Saturday, December 17, 2022

सम्मेद शिखर की प्राचीनता

*सम्मेद शिखर तीर्थ पर्यटन का नहीं पर्याय बदलने का स्थान है:* 
डॉ. आशीष शिक्षाचार्य ,निदेशक
संस्कृत-प्राकृत तथा प्राच्य विद्या अनुसंधान केंद्र दमोह ,अध्यक्ष, संस्कृत विभाग,एकलव्य विश्वविद्यालय दमोह म. प्र. 

 सम्मेद शिखर तीर्थ पर्यटन का नहीं पर्याय बदलने का स्थान है क्योेंकि जैन धर्म के अनुसार अयोध्या एवं सम्मेदरशिखर ये दोनों भूमियाँ शाश्वत् कही गई हैं। जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों का जन्म अयोध्या में एवं निर्वाण सम्मेद शिखर में होने के नियोग का वर्णन प्राप्त होता है इसलिए ये शाश्वत् अनादि निधन भूमियां हैं। हुण्डावसर्पिणी काल दोष के कारण वर्तमान चौवीसी के 20 तीर्थकरों का निर्वाण इस पवित्र भूमि की टांेक (पर्वतश्रृंखला) से हुआ है। यह बात ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी प्राकृत भाषा की निर्वाणि भक्ति में लिखते हैं-

वीसं तु जिणवरिंदा अमरा सुरावंदिदा धुदकिलेसा ।
सम्मेदे गिरि - सिहरे निव्वाणगया णमो तेसिं॥2
स्वस्तिकांका नराधीश, सोपि अनादिकालाट्ठि 
सम्मेदामिध भूधरः । 

 जैन शास्त्रों पुराणों एवं आगम ग्रन्थों की माने तो इस पर्वत की भूमि के नीचे जब से सृष्टि का आरम्भ है तब से स्वस्तिक का चिन्ह स्थित है ।  इसका कण-कण पवित्र है और बाल की नोंक के बराबर भी ऐसा स्थान शेष नहीं जहॉं से मुनियों का कल्याण ना हुआ हो । सम्मेद शिखर पर्वत की प्राचीनता के विषय में विचार करें तो 13वीं शताब्दी में भट्टारक मदनकीर्ति  ने ‘‘शासनचतुस्त्रिंशतिका’’ में सौधर्म इन्द्र देव के द्वारा इस पर्वत की प्रतिष्ठा एवं पूजा का उल्लेख किया है तथा जहॉ से भगवान पार्श्वनाथ का निर्वाण हुआ है उसे शास्त्रों में स्वर्णभद्र कूट कहा जाता है उस जिनालय का निर्माण व जीर्णोद्धार‘‘सम्मेदशिखर माहात्म्य’’ ग्रन्थ के अनुसार जम्बूदीप के भरत क्षेत्र अंगदेश की अन्धपुरी नगरी के राजा प्रभासेन- शांतसेना रानी के द्वारा स्वर्णभद्र कूट की प्रतिष्ठा का उल्लेख मिलता है तथा उनके पुत्र भावसेत्र के द्वारा 84 लाख भव्यों के साथ सम्मेद शिखर की वंदना,मुनिदीक्षा धारण व मोक्ष के प्रमाण प्राप्त होते हैं।  16 शताब्दी में सम्राट अकबर ने300 बीघा जमीन श्वेताम्बर जैन साधु के प्रभाव से व 18 वीं शताब्दी में अहमदशाह ने 300 बीघा जमीन सेठ महेतावराय को तीर्थ क्षेत्र हेतु प्रदान की थी । 16-17 शताब्दी में भट्टारक ज्ञानकीर्ति द्वारा प्रणीत ‘‘यशोधर चरित्र‘‘ में तथा जैन पुराण ग्रन्थों एवं जैन साहित्य में सम्म्ेादशिखर की प्राचीनता एवं तप साधना के कई प्रमाण बिखरे पडे हैं और वर्तमान में सभी को ज्ञात है कि यह जैन तीर्थ है भारत सरकार  आजादी के पूर्व से लेकर अद्यतन भारतीय रेल्वे से एवं स्थानीय विभागों से  सर्वे करा ले कि यहां सबसे ज्यादा जैन यात्री दर्शनार्थ आते हैं, जिससे भारत सरकार को कितना रेवेन्यु प्राप्त होता है। अतः जैन तीर्थ सम्मेद शिखर तीर्थ पर्यटन का नहीं पर्याय बदलने का स्थान है, जहां से अनन्तानंत जीवों का कल्याण हुआ है ।। 
*निदेशक,संस्कृत-प्राकृत तथा प्राच्यविद्या अनुसन्धान केंद्र दमोह*

सम्मेद शिखर की प्राचीनता

 *सम्मेद शिखर तीर्थ पर्यटन का नहीं पर्याय बदलने का स्थान है:* 

डॉ. आशीष शिक्षाचार्य ,निदेशक

संस्कृत-प्राकृत तथा प्राच्य विद्या अनुसंधान केंद्र दमोह ,अध्यक्ष, संस्कृत विभाग,एकलव्य विश्वविद्यालय दमोह म. प्र. 


