


(८) छठवें मास – में बालक के अंग-उपांग बनते हैं।३६


(९) सातवें मास – में उस मानव-तन के अवयवों पर चर्म एवं रोम की उत्पत्ति होती है, तथा हाथ-पेर के नख उत्पन्न हो जाते हैं।३७ इसी मास में शरीर में कमल के डण्ठल के समान दीर्घनाल पैदा हो जाता है, तभी से यह जीव माता का खाया हुआ आहार उस दीर्घनाल से ग्रहण करने लगता है।३८


(१०) आठवें मास – में उस गर्भस्थ मानव– तन में हलन-चलन क्रिया होने लगती है।३९


(११) नौवें अथवा दसवें मास – में वह सर्वांग होकर जन्म ले लेता हैं।४०


गर्भ स्थान की अवस्थिति

आमाशय एवं पक्वाशय इन दोनों के बीच में जाल के समान मांस एवं रक्त से लपेआ हुआ गर्भ ९ मास तक रहता है। खाया हुआ अन्य उदराग्नि से जिस स्थान में थोड़ा-सा पचाया जाता है, वह स्थान ‘आमाशय’ और जिस स्थान में यह पूर्णतया पचाया जाता है वह ‘पक्वाशय’ कहलाता है। गर्भस्थान इन दोनों (अर्थात् आमाशय एवं पक्वाशय) के बीच में स्थित रहता है।

ग्रन्थकार ने विविध प्रकार के रोगियों के लिए समय-समय पर चिकित्सक के माध्यम से औषधि-सेवन की जो सलाहें दी है, वे वर्तमान युग की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं तथा सर्वसुलभ, आसान एवं सस्ती भी। उसके कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं –


रोगशामक औषधियाँ (घरेलू इलाज)

(१) कुष्ठ रोग को नष्ट करने के लिए इक्षुरस श्रेष्ठ रसायन है। यथा –

कोढ़ी संतों लद्धूण डहई उच्छूं रसायणं।

(गा० १२२३)

(२) सदैव स्वस्थ रहने के लिए मध्यम रसवाले कटु, तिक्त, आम्ल, कषायले, नमकीन,मधुर, विरस, सुगन्धित, स्वच्छ तथा मध्यम उष्ण भोजन लेना चाहिए। यथा –


अकडगम तितथ मणंविलंव अकसायमलवणममधुरं ।

अविरस मदुरव्विगंधं अच्छमण वहं अणदिसीदं ।। 

(गा० १४९०)

(३) स्वच्छ एवं ताजा जल कफनाशक एवं पथ्यकारक होता है, –


(गा० १४९१)

(४) गो-दुग्ध पित्त शान्त करता है।


(५) शारीरिक स्वास्थ्य तथा सौन्दर्य एवं तेजस्विता की वृद्धि के लिए अभ्यंगन-हेतु तेल, अनुकूल वृक्षों के मूलभाग, छाल, फल, एवं पत्तोंके चूण्र का सेवन करना चाहिए।


(गा० ८८ एवं ९३)

(६) पुरुष के लिए ३२ ग्रास तथा महिला के लिए २८ ग्रास भोजन प्रर्याप्त है। इतने भोजन में उनकी भूख शान्त हो जाती है, यथा –


बत्तीसं किर कवला आहारो कुक्खिपूरणो होइ ।

पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं हवे काला ।। 

(गा० २११)

(७) मक्खन, मदिरा, माँस एवं मधु – ये शरीर में महान् विकृतियाँ एवं रोग उत्पन्न करते हैं। यथा –


चत्तारि महावियडीओ होंति णवणीइ-मज्ज-मंस-महु ।

(गा० २१३)

(८) तेल एवं कषायले द्रव्यों के दिन में कई बार कुल्ले करने से जीभ, नासा, गला, आँख एवं कानो को सामथ्र्य प्राप्त होता है। जीभ का मैल निकल जाने से उच्चारण शुद्धि तथा कान में तेल डालने से श्रवण-शक्ति बढ़ती है। यथा-


तेल्ल कसायादीहिं य बहुसो गंडय सयादु घेत्तव्वा ।

जिब्भाकण्णणबलं होहिदो तुंडं च सेवि सदं ।। 

(गा० ६८८)

