Tuesday, August 27, 2019

नवम भाव का महत्व

नवम भाव का महत्व
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जन्मकुंडली का नौवां घर सर्वाधिक शुभ घरों में गिना जाता है | इस घर का अपना विशेष महत्व है | मैंने जीवन में इस घर का प्रभाव स्वयं अनुभव करके देखा है | अक्सर हम राजयोग के बारे में बात करते हैं | हर व्यक्ति की कुंडली में राजयोग और दरिद्र योग मिल जायेंगे | हर योग की कुछ समय अवधि रहती है | दो तीन साल से लेकर पांच छह साल तक ही ये योग प्रभावशाली रहते हैं | जिस राजयोग के विषय में मैं सोच रहा हूँ अलग है | नवम भाव से बनने वाला योग पूरे जीवन में प्रभाव कारी रहता है |
कुछ लोगों को आगे बढ़ने के अवसर ही नहीं मिल पाते और कुछ लोग अवसर मिलते ही बहुत दूर निकल जाते हैं | बदकिस्मती जो जीवन बदल दे इसी घर की देन होती है | खुशकिस्मती जो अगली पीढ़ियों के लिए भी रास्ता साफ़ कर दे नवम भाव का प्रबल होना दर्शाती है |
मनपसंद जीवनसाथी पाने की आस में पूरा जीवन गुजर जाता है उसके साथ जिसे कभी पसंद किया ही नहीं |  जिन्दगी के साथ समझौता कर लेना या यह मान लेना कि यही नसीब था इन घटनाओं के लिए नवम भाव ही उत्तरदायी है |
आस लगाकर बैठे हजारों हजार लोग भाग्य के पीछे भागते रहते हैं और यह भी सच है कि इस दौड़ में हम सब हैं | प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हर कोई भाग्य की और देख रहा है | किस्मत का यह ताना बाना अपने आप में विचित्र है | भाग्य को समझ पाना आसान नहीं परन्तु जन्मकुंडली के द्वारा एक कोशिश की जा सकती है | तो आइये जानते हैं कैसे आपकी जन्मकुंडली का नवम भाव आपके जीवन को प्रभावित करता है |

नवम भाव और राज योग
नवम भाव किस्मत का है | यहाँ बैठे ग्रह आपके भाग्य को बहुत हद तक प्रभावित करते हैं | यदि यहाँ कोई भी ग्रह न हो तो भी यहाँ स्थित राशी के स्वामी को देखा जाता है | नवम भाव भाग्य का और दशम भाव कर्म का है | जब इन दोनों स्थानों के ग्रह आपस में किसी भी प्रकार का सम्बन्ध रखते हैं तब राजयोग की उत्पत्ति होती है | राजयोग में साधारण स्थिति में व्यक्ति सरकारी नौकरी प्राप्त करता है | नवम और दशम भाव का आपस में जितना गहरा सम्बन्ध होगा उतना ही अधिक बड़ा राज व्यक्ति भोगेगा | मंत्री, राजनेता, अध्यक्ष आदि राजनीतिक व्यक्तियों की कुंडली में यह योग होना स्वाभाविक ही है |

नवम भाव और दुर्भाग्य
यदि नवम भाव का स्वामी ग्रह सूर्य के साथ १० डिग्री के बीच में हो तो निस्संदेह व्यक्ति भाग्यहीन होता है | यदि नवमेश नीच राशी में हो तो व्यक्ति चाहे करोडपति क्यों न हो एक न एक दिन उसे सड़क पर आना पड़ ही जाता है | यदि नवमेश १२वे भाव में हो तो व्यक्ति का भाग्य अपने देश में नहीं चमकता | विदेश में जाकर वहां कष्ट उठाकर जीना पड़ता है | उसकी यही मेहनत उसके भाग्य का निर्माण करती है |
नवम भाव का स्वामी बलवान हो या निर्बल, उसकी दशा अन्तर्दशा में व्यक्ति को अवसर खूब मिलते हैं | यदि नवमेश अच्छी स्थिति में होगा तो व्यक्ति अवसर का लाभ उठा पायेगा | अन्यथा अवसर पर अवसर ऐसे ही निकल जाते हैं जैसे मुट्ठी में से रेत |
पाप ग्रह इस स्थान में बैठकर भाग्य की हानि करते हैं और शुभ ग्रह मुसीबतों से बचाते हैं | इस स्थान पर बुध, शुक्र, चन्द्र और गुरु का होना व्यक्ति के उज्ज्वल भविष्य को दर्शाता है | मंगल, शनि, राहू और केतु इस स्थान में बैठकर व्यक्ति को दुर्भाग्य के अवसर प्रदान करते हैं | सूर्य का यहाँ होना निस्संदेह एक बहुत बड़ा राजयोग है | सूर्य स्वयं ग्रहों का राजा है और जब राजा ही भाग्य स्थान में बैठ जाए तो राजयोग स्पष्ट हो जाता है |
कोई भी ग्रह चाहे वह पाप ग्रह मंगल, शनि ही क्यों न हों, इस स्थान में यदि अपनी राशी में हो तो व्यक्ति बहुत भाग्यशाली हो जाता है | पाप ग्रहों से अंतर केवल इतना पड़ता है कि उसके अशुभ कर्मों में भाग्य उसका साथ देता है |

Sunday, August 25, 2019

कुंडली मे चतुर्थ भाव का महत्व

कुंडली मे चतुर्थ भाव का महत्व
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चतुर्थ भाव सुख स्थान या मातृ स्थान के नाम से जाना जाता है| इस भाव में व्यक्ति को प्राप्त हो सकने वाले समस्त सुख विद्यमान है इसलिए इसे सुख स्थान कहते हैं| मनुष्य का प्रथम सुख माता के आँचल में होता है| केवल वही है जो व्यक्ति की तब तक रक्षा करती है जब तक वह अपने सुख को अर्जित करने में सक्षम न हो जाए| चतुर्थ भाव व्यक्ति की माता से संबंधित समस्त विषयों की जानकारी भी देता है इसलिए इसे मातृ भाव भी कहा जाता है| तृतीय भाव से दूसरा भाव होने के कारण यह भाई-बहनों के धन को भी सूचित करता है| ज्योतिष में यह विष्णु स्थान है तथा एक शुभ भाव माना जाता है| परंतु यदि शुभ ग्रह इस भाव का स्वामी हो तो उसे केन्द्राधिपत्य दोष लगता है|
यह केंद्र भावों में से एक भाव माना गया है| मानव जीवन में इस भाव का बहुत अधिक महत्व है| किसी भी मनुष्य के पास भौतिक साधन कितनी भी अधिक मात्रा में क्यों न हों यदि उसके जीवन में सुख-शांति ही नही तो क्या लाभ? इसलिए इस भाव से मनुष्य को प्राप्त होने वाले सभी प्रकार के सुखों का विचार किया जाता है| जन्मकुंडली में यह भाव उत्तर दिशा तथा अर्द्धरात्रि को प्रदर्शित करता है| इस भाव से सुख के अतिरिक्त माता, वाहन, शिक्षा, वक्षस्थल, पारिवारिक सुख, भूमि, कृषि, भवन, चल-अचल संपति, मातृ भूमि, भूमिगत वस्तुएं, मानसिक शांति आदि का विचार किया जाता है| चतुर्थ भाव मुख्य केंद्र स्थान है| “द्वितीय केंद्र” के नाम से प्रसिद्ध यह कालपुरुष के वक्षस्थल का कारक है| यही कारण है कि इस जीवन में पर्याप्त सुख व आनंद प्राप्त करने के लिए व्यक्ति का हृदय निर्मल होना चाहिए|

चतुर्थ भाव से निम्नलिखित विषयों का विचार किया जाता है-
सुख- चतुर्थ भाव से हम किसी भी व्यक्ति के जीवन के समस्त सुखों का विश्लेषण करते हैं| यह भाव मातृ स्नेह एवं उनसे प्राप्त संरक्षण, पारिवारिक सदस्यों, निवास, वाहन आदि से प्राप्त होने वाले सुखों को दर्शाता है|
माता- यह भाव व्यक्ति की माता, उनका स्वभाव, चरित्र तथा विशेषताओं को सूचित करता है| मनुष्य की माता को जो सुख-सुविधाएं प्राप्त होंगी वे सब इस भाव से तथा मातृ कारक चन्द्र के आधार पर देखी जाती हैं|
निवास(घर)- यह भाव मनुष्य के निवास स्थान अथवा घर का भी प्रतीक है| किसी भी व्यक्ति के सुखमय जीवन के लिए उसके पास निवास स्थान होना अनिवार्य है व्यक्ति केवल गृह में ही विश्राम कर सकता है, अन्य किसी स्थान पर नहीं| मनुष्य का निजी घर उसका अतिरिक्त सुख ही है|
संपति- यह भाव चल व अचल दोनों प्रकार की संपति को दर्शाता है| शुक्र चल संपति जैसे मोटर, वाहन का कारक है तथा मंगल अचल संपति का कारक होता है|
कृषि- यह भाव भूमिगत वस्तुओं का प्रतीक है इसलिए यह स्थान कृषि से भी जुड़ा हुआ है| चतुर्थ भाव का दशम भाव व मंगल से संबंध होना कृषि अथवा कृषि-उत्पादों से संबंधित व्यवसाय का सूचक है|
जीवनसाथी का कर्मस्थान- यह भाव सप्तम स्थान(जीवनसाथी) से दशम है इसलिए यह जीवनसाथी के कार्यक्षेत्र व उसकी आय को बताता है|
शिक्षा- यह भाव व्यक्ति की शिक्षा संबंधी संभावनाओं को दर्शाता है| मनुष्य कितनी शिक्षा प्राप्त करने में सक्षम है और वह किस प्रकार की शिक्षा ग्रहण करेगा यह इस भाव से ज्ञात हो सकता है|
संतान अरिष्ट- यह भाव पंचम स्थान से द्वादश है अतः यह संतान के अरिष्ट का सूचक माना जाता है| इस भाव के स्वामी की दशा-अंतर्दशा में किसी भी व्यक्ति की संतान को शारीरिक कष्ट हो सकता है|
मानसिक शांति- यह भाव व्यक्ति की मानसिक शांति का प्रतीक भी है| चतुर्थ स्थान व चतुर्थेश के पीड़ित होने से व्यक्ति मानसिक शांति से वंचित हो सकता है| इसलिए इस भाव से यह भी पता चलता है कि मनुष्य को मानसिक शांति प्राप्त होगी या नहीं| इस भाव के पीड़ित होने से व्यक्ति को मनोरोग हो सकते हैं|
वक्षस्थल- यह भाव कालपुरुष के वक्षस्थल का सूचक है| इस भाव तथा इसके स्वामी के पीड़ित होने से व्यक्ति को छाती या वक्षस्थल से संबंधित रोग अथवा कष्ट हो सकता है|
वाहन- इस भाव से वाहन संबंधी सूचना भी प्राप्त होती है| किसी व्यक्ति के पास वाहन होगा या नहीं, वाहन की संख्या व उनसे मिलने वाले लाभ की जानकारी भी इस भाव से पता चल सकती है| यदि चतुर्थ भाव, चतुर्थेश तथा वाहन कारक शुक्र कुडंली में बली हों तो मनुष्य को उत्तम वाहन सुख प्राप्त होता है| इसके विपरीत इन घटकों के पीड़ित होने से व्यक्ति वाहन सुख से वंचित हो जाता है|
स्थान परिवर्तन- यह भाव व्यक्ति के निवास से जुड़ा है अतः यदि चतुर्थ स्थान, चतुर्थेश पर शनि, सूर्य, राहु तथा द्वादशेश का प्रभाव हो तो इस पृथकता जनक प्रभाव के कारण मनुष्य को अपना घर-बार, जन्मस्थान तक छोड़ना पड़ता है|
जन-सेवा- चतुर्थ स्थान जनता से संबंधित भाव है| इसलिए यदि चतुर्थ भाव, चतुर्थेश एवं चन्द्र के साथ लग्नेश का युति अथवा दृष्टि द्वारा संबंध हो तो मनुष्य जनसेवा व जनहितकारी कार्यों को कर सकता है|

चतुर्थ भाव में ग्रहों के प्रभाव
1. चौथे घर में सूर्यः इस घर में सूर्य हो तो जातक का जीवन उदासीपूर्ण और दुखों से भरा होता है। व्यक्ति का पूरा जीवन भ्रमण करते गुजर जाता है। जातक पैतृक संपत्ति का मालिक बनता है। चौथे घर में बैठा सूर्य जातक को दर्शनशास्त्र का ज्ञानी, जादू-टोना की जानकारी या चालबाजी करने वाला बनाता है। इस घर का सूर्य यदि मंगल या शनि से प्रभावित हो रहा हो तो जातक को जीवन में कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
2. चौथे घर में चंद्रमाः जातक के पास स्वयं का निवास स्थान होगा। सगे-संबंधियों से मान-सम्मान मिलेगा। जातक ईगो रखने वाला और झगड़ालू प्रवृति का होगा। यदि चंद्रमा इस घर में पीड़ित हुआ तो जातक को माता से दूर करा देगा। चौथे घर में बैठे चंद्रमा परर यदिद गुरु की दृष्टि नहीं पड़ रही हो तो जातक कामुक प्रवृति में लिप्त रहेगा।
3. चौथे घर में मंगलः चौथे घर में मंगल की स्थित जातक के माता या दोस्तों से दूरियां को दर्शाता है। कम उम्र में ही जातक के सिर से मां का साया उठ जाता है। राजनीति के क्षेत्र में जातक को सफलता मिलती है। खुद का घर भी जातक के पास होता है लेकिन घर में खुशियां नहीं रहती हैं।
4. चौथे घर में बुधः इस घर में यदि बुध बैठा हो तो जातक का झुकाव शिक्षा अथवा प्रशासनिक विभाग की तरफ अधिक रहेगा। जातक सत्तारूढ़ सरकार का आलोचक होगा साथ ही अपने जीवन में बहुत ख्याति प्राप्त करेगा। जातक के पिता जमीन से जुड़े व्यक्ति होंगे। चौथे घर का बुध जातक को दूर की यात्रा का सुख प्रदान कराता है साथ ही उसे कला, संगीत का भी आनंद प्राप्त होता है।
5. चौथे घर में गुरुः जातक की सोच दार्शनिक होगी। चौथे घर का गुरु जातक को बहुत बुद्धिमान बनाता है। इस घर में गुरु होने से जातक को समय-समय पर भगवान का आशीर्वाद हासिल होता है। ये जातक बहुत अधिक धार्मिक, सभी काम पाप-पुण्य सोच कर करने वाला और दुश्मनों से डरने वाला होगा।
6. चौथे घर में शुक्रः इस घर में बैठा शुक्र जातक को बहुत भाग्यशाली बनाता है। जातक को जीवन में अनेक वाहनों का सुख प्राप्त होगा। खुद का घर नसीब होगा। जो बेहद साज-सज्जा वाला और साफ-सुथरा होगा। माता के प्रति जातक की बहुत ही अधिक श्रद्धा होगी। इसके जीवन में कई दोस्त बनेंगे।
7. चौथे घर में शनिः जातक का प्रारंभिक जीवन बीमारियों से घिरा होगा। माता से दूर जीवन बीतेगा। वात-पित्त की बीमारी से परेशान रहेगा। स्वभाव से सुस्त होगा। जातक को जीवन में खुद के घर का सुख नहीं मिलेगा और वाहन की तरफ से उसे हमेशा परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। रिशतेदार जातक को पसंद नहीं करेंगे। जातक अकेले जीवन जीना अधिक पसंद करेगा।
8. चौथे घर में राहुः चौथे घर में राहु के प्रभाव से जातक मंद बुद्धि का स्वामी बनता है। बुरे कामों के कारण बदनामी झेलता है। लोगों को ठगने का जातक काम करता है।
9. चौथे घर में केतुः घर और माता के सुख से दूर जातक का जीवन बीतेगा। पैतृक संपत्ति हासिल नहीं होगी। जीवन में कई बार अचानक बदलाव का सामना करना पड़ेगा, साथ ही कई तरह के बुरे अनुभव भी जातक को प्राप्त होंगे।