 सम्मेद शिखर तीर्थ पर्यटन का नहीं पर्याय बदलने का स्थान है क्योेंकि जैन धर्म के अनुसार अयोध्या एवं सम्मेदरशिखर ये दोनों भूमियाँ शाश्वत् कही गई हैं। जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों का जन्म अयोध्या में एवं निर्वाण सम्मेद शिखर में होने के नियोग का वर्णन प्राप्त होता है इसलिए ये शाश्वत् अनादि निधन भूमियां हैं। हुण्डावसर्पिणी काल दोष के कारण वर्तमान चौवीसी के 20 तीर्थकरों का निर्वाण इस पवित्र भूमि की टांेक (पर्वतश्रृंखला) से हुआ है। यह बात ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी प्राकृत भाषा की निर्वाणि भक्ति में लिखते हैं-


वीसं तु जिणवरिंदा अमरा सुरावंदिदा धुदकिलेसा ।

सम्मेदे गिरि - सिहरे निव्वाणगया णमो तेसिं॥2

स्वस्तिकांका नराधीश, सोपि अनादिकालाट्ठि 

सम्मेदामिध भूधरः । 


 जैन शास्त्रों पुराणों एवं आगम ग्रन्थों की माने तो इस पर्वत की भूमि के नीचे जब से सृष्टि का आरम्भ है तब से स्वस्तिक का चिन्ह स्थित है ।  इसका कण-कण पवित्र है और बाल की नोंक के बराबर भी ऐसा स्थान शेष नहीं जहॉं से मुनियों का कल्याण ना हुआ हो । सम्मेद शिखर पर्वत की प्राचीनता के विषय में विचार करें तो 13वीं शताब्दी में भट्टारक मदनकीर्ति  ने ‘‘शासनचतुस्त्रिंशतिका’’ में सौधर्म इन्द्र देव के द्वारा इस पर्वत की प्रतिष्ठा एवं पूजा का उल्लेख किया है तथा जहॉ से भगवान पार्श्वनाथ का निर्वाण हुआ है उसे शास्त्रों में स्वर्णभद्र कूट कहा जाता है उस जिनालय का निर्माण व जीर्णोद्धार‘‘सम्मेदशिखर माहात्म्य’’ ग्रन्थ के अनुसार जम्बूदीप के भरत क्षेत्र अंगदेश की अन्धपुरी नगरी के राजा प्रभासेन- शांतसेना रानी के द्वारा स्वर्णभद्र कूट की प्रतिष्ठा का उल्लेख मिलता है तथा उनके पुत्र भावसेत्र के द्वारा 84 लाख भव्यों के साथ सम्मेद शिखर की वंदना,मुनिदीक्षा धारण व मोक्ष के प्रमाण प्राप्त होते हैं।  16 शताब्दी में सम्राट अकबर ने300 बीघा जमीन श्वेताम्बर जैन साधु के प्रभाव से व 18 वीं शताब्दी में अहमदशाह ने 300 बीघा जमीन सेठ महेतावराय को तीर्थ क्षेत्र हेतु प्रदान की थी । 16-17 शताब्दी में भट्टारक ज्ञानकीर्ति द्वारा प्रणीत ‘‘यशोधर चरित्र‘‘ में तथा जैन पुराण ग्रन्थों एवं जैन साहित्य में सम्म्ेादशिखर की प्राचीनता एवं तप साधना के कई प्रमाण बिखरे पडे हैं और वर्तमान में सभी को ज्ञात है कि यह जैन तीर्थ है भारत सरकार  आजादी के पूर्व से लेकर अद्यतन भारतीय रेल्वे से एवं स्थानीय विभागों से  सर्वे करा ले कि यहां सबसे ज्यादा जैन यात्री दर्शनार्थ आते हैं, जिससे भारत सरकार को कितना रेवेन्यु प्राप्त होता है। अतः जैन तीर्थ सम्मेद शिखर तीर्थ पर्यटन का नहीं पर्याय बदलने का स्थान है, जहां से अनन्तानंत जीवों का कल्याण हुआ है ।। 

*निदेशक,संस्कृत-प्राकृत तथा प्राच्यविद्या अनुसन्धान केंद्र दमोह*

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