(९) काँजी पीने से मदिराजन्यय उन्माद नष्ट जाता है।


(गा० ३६०)

(१०) पेट की मल-शुद्धि के लिए मांड पीना चाहिए। यथा –


उदरमल सोधणिच्छाए मधुरं पिज्जेदव्वो मंडं ।

(गा० ७०२)

(११) मनुष्य को अन्य पानकों की अपेक्षा आचाम्ल-सेवन से कफ का क्षय, पित्त का उपशम एवं वात का क्षरण होता है। यथा –


आयंविलेण सिंभं खीयदि पित्तं च अवसमं जादि ।

वादं रक्खणट्ठं एत्थ पयत्तं खु कादव्वं ।। 

(गा० ७०१)

(१२) उदर विकार में काँजी में बिल्वपात्रों को भिंगोकर उदर को सेकना चाहिए तथा सेंधा नमक में बत्ती को भिगोंकर गुदा-द्वार में प्रवेश करने से उदर का मल निकल जाता है। यथा –


आणाहवत्तियादीहिं व वि कादव्वमुदर-सोधणयं ।

वेदणमुप्पादेज्ज हु करिसं अत्थंतयं उदरे ।। 

(गा०) ७०३

(१३) उपवास के बाद मित का हलका आचाम्ल भोजन लेना चाहिए।


(गा० २५१)

व्याधियाँ

‘भगवती-आराधना’ में जिन रोगों के उल्लेख मिलते हैं, उनके नाम इस प्रकार है – (१) कच्छु (खुजली), ज्वर, खाँसी, श्वास, कुष्ठ नेत्ररोग एवं भस्मक-व्याधि। यथा –

कच्छू जर खास सोसों भतेच्छदुच्छि दुक्खणि ।

(गा० १५४२)

(२) इनके अतिरिक्त भी अनेकरोग उस समय रहे होंगे, किन्तु जिनकी प्रमुखता थी, सम्भवत: उन्हीं के उल्लेख ग्रन्थकार ने किए हैं। इनमें से एक विशिष्ट रोग भस्मक-व्याधि का भी उल्लेख मिलता है, जिसमें रोगी को असाधारण भूख लगती है। वह असाधारण रूप से भोजन भी करता है, किन्तु वह तत्काल ही पेट में जाकर भस्म हो जाता है और उसके रोगी को वही असाधारण भूख बनी रहती है।


एक किंवदन्ती के अनुसार दूसरी सदी के आचार्य समन्तभद्र को यही भस्मक व्याधि हो गई थी। उसका शमन कैसे हुआ, उसकी कथा अनेक लेखकाचार्यों ने बड़ी ही रोचक शैली में लिखी है। वर्तमान में इस बीमारी की जानकरी नहीं मिलती।


चिकित्सक के विषय में लेखक ने कहा है कि वह अपनी चिकित्सा स्वयं नहीं कर पाता। आजकल भी यह देखा जाता है कि किसी भी पद्धति का चिकित्सक अपना इलाज स्वयं नहीं करता। वह अपने विश्वस्त मित्र चिकित्सक से अपनी चिकित्सा कराता है। ग्रन्थकार की भाषा में ही देखिए – वह कहता है –


जइ सुकुसलो वि वेज्जो अण्णस्स कहेदि आदुरो रोगं ।

वेज्जस्स तस्स सोच्चा सो विय पडिकाम्भमारभइ ।। 

(गा० ५२८)

अर्थात् सुकुशल वैद्य स्वयं बीमार पड़ने पर दूसरे कुशल वैद्य को अपनी बीमारी का लक्षण कहता है, जिसे सुनकर वह भी उसके अनुकूल औषधि तैयार करता है।