जैन धर्म का पुरा इतिहास

Digambar mat anusar
मध्य एशिया जैनधर्म

मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में लेनिनग्राड स्थित पुरातत्व संस्थान के प्रोफेसर ‘यूरि जेडनेयोहस्की’ ने २० जून सन् १९६७ को दिल्ली में एक पत्रकार सम्मेलन में कहा था कि ‘‘भारत और मध्य एशिया के बीच संबंध लगभग एक लाख वर्ष पुराना है। अत: यह स्वाभाविक है कि जैनधर्म मध्य एशिया में फैला हुआ था।’’
प्रसिद्ध प्रसीसी इतिहासवेत्ता श्री जे.ए. दुबे ने लिखा है कि आक्सियाना कैस्मिया, बल्ख ओर समरकंद नगर जैनधर्म के आरंभिक केन्द्र थे। सोवियत आर्मीनिया में नेशवनी नामक प्राचीन नगर हैं। प्रोफेसर एम.एस. रामस्वामी आयंगर के अनुसार जैन मुनि संत ग्रीस, रोम, नार्वे में भी विहार करते थे। श्री जान लिंगटन आर्किटेक्ट एवं लेखक नार्वे के अनुसार नार्वे म्यूजियम में ऋषभदेव की मूर्तियाँ हैं। वे नग्न और खड्गासन हैं। तर्जिकिस्तान में सराज्य के पुरातात्विक उत्खनन में प्राप्त पंचमार्क सिक्कों तथा सीलों पर नग्न मुद्रायें बनीं हैं। जो कि सिंधु घाटी सभ्यता के सदृश हैं। हंगरी के ‘बुडापेस्ट’ नगर में ऋषभदेव की मूर्ति एवं भगवान महावीर की मूर्ति भूगर्भ से मिली हैं।
ईसा से पूर्व ईराक, ईरान और फिलिस्तीन में जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु हजारों की संख्या में चहुं ओर फैले थे, पश्चिमी एशिया, मिर, यूनान और इथियोपिया के पहाड़ों और जंगलों में उन दिनों अगणित श्रमण-साधु रहते थे, जो अपने त्याग और विद्या के लिए प्रसिद्ध थे। ये साधु नग्न थे। वानक्रेपर के अनुसार मध्य-पूर्व में प्रचलित समानिया सम्प्रदाय श्रमण का अपभ्रंश है। यूनानी लेखक मिस्र एचीसीनिया और इथियोपिया में दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व बताते हैं।
प्रसिद्ध इतिहास-लेखक मेजर जनरल जे.जी. आर फर्लांग ने लिखा है कि अरस्तू ने ईसवी सन् से ३३० वर्ष पहले कहा है, कि प्राचीन यहूदी वास्तव में भारतीय इक्ष्वाकु-वंशी जैन थे, जो जुदिया में रहने के कारण
‘यहूदी’ कहलाने लगे थे। इस प्रकार यहूदीधर्म का स्रोत भी जैनधर्म प्रतीत होता है। इतिहासकारों के अनुसार तुर्किस्तान में भारतीय-सभ्यता के अनेकानेक चिन्ह मिले हैं। इस्तानबुल नगर से ५७० कोस की दूरी पर स्थित तारा तम्बोल नामक विशाल व्यापारिक नगर में बड़े-बड़े विशाल जैन मंदिर उपाश्रय, लाखों की संख्या में जैन धर्मानुयायी चतुर्विध संघ तथा संघपति जैनाचार्य अपने शिष्यों-प्रशिष्यों के साथ विद्यमान थे। आचार्य का नाम उदयप्रभ सूरि था। वहाँ का राजा और सारी प्रजा जैन धर्मानुयायी थी।
प्रसिद्ध जर्मन-विद्वान वानक्रूर के अनुसार मध्य पूर्व एशिया प्रचलित समानिया सम्प्रदाय श्रमण जैन-सम्प्रदाय था। विद्वान जी.एफ कार ने लिखा है कि ईसा की जन्मशती के पूर्व मध्य एशिया ईराक, डबरान और फिलिस्तीन, तुर्कीस्तान आदि में जैन मुनि हजारों की संख्या में फैलकर अहिंसा धर्म का प्रचार करते रहे। पश्चिमी एशिया, मिस्र, यूनान और इथियोपिया के जंगलों में अगणित जैन-साधु रहते थे।
मिस्र के दक्षिण भाग के भू-भाग को राक्षस्तान कहते हैं। इन राक्षसों को जैन-पुराणों में विद्याधर कहा गया है। ये जैन धर्म के अनुयायी थे। उस समय यह भू भाग सूडान, एबीसिनिया और इथियोपिया कहलाता था। यह सारा क्षेत्र जैनधर्म का क्षेत्र था।
मिस्र (एजिप्ट) की प्राचीन राजधानी पैविक्स एवं मिस्र की विशिष्ट पहाड़ी पर मुसाफिर लेखराम ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘कुलपति आर्य मुसाफिर’ में इस बात की पुष्टि की है कि उसने वहाँ ऐसी मूर्तियाँ देखी है, जो जैन तीर्थ गिरनार की मूर्तियों से मिलती जुलती है।

प्राचीन काल से ही भारतीय
मिस्र, मध्य एशिया, यूनान आदि देशों से व्यापार करते थे, तथा अपने व्यापार के प्रसंग में वे उन देशों में जाकर बस गये थे। बोलान के अनेक जैन मंदिरों का निर्माण हुआ। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत (उच्चनगर) में भी जैनधर्म का बड़ा प्रभाव था। उच्चनगर का जैनों से अतिप्राचीनकाल से संबंध चला आ रहा है तथा तक्षशिला के समान ही वह जैनों का केन्द्र-स्थल रहा है। तक्षशिला, पुण्डवर्धन, उच्चनगर आदि प्राचीन काल में बड़े ही महत्वपूर्ण नगर रहे हैं, इन अतिप्राचीन नगरों में भगवान ऋषभदेव के काल से ही हजारों की संख्या में जैन परिवार आबाद थे। घोलक के वीर धवल के महामंत्री वस्तुपाल ने विक्रम सं. १२७५ से १३०३ तक जैनधर्म के व्यापक प्रसार के लिए योगदान किया था। इन लोगों ने भारत और बाहर के विभिन्न पर्वत शिखरों पर सुन्दर जैन मंदिरों का निर्माण कराया, और उनका जीर्णोद्धार कराया एवं सिंध (पाकिस्तान), पंजाब, मुल्तान, गांधार, कश्मीर, सिंधुसोवीर आदि जनपदों में उन्होंने जैन मंदिरों, तीर्थों आदि का नव निर्माण कराया था, कम्बोज (पामीर) जनपद में जैनधर्म पेशावर से उत्तर की ओर स्थित था। यहाँ पर जैनधर्म की महती प्रभावना और जनपद में बिहार करने वाले श्रमण-संघ कम्बोज, याकम्बेडिग गच्छ के नाम से प्रसिद्ध थे। गांधार गच्छ और कम्बोज गच्छ सातवीं शताब्दी तक विद्यामान थे। तक्षशिला के उजड़ जाने के समय तक्षशिला में बहुत से जैन मंदिर और स्तूप विद्यमान थे।
अरबिया में जैनधर्म इस्लाम के फैलने पर अरबिया स्थित आदिनाथ नेमिनाथ और बाहुबली के मंदिर और अनेक मूर्तियाँ नष्ट हो गई थीं। अरबिया स्थित पोदनपुर जैनधर्म का गढ था, और यह वहाँ की राजधानी थी। वहाँ बाहुबली की उत्तुंग प्रतिमा विद्यमान थी।

: अरबिया में जैनधर्म इस्लाम के फैलने पर अरबिया स्थित आदिनाथ नेमिनाथ और बाहुबली के मंदिर और अनेक मूर्तियाँ नष्ट हो गई थीं। अरबिया स्थित पोदनपुर जैनधर्म का गढ था, और यह वहाँ की राजधानी थी। वहाँ बाहुबली की उत्तुंग प्रतिमा विद्यमान थी।
ऋषभदेव को अरबिया में ‘‘बाबा आदम’’ कहा जाता है। मौर्य सम्राट सम्प्रति के शासनकाल में वहाँ और फारस में जैन संस्कृति का व्यापक प्रचार हुआ था, तथा वहाँ अनेक बस्तियाँ विद्यमान थी।
मक्का में इस्लाम की स्थापना के पूर्व वहाँ जैनधर्म का व्यापक प्रचार प्रसार था। वहाँ पर अनेक जैन मंदिर विद्यमान थे। इस्लाम का प्रचार होने पर जैन मूर्तियाँ तोड़ दी गई, और मंदिरों को मस्जिद बना दिया गया। इस समय वहाँ जो मस्जिदें हैं, उनकी बनावट जैन मंदिरों के अनुरूप है। इस बात की पुष्टि जैम्सफग्र्यूसन ने अपनी ‘विश्व की दृष्टि’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक के पृष्ठ २६ पर की है। मध्यकाल में भी जैन दार्शनिकों के अनेक संघ बगदाद और मध्य एशिया गये थे, और वहाँ पर अहिंसा धर्म का प्रचार किया था।
यूनानियों के धार्मिक इतिहास से भी ज्ञात होता है, कि उनके देश में जैन सिद्धांत प्रचलित थे। पाइथागोरस, पायरों, प्लोटीन आदि महापुरूष श्रमणधर्म और श्रमण दर्शन के मुख्य प्रतिपादक थे। एथेन्स में दिगम्बर जैन संत श्रमणाचार्य का चैत्य विद्यमान है, जिससे प्रकट है कि यूनान में जैनधर्म का व्यापक प्रसार था। प्रोफेसर रामस्वामी ने कहा था कि बौद्ध और जैन श्रमण अपने-अपने धर्मों के प्रचारार्थ यूनान रोमानिया और नार्वें तक गये थे। नार्वे के अनेक परिवार आज भी जैन धर्म का पालन करते हैं। आस्ट्रिया और हंगरी में भूकम्प के कारण भूमि में से बुडापेस्ट नगर के एक बगीचे से महावीर स्वामी की एक प्राचीन मूर्ति हस्तगत हुई थी। अत: यह स्वत: सिद्ध है कि वहाँ जैन श्रावकों की अच्छी बस्ती थी।

सीरियां में निर्जनवासी
: सीरियां में निर्जनवासी श्रमण सन्यासियों के संघ और आश्रम स्थापित थे। ईसा ने भी भारत आकर संयास और जैन तथा भारतीय दर्शनों का अध्ययन किया था। ईसा मसीह ने बाइबिल में जो अहिंसा का उपदेश दिया था, वह जैन संस्कृति और जैन सिद्धांत के अनुरूप है।
स्केडिनेविया में जैन धर्म के बारे में कर्नल टाड अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘राजस्थान’ में लिखते हैं कि ‘‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में चार बुद्ध या मेधावी महापुरुष हुये हैं। इनमें पहले आदिनाथ और दूसरे नेमिनाथ थे। ये नेमिनाथ की स्केडिनेविया निवासियों के प्रथम औडन तथा चीनियों के प्रथम ‘फे’ नामक देवता थे। डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार के अनुसार सुमेर जाति में उत्पन्न बाबुल के सिल्दियन सम्राट नेबुचंद नेजर ने द्वारका जाकर ईसा पूर्व ११४० में लगभग नेमिनाथ का एक मंदिर बनवाया था। सौराष्ट में इसी सम्राट नेबुचंद नेजर का एक ताम्र पत्र प्राप्त हुआ है।’’ कोश्पिया में जैनधर्म मध्य एशिया में बलख क्रिया मिशी, माकेश्मिया, उसके बाद मासवों नगरों अमन, समरवंâद आदि में जैनधर्म प्रचलित था, इसका उल्लेख ईसापूर्व पांचवीं, छठी शती में यूनानी इतिहास में किया गया था। अत: यह बिल्कुल संभव है कि जैनधर्म का प्रचार केश्पिया, रूकाबिया और समरवंâद बोक आदि नगरों में रहा था।
इन्टरनेट से साभार

Saturday, August 10, 2019

जन्म दोष शांति के उपाय


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अशुभ जन्म समय जिनके उपाय करने जरूरी है।

हम जैसा कर्म करते हैं उसी के अनुरूप हमें ईश्वर सुख दु:ख देता है। सुख दु:ख का निर्घारण ईश्वर कुण्डली में ग्रहों स्थिति के आधार पर करता है। जिस व्यक्ति का जन्म शुभ समय में होता है उसे जीवन में अच्छे फल मिलते हैं और जिनका अशुभ समय में उसे कटु फल मिलते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह शुभ समय क्या है और अशुभ समय किसे कहते हैं

अमावस्या में जन्म

ज्योतिष शास्त्र में अमावस्या को दर्श के नाम से भी जाना जाता है। इस तिथि में जन्म माता पिता की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव डालता है। जो व्यक्ति अमावस्या तिथि में जन्म लेते हैं उन्हें जीवन में आर्थिक तंगी का सामना करना होता है। इन्हें यश और मान सम्मान पाने के लिए काफी प्रयास करना होता है।

अमावस्या तिथि में भी जिस व्यक्ति का जन्म पूर्ण चन्द्र रहित अमावस्या में होता है वह अधिक अशुभ माना जाता है। इस अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए घी का छाया पात्र दान करना चाहिए, रूद्राभिषेक और सूर्य एवं चन्द्र की शांति कराने से भी इस तिथि में जन्म के अशुभ प्रभाव को कम किया जा सकता है।

संक्रान्ति में जन्म

संक्रान्ति के समय भी संतान का जन्म अशुभ माना जाता है। इस समय जिस बालक का जन्म होता है उनके लिए शुभ स्थिति नहीं रहती है। संक्रान्ति के भी कई प्रकार होते हैं जैसे रविवार के संक्रान्ति को होरा कहते हैं, सोमवार को ध्वांक्षी, मंगलवार को महोदरी, बुधवार को मन्दा, गुरूवार को मन्दाकिनी, शुक्रवार को मिश्रा व शनिवार की संक्रान्ति राक्षसी कहलाती है।

अलग अलग संक्रान्ति में जन्म का प्रभाव भी अलग होता है। जिस व्यक्ति का जन्म संक्रान्ति तिथि को हुआ है उन्हें ब्राह्मणों को गाय और स्वर्ण का दान देना चाहिए इससे अशुभ प्रभाव में कमी आती है। रूद्राभिषेक एवं छाया पात्र दान से भी संक्रान्ति काल में जन्म का अशुभ प्रभाव कम होता है।

भद्रा काल में जन्म

जिस व्यक्ति का जन्म भद्रा में होता है उनके जीवन में परेशानी और कठिनाईयां एक के बाद एक आती रहती है। जीवन में खुशहाली और परेशानी से बचने के लिए इस तिथि के जातक को सूर्य सूक्त, पुरूष सूक्त, रूद्राभिषेक करना चाहिए। पीपल वृक्ष की पूजा एवं शान्ति पाठ करने से भी इनकी स्थिति में सुधार होता है।

कृष्ण चतुर्दशी में जन्म

पराशर महोदय कृष्ण चतुर्दशी तिथि को छ: भागों में बांट कर उस काल में जन्म लेने वाले व्यक्ति के विषय में अलग अलग फल बताते हैं। इसके अनुसार प्रथम भाग में जन्म शुभ होता है परंतु दूसरे भाग में जन्म लेने पर पिता के लिए अशुभ होता है, तृतीय भाग में जन्म होने पर मां को अशुभता का परिणाम भुगतना होता है, चौथे भाग में जन्म होने पर मामा पर संकट आता है, पांचवें भाग में जन्म लेने पर वंश के लिए अशुभ होता है एवं छठे भाग में जन्म लेने पर धन एवं स्वयं के लिए अहितकारी होता है।

कृष्ण चतुर्दशी में संतान जन्म होने पर अशु प्रभाव को कम करने के लिए माता पिता और जातक का सर्वोषधि से स्नान कराएं  साथ ही सत्पात्रों को आहार एवं संयम पात्र दान देना चाहिए।

समान जन्म नक्षत्र

ज्योतिषशास्त्र के नियमानुसार अगर परिवार में पिता और पुत्र का, माता और पुत्री का अथवा दो भाई और दो बहनों का जन्म नक्षत्र एक होता है तब दोनो में जिनकी कुण्डली में ग्रहों की स्थिति कमज़ोर रहती है उन्हें जीवन में अत्यंत कष्ट का सामना करना होता है।
इस स्थिति में नवग्रह पूजन, नक्षत्र देवता की पूजा, सत्पात्रों को भोजन एवं दान देने से अशुभ प्रभाव में कमी आती है।

सूर्य और चन्द्र ग्रहण में जन्म

सूर्य और चन्द्र ग्रहण को शास्त्रों में अशुभ समय कहा गया है। इस समय जिस व्यक्ति का जन्म होता है उन्हें शारीरिक और मानसिक कष्ट का सामना करना होता है। इन्हें अर्थिक परेशानियों का सामना करना होता है।

सूर्य ग्रहण में जन्म लेने वाले के लिए मृत्यु की संभवना भी रहती है। इस दोष के निवारण के लिए नक्षत्र स्वामी की पूजा करनी चाहिए। सूर्य व चन्द्र ग्रहण में जन्म दोष की शांति के लिए सूर्य, चन्द्र और राहु की पूजा भी कल्यणकारी होती है।

सर्पशीर्ष में जन्म

अमावस्या तिथि में जब अनुराधा नक्षत्र का तृतीय व चतुर्थ चरण होता है तो सर्पशीर्ष कहलाता है। सार्पशीर्ष को अशुभ समय माना जाता है। इसमें कोई भी शुभ काम नहीं होता है। सार्पशीर्ष मे शिशु का जन्म दोष पूर्ण माना जाता है।

जो शिशु इसमें जन्म लेता है उन्हें इस योग का अशुभ प्रभाव भोगना होता है। इस योग में शिशु का जन्म होने पर पार्श्वनाथ भगवान का अभिषेक कराना चाहिए और सत्पात्रों को भोजन एवं दान देना चाहिए इससे दोष के प्रभाव में कमी आती है।

गण्डान्त योग में जन्म

गण्डान्त योग को संतान जन्म के लिए अशुभ समय कहा गया है। इस समय संतान जन्म लेती है तो गण्डान्त शान्ति कराने के बाद ही पिता को शिशु का मुख देखना चाहिए। पराशर महोदय के अनुसार तिथि गण्ड में बैल का दान, नक्षत्र गण्ड में गाय का दान और लग्न गण्ड में स्वर्ण का दान करने से दोष मिटता है।

संतान का जन्म अगर गण्डान्त पूर्व में हुआ है तो पिता और शिशु का अभिषेक करने से और गण्डान्त के अतिम भाग में जन्म लेने पर माता एवं शिशु का सर्वोषधि से स्नान कराने से दोष कटता है।

त्रिखल दोष में जन्म

जब तीन पुत्री के बाद पुत्र का जन्म होता है अथवा तीन पुत्र के बाद पुत्री का जन्म होता है तब त्रिखल दोष लगता है। इस दोष में माता पक्ष और पिता पक्ष दोनों को अशुभता का परिणाम भुगतना पड़ता है। इस दोष के अशुभ प्रभाव से बचने के लिए माता पिता को दोष शांति का उपाय करना चाहिए।

मूल में जन्म दोष

मूल नक्षत्र में जन्म अत्यंत अशुभ माना जाता है। मूल के प्रथम चरण में पिता को दोष लगता है, दूसरे चरण में माता को, तीसरे चरण में धन और अर्थ का नुकसान होता है। इस नक्षत्र में जन्म लेने पर 1 वर्ष के अंदर पिता की, 2 वर्ष के अंदर माता की मृत्यु हो सकती है। 3 वर्ष के अंदर धन की हानि होती है।

इस नक्षत्र में जन्म लेने पर 1वर्ष के अंदर जातक की भी मृत्यु की संभावना रहती है। इस अशुभ स्थित का उपाय यह है कि मास या वर्ष के भीतर जब भी मूल नक्षत्र पड़े मूल शान्ति करा देनी चाहिए। अपवाद स्वरूप मूल का चौथ चरण जन्म लेने वाले व्यक्ति के स्वयं के लिए शुभ होता है।

अन्य दोष

ज्योतिषशास्त्र में इन दोषों के अलावा कई अन्य योग और हैं जिनमें जन्म होने पर अशुभ माना जाता है इनमें से कुछ हैं यमघण्ट योग, वैधृति या व्यतिपात योग एव दग्धादि योग हें। इन योगों में अगर जन्म होता है तो इसकी शांति अवश्य करानी चाहिए।

यहां ग्रहों की पूजन के लिए प्रेरित नहीं किया जा रहा है उनके अधिष्ठाता श्री जिनेन्द्र  प्रभु का पूजन विधानं अनुष्ठान करें ।

ज्योतिषीय योग

ज्योतिषीय योग
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अत्यन्त महत्वपूर्ण योग ।

दीर्घायु, संतान व समृद्धि - लग्नेश, गुरु या शुक्र केंद्र में स्थित हो।

पूर्णायु - लग्नेश गुरु से केंद्र में तथा कोई शुभ ग्रह लग्न से केंद्र में।

सुखी जीवन - लग्नेश लग्न से या चंद्र से केंद्र में हो तथा उदित भाग में हो। (सप्तम से दशम तक व दशम से लग्न तक उदित भाग) या नवमेश-लग्नेश की युति दशम में हो।

उच्च शिक्षा - नवमेश-लग्नेश की युति केंद्र में हो और उन पर पंचमेश की दृष्टि हो।

ख्याति व समृद्धि - लग्नेश उच्च राशि में हो और उन पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो, एक शुभ ग्रह चंद्र या लग्न से युत हो।

दुर्बल शरीर - निर्बल लग्नेश शुष्क राशि (मेष, 5, 9) में स्थित हो और उस पर पाप ग्रह की दृष्टि हो।

राज्य कृपा - लग्न में शुभ ग्रह व नवमेश-दशमेश की युति हो।

जुड़वां संतान - राहु लग्न में, लग्न पर मंगल व शनि की दृष्टि तथा लग्नेश गुलिक से युत हो।

भरण पोषण - चंद्र व सूर्य  एक ही राशि व एक ही नवांश में हों तो जातक का भरण/पालन-पोषण माता सहित तीन स्त्रियां करेंगी।

अतुल धन लाभ - द्वितीयेश केंद्र में व एकादशेश उससे केंद्र में या त्रिकोण में तथा गुरु व शुक्र से युत या दृष्ट हो।

शत्रु से धन लाभ - द्वितीयेश की छठे भाव में एकादशेश से युति होने पर।

दरिद्रता - द्वितीयेश + एकादशेश नीचस्थ व पापग्रह युक्त होने पर।

धन कुबेर - द्वितीयेश परमोच्च स्थिति में होने पर

असीमित धन प्राप्ति - द्वितीयेश एकादश में वर्गोत्तम भी (नवांश में), स्वराशि, निम्न राशि या शुक्र/बुध से युक्त हो, गुरु की दृष्टि भी हो।

नेत्र - बली द्वितीयेश-सुंदर नेत्र, द्वितीयेश 6, 8, 12 में नेत्र कष्ट/नेत्र/प्रकाशहीन की संभावना।

क्रूर व असत्यवादी - द्वितीय में पापग्रह तथा द्वितीयेश भी पापयुक्त होने पर।

भाई-बहनों का सुख - तृतीयेश केंद्र/त्रिकोण/उच्च या स्वराशि के अथवा शुभवर्गों में हो और कारक (मंगल) शुभग्रह से युक्त हो तो भाई-बहनों का सुख निश्चित है।

सुख व वाहन - चतुर्थेश वर्गोत्तम या उच्चस्थ तथा शुभ ग्रह चतुर्थ भावस्थ।

समृद्धि - चतुर्थेश दशम में तथा नवमेश, दशमेश व लग्नेश चतुर्थस्थ।

प्रतिष्ठा - चतुर्थेश शुभ ग्रह हो, उस पर शुभ दृष्टि भी हो तथा चंद्र सशक्त हो।

माता की आयु - चतुर्थेश उच्चस्थ, चतुर्थ में शुभ ग्रह व चंद्रमा बली हो,

गृह तथा भूमि संपत्ति - चतुर्थेश स्थिर राशि (2, 5, 8, 11) तथा शुभ षडवर्गों में, दशमेश उच्चस्थ होने पर भी।

आयु व शिक्षा - गुरु व शुक्र लग्न या चंद्रमा से चतुर्थ में स्थित, बुध उच्चस्थ।

धार्मिक प्रवृत्ति - सूर्य-चतुर्थस्थ, चंद्र-नवमस्थ व मंगल एकादशस्थ।

शराबी - पाप ग्रह 6, 8, 12 में, चतुर्थ में नीचस्थ ग्रह या चतुर्थेश स्वयं नीचस्थ या नीच ग्रह से युति करे।

यात्रा - चतुर्थेश-अष्टमेश चर राशियों में (1, 4, 7, 10) या चर नवांश में हो,उनपर द्वादशेश की दृष्टि हो या द्वादशेश नीच हो।

ऋण - छठे भाव का स्वामी चतुर्थ में, चतुर्थ भाव का स्वामी स्थिर राशि में और दशमेश की दृष्टि पड़े।

गृह संपत्ति - चतुर्थेश निर्बल हो, अष्टम या नीच राशि के निकट हो तो गृह/सम्पत्ति नहीं, यदि जन्म नक्षत्रेश एकादशेश भी हो तो स्वयं के लिए गृह निर्माण करायेगा।

सुख-शांति - दशमेश जलीय राशि में हो तो जल संबंधी व्यवसाय से सुख (व्यवसाय, जल सेना, जल यान, यात्रा)।

दत्तक पुत्र - 1. पंचम में बुध या शनि की राशि तथा शनि/गुलिक से युत/दृष्ट हो। 2. पंचममेश षष्ठ में, षष्ठेश द्वादश में व द्वादशेश लग्न में हो तो।

संतान सुख - पंचमेश शुभ ग्रह युक्त शुभ राशि में हो। पंचम में शुभ ग्रह की दृष्टि हो।पंचम में वृष या तुला राशि हो, शुक्र हो, पाप ग्रह की दृष्टि/प्रभाव से भी कोई बाधा नहीं।

संतान हानि - शनि पंचम में, पंचमेश द्वादश में तथा चंद्र-राहु युति।

पर स्त्री/पुरुष से संतान - ए. स्वराशि के पंचमेश की पंचम में राहु से युति हो और गुरु व चंद्र की दृष्टि न हो। बी. चंद्रमा द्वादश में गुरु अष्टम में पाप प्रभाव में।

संतान संख्या - लग्नेश से पंचम भाव तक जितने अंश हों उन पर 12 से भाग देने पर शेष संख्या।

संतान नाश - राहु उच्चस्थ हो, पंचमेश पापग्रह हो और गुरु नीच राशिस्थ हो।

शत्रु नाशक योग - षष्ठ भाव ए. छठे में पापग्रह, छठे भाव का स्वामी पापस्थ तथा शनि-राहु युति। बी. मंगल छठे में षष्ठेश अष्टम में हो।

पाप कर्म - षष्ठेश व नवमेश दोनों पापग्रह युक्त होकर दशम में षष्ठ में स्थित हो।

मृत्यु - लग्नेश व नवमेश-दशमेश से युत या दृष्ट हो, एकादशेश शुभ हो तो शांतिपूर्ण मृत्यु।

दुर्घटना/प्रेतात्मा पीड़ा - अष्टम भाव का स्वामी छठे में, लग्नेश द्वादश में, चंद्रमा क्रूर राशि/ग्रहों के साथ दुर्घटना या प्रेतात्माओं की पीड़ा।

पीड़ित ग्रहों से रोग -

सूर्य - अग्नि, ज्वर, जलन, क्षय।
चंद्रमा - कफ, अग्नि, धात, घाव।
बुध - गुह्य, उदर, वायु, कुष्ठ।
गुरु - शाप दोष, गुल्भ (जिगर, तिल्ली)।
शुक्र - गुप्तांग।
शनि - रोगों की वृद्धि, गठिया, क्षय
राहु- मिर्गी, फांसी, संक्रामक, नेम, कृमि, प्रेत पिशाच भय। केतु - राहु व मंगल के समान।

दांपत्य सुख - ए. सप्तमेश शुभ ग्रह युक्त या दृष्ट हो। बी. ग्रहों के बल से सुख की प्रचुरता का अनुमान। सप्तमस्थ ग्रहों से जातकों का संबंध पता चलता है। सूर्य सप्तम - जातक को अधिकार में रखने वाला/वाली। चंद्र- कल्पना के श्रोत में बहाव। मंगल - मासिक रक्तस्राव में भी रतिक्रिया पसंद/ आपत्ति नहीं। बुध - नपुंसकता/ बंध्या गुरु - ब्राह्मण/धार्मिक प्रवृत्ति। शुक्र - संदेहास्पद आचरण। शनि - राहु व केतु- नीच जाति या स्तर।

बंध्या - द्वादश में पापग्रह, निर्बल चंद्र व पंचम में सप्तमेश बंध्या।

आचरण संदेहास्पद - ए. शनि सप्तमस्थ व सप्तमेश शनि की राशि में बी. शुक्र मंगल युति राशि या नवांश में हो तो अधिक कामवासना/ अनैतिक व अप्राकृतिक क्रियायें करने वाले।

सदाचारी - सप्तमेश शुभग्रह, सप्तमस्थ शुभ ग्रह व शुक्र केंद्रस्थ हो।

पति/पत्नी की आयु - शुक्र नीचस्थ व दशमेश निर्बल होकर 6, 8, 12 में हो तो अल्पायु, मंगलीक योग भी जीवनसाथी की अल्पायु का कारण।

मंगलीक योग - मंगल 1, 4, 7, 8 या 12 में।

शीघ्र विवाह - बली सप्तमेश शुभ ग्रह की राशि में। शुक्र केंद्र या त्रिकोण में शुक्र द्वितीय में व एकादशेश अपने भाव में, शुक्र चंद्र से सप्तम में शुक्र, लग्न से केंद्र त्रिकोण में।

विलंब से विवाह - लग्न-लग्नेश, सप्तम-सप्तमेश व शुक्र स्थिर राशियों में हो और चंद्रमा चर राशि में हो। ग्रह निर्बल हो (लग्न का स्वामी, सप्तम भाव का स्वामी व शुक्र)। शनि भी ऊपरी योग बनाये तो वृद्धावस्था में विवाह।

अल्पायु - निर्बल अष्टमेश अष्टम में या केंद्र में और लग्नेश भी कमजोर।

मध्यायु - अल्पायु के योगों के साथ लग्नेश व चंद्र बली हो तो मध्यायु।

आयु की वृद्धि - तृतीय भाव में स्वराशि, उच्च या मित्र राशीश हों तो वृद्धि।

दीर्घायु - बुध, गुरु, शुक्र केंद्र त्रिकोणस्थ। - लग्न/लग्नेश चंद्र व सूर्य यदि बली हो तो दीर्घायु व भविष्य भी निष्कंटक व सुख-शांतिपूर्ण।

पैतृक संपत्ति - बली नवमेश दशम में, चंद्र सूर्य से नवम में व गुरु चंद्र से नवम।

धनहीन - पिता चंद्र-मंगल द्वितीय या नवमस्थ और नवमेश नीचस्थ।

समृद्धि व दीर्घायु - शुक्र चतुर्थ में, नवमेश परमोच्च में तथा नवम में गुरु।

पिता की समृद्धि - केंद्रस्थ नवमेश पर गुरु व सूर्य की दृष्टि हो।

पितृ भक्ति - सूर्य केंद्र या त्रिकोण में, नवम में शुभ ग्रह, गुरु लग्न में हो।

पिता की मृत्यु - नवमेश नीचस्थ और उसका स्वामी नवम में हो और तृतीय में पाप ग्रह हो उस पाप ग्रह की दशा में पिता की मृत्य

गंगा स्नान - राहु-सूर्य का संबंध। - संन्यास दशम में मीन राशि, सांसारिक प्रलोभनों का त्याग।

ज्ञान व सम्मान - गुरु-शुक्र की दशम में युति, लग्नेश बली, शनि उच्च के।

सफलता - दशमेश-लग्नेश की एकादश में युति पर मंगल की दृष्टि।

ख्याति - दशमेश केंद्र-त्रिकोण में और गुरु उससे त्रिकोण में

पापकर्म - अष्टमेश-दशमेश का परिवर्तन योग। -

असफलता - दशमेश निर्बल व दशम में पापग्रह युक्त हो।

प्रतिष्ठा - लग्न, दशम व चंद्र बली प्रतिष्ठा प्राप्त।

आयु - दशमेश - नवमेश द्वादश में अल्पायु - राजयोग - बली नवमेश व दशमेश हो, उच्च के ग्रह केंद्र/त्रिकोण में ।
राजदंड- दशम में सूर्य-राहु-मंगल युति हो और शनि द्वारा दृष्ट हो।

भारी आर्थिक लाभ - ए. एकादश में गुरु बी. एकादशेश तीव्रगति का ग्रह स्थिर राशि में हो।

धन लाभ - ए. चंद्रमा द्वितीय में, शुक्र नवम में और गुरु एकादश में। बी. 11 भाव चर राशि में, द्वितीयेश स्थिर ग्रह व द्वितीय में चंद्रमा। - लाभ की सीमा दशमेश व लग्नेश के बल पर निर्भर। - एकादश में पापग्रह व ग्यारहवां भाव का स्वामी पाप ग्रह युत/दृष्ट व लग्न में भी पापग्रह होने पर आप कम व जो भी हो वह भी तुरंत समाप्त। - एकादशेश अस्त हो तो भीख मांगकर उदर पूर्ति। सप्तमेश एकादश में हो तो विवाह पश्चात धनोपार्जन।

नर्क प्राप्ति- राहु, मंगल या सूर्य द्वादश में हो, द्वादशेश नीचस्थ हो तो नर्क प्राप्ति।

स्वर्गलोक - द्वादश में गुरु पर शुभ दृष्टि हो, केतु उच्च का हो तो स्वर्गलोक।

द्वादशेश पापयुक्त तथा द्वादश में भी पाप ग्रह हो तथा उस पर पापग्रह की दृष्टि हो तो अपमानित होकर मातृभूमि का त्याग।

द्वादशेश शुभ ग्रह की राशि में, शुभ दृष्टि भी हो तो सुखपूर्वक भ्रमण।

शनि द्वादश में हो, मंगल की उस पर दृष्टि-संपत्ति दुष्कर्मों में नष्ट।

लग्नेश-द्वादशेश में परिवर्तन योग- दान, धार्मिक व परोपकार के कार्यों में धन व्यय।

Sunday, August 4, 2019

अध्यात्म क्या है एक दृष्टि

*अध्यात्म*

*अध्यात्म वह है जो आत्मा के अध्यायों का अध्ययन करने लिए प्रेरित करता है । जिसके माध्यम से प्राणी मात्र के प्रति कल्याण की भावना स्वतः ही उत्पन्न होने लगती है ।* 
*अध्यात्म में भौतिक अभौतिक दोनों प्रकार के साधनों की आवश्यकता ही नहीं होती है उसका मूल साधन और साधना का केंद्र स्वय का चित्त  होता है  जो चित्त वृत्तियां पर नियंत्रण करने में सक्षम हो जाता है ।*

अध्यात्म के क्षेत्र में भौतिक उपकरणों की जरूरत ही नहीं होती है वहां तो -
योग, ध्यान , भाव,  परिणाम, आत्मा, स्वाध्याय , चित्त आदि अंतः उपकरण
 एवम गुरु, गुरु चर्या, चारित्र, ज्ञान ,तप, साधना, ग्रंथ, सत्संगति इसके बाह्य उपकरण के रूप में कार्य करते हैं ।

अतः कहा जा सकता है कि मानव आधात्मिक साधना से सुरक्षित है

क्योकि भौतिक साधनों से मुख्य रूप से आत्मा के आध्यात्म का घात होता है ।
कलिकाल के मानव का मन बहुत जल्दी चंचल एवम पतित भी हो जाता है । साधना को रोक साधनों के उपयोग से अपने साध्य से भृमित हो जाता है

भौतिक साधन संयम को भंग कर असंयम को उत्पन्न करने में निमित्त बन जाते हैं। साधनों के नाम --

टेलीविजन के असंयमित सीरियल और कामुक चित्र
मोबाइल 
इंटरनेट (अंतः जाल)


अध्यात्म का संबंध मन से होता है मन ही इंद्रियों का राजा होता है अर्थात छठी इंद्रिय जिस पर आधारित है। पांचों इंद्रियां यदि मन में आध्यात्मिकता का गुणारोपण वहो जाता है तो इंद्रियां संतुलित हो जाती हैं जो मानव के  मन वचन के सवांगीण विकास में सहायक होकर मानव जीवन को  लब्धियों से युक्त बना देता है ।

 *आधुनिकता मानव मन पर भौतिकता विषय भोग की इच्छाएं,  असंतुष्टि और वाञ्छाओं इच्छाओं के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करने में सहायता प्रदान करता है ।*
 अध्यात्म  मानव जीवन को सफल एवं संतुष्ट बनाकर दर्शन ज्ञान चारित्र को उच्च शिखर तक पहुंचाती है।
 *अध्यात्म आत्मा से परमात्मा बनने का एक सोपान है जो आत्मा को बहिर्मुखता से अंतर्मुखता  की ओर ले जाता है जो जीव की युक्ति पूर्वक मुक्ति दिलाने में सहायक है ।*

*वही आधुनिकता मानव की अंतर्मुखता से  बहिर्मुखता की ओर लाती है ।*

*जो संसार को बढ़ाने तथा मानव जीवन को असंतुष्टीकरण की ओर ले जा उसे असंवेदनशील बना देती है यथा मानव के प्रति व्यक्तिगत संबंधों के प्रति, सामाजिकता के प्रति, परमार्थ के प्रति आदि अनेक असंवेदनशीलता उत्पन्न हो जाती है।*
आध्यात्मिकता मानव को अभ्यस्त बनाती है ---आत्म सुख के प्रति
किंतु आधुनिकता व्यस्त बनाती है- स्वार्थ के प्रति ।


अध्यात्म का अर्थ है अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना,मनना और दर्शन करना अर्थात अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना |गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरुप अर्थात जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है |
"परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते "|


आत्मा परमात्मा का अंश है यह तो सर्विविदित है | जब इस सम्बन्ध में शंका या संशय,अविश्वास की स्थिति अधिक क्रियमान होती है तभी हमारी दूरी बढती जाती है और हम विभिन्न रूपों से अपने को सफल बनाने का निरर्थक प्रयास करते रहते हैं जिसका परिणाम नाकारात्मक ही होता है |

ये तो असंभव सा जान पड़ता है-मिटटी के बर्तन मिटटी से अलग पहचान बनाने की कोशिश करें तो कोई क्या कहे ? यह विषय विचारणीय है |

अध्यात्म की अनुभूति सभी प्राणियों में सामान रूप से निरंतर होती रहती है | स्वयं की खोज तो सभी कर रहे हैं,परोक्ष व अपरोक्ष रूप से |

परमात्मा के असीम प्रेम की एक बूँद मानव में पायी जाती है जिसके कारण हम उनसे संयुक्त होते हैं किन्तु कुछ समय बाद इसका लोप हो जाता है और हम निराश हो जाते हैं,सांसारिक बन्धनों में आनंद ढूंढते ही रह जाते हैं परन्तु क्षणिक ही ख़ुशी पाते हैं |

जब हम क्षणिक संबंधों,क्षणिक वस्तुओं को अपना जान कर उससे आनंद मनाते हैं,जब की हर पल साथ रहने वाला शरीर भी हमें अपना ही गुलाम बना देता है | हमारी इन्द्रियां अपने आप से अलग कर देती है यह इतनी सूक्ष्मता से करती है - हमें महसूस भी नहीं होता की हमने यह काम किया है ?

जब हमें सत्य की समझ आती है तो जीवन का अंतिम पड़ाव आ जाता है व पश्चात्ताप के सिवाय कुछ हाथ नहीं लग पाता | ऐसी स्थिति का हमें पहले ही ज्ञान हो जाए तो शायद हम अपने जीवन में पूर्ण आनंद की अनुभूति के अधिकारी बन सकते हैं |हमारा इहलोक तथा परलोक भी सुधर सकता है |

अब प्रश्न उठता है की यह ज्ञान क्या हम अभी प्राप्त कर सकते हैं ? हाँ ! हम अभी जान सकते हैं की अंत समय में किसकी स्मृति होगी, हमारा भाव क्या होगा ? हम फिर अपने भाव में अपेक्षित सुधार कर सकेंगे | गीता के आठवें अध्याय श्लोक संख्या आठ में भी बताया गया है

यंयंवापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् |

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः ||

अर्थात-"हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है,  उस-उस को ही प्राप्त होता है ;क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है |"

एक संत ने इसे बताते हुए कहा था की सभी अपनी अपनी आखें बंद कर यह स्मरण करें की सुबह अपनी आखें खोलने से पहले हमारी जो चेतना सर्वप्रथम जगती है उस क्षण हमें किसका स्मरण होता है ? बस उसी का स्मरण अंत समय में भी होगा | अगर किसी को भगवान् के अतिरिक्त किसी अन्य चीज़ का स्मरण होता है तो अभी से वे अपने को सुधार लें और निश्चित कर लें की हमारी आँखें खुलने से पहले हम अपने चेतन मन में भगवान् का ही स्मरण करेंगे |बस हमारा काम बन जाएगा नहीं तो हम जीती बाज़ी भी हार जायेंगे |

कदाचित अगर किसी की बीमारी के कारण या अन्य कारण से बेहोशी की अवस्था में मृत्यु हो जाती है तो दीनबंधु भगवान् उसके नित्य प्रति किये गए इस छोटे से प्रयास को ध्यान में रखकर उन्हें स्मरण करेंगे और उनका उद्धार हो जाएगा क्योंकि परमात्मा परम दयालु हैं जो हमारे छोटे से छोटे प्रयास से द्रवीभूत हो जाते हैं |

ये विचार मानव-मात्र के कल्याण के लिए समर्पित है |

सत्यम शिवम् सुन्दरम


आध्यात्म शब्द संस्कृत भाषा का है। जिन लोगों को संस्कृत भाषा नहीं भी आती है वो भी इस शब्द का प्रयोग करते हैं क्योंकि यह लगभग हर भारतीय भाषा में वर्णित है। अध्यात्म का व्यापक रूप से अर्थ है परमार्थ चिंतन, लेकिन इस शब्द के मूल में इसके दूसरे अर्थ भी देखना आवश्यक है। यह एक संस्कृत शब्द है। ग्रीक, लेटिन और फारसी की तरह ही संस्कृत भी पुरातन भाषा है। कई पुरातन भाषाओं की तरह ही संस्कृत भाषा में ज़्यादातर शब्द जड़ या मूल से लिए गए हैं।

अध्यात्म शब्द उपसर्ग ‘आधी’ और ‘आत्मा’ का समास है। ‘आत्मा’, आत्मन शब्द का संक्षिप्त रूप है, जो सांस लेने, आगे बढने आदि से लिया गया है। ‘आत्मन’ शब्द का अर्थ आत्मा से है जिसमें जीवन और संवेदना के सिद्धान्त, व्यक्तिगत आत्मा, उसमें रहने वाले अस्तित्व, स्वयं, अमूर्त व्यक्ति, शरीर, व्यक्ति या पूरे शरीर को एक ही और विपरीत भी मानते हुए अलग-अलग अंगों में ज्ञान, मन, जीवन के उच्च व्यक्तिगत सिद्धान्त, ब्राह्मण, अभ्यास, सूर्य, अग्नि, और एक पुत्र भी शामिल है। उपसर्ग ‘आदी’ को क्रिया और संज्ञा के साथ जोड़ दिया जाता है और जिसका अर्थ यह भी हो सकता है कि ऊपर से, उसमें उपस्थित, बाद में, इसके बजाय, ऊपर, किसी की तुलना में, ऊपर, फिर उसके भी ऊपर और कोई विषय समाहित हो। अध्यात्म का अर्थ आत्मा या आत्मन, जो सर्वोच्च आत्मा है, का स्वागत करे, जो उसकी खुद की है, स्वयं से या व्यक्तिगत व्यक्तित्व से संबन्धित हो। इसका यह भी अर्थ हो सकता है कि विवेकी व्यक्तित्व जो वास्तविकता को अवास्तविकता से अलग कर सके। साथ ही यह भी कि आध्यात्मिकता या अनुशासन जो स्वयं के स्वभाव की अनुभूति करा सके।

आध्यात्म का अर्थ व्यक्तिगत या खुद का स्वभाव होता है, जो हर शरीर में सर्वोच्च भाव के रूप में ब्राह्मण की तरह रहता है। इसका अर्थ, जो अस्तित्व के स्वयं के रूप में शरीर में निवास करती है, आत्मा, वह शरीर को उसके रहने के लिए अधिकृत करती है और जो परम विश्लेषण का उच्च स्तर है। अध्यात्म भी ज्ञान अर्जित करता है जो आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता और आखिरकार मोक्ष या मुक्ति तक ले जाता है। यह ज्ञान अध्यात्म से संबन्धित है, जो स्वयं से तो संबन्धित है ही साथ ही स्वयं और दूसरी आत्मा के बीच के संबंध से भी संबन्धित है। अध्यात्म, आत्मा के ज्ञान से संबन्धित है, और जिस रास्ते पर चलकर ये प्राप्त हो सकता है, वह ज्ञान अनंत है। अध्यात्म का अर्थ उस ब्राह्मण के बारे में बताना है, जो परम सच्चाई है। शास्त्रों के पढ़ने और किसी के आत्मा के स्वभाव को समझना ही अध्यात्म कहलता है। इसका अर्थ भगवान के सामने आत्म समर्पण करना और अपने अहंकार को तिलांजलि देना है।

वह जो कुछ स्वयं से संबन्धित है, जिसमें मन, शरीर, ऊर्जा शामिल हैं, अध्यात्म कहलता है। यह शरीर और चित्त में उत्पन्न होने वाली परेशानियां भी दर्शाता है, जो जीव में उत्पन्न होने वाली तीन परेशानियों में से एक है। बाकी दो परेशानियाँ, आधिभौतिका और अधिदैविका हैं। आधिभौतिका दूसरे जीवों के द्वारा होतीं हैं, और अधिदैविका प्राकृतिक और ब्रह्मांडीय शक्तियों के द्वारा।

Thursday, August 1, 2019

ज्योतिष की कुछ कहावतें

ज्योतिष के चमत्कारी योग - 2

1)  मंगल पांचवे घर मे-चैन से ना सोये तथा अपनों से धोखा खाये |
2)  गुरु केतू की युति-मुंह पर आलोचना करे |
3)  मंगल का संबंध लग्न या लग्नेश से-पुरुषार्थी बनाए |
4)  शनि का लग्न या लग्नेश से संबंध –स्वयं क्रोध मे अहंकार से सब कुछ गवाए |
5)  गुरु का लग्न या लग्नेश से संबंध- स्वयं ज्ञान की पराकाष्ठा होवे|
6)  गुरु अस्त/वक्री –पाचन तंत्र कमजोर एवं मोटापा |
7)  सम राशि का लग्न,गुरु बलवान-पत्नी शास्त्र मे निपुण वेदो का अर्थ जानने वाली |
8)  छठे भाव मे गुरु- कर्जा चढ़े |
9)  विवाह लग्न मे गुरु- धनवान,3रे सन्तानवान ,5वे-कई पुत्र,10वे-धार्मिक,7,8 मे अशुभ |
10) मंगल पर गुरु की दृस्टी –समझौता वादी प्रवर्ति |
11) मंगल संग राहू-कुछ भी कर ले,मारक गुण |
12) मंगल संग बुध- छल छद्म एवं शरीर मे तेजाब बने |
13) दशमेश का अस्ट्मेश या द्वादशेश से संबंध- जन्म स्थान से दूर सफलता |
14) मंगल का दूसरे घर व द्वितीयेश पर प्रभाव –पत्नी की मृत्यु बाद दूसरा विवाह |
15) सप्तम भाव से नवां भाव मे केतू-पति धार्मिक,शारीरिक सुख कम |
16) बुध लग्नेश हो तो- प्रबंधन कार्य,लेखाकार्य एवं बुध कार्य करे |
17) सप्तम भाव मे वक्री ग्रह –दाम्पत्य जीवन मे अडचने
18) बुध पूर्णस्त –स्मरण शक्ति मे कमी |
19) शुक्र संग चन्द्र-भावुकता ज़्यादा |
20) केंद्र स्थान खाली- गौड़ फादर नहीं |
21) चन्द्र 12वे घर मे –नींद कम रात को जागे |
22) सूर्य/बुध दूसरे भाव मे –पत्नी सुख मे कमी |
23) चन्द्र पर शनि दृस्टी-मानसिक अस्थिरता |डबल माईंड |
24) सप्तमेश नीच राशि का –विवाह मे धोखा |
25) लग्नेश छठे घर मे –सभी के प्रति आशंका एवं डर की भावना |
26) अस्ट्मेश नवमेश की युति-प्रेत बाधा
27) छठे व दूसरे घर के स्वामी का परिवर्तन-प्रतियोगिता द्वारा धननाश |
28) सूर्य चन्द्र जिस भाव मे संग- उस भाव का नाश|
29) सूर्य संग शनि लग्न मे –विवाह देर से |

Wednesday, July 31, 2019

कुंडली में सातवां भाव का फल

जन्म कुंडली में सातवें घर को सप्तम भाव कहते हैं एवं इसके  स्वामी को सप्तमेश कहते हैं ।

सप्तम भाव से पति पत्नी , वैवाहिक सुख , दैनिक रोजगार , पार्टनरशिप , काम शक्ति , मुतेन्द्रीय ,  गुप्तेन्द्रीय , वीर्य , नपुंसकता इत्यादि के बारे में विचार किया जाता है ।

सप्तम भाव का कारक शुक्र ग्रह होता है ।
पुरुषों के विवाह का कारक शुक्र को माना जाता है एवं स्त्रियों के विवाह का  कारण गुरु को माना जाता है ।

यदि सप्तम भाव , सप्तमेश एवं शुक्र ( गुरु ) पीड़ित ना हो तो  सामान्यतः  निम्न उम्र में विवाह होने की संभावना रहती है ।
 ( आधुनिक युग में सरकार के नियम एवं कानून के कारण कम उम्र में विवाह करना कानूनन अपराध है परंतु ज्योतिष के ग्रंथों में जो मान्य है मैं वह बता रहा हूँ । जिन ग्रहों के विवाह का समय  बिल्कुल कम  उम्र में बताए गए हैं  इसका मतलब यही मानना चाहिए कि विवाह बहुत जल्द होगा । )

बुध सप्तमेश हो तो  16 - 18 वर्ष में । मंगल 18 वर्ष में । शुक्र 20 वर्ष में । चंद्र 22 वर्ष में । गुरु 24 वर्ष में । सूर्य 26 वर्ष में । शनि 28 वर्ष में ।

सप्तमेश तथा शुक्र यदि लग्न पंचम नवम अथवा एकादश भाव में इकट्ठे हो तो व्यक्ति को विवाह के फलस्वरूप स्त्री  पक्ष से अच्छे धन की प्राप्ति होती है ।

सप्तम भाव में सम राशि हो ,  सप्तमेश भी सम राशि में विराजमान हो और सप्तम का कारक शुक्र सम राशि में हो तथा सप्तमेश शुभ एवं बलवान है तो ऐसे व्यक्ति को सुंदर पत्नी प्राप्त होती है ।

सूर्य , शनि  , राहु या द्वादशेश  में से दो अथवा दो से अधिक ग्रहों का प्रभाव   सप्तम भाव , सप्तमेश तथा सप्तम भाव के कारक शुक्र पर पड़ता है तो मनुष्य अपने जीवन साथी से पृथक (तलाक ) हो जाता है ।

सप्तम भाव के स्वामी को मारकेश  भी कहते हैं जिसका वर्णन द्वितीय भाव में कर चुका हूँ ।

यदि सप्तमेश एवं शुक्र कमजोर हो एवं सप्तम भाव पर किसी मित्र ग्रह की दृष्टि ना हो तो ऐसे व्यक्ति के विवाह में समस्या होती है या कई बार ऐसे व्यक्ति की विवाह नहीं  होती  है ।

सप्तम भाव या सप्तमेश पर किसी क्रूर एवं शत्रु ग्रह का प्रभाव  हो या किसी प्रकार का संबंध हो तो पति-पत्नी में आपस में मतभेद बना रहता हैं ।

जन्म कुंडली में यदि मंगल प्रथम भाव में , चतुर्थ भाव में ,  सप्तम भाव में , अष्टम भाव में या द्वादश भाव में विराजमान हो तो मांगलिक योग का निर्माण होता है।  परंतु कोई आवश्यक नहीं है की मांगलिक दोष के कारण वैवाहिक जीवन में परेशानी हो ।  उसके लिए और भी ग्रहों की दृष्टि का प्रभाव एवं मंगल के बल को देखना भी आवश्यक है । ( कुछ लोगो का मानना है कि  ऐसे भी योग हैं जिसके कारण इन भावों में मंगल के विराजमान होने के बाद भी मांगलिक दोष नहीं लगता है । )

( सप्तम भाव से संबंधित बहुत सारे योग होते हैं जैसे प्रेम विवाह ,  नपुंसकता ,  चारित्रिक दोष परंतु मेरा मानना है कि ऐसे योगों को बारे में सोशल मीडिया पर नहीं लिखना चाहिए क्योंकि कई बार किसी की जन्म कुंडली गलत होती है और उसमें ऐसा योग दिख जाए तो  बिना वजह पति पत्नी में मतभेद हो सकता है।

राजयोग कैसे बनता है -नीच ग्रहों के द्वारा

नीच ग्रह भी बना सकते हैं राजयोग

किसी जन्म कुंडली में ग्रह जितने अधिक बली होते हैं, जन्म कुंडली उतनी ही अधिक प्रभाव शाली मानी जाती हैं । माना जाता हैं कि जिस जन्म कुंडली में जितने अधिक उच्च ग्रह होंगे वह उतनी ही मजबूत जन्म कुंडली होती है । इसके विपरीत नीच के ग्रह होने पर जन्म कुंडली प्रभाव हीन मानी जाती हैं, आजकल तो यह प्रथा सी बन गयी हैं कि नीच ग्रह को देखते ही सारे अशुभ फल का कारक उसे ही घोषित कर दिया जाता हैं । भले ही वह प्रभाव किसी भी अन्य ग्रह के द्वारा दिया गया हो । इस सबमे सबसे बडे दुर्भाग्य कि बात यह होती हैं की जिस वजह से व्यक्ति वास्तविक रूप से परेशान था, उस वजह को गौण कर दिया जाता हैं, और समस्या जैसी की तैसी बनी रहती हैं । उनके फलित में जमीन आसमान का फर्क होता हैं ।
हमारे अलग अलग ज्योतिषिय ग्रन्थो में इस बात का वर्णन हैं की जन्म कुंडली में नीच ग्रह का बुरा प्रभाव भंग भी हो जाता हैं । कई परिस्थिति में तो यह नीच ग्रह राजयोग तक का निर्माण करते हैं । इनका फल आश्चर्य जनक रूप से प्राप्त होता हैं । जो दिखता हैं वो वैसा ही हो यह जरुरी नही हैं, अर्थात हकीकत बिल्कुल विपरीत हैं जन्म कुंडली में सभी नीच ग्रह अशुभ फल नही देते हैं । अधिकतर इनका फल उसकी स्थिति तथा अन्य ग्रहो का उस पर पडने वाले फल पर निर्भर करता हैं ।
जिन जातको की जन्म कुंडली में नीचभंग राजयोग होता हैं वो जातक चट्टानो से जल निकालने की क्षमता रखते हैं । ऐसे जातक बहुत अधिक मेहनती होते है, और अपने दम पर एक मुकाम हासिल करते हैं । ये जातक जिस क्षेत्र में भी जाते हैं वही अपनी अमिट छाप बना देते हैं । चाहे दुनिया इनके पक्ष में हो या विपक्ष में इनको सफलता मिलना तय होता हैं । कैसे बनते हैं ये योग इस पर चर्चा करे –
1- किसी नीच ग्रह से कोई उच्च का ग्रह जब दृष्टी सम्बंध या क्षेत्र सम्बंध बनाता हैं तो यह स्थिति नीच भंग राज योग बनाने वाली होती हैं ।
2- नीच का ग्रह अपनी उच्च राशि के स्वामी के प्रभाव में हो ( युति या दृष्टी सम्बंध हो) नीच भंग योग बनता हैं ।
3- परस्पर दो नीच ग्रहो का एक दूसरे को देखना भी नीच भंग योग होता हैं ।
4- नीच राशि के स्वामी ग्रह के साथ होना या उसके प्रभाव में होना नीच भंग होता हैं ।
5- चंद सूर्य से केंद्रगत होने पर भी नीच ग्रह का दोष समाप्त हो जाता हैं ।
6- जन्म कुंडली के योगकारक ग्रह तथा लग्नेश से सम्बंध होने पर नीच भंग राजयोग बनता हैं
7- नीच ग्रह नवांश कुंडली में उच्च का हो तो नीच भंग राजयोग बनता हैं ।
8- दो उच्च ग्रहो के मध्य स्थित नीच ग्रह भी उच्च समान फल दायी होता हैं ।
9- नीच का ग्रह वक्री हो तो नीच भंग राज योग बनता हैं ।
10- नीच राशि में स्थित ग्रह उच्च ग्रह के साथ स्थित हो तो नीच भंग राजयोग बनाता हैं ।

ज्योतिष के आधार तत्व

अगर आप पता लगाना चाहें कि आपकी राशि क्या है और आपकी संगत राशियां कौन सी हैं, तो आप सही जगह पर हैं। यहाँ आप राशि ज्योतिष, राशि संगतता और राशि की तिथियों के बारे में सभी जानकारी प्राप्त कर पाएंगे।

कुल 12 ज्योतिष राशियाँ होती हैं, और प्रत्येक राशि की अपनी ताकत और कमजोरियां, अपने स्वयं के विशिष्ट गुण, इच्छा एवं जीवन तथा लोगों के प्रति रवैया होता है। आकाश की छवियों, या जन्म के समय ग्रहों की स्थिति के विश्लेषण के आधार पर ज्योतिष हमें एक व्यक्ति की बुनियादी विशेषताओं, प्राथमिकताओं, कमियों और भय की एक झलक दे सकता है। अगर हम राशियों की बुनियादी विशेषताओं को जान लें तो हम वास्तव में लोगों को बहुत बेहतर जान सकते हैं।

राशिफल की 12 राशियों में से प्रत्येक एक विशिष्ट राशि तत्व के अंतर्गत आती हैं। चार राशिचक्र तत्व हैं: वायु, अग्नि, पृथ्वी और जल और उनमें से हरेक हमारे भीतर कार्यरत एक अनिवार्य प्रकार की उर्जा का प्रतिनिधित्व करते हैं। ज्योतिष का लक्ष्य हमें सकारात्मक पहलुओं पर इन ऊर्जा का ध्यान केंद्रित करना और हमारे सकारात्मक गुणों की एक बेहतर समझ पाने और नकारात्मकता से निपटने में मदद करना है।

हम सभी में यह चार तत्व मौजूद हैं और वे ज्योतिषीय राशियों से जुड़े चार विलक्ष्ण व्यक्तित्व प्रकारों का वर्णन करते हैं। चार राशिचक्र तत्व बुनियादी चरित्र गुणों, भावनाओं, व्यवहार और सोच पर गहरा प्रभाव दर्शाते हैं।

जल राशि
जल राशि के जातक असाधारण भावनात्मक और अति संवेदनशील लोग होते हैं। वे अत्यंत सहज होने के साथ ही समुद्र के समान रहस्यमयी भी हो सकते हैं। जल राशि की स्मृति तीक्ष्ण होती है और वे गहन वार्तालाप और अंतरंगता से प्यार करते है। वे खुले तौर पर अपनी आलोचना करते हैं और अपने प्रियजनों का समर्थन करने के लिए हमेशा मौजूद रहते हैं। जल राशियाँ हैं: कर्क, वृश्चिक और मीन।

अग्नि राशि
अग्नि राशि के जातक भावुक, गतिशील और मनमौजी प्रवृति के होते हैं। उन्हें गुस्सा जल्दी आता है, लेकिन वे सरलता से माफ भी कर देते हैं। वे विशाल ऊर्जा के साथ साहसी होते हैं। वे शारीरिक रूप से बहुत मजबूत और दूसरों के लिए प्रेरणा स्रोत होते हैं। अग्नि राशि के जातक हमेशा कार्रवाई के लिए तैयार, बुद्धिमान, स्वयं जागरूक, रचनात्मक और आदर्शवादी होते हैं। अग्नि राशियाँ हैं: मेष, सिंह और धनु।

पृथ्वी राशि
पृथ्वी राशि के लोग ग्रह पर "धरती" से जुड़े हुए होते हैं और वे हमें व्यवहारिक बनाते हैं। वे ज्यादातर रूढ़िवादी और यथार्थवादी होते हैं, लेकिन साथ ही वे बहुत भावुक भी हो सकते हैं। उन्हें विलासिता और भौतिक वस्तुओं से प्यार होता है। वे व्यावहारिक, वफादार और स्थिर होते हैं और वे कठिन समय में अपने लोगों का पूरा साथ देते हैं। पृथ्वी राशियाँ हैं: वृष, कन्या और मकर।

वायु राशि
वायु राशि के लोग अन्य लोगों के साथ संवाद करने और संबंध बनाने वाले होते हैं। वे मित्रवत्, बौद्धिक, मिलनसार, विचारक, और विश्लेषणात्मक लोग हैं। वे दार्शनिक विचार विमर्श, सामाजिक समारोह और अच्छी पुस्तकें पसंद करते हैं। सलाह देने में उन्हें आनंद आता है, लेकिन वे बहुत सतही भी हो सकती है। वायु राशियाँ हैं: मिथुन, तुला और कुंभ।

राशि प्रेम संगतता चार्ट
ज्योतिष में कोई भी असंगत राशि नहीं होती जिसका अर्थ है कि कोई भी दो राशि अधिक या कम संगत होती हैं। जिन दो लोगों की राशियों में अत्यधिक संगतता होती है, वे सरलता से निर्वाह करेंगे क्योंकि उनकी प्रवृति एक समान है। परंतु, ऐसे लोग जिनकी राशियों में संगतता कम होती हैं, उन्हें एक खुश और सौहार्दपूर्ण संबंध हासिल करने के क्रम में अधिक धैर्यवान एवं विनम्र बने रहने की आवश्यकता होगी।

जैसा कि हम सभी जानते हैं, राशियाँ चार तत्वों से संबंधित हैं:

अग्नि: मेष, सिंह, धनु

पृथ्वी: वृष, कन्या, मकर

वायु: मिथुन, तुला, कुंभ

जल: कर्क, वृश्चिक, मीन

राशियाँ जिनके तत्व एक समान हैं, स्वाभाविक रूप से उनमें संगतता होती है क्योंकि वे एक दूसरे को सबसे बेहतर समझते हैं। ज्योतिष की एक शाखा काम ज्योतिष है जहाँ राशियों के बीच प्रेम संबंध की गुणवत्ता जानने के लिए दो जातक कुंडलियों में तुलना करते हैं। काम ज्योतिष या एक लग्न राशिफल उन जातकों के लिए एक उपयोगी उपकरण हो सकता है, जो अपने रिश्ते में शक्तियों और कमजोरियों का पता लगाना चाहते हैं। राशियों की तुलना करना जीवनसाथी को बेहतर समझ पाने में भी मदद कर सकता है, जिसका परिणाम एक बेहतर संबंध के रूप में होगा।

निम्नलिखित चार्ट राशियों की ज्योतिष प्रेम संगतता दर्शाता है। चार्ट पर एक नज़र डालें और देखें कौन सी राशियाँ एक साथ बेहतर कर रही हैं!

राशि संगतता चार्ट को पढ़ने के लिए, बस बाएँ कॉलम में अपनी राशि खोजें और अपने साथी की राशि के लिए संगत स्तंभ में स्थित दिल के आकार को देखें। जितना बड़ा दिल होगा, आपकी संगतता उतनी ही ज्यादा होगी!


राशि प्रेम संगतता चार्ट


चीनी ज्योतिष
चीनी ज्योतिष पारंपरिक खगोल विज्ञान पर आधारित है। चीनी ज्योतिष का विकास उस खगोल विज्ञान से बंधा है जो हान राजवंश के दौरान पनपा था। चीनी राशिचक्र दुनिया में सबसे पुरानी ज्ञात राशिफल प्रणाली मानी जाती है और बारह जानवर किसी विशेष वर्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं। चीनी ज्योतिष के अनुसार, एक व्यक्ति के जन्म का वर्ष इन जानवरों में से किसी एक का प्रतिनिधित्व करता है। बारह पशु राशियां या राशि प्रतीक हैं चूहा, बैल, बाघ, खरगोश, ड्रैगन, सांप, घोड़ा, भेड़, बंदर, मुर्गा, कुत्ता और सुअर। चीनी ज्योतिष में भी प्रकृति के पांच तत्व हैं अर्थात्: जल, लकड़ी, अग्नि, पृथ्वी एवं धातु। चीनी ज्योतिष के अनुसार, एक व्यक्ति की किस्मत को ग्रहों की स्थिति और व्यक्ति के जन्म के समय सूर्य और चंद्रमा की स्थिति से निर्धारित किया जा सकता है। चीनी लोग मानते हैं कि हमारा जन्म वर्ष हमारे दृष्टिकोण और क्षमता का पता लगा सकता है, और यह कि जानवर जन्म राशि में प्रतीकवाद होता है और किसी विशिष्ट व्यवहार को दर्शाते हैं।

वैदिक ज्योतिष
खगोल विज्ञान एवं ज्योतिषशास्त्र की पारंपरिक हिंदू प्रणाली ज्योतिष है, जिसे हिन्दू या भारतीय ज्योतिषशास्त्र या विगत कुछ समय से वैदिक ज्योतिष के रूप में जाना जाता है। वैदिक ज्योतिष राशिफल तीन मुख्य शाखाओं में विभाजित हैं: भारतीय खगोल विज्ञान, सांसारिक ज्योतिष और भविष्यसूचक ज्योतिष। भारतीय ज्योतिष में हमारे चरित्र को प्रकट किया जा सकता है, हमारे भविष्य की भविष्यवाणी की जा सकती है, और हमारी सबसे संगत राशियों को प्रकट किया जा सकता है। वैदिक ज्योतिष द्वारा हमें दिया गये सबसे उत्तम उपकरणों में से एक राशिफल संगतता है। निरायण (नक्षत्र राशिचक्र) 360 डिग्री का एक काल्पनिक क्षेत्र है, जिसे उष्णकटिबंधीय राशिचक्र की तरह बारह बराबर भागों में विभाजित किया गया है। पश्चिमी ज्योतिष के विपरीत जिसमें चलते राशिचक्र का उपयोग किया जाता है, वैदिक ज्योतिष स्थिर राशिचक्र का उपयोग करता है। तो, वैदिक राशिचक्र प्रणाली में आपकी ग्रह राशि वह नहीं है जो आपने सोची थी।

माया ज्योतिष
माया ज्योतिष माया कैलेंडर पर आधारित है और यह सबसे आगे की सोच रखने वाले ज्योतिष में से एक है। माया कैलेंडर या ज़ोल्किन ब्रह्मांड की अमूर्त ऊर्जा और सृष्टि के विकास पर आधारित है। ज़ोल्किन कैलेंडर में बीस दिवस राशियाँ (सौर जनजातियाँ) और तेरह आकाशगंगा संख्या होती हैं, जो 260 दिन का एक कैलेंडर वर्ष बनाते हैं। प्राचीन मायावासी मानते थे कि जीवन में शांति और सद्भाव के लिए, आपको इस सार्वभौमिक ऊर्जा को समझना और उसके साथ अपने आप को समायोजित करना होता था। इन बीस राशियों में से प्रत्येक माया कैलेंडर में एक दिन को दर्शाती हैं, इस प्रकार विभिन्न महीने और वर्ष के व्यक्तियों में एक समान दिवस चित्रलिपि साझा करने की अनुमति देती है। किसी की माया दिवस राशि उसकी/उसके व्यक्तित्व को परिभाषित करती है।

हम ज्योतिष में विश्वास क्यों करते हैं
हम जीवन में किसी भी अंधविश्वास पर विश्वास क्यों करते हैं, उपरोक्त प्रश्न का उत्तर उस दायरे में ही निहित है। लोग ज्योतिष में विश्वास करते हैं क्योंकि यह कई प्रकार की वांछनीय बातें प्रदान करता है जैसे जानकारी और भविष्य के बारे में आश्वासन, उनकी परेशानियों को हल करने, और अपने साथियों, परिवार और मित्रों के साथ अपने रिश्तों में सुधार करने के तरीके आदि।

ज्योतिषशास्त्र का दावा है कि जीवन में कुछ भी संयोगवश नहीं होता, और हमें जो कुछ भी होता है वह सब किसी एक विशेष कारण से है। ज्योतिष हमें कुछ अच्छे उत्तर प्रदान कर सकता है कि ऐसी चीजें हमारे साथ क्यों होती हैं, और यह उन्हें पहले से भविष्यवाणी भी कर सकता है। इस तरह, वास्तव में ज्योतिष लोगों को उनके चारों ओर दुनिया को बहुत बेहतर समझने में मदद करता है।

जैसा आज अभ्यास किया जाता है, ज्योतिष काफी अच्छी तरह से काम कर सकता है। ज्योतिषियों के पास जाने वाले या नियमित रूप से अपनी राशिफल का अध्ययन करने वाले लोग अंततः सबसे ज्यादा खुश और संतुष्ट महसूस करते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी राशिफल तिथि के आधार पर ज्योतिषियों ने उनके भविष्य के लिए बिलकुल सटीक भविष्यवाणी की है, लेकिन इसका मतलब है कि वास्तव में एक राशिफल होना अपने आप में एक पूर्ण अनुभव हो सकता है।

पृथ्वी तारामंडल के नीचे स्थित है जिसे अब हर कोई अपनी ग्रहराशि के रूप में जानता है। बहुत से लोग लगन से अपनी राशिफल का अनुकरण करते हैं और अपनी ज्योतिष राशि के अर्थ में विश्वास करते हैं। यह आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि ज्योतिष व्यापक रूप से लोकप्रिय है और दुनिया में हर कोई अपनी राशिफल तिथि और राशियों को जानता है। लोग अपनी राशिफल राशियों की भविष्यवाणी को पढ़ने का आनंद लेते हैं और अक्सर यह व्यक्तित्व, व्यवहार और निर्णय लेने की प्रक्रिया में परिवर्तन की ओर ले जाता है।

ज्योतिषशास्त्र एक वास्तविक जीवन रक्षक हो सकता है क्योंकि यह आपको अग्रिम में भविष्य की बाधाओं और समस्याओं को बता देता है। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप एक राशिफल अध्ययन में दी गई सलाह और सावधानियों पर विश्वास करते हैं, और ज्यादा मेहनत किए बिना कष्ट से खुद को बचाना चाहते हैं अथवा नहीं।

लोग ज्योतिष में विश्वास करते हैं, क्योंकि यह बस मजेदार है। राशिचक्र तिथि, राशियाँ, थोड़ा भाग्य बताने के उपाय और बहुत कुछ। हम अपने जीवन के लगभग सभी पहलुओं को राशियों से संबद्ध कर सकते हैं और हम देखेंगे कि वे सही मायने में व्यावहारिक और ठीक हैं। हमारी राशिफल विलक्ष्ण होती है और वे हमारी ताकत, कमजोरी खोजने में मदद के साथ ही हमारे प्राकृतिक गुणों को भी प्रकट कर सकती है।

ज्योतिष हमें यह जानने में मदद कर सकता है कि कौन से रिश्ते संगत हैं - और कौन से नहीं। राशिफल संगतता अन्य राशियों के साथ हमारे रिश्तों में सुधार कर सकती है। अपने प्यार की क्षमता के बारे में जान कर, आप अवसरों का सबसे अच्छा उपयोग करते हुए एक खुशनुमा प्यारभरा या विवाहित जीवन व्यतीत करने के लिए उचित उपाय कर सकते हैं।

ज्योतिष दो प्रमुख पहलुओं को ध्यान में रखता है - हमारे संभावित जन्म और हमारी व्यक्तिगत राशिफल पर सितारों व ग्रहों का प्रभाव। यह हमें एक अच्छा और सफल जीवन व्यतीत करने के क्रम में हमारे लिए सही करियर और शिक्षा पथ चुनने में मदद कर सकता है।

अंततः हम ज्योतिष में विश्वास करते हैं क्योंकि यह हमारे बारे में है। मेरी राशिफल मेरे जीवन में उस एक ब्लूप्रिंट की तरह है, जिसे ठीक उस समय बनाया गया जब मैं पैदा हुआ था। इसका मतलब है कि मेरी जन्म राशिफल भी मेरी उंगलियों के निशान की तरह ही एकदम विलक्ष्ण है। मेरी राशिफल में प्रत्येक ग्रह की स्थिति मेरे व्यक्तित्व और भाग्य के बारे में बहुत कुछ बता सकती है।

ज्योतिषशास्त्र के बारे में कुछ सच्चे तथ्य
1999 में हुए एक अध्ययन के अनुसार, राशिफल और ज्योतिष शब्द इंटरनेट पर दो सबसे अधिक खोजे गये विषय हैं।

ज्योतिषशास्त्र को कला और विज्ञान दोनों माना जाता है। ज्योतिषशास्त्र कला है क्योंकि किसी व्यक्ति के चारित्रिक गुणों पर विचार बनाने के लिए अलग-अलग पहलुओं को एक साथ लाने के लिए व्याख्या करने की जरूरत होती है। हालांकि, ज्योतिषशास्त्र को विज्ञान भी माना जाता है क्योंकि इसमें खगोल विज्ञान और गणित की समझ होना अति आवश्यक है।

सिक्सटस चतुर्थ राशिफल बनाने और उसकी व्याख्या करने वाला प्रथम कैथोलिक पोप था, लियो दशम और पॉल तृतीय ने सलाह के लिए हमेशा ज्योतिषियों पर भरोसा किया था, जबकि जूलियस द्वितीय ने अपनी ताजपोशी की तिथि को ज्योतिष की दृष्टि से चुना था।

नाजी जर्मनी के तानाशाह एडॉल्फ हिटलर के लिए ज्योतिषशास्त्र बहुत महत्वपूर्ण था। माना जाता है कि इस जर्मन नेता ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ज्योतिषियों से विचार विमर्श किया था।

स्थानिक ज्योतिषशास्त्र की एक विधि ज्योतिषीय मानचित्रीकरण है जो भौगोलिक स्थिति में अंतर के माध्यम से बदलती जीवन परिस्थितियों की पहचान करने का दावा करती है। कथित तौर पर आप सबसे अधिक सफल कहाँ होंगे, अपनी जन्म-पत्री की तुलना दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों के लिए करके उस क्षेत्र का निर्धारण कर सकते हैं।

Monday, July 29, 2019

सूर्य ग्रह का लग्नों का फल

लग्न में सूर्य का प्रभाव

लग्न में सूर्य की स्थिति सौभाग्य एवं प्रगति का प्रतीक  है. मकर, कुम्भ, मीन, मेष, वृषभ और मिथुन में लग्नस्थ सूर्य जातक को अहंकारी, स्वार्थी तथा सत्ता लोभी बनाता है तथा कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक तथा धनु में लग्नस्थ सूर्य जातक को गुणी, विनम्र, दयालु तथा बुद्धिमान बनाता है.

लग्न में सूर्य जातक को लम्बा कद और दुबली पतली देह सुंदर एवं स्वस्थ बनता है .  दृढ स्वभाव, धैर्यशीलता, स्वाभिमान, उदार व् महत्वाकांक्षी भी लग्नस्थ सूर्य ही बनाता .

लग्न में सूर्य होने से जातक का जीवन सूर्य के समान उन्नति करता है. बाल्यकाल में जितना सुख मिलता है उससे कहीं अधिक सुख युवावस्था या प्रौढ़ावस्था में भोगता है.


लग्नस्थ सूर्य प्रबल इच्छा शक्ति देता है. आत्मविश्वास और नेतृत्व के गुण भी लग्न में बैठे सूर्य के परिचायक हैं, इसी कारण जिनके लग्न में सूर्य हो वह अपने अधिकारों के प्रति बहुत सजग होते हैं और अपने अधिकारों का हनन उनको बर्दाश्त नहीं होता है. कभी कभी अपने और अपने लक्ष्यों के प्रति सजगता इतनी हावी हो जाती है कि वह दूसरों के प्रति लापरवाह हो जाते हैं.

लगन्स्थ सूर्य सिर में रोग या चोट का खतरा देता है. नेत्र रोग और पित्त रोग का खतरा भी बना रहता है.

लग्न में सूर्य कभी कभी जातक को विदेशी सम्बन्ध या विदेश जाकर धन कमाने की स्थितियां पैदा करता है.

लग्नस्थ सूर्य जातक को असंतोषी भी बनता है परन्तु दूसरों को उत्साहित करने की क्षमता ऐसे जातकों में बहुत अच्छी होती है.

पारिवारिक सम्बन्ध सामान्य रहता है. अपितु जीवन साथी से कलेश या दुःख मिलता है.

मेष , मिथुन, कर्क, सिंह, तुला, मकर, कुम्भ तथा मीन राशि का सूर्य लग्न में होने से जातक मंच कलाकार , अभिनेता , कुशल नाटककार होता है.

धनु, कर्क, वृश्चिक और मीन राशि का लग्नस्थ सूर्य जातक को विद्वान् एवं गुणी बनाता है.

कर्क लग्न में लग्नस्थ सूर्य जातक को अपने परिवार से बहुत प्रेम करने वाल बनाती है.  वृश्चिक लग्न में लग्नस्थ सूर्य जातक को कुशल चिकित्सक बनाता है.

उच्च राशी स्थित सूर्य या शुभ ग्रह की दृष्टि युक्त लग्नस्थ  सूर्य जातक को नैतिकतावादी, श्रद्धा एवं विशवास पात्र बनाती है. सामाजिक पद प्रतिष्ठा एवं सम्मान की स्थिति भी बनती है.

अग्नि तत्व राशि (मेष, सिंह, धनु ) के लग्नस्थ सूर्य के लक्षण

रोग: बाल्यावस्था में चेचक और खसरा रोग देता है.

स्वभाव : जातक शांत और विनम्र दिखाई पड़ता है परन्तु सूर्य अग्नितत्व क्रूर गृह होने के कारण जातक महत्वाकांक्षी , सत्ता लोभी, क्रोधी , हठी तथा कभी कभी आक्रामक भी हो जाता है.

भूतत्व तत्व राशि (वृषभ, मकर, कन्या ) के लग्नस्थ सूर्य के लक्षण

रोग: नेत्र रोग देता है.

स्वभाव : जातक उद्दंड , मनमानी करने वाला तथा प्रतिष्ठित लोगों को उचित सम्मान न देने वाला परन्तु अपनी धुन का पक्का एवं परिश्रमी होता है.

वायु तत्व राशि (तुला, कुम्भ, मिथुन) के लग्नस्थ सूर्य के लक्षण

रोग: ज्वर की संभावना अधिक रहती है.

स्वभाव : जातक न्यायप्रिय , उदार , कला व् साहित्य प्रेमी होता है.

जल तत्व राशि (कर्क, वृश्चिक, मीन  ) के लग्नस्थ सूर्य के लक्षण

रोग: ह्रदय रोग, रक्त सम्बन्धी विकार , खांसी तथा ज्वर की संभावना अधिक रहती है.

स्वभाव : जातक सुंदर स्त्रियों के प्रति आकर्षित रहता है.

Sunday, July 28, 2019

योग विज्ञान का परिचय

*योग, ध्यान, प्राणायाम, मुद्राएं*

               योगाचार्य
*डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य*

योग का संक्षिप्त इतिहास (History of Yoga)

योग का उपदेश सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने सनकादिकों को, पश्चात विवस्वान (सूर्य) को दिया। बाद में यह दो शाखाओं में विभक्त हो गया। एक ब्रह्मयोग और दूसरा कर्मयोग। ब्रह्मयोग की परम्परा सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरि, वोढु और पच्चंशिख नारद-शुकादिकों ने शुरू की थी। यह ब्रह्मयोग लोगों के बीच में ज्ञान, अध्यात्म और सांख्य योग नाम से प्रसिद्ध हुआ।दूसरी कर्मयोग की परम्परा विवस्वान की है। विवस्वान ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को, इक्ष्वाकु ने राजर्षियों एवं प्रजाओं को योग का उपदेश दिया। उक्त सभी बातों का वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है। वेद को संसार की प्रथम पुस्तक माना जाता है जिसका उत्पत्ति काल लगभग 10,000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। पुरातत्ववेत्ताओं अनुसार योग की उत्पत्ति 5000 ई.पू. में हुई। गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा।भारतीय योग जानकारों के अनुसार योग की उत्पत्ति भारत में लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक समय पहले हुई थी। योग की सबसे आश्चर्यजनक खोज 1920 के शुरुआत में हुई। 1920 में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने ‘सिंधु सरस्वती सभ्यता’ को खोजा था जिसमें प्राचीन हिंदू धर्म और योग की परंपरा होने के सबूत मिलते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता को 3300-1700 बी.सी.ई. पुरानी माना जाती है।

योग का वर्णन वेदों में, फिर उपनिषदों में और फिर गीता में मिलता है लेकिन पतंजलि और  गुरु गोरखनाथ ने  योग के बिखरे हुए ज्ञान को  व्यवस्थित रूप से लिपिबद्ध किया।

योग हिन्दू धर्म के छह दर्शनों में से एक है। ये छह दर्शन हैं..
1. न्याय

2. वैशेषिक

3. मीमांसा

4. सांख्य

5. वेदांत

6. योग।

योग के आठ मुख्य अंग: यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।

इसके अलावा क्रिया, बंध, मुद्रा और अंग-संचालन इत्यादि कुछ अन्य अंग भी गिने जाते हैं, किंतु ये सभी उन आठों के ही उपांग (उप-अंग) हैं। अब हम योग के प्रकार, योगाभ्यास की बाधाएं, योग का इतिहास, योग के प्रमुख ग्रंथ की थोड़ी चर्चा करेंगे।

योग के प्रकार:

राजयोग, 2. हठयोग, 3.लययोग,  4. ज्ञानयोग, 5.कर्मयोग और 6. भक्तियोग।
इसके अलावा बहिरंग योग, नाद योग, मंत्र योग, तंत्र योग, कुंडलिनी योग, साधना योग, क्रिया योग, सहज योग, मुद्रायोग, और स्वरयोग आदि। योग के अनेक आयामों की चर्चा की जाती है। लेकिन सभी उक्त छह में समाहित हैं।




अष्टांग योग
1.पांच यम: अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।

2.पांच नियम: शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान।

3. आसन: किसी भी आसन की शुरुआत  लेटकर अर्थात शवासन (चित्त लेटकर) और मकरासन (औंधा लेटकर) में और बैठकर अर्थात दंडासन और वज्रासन में, खड़े होकर अर्थात सावधान मुद्रा या नमस्कार मुद्रा से होती है। यहां सभी तरह के आसन के नाम दिए गए हैं। कुछ आसनों के नाम….

सूर्यनमस्कार, 2. आकर्णधनुष्टंकारासन, 3. उत्कटासन, 4.उत्तान कुक्कुटासन, 5.उत्तानपादासन, 6.उपधानासन, 7.ऊर्ध्वताड़ासन, 8.एकपाद ग्रीवासन, 9.कटि उत्तानासन10.कन्धरासन, 11.कर्ण पीड़ासन, 12.कुक्कुटासन, 13.कुर्मासन, 14.कोणासन, 15.गरुड़ासन 16.गर्भासन, 17.गोमुखासन, 18.गोरक्षासन, 19.चक्रासन, 20.जानुशिरासन, 21.तोलांगुलासन 22.त्रिकोणासन, 23.दीर्घ नौकासन, 24.द्विचक्रिकासन, 25.द्विपादग्रीवासन, 26.ध्रुवासन 27.नटराजासन, 28.पक्ष्यासन, 29.पर्वतासन, 30.पशुविश्रामासन, 31.पादवृत्तासन 32.पादांगुष्टासन, 33.पादांगुष्ठनासास्पर्शासन, 34.पूर्ण मत्स्येन्द्रासन, 35.पॄष्ठतानासन 36.प्रसृतहस्त वृश्चिकासन, 37.बकासन, 38.बध्दपद्मासन, 39.बालासन, 40.ब्रह्मचर्यासन 41.भूनमनासन, 42.मंडूकासन, 43.मर्कटासन, 44.मार्जारासन, 45.योगनिद्रा, 46.योगमुद्रासन, 47.वातायनासन, 48.वृक्षासन, 49.वृश्चिकासन, 50.शंखासन, 51.शशकासन52.सिंहासन, 53.सिद्धासन, 54.सुप्त गर्भासन, 55.सेतुबंधासन, 56.स्कंधपादासन, 57.हस्तपादांगुष्ठासन, 58.भद्रासन, 59.शीर्षासन, 60.सूर्य नमस्कार, 61.कटिचक्रासन, 62.पादहस्तासन, 63.अर्धचन्द्रासन, 64.ताड़ासन, 65.पूर्णधनुरासन, 66.अर्धधनुरासन, 67.विपरीत नौकासन, 68.शलभासन, 69.भुजंगासन, 70.मकरासन, 71.पवन मुक्तासन, 72.नौकासन, 73.हलासन, 74.सर्वांगासन, 75.विपरीतकर्णी आसन, 76.शवासन, 77.मयूरासन, 78.ब्रह्म मुद्रा, 79.पश्चिमोत्तनासन, 80.उष्ट्रासन, 81.वक्रासन, 82.अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, 83.मत्स्यासन, 84.सुप्त-वज्रासन, 85.वज्रासन, 86.पद्मासन आदि।
4. प्राणायाम : प्राणायाम के पंचक, पांच प्रकार की वायु:  व्यान, समान, अपान, उदान और प्राण।

प्राणायाम के प्रकार:  1.पूरक,  2.कुम्भक और  3.रेचक।

इसे ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भन वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं।  अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्य कुम्भक कहते हैं।

प्रमुखप्राणायाम:  1.नाड़ीशोधन, 2.भ्रस्त्रिका, 3.उज्जाई, 4.भ्रामरी, 5.कपालभाती, 6.केवली, 7.कुंभक, 8.दीर्घ, 9.शीतकारी, 10.शीतली, 11.मूर्छा, 12.सूर्यभेदन, 13.चंद्रभेदन,14.प्रणव, 15.अग्निसार, 16.उद्गीथ, 17.नासाग्र, 18.प्लावनी, 19.शितायु आदि।
अन्य प्राणायाम: 1.अनुलोम-विलोम प्राणायाम, 2.अग्नि प्रदीप्त प्राणायाम, 3.अग्नि प्रसारण प्राणायाम, 4.एकांड स्तम्भ प्राणायाम, 5.सीत्कारी प्राणायाम, 6.सर्वद्वारबद्व प्राणायाम, 7.सर्वांग स्तम्भ प्राणायाम, 8.सप्त व्याहृति प्राणायाम, 9.चतुर्मुखी प्राणायाम, 10.प्रच्छर्दन प्राणायाम, 11.चन्द्रभेदन प्राणायाम, 12.यन्त्रगमन प्राणायाम, 13.वामरेचन प्राणायाम,14.दक्षिण रेचन प्राणायाम, 15.शक्ति प्रयोग प्राणायाम, 16.त्रिबन्धरेचक प्राणायाम, 17.कपाल भाति प्राणायाम, 18.हृदय स्तम्भ प्राणायाम, 19.मध्य रेचन प्राणायाम, 20.त्रिबन्ध कुम्भक प्राणायाम, 21.ऊर्ध्वमुख भस्त्रिका प्राणायाम, 22.मुखपूरक कुम्भक प्राणायाम, 23.वायुवीय कुम्भक प्राणायाम, 24.वक्षस्थल रेचन प्राणायाम, 25.दीर्घ श्वास-प्रश्वास प्राणायाम, 26.प्राह्याभ्न्वर कुम्भक प्राणायाम, 27.षन्मुखी रेचन प्राणायाम 28.कण्ठ वातउदा पूरक प्राणायाम, 29.सुख प्रसारण पूरक कुम्भक प्राणायाम,30.अनुलोम-विलोम नाड़ी शोधन प्राणायाम व नाड़ी अवरोध प्राणायाम आदि।
5. प्रत्याहार: इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियां मनुष्य को बाहरी विषयों में उलझाए रखती है। प्रत्याहार के अभ्यास से साधक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है। जैसे एक कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है उसी प्रकार प्रत्याहरी मनुष्य की स्थिति होती है। यम नियम, आसान, प्राणायाम को साधने से प्रत्याहार की स्थिति घटित होने लगती है।

6.धारणा: चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है। प्रत्याहार के सधने से धारणा स्वत: ही घटित होती है। धारणा धारण किया हुआ चित्त कैसी भी धारणा या कल्पना करता है, तो वैसे ही घटित होने लगता है। यदि ऐसे व्यक्ति किसी एक कागज को हाथ में लेकर यह सोचे की यह जल जाए तो ऐसा हो जाता है।

7. ध्यान: जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।



ध्यान के रूढ़ प्रकार: स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान।

ध्यान विधियां: श्वास ध्यान, साक्षी भाव, नासाग्र ध्यान, विपश्यना ध्यान,

ओशो द्वारा प्रदत्त: सक्रिय ध्यान, नादब्रह्म ध्यान, कुंडलिनी ध्यान, नटराज ध्यान, मंडल ध्यान आदि  115 ध्यान विधियों का अभ्यास

ओशो कम्यून में किया जाता है। विज्ञान भैरव तंत्र में भगवान शिव ने उमा को 112 तरह की ध्यान विधियाँ बताई हैं।

8. समाधि: यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही

मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है। समाधि की भी दो श्रेणियां हैं , 1. सम्प्रज्ञात और 2. असम्प्रज्ञात।

सम्प्रज्ञात समाधि में वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है। इसे बौद्ध धर्म में संबोधि, जैन धर्म में केवल्य और हिन्दू धर्म में मोक्ष प्राप्त करना कहते हैं। इस सामान्य भाषा में मुक्ति कहते हैं।

पुराणों में मुक्ति के 6 प्रकार बताएं गए है जो इस प्रकार हैं: 1. साष्ट्रि, (ऐश्वर्य), 2. सालोक्य (लोक की प्राप्ति), 3. सारूप्य (ब्रह्मस्वरूप), 4. सामीप्य, (ब्रह्म के पास),5. साम्य (ब्रह्म जैसी समानता) 6. सायुज्य, या लीनता (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।

योग क्रियाएं : प्रमुख 13 क्रियाएं: 1.नेती– सूत्र नेति, घॄत नेति, 2.धौति– वमन धौति, वस्त्र धौति, दण्ड धौति,  3.गजकरणी, 4.वस्ती- जल बस्ति, 5.कुंजर, 6.नौली, 7.त्राटक, 8.कपालभाति, 9.धौंकनी, 10.गणेश क्रिया, 11.बाधी, 12.लघु शंख प्रक्षालन और 13.शंख प्रक्षालन।

मुद्राएं कई हैं: 1.विरत मुद्रा, 2.अश्विनी मुद्रा, 3.महामुद्रा, 4.योग मुद्रा, 5.विपरीत करणी मुद्रा, 6.शाम्भवी मुद्रा।

पंच राजयोग मुद्राएं: 1.चाचरी, 2.खेचरी, 3.भोचरी, 4.अगोचरी, 5.उन्न्मुनी मुद्रा।

10 हस्त मुद्राएं: उक्त के अलावा हस्त मुद्राओं में प्रमुख दस मुद्राओं का महत्व है जो निम्न है: – 1.ज्ञान मुद्रा, 2.पृथवि मुद्रा, 3.वरुण मुद्रा, 4.वायु मुद्रा, 5.शून्य मुद्रा, 6.सूर्य मुद्रा, 7.प्राण मुद्रा, 8.लिंग मुद्रा, 9.अपान मुद्रा, 10.अपान वायु मुद्रा।

अन्य मुद्राएं :– 1.सुरभी मुद्रा, 2.ब्रह्ममुद्रा, 3.अभयमुद्रा, 4.भूमि मुद्रा, 5.भूमि स्पर्शमुद्रा, 6.धर्मचक्रमुद्रा, 7.वज्रमुद्रा, 8.वितर्कमुद्रा, 9.जनाना मुद्रा, 10.कर्णमुद्रा, 11.शरणागतमुद्रा, 12.ध्यान मुद्रा, 13.सुची मुद्रा, 14.ओम मुद्रा, 15.जनाना और चिन् मुद्रा, 16.पंचांगुली मुद्रा 17.महात्रिक मुद्रा, 18.कुबेर मुद्रा, 19.चित्त मुद्रा, 20.वरद मुद्रा, 21.मकर मुद्रा, 22.शंख मुद्रा, 23.रुद्र मुद्रा, 24.पुष्पपूत मुद्रा, 25.वज्र मुद्रा, 26. श्वांस मुद्रा, 27.हास्य बुद्धा मुद्रा, 28.योग मुद्रा, 29.गणेश मुद्रा 30.डॉयनेमिक मुद्रा, 31.मातंगी मुद्रा, 32.गरुड़ मुद्रा, 33.कुंडलिनी मुद्रा, 34.शिव लिंग मुद्रा, 35.ब्रह्मा मुद्रा, 36.मुकुल मुद्रा, 37.महर्षि मुद्रा, 38.योनी मुद्रा, 39.पुशन मुद्रा, 40.कालेश्वर मुद्रा, 41.गूढ़ मुद्रा, 42.मेरुदंड मुद्रा, 43.हाकिनी मुद्रा, 45.कमल मुद्रा, 46.पाचन मुद्रा, 47.विषहरण मुद्रा या निर्विषिकरण मुद्रा, 48.आकाश मुद्रा, 49.हृदय मुद्रा, 50.जाल मुद्रा आदि।

योगाभ्यास की बाधाएं : आहार, प्रयास, प्रजल्प, नियमाग्रह, जनसंग और लौल्य।

इसी को सामान्य भाषा में आहार अर्थात अतिभोजन, प्रयास अर्थात आसनों के साथ जोर-जबरदस्ती,  प्रजल्प अर्थात अभ्यास का दिखावा, नियामाग्रह अर्थात योग करने के कड़े नियम बनाना,  जनसंग अर्थात अधिक जनसंपर्क और अंत में लौल्य का मतलब शारीरिक और मानसिक चंचलता।

राजयोग : यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और  समाधि यह पतंजलि के  राजयोग के आठ अंग हैं।  इन्हें अष्टांग योग भी कहा जाता है। यही राजयोग है।

हठयोग : षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि:–ये हठयोग के सात अंग है, लेकिन हठयोगी का जोर आसन एवं कुंडलिनी जागृति के लिए आसन, बंध, मुद्रा और प्राणायम पर अधिक रहता है। यही क्रिया योग है।

लययोग : यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। उक्त आठ लययोग के अंग है।

ज्ञानयोग : साक्षीभाव द्वारा विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही ज्ञान योग है। यही ध्यानयोग है।

कर्मयोग : शास्त्र विहित कर्म करना ही कर्म योग है। इसका उद्येश्य है कर्मों में कुशलता लाना।

भक्तियोग : भक्त श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रूप-इन नौ अंगों को नवधा भक्ति कहा जाता है। भक्ति योगानुसार व्यक्ति सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य तथा सायुज्य-मुक्ति को प्राप्त होता है, जिसे क्रमबद्ध मुक्ति कहा जाता है।

अंग संचालन: 1.शवासन, 2.मकरासन, 3.दंडासन और 4. नमस्कार मुद्रा में अंग संचालन किया जाता है, जिसे सूक्ष्म व्यायाम कहते हैं।इसके अंतर्गत आंखें, कोहनी, घुटने, कमर, अंगुलियां, पंजे, मुंह आदि अंगों की एक्सरसाइज की जाती है।

प्रमुख बंध: 1.महाबंध, 2.मूलबंध, 3.जालन्धरबंध और 4.उड्डियान बांध।

कुंडलिनी योग : कुंडलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी में नाभि के निचले हिस्से में सोई हुई अवस्था में रहती है, जो ध्यान के गहराने के साथ ही सभी चक्रों से गुजरती हुई सहस्रार चक्र तक पहुंचती है।

ये चक्र 7 होते हैं : मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार।



72 हजार नाड़ियों में से प्रमुख रूप से तीन है: इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इड़ा और पिंगला नासिका के दोनों छिद्रों से जुड़ी है जबकि सुषुम्ना भृकुटी के बीच के स्थान से।स्वरयोग इड़ा और पिंगला के विषय में विस्तृत जानकारी देते हुए स्वरों को परिवर्तित करने,रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त करने के विषय में गहन मार्गदर्शन होता है। दोनों नासिका से सांस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है। इस समय दिया हुआ आशीर्वाद या अभिशाप के फलित होने की संभावना अधिक होती है।

योग ग्रंथ -(Yoga Books) : वेद, उपनिषद्, भगवदगीता, हठयोग प्रदीपिका, योगदर्शन, शिव संहिता, विज्ञान भैरव तंत्र और विभिन्न तंत्र ग्रंथों में योग विद्या का उल्लेख मिलता है। सभी को आधार बनाकर पतंजलि ने योग सूत्र लिखा। योग पर लिखा गया सर्वप्रथम सुव्यव्यवस्थित ग्रंथ है – योगसूत्र। योगसूत्र को पतंजलि ने 200 ई.पूर्व लिखा था। इस ग्रंथ पर अब तक हजारों भाष्य लिखे गए हैं, लेकिन कुछ खास भाष्यों का यहां उल्लेख करते हैं।

व्यास भाष्य : व्यास भाष्य का रचना काल 200-400 ईसा पूर्व का माना जाता है। महर्षि पतंजलि का ग्रंथ योगसूत्र योग की सभी विद्याओं का ठीक-ठीक संग्रह माना जाता है। इसी रचना पर व्यासजी के ‘व्यास भाष्य’ को योग सूत्र पर लिखा प्रथम प्रामाणिक भाष्य माना जाता है। व्यास द्वारा महर्षि पतंजलि के योगसूत्र पर दी गई विस्तृत लेकिन सुव्यवस्थित व्याख्या।

तत्त्ववैशारदी : पतंजलि योगसूत्र के व्यास भाष्य के प्रामाणिक व्याख्याकार के रूप में वाचस्पति मिश्र का ‘तत्त्ववैशारदी’ प्रमुख ग्रंथ माना जाता है। वाचस्पति मिश्र ने योगसूत्र एवं व्यास भाष्य दोनों पर ही अपनी व्याख्या दी है। तत्त्ववैशारदी का रचना काल 841 ईसा पश्चात माना जाता है।

योगवार्तिक : विज्ञानभिक्षु का समय विद्वानों के द्वारा 16वीं शताब्दी के मध्य में माना जाता है। योगसूत्र पर महत्वपूर्ण व्याख्या विज्ञानभिक्षु की प्राप्त होती है जिसका नाम ‘योगवार्तिक’ है।

भोजवृत्ति : भोज के राज्य का समय 1075-1110 विक्रम संवत माना जाता है। धरेश्वर भोज के नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति ने योगसूत्र पर जो ‘भोजवृत्ति’ नामक ग्रंथ लिखा है वह भोजवृत्ति योगविद्वजनों के बीच समादरणीय एवं प्रसिद्ध माना जाता है। कुछ इतिहासकार इसे 16वीं सदी का ग्रंथ मानते हैं।

Thursday, July 25, 2019

संस्कृत भाषा का चमत्कार -एक श्लोक से द्विसन्धान

संस्कृत ग्रथों की परंपरा में जैन कवि धनंजय कृत द्विसन्धान काव्य जिसमें हरिवंश और रघुवंश की कथा का वर्णन उपलब्ध है उसी तरह यह ग्रंथ भी इसी परंपरा का पोषक ग्रंथ है ।

यह है दक्षिण भारत का एक ग्रन्थ

क्या ऐसा संभव है कि जब आप किताब को सीधा पढ़े तो राम कथा के रूप में पढ़ी जाती है और जब उसी किताब में लिखे शब्दों को उल्टा करके पढ़े
तो कृष्ण कथा के रूप में होती है ।

जी हां, कांचीपुरम के 17वीं शदी के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ "राघवयादवीयम्" ऐसा ही एक अद्भुत ग्रन्थ है।

इस ग्रन्थ को
‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। पूरे ग्रन्थ में केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे
पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और
विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा (उल्टे यानी विलोम)के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक।

पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है ~ "राघवयादवीयम।"

उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक हैः

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

अर्थातः
मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं, जो
जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे।

अब इस श्लोक का विलोमम्: इस प्रकार है

सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

अर्थातः
मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के
चरणों में प्रणाम करता हूं, जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ
विराजमान है तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है।

 " राघवयादवीयम" के ये 60 संस्कृत श्लोक इस प्रकार हैं:-

राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

विलोमम्:
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ॥ २॥

विलोमम्:
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥ २॥

कामभारस्स्थलसारश्रीसौधासौघनवापिका ।
सारसारवपीनासरागाकारसुभूरुभूः ॥ ३॥

विलोमम्:
भूरिभूसुरकागारासनापीवरसारसा ।
कापिवानघसौधासौ श्रीरसालस्थभामका ॥ ३॥

रामधामसमानेनमागोरोधनमासताम् ।
नामहामक्षररसं ताराभास्तु न वेद या ॥ ४॥

विलोमम्:
यादवेनस्तुभारातासंररक्षमहामनाः ।
तां समानधरोगोमाननेमासमधामराः ॥ ४॥

यन् गाधेयो योगी रागी वैताने सौम्ये सौख्येसौ ।
तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमानामाश्रीहाता त्रातम् ॥ ५॥

विलोमम्:
तं त्राताहाश्रीमानामाभीतं स्फीत्तं शीतं ख्यातं ।
सौख्ये सौम्येसौ नेता वै गीरागीयो योधेगायन् ॥ ५॥

मारमं सुकुमाराभं रसाजापनृताश्रितं ।
काविरामदलापागोसमावामतरानते ॥ ६॥

विलोमम्:
तेन रातमवामास गोपालादमराविका ।
तं श्रितानृपजासारंभ रामाकुसुमं रमा ॥ ६॥

रामनामा सदा खेदभावे दया-वानतापीनतेजारिपावनते ।
कादिमोदासहातास्वभासारसा-मेसुगोरेणुकागात्रजे भूरुमे ॥ ७॥

विलोमम्:
मेरुभूजेत्रगाकाणुरेगोसुमे-सारसा भास्वताहासदामोदिका ।
तेन वा पारिजातेन पीता नवायादवे भादखेदासमानामरा ॥ ७॥

सारसासमधाताक्षिभूम्नाधामसु सीतया ।
साध्वसाविहरेमेक्षेम्यरमासुरसारहा ॥ ८॥

विलोमम्:
हारसारसुमारम्यक्षेमेरेहविसाध्वसा ।
यातसीसुमधाम्नाभूक्षिताधामससारसा ॥ ८॥

सागसाभरतायेभमाभातामन्युमत्तया ।
सात्रमध्यमयातापेपोतायाधिगतारसा ॥ ९॥

विलोमम्:
सारतागधियातापोपेतायामध्यमत्रसा ।
यात्तमन्युमताभामा भयेतारभसागसा ॥ ९॥

तानवादपकोमाभारामेकाननदाससा ।
यालतावृद्धसेवाकाकैकेयीमहदाहह ॥ १०॥

विलोमम्:
हहदाहमयीकेकैकावासेद्ध्वृतालया ।
सासदाननकामेराभामाकोपदवानता ॥ १०॥

वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरादहो ।
भास्वरस्थिरधीरोपहारोरावनगाम्यसौ ॥ ११॥

विलोमम्:
सौम्यगानवरारोहापरोधीरस्स्थिरस्वभाः ।
होदरादत्रापितह्रीसत्यासदनमारवा ॥ ११॥

यानयानघधीतादा रसायास्तनयादवे ।
सागताहिवियाताह्रीसतापानकिलोनभा ॥ १२॥

विलोमम्:
भानलोकिनपातासह्रीतायाविहितागसा ।
वेदयानस्तयासारदाताधीघनयानया ॥ १२॥

रागिराधुतिगर्वादारदाहोमहसाहह ।
यानगातभरद्वाजमायासीदमगाहिनः ॥ १३॥

विलोमम्:
नोहिगामदसीयामाजद्वारभतगानया ।
हह साहमहोदारदार्वागतिधुरागिरा ॥ १३॥

यातुराजिदभाभारं द्यां वमारुतगन्धगम् ।
सोगमारपदं यक्षतुंगाभोनघयात्रया ॥ १४॥

विलोमम्:
यात्रयाघनभोगातुं क्षयदं परमागसः ।
गन्धगंतरुमावद्यं रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥

दण्डकां प्रदमोराजाल्याहतामयकारिहा ।
ससमानवतानेनोभोग्याभोनतदासन ॥ १५॥

विलोमम्:
नसदातनभोग्याभो नोनेतावनमास सः ।
हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम् ॥ १५॥

सोरमारदनज्ञानोवेदेराकण्ठकुंभजम् ।
तं द्रुसारपटोनागानानादोषविराधहा ॥ १६॥

विलोमम्:
हाधराविषदोनानागानाटोपरसाद्रुतम् ।
जम्भकुण्ठकरादेवेनोज्ञानदरमारसः ॥ १६॥

सागमाकरपाताहाकंकेनावनतोहिसः ।
न समानर्दमारामालंकाराजस्वसा रतम् ॥ १७ विलोमम्:
तं रसास्वजराकालंमारामार्दनमासन ।
सहितोनवनाकेकं हातापारकमागसा ॥ १७॥

तां स गोरमदोश्रीदो विग्रामसदरोतत ।
वैरमासपलाहारा विनासा रविवंशके ॥ १८॥

विलोमम्:
केशवं विरसानाविराहालापसमारवैः ।
ततरोदसमग्राविदोश्रीदोमरगोसताम् ॥ १८॥

गोद्युगोमस्वमायोभूदश्रीगखरसेनया ।
सहसाहवधारोविकलोराजदरातिहा ॥ १९॥

विलोमम्:
हातिरादजरालोकविरोधावहसाहस ।
यानसेरखगश्रीद भूयोमास्वमगोद्युगः ॥ १९॥

हतपापचयेहेयो लंकेशोयमसारधीः ।
राजिराविरतेरापोहाहाहंग्रहमारघः ॥ २०॥

विलोमम्:
घोरमाहग्रहंहाहापोरातेरविराजिराः ।
धीरसामयशोकेलं यो हेये च पपात ह ॥ २०॥

ताटकेयलवादेनोहारीहारिगिरासमः ।

हासहायजनासीतानाप्तेनादमनाभुवि  ॥ २१॥

विलोमम्:
विभुनामदनाप्तेनातासीनाजयहासहा ।
ससरागिरिहारीहानोदेवालयकेटता ॥ २१॥

भारमाकुदशाकेनाशराधीकुहकेनहा ।
चारुधीवनपालोक्या वैदेहीमहिताहृता ॥ २२॥

विलोमम्:
ताहृताहिमहीदेव्यैक्यालोपानवधीरुचा ।
हानकेहकुधीराशानाकेशादकुमारभाः ॥ २२॥

हारितोयदभोरामावियोगेनघवायुजः ।
तंरुमामहितोपेतामोदोसारज्ञरामयः ॥ २३॥

विलोमम्:
योमराज्ञरसादोमोतापेतोहिममारुतम् ।
जोयुवाघनगेयोविमाराभोदयतोरिहा ॥ २३॥

भानुभानुतभावामासदामोदपरोहतं ।
तंहतामरसाभक्षोतिराताकृतवासविम् ॥ २४॥

विलोमम्:
विंसवातकृतारातिक्षोभासारमताहतं ।
तं हरोपदमोदासमावाभातनुभानुभाः ॥ २४॥

हंसजारुद्धबलजापरोदारसुभाजिनि ।
राजिरावणरक्षोरविघातायरमारयम् ॥ २५॥

विलोमम्:
यं रमारयताघाविरक्षोरणवराजिरा ।
निजभासुरदारोपजालबद्धरुजासहम् ॥ २५॥

सागरातिगमाभातिनाकेशोसुरमासहः ।
तंसमारुतजंगोप्ताभादासाद्यगतोगजम् ॥ २६॥

विलोमम्:
जंगतोगद्यसादाभाप्तागोजंतरुमासतं ।
हस्समारसुशोकेनातिभामागतिरागसा ॥ २६॥

वीरवानरसेनस्य त्राताभादवता हि सः ।
तोयधावरिगोयादस्ययतोनवसेतुना ॥ २७॥

विलोमम्
नातुसेवनतोयस्यदयागोरिवधायतः ।
सहितावदभातात्रास्यनसेरनवारवी ॥ २७॥

हारिसाहसलंकेनासुभेदीमहितोहिसः ।
चारुभूतनुजोरामोरमाराधयदार्तिहा ॥ २८॥

विलोमम्
हार्तिदायधरामारमोराजोनुतभूरुचा ।
सहितोहिमदीभेसुनाकेलंसहसारिहा ॥ २८॥

नालिकेरसुभाकारागारासौसुरसापिका ।
रावणारिक्षमेरापूराभेजे हि ननामुना ॥ २९॥

विलोमम्:
नामुनानहिजेभेरापूरामेक्षरिणावरा ।
कापिसारसुसौरागाराकाभासुरकेलिना ॥ २९॥

साग्र्यतामरसागारामक्षामाघनभारगौः ॥
निजदेपरजित्यास श्रीरामे सुगराजभा ॥ ३०॥

विलोमम्:
भाजरागसुमेराश्रीसत्याजिरपदेजनि ।स
गौरभानघमाक्षामरागासारमताग्र्यसा ॥ ३०॥

॥ इति श्रीवेङ्कटाध्वरि कृतं श्री  ।।

कृपया अपना थोड़ा सा कीमती वक्त निकाले और उपरोक्त श्लोको को गौर से अवलोकन करें कि यह दुनिया में कहीं भी ऐसा न पाया जाने वाला ग्रंथ है ।


Thursday, July 11, 2019

ग्रहों के फल

*कौन सा ग्रह क्या अशुभ फल देता है*

 *सूर्य*

सरकारी नौकरी या सरकारी कार्यों में परेशानी, सिर दर्द, नेत्र रोग, हृदय रोग, अस्थि रोग, चर्म रोग, पिता से अनबन आदि।

 *चंद्र*

मानसिक परेशानियां, अनिद्रा, दमा, कफ, सर्दी, जुकाम, मूत्र रोग, स्त्रियों को मासिक धर्म, निमोनिया।

 *मंगल*

अधिक क्रोध आना, दुर्घटना, रक्त विकार, कुष्ठ रोग, बवासीर, भाइयों से अनबन आदि।

 *बुध*

गले, नाक और कान के रोग, स्मृति रोग, व्यवसाय में हानि, मामा से अनबन आदि।

 *गुरु*

धन व्यय, आय में कमी, विवाह में देरी, संतान में देरी, उदर विकार, गठिया, कब्ज, गुरु व देवता में अविश्वास आदि।

 *शुक्र*

जीवन साथी के सुख में बाधा, प्रेम में असफलता, भौतिक सुखों में कमी व अरुचि, नपुंसकता, मधुमेह, धातु व मूत्र रोग आदि।

 *शनि*

वायु विकार, लकवा, कैंसर, कुष्ठ रोग, मिर्गी, पैरों में दर्द, नौकरी में परेशानी आदि।

 *राहु*

त्वचा रोग, कुष्ठ, मस्तिष्क रोग, भूत प्रेत वाधा, दादा से परेशानी आदि।

 *केतु*

नाना से परेशानी, भूत-प्रेत, जादू टोने से परेशानी, रक्त विकार, चेचक आदि।

इस प्रकार ग्रहों के कारकत्व को ध्यान में रखते हुए शास्त्र सम्मत उपाय करना चाहिए

Sunday, June 30, 2019

लग्न कुंडली और प्रश्न कुंडली मे अंतर


लग्न कुंडली और प्रश्न कुंडली की विशेषताएं

प्रश्न: लग्न कुंडली और चलित कुंडली में क्या अंतर है?

उत्तर :  लग्न कुंडली का शोधन चलित कुंडली है, अंतर सिर्फ इतना है कि लग्न कुंडली यह दर्शाती है कि जन्म के समय क्या लग्न है और सभी ग्रह किस राशि में विचरण कर रहे हैं और चलित से यह स्पष्ट होता है कि जन्म समय किस भाव में कौन सी राशि का प्रभाव है और किस भाव पर कौन सा ग्रह प्रभाव डाल रहा है।

प्रश्न: चलित कुंडली का निर्माण कैसे करते हैं ?

उत्तर: जब हम जन्म कुंडली का सैद्धांतिक तरीके से निर्माण करते हैं तो सबसे पहले लग्न स्पष्ट करते हैं, अर्थात भाव संधि और भाव मध्य के उपरांत ग्रह स्पष्ट कर पहले लग्न कुंडली और उसके बाद चलित कुंडली बनाते हैं। लग्न कुंडली में जो लग्न स्पष्ट अर्थात जो राशि प्रथम भाव मध्य में स्पष्ट होती है उसे प्रथम भाव में अंकित कर क्रम से आगे के भावों में अन्य राशियां अंकित कर देते हैं और ग्रह स्पष्ट अनुसार जो ग्रह जिस राशि में स्पष्ट होता है, उसे उस राशि के साथ अंकित कर देते हैं। इस तरह यह लग्न कुंडली तैयार हो जाती है। चलित कुंडली बनाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि किस भाव में कौन सी राशि भाव मध्य पर स्पष्ट हुई अर्थात प्रथम भाव में जो राशि स्पष्ट हुई उसे प्रथम भाव में और द्वितीय भाव में जो राशि स्पष्ट हुई उसे द्वितीय भाव में अंकित करते हैं। इसी प्रकार सभी द्वादश भावों मे जो राशि जिस भाव मध्य पर स्पष्ट हुई उसे उस भाव में अंकित करते हैं न कि क्रम से अंकित करते हैं। इसी तरह जब ग्रह को मान में अंकित करने की बात आती है तो यह देखा जाता है कि भाव किस राशि के कितने अंशों से प्रारंभ और कितने अंशों पर समाप्त हुआ। यदि ग्रह स्पष्ट भाव प्रारंभ और भाव समाप्ति के मध्य है तो ग्रह को उसी भाव में अंकित करते हैं। यदि ग्रह स्पष्ट भाव प्रारंभ से पहले के अंशों पर है तो उसे उस भाव से पहले वाले भाव में अंकित करते हैं और यदि ग्रह स्पष्ट भाव समाप्ति के बाद के अंशों पर है तो उस ग्रह को उस भाव के अगले भाव में अंकित किया जाता है। उदाहरण के द्वारा यह ठीक से स्पष्ट होगा। मान लीजिए भाव स्पष्ट और ग्रह स्पष्ट इस प्रकार हैं:
भाव स्पष्ट और ग्रह स्पष्ट से चलित कुंडली का निर्माण करते समय सब से पहले हर भाव में राशि अंकित करते हैं। उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत चलित कुंडली में प्रथम भाव मध्य में मिथुन राशि स्पष्ट हुई है। इसलिए प्रथम भाव में मिथुन राशि अंकित होगी। द्वितीय भाव में भावमध्य पर कर्क राशि स्पष्ट है, द्वितीय भाव में कर्क राशि अंकित होगी। तृतीय भाव मध्य पर भी कर्क राशि स्पष्ट है। इसलिए तृतीय भाव में भी कर्क राशि अंकित की जाएगी। चतुर्थ भाव में सिंह राशि स्पष्ट है इसलिए चतुर्थ भाव में सिंह राशि अंकित होगी। इसी प्रकार यदि उदाहरण कुंडली में देखें तो पंचम भाव में कन्या, षष्ठ में वृश्चिक, सप्तम में धनु, अष्टम में मकर, नवम में फिर मकर, दशम में कुंभ, एकादश में मीन और द्वादश में वृष राशि स्पष्ट होने के कारण ये राशियां इन भावों में अंकित की जाएंगी। लेकिन लग्न कुंडली में एक से द्वादश भावों में क्रम से राशियां अंकित की जाती हैं। राशियां अंकित करने के पश्चात भावों में ग्रह अंकित करते हैं। लग्न कुंडली में जो ग्रह जिस भाव में अंकित है, चलित में उसे अंकित करने के लिए भाव का विस्तार देखा जाता है अर्थात भाव का प्रारंभ और समाप्ति स्पष्ट।
उदाहरण लग्न कुंडली में तृतीय भाव में गुरु और चंद्र अंकित हैं पर चलित कुंडली में चंद्र चतुर्थ भाव में अंकित है क्योंकि जब तृतीय भाव का विस्तार देखकर अंकित करेंगे तो ऐसा होगा। तृतीय भाव कर्क राशि के 150 32‘49’’ से प्रारंभ होकर सिंह राशि के 120 21‘07’’ पर समाप्त होता है। गुरु और चंद्र स्पष्ट क्रमशः सिंह राशि के 080 02‘12’’ और 220 55‘22‘‘ पर हैं। यहां यदि देखें तो गुरु के स्पष्ट अंश सिंह 080 02‘12’’, तृतीय भाव प्रारंभ कर्क 150 32‘49’’ और भाव समाप्त सिंह 210 21‘07’’ के मध्य हैं, इसलिए गुरु तृतीय भाव में अंकित होगा। चंद्र स्पष्ट अंश सिंह 220 55‘22’’ भाव मध्य से बाहर आगे की ओर है, इसलिए चंद्र को चतुर्थ भाव में अंकित करेंगे। इसी तरह सभी ग्रहों को भाव के विस्तार के अनुसार अंकित करेंगे। उदाहरण कुंडली में सूर्य, बुध एवं राहु के स्पष्ट अंश भी षष्ठ भाव के विस्तार से बाहर आगे की ओर हैं, इसलिए इन्हें अग्र भाव सप्तम में अंकित किया गया है।

प्रश्न: चलित कुंडली में ग्रहों के साथ-साथ राशियां भी भावों में बदल जाती हैं, कहीं दो भावों में एक ही राशि हो तो इससे फलित में क्या अंतर आता है?

उत्तर: हर भाव में ग्रहों के साथ-साथ राशि का भी महत्व है। चलित कुंडली का महत्व इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि हमें भावों के स्वामित्व का भली-भांति ज्ञान होता है। लग्न कुंडली तो लगभग दो घंटे तक एक सी होगी लेकिन समय के अनुसार परिवर्तन तो चलित कुंडली ही बतलाती है। जैसे ही राशि भावों में बदलेगी भाव का स्वामी भी बदल जाएगा। स्वामी के बदलते ही कुंडली में बहुत परिवर्तन आ जाता है। कभी योगकारक ग्रह की योगकारकता समाप्त हो जाती है तो कहीं अकारक और अशुभ ग्रह भी शुभ हो जाता है। ग्रह की शुभता-अशुभता भावों के स्वामित्व पर निर्भर करती है। इसलिए फलित में विशेष अंतर आ जाता है। उदाहरण लग्न कुंडली में एक से द्वादश भावों के स्वामी क्रमशः बुध, चंद्र, सूर्य, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, शनि, गुरु, मंगल और शुक्र और चलित में एक से द्वादश भावों के स्वामी क्रमशः बुध, चंद्र, चंद्र, सूर्य, बुध, मंगल, गुरु, शनि, शनि, शनि, गुरु और शुक्र हैं। इस तरह से देखें तो लग्न कुंडली में मंगल अकारक है लेकिन चलित में वह अकारक नहीं रहा। सूर्य लग्न में तृतीय भाव का स्वामी होकर अशुभ है लेकिन चलित में चतुर्थ का स्वामी होकर शुभ फलदायक हो गया है। शुक्र, जो शुभ है, सिर्फ द्वादश का स्वामी होकर अशुभ फल देने वाला हो गया है। इसलिए भावों के स्वामित्व और शुभता-अशुभता के लिए भी चलित कुंडली फलित में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

प्रश्न: चलित में ग्रह जब भाव बदल लेता है तो क्या हम यह मानें कि ग्रह राशि भी बदल गई?

उत्तर: ग्रह सिर्फ भाव बदलता है, राशि नहीं। ग्रह जिस राशि में जन्म के समय स्पष्ट होता है उसी राशि में रहता है। ग्रह उस भाव का फल देगा जिस भाव में चलित कुंडली में वह स्थित होता है। जैसे कि उदाहरण लग्न कुंडली में सूर्य, बुध, राहु वृश्चिक राशि में स्पष्ट हुए लेकिन चलित में ग्रह सप्तम भाव में हैं तो इसका यह मतलब नहीं कि वे धनु राशि के होंगे। ये ग्रह वृश्चिक राशि में रहते हुए सप्तम भाव का फल देंगे।

प्रश्न: क्या चलित में ग्रहों की दृष्टि में भी परिवर्तन आता है?

उत्तर: ग्रहों की दृष्टि कोण के अनुसार होती है। अतः लग्नानुसार दृष्टि का विचार करना चाहिए। लेकिन जो ग्रह चलित में भाव बदल लेते हैं उनकी दृष्टि लग्नानुसार करना ठीक नहीं है और न ही चलित कुंडली के अनुसार। अतः दृष्टि के लिए ग्रहों के अंशादि का विचार करना ही उत्तम है।

प्रश्न: निरयण भाव चलित