सन्दर्भ अनुक्रमणिका – १. श्रीनन्द्याचार्यादशेषागमज्ञाद् ज्ञात्वा दोषान् दोषजानुग्ररोगान् । तद्भषज्यप्रकमं चापि सर्वं प्राणावायादेतदुधृत्यनीतम् ।। – कल्याण – २०/८४ पृ. ५५४ २. सर्वार्धाधिकमागधीयविलसद्भाषा विशेषजोज्ज्वला प्राणवाय महागमादवितथं संगृह्य संक्षेपत: । उग्रादित्यगुरुर्गुरुगणैरुद्भासि सौख्यास्पदं, शास्त्रं संस्कृतभाषया रचितवानित्येष भेदस्तयो: ।। कल्याण्० २५/५४/७०२ ३. अष्टंगायुर्वेद तथा १८००० श्लोकप्रमाण ‘सिद्धान्तरसायनकल्व’ के लेखक (ये ग्रन्थ अनुपलब्ध है)। ४. ‘कल्याणकारक’, ‘शालाक्य-शिराभेदन-तन्त्र’ तथा ‘वैद्यामृत’ नामक ग्रन्थों के लेखक (ये ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं, किन्तु डिटपुट रूप में उनके ६५ सिद्ध-प्रयोग आरा स्थित जैन सिद्धान्त भवन के प्राच्य शास्त्र भण्डार में सुरक्षित हैं)। ५. नागार्जुनकल्प, नागार्जुनकक्षपुट आदि सैद्धान्तिक एवं प्रायोगि महान् ग्रन्थों के लेखक (ये ग्रन्थ अनुपलब्ध है)। ६-८. ग्रन्थ अज्ञात एवं अनुपलब्ध। ९. शल्यतन्त्र-आपरेशन सम्बन्धी ग्रन्थ के लेखक ( ये ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं)। १०. विष एवं उग्रग्रह आदि के शमन-समबन्धी ग्रन्थ के लेखक (ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं) । ११-१२ . बालरोग-चिकित्सा सम्बन्धी ग्रन्थ के लेखक (ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं)। १३. शरीर-बलवर्धक तथा बाजीकरण () आदि सम्बन्धी ग्रन्थ के लेखक (ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं)। १४. ‘कल्याणकारक’ के लेखक ( पं. वर्धमान पाश्र्वनाथ शास्त्री (शोलापुर) द्वारा सम्पादित एवं प्रकाशित, सन् १९४०ई०) १५. २२ सहस्र शब्दप्रमाण ‘निघण्टुकोष’ (अपूर्ण-सकार तक उपलब्ध) के लेखक। १६. ‘मेरुतन्त्र’ नामक वैद्यक ग्रन्थ के लेखक। १७. ‘गोवैद्य’ (कन्नड़) ग्रन्थ के लेखक। १८. ‘खगेन्द्रमणिदर्पण’ (कन्नड़) के लेखक। १९. ‘हयशास्त्र’ (कन्नड़) के लेखक। २०. ‘बालग्रह चिकित्सा’ (कन्नड़) के लेखक। २१.‘वैद्यामृत’ (कन्नड़ १४ अधिकारों में विभक्त) ग्रन्थ के लेखक। २२. ‘रसरत्नाकर’ (कन्नड़) एवं ‘वैद्य सांगत्य’ (कन्नड़) ग्रन्थ के लेख। २३. पूज्यपाद कृत ‘कल्याणकरक’ (संस्कृत) का कन्नड़ भाषा में अनुवाद करने वाले आचार्य। २४. दे० ‘कल्याणकारक’ भूमिका पृ० ५। २५. दे० ‘कल्याणकारक’ भूमिका पृ० १४। २६. वही भूमिका पृ. ४३। २७. ‘वैद्यसार-आयुर्वेदरत्न’ पं. सत्यन्धर जैन (आरा १९३१ ई०) भूमिका। २८. दे० ‘कल्याणकारक’ भूमिका पृ० २३,३२। २९. गा.सं० १००७। ३०-३१. दे० गाथा १००७। ३२. दे० गाथा १००८। ३३. दे० गाथा १००८। ३४. वही। ३५. गाथा सं० १००९। ३६. दे० गाथा १००९। ३७. दे० गाथा १०१०, १०१९। ३८-३९. दे० गाथा १०१०। ४०. दे० गाथा १०१२।


प्रो० डॉ० राजाराम जैन

प्राकृत-विद्या अक्टू.- दिस. १९९६ पृ. २० से २८

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2 thoughts on “भगवती आराधना (Bhagwati Aaradhana) में वर्णित आयुर्वेद-विद्या”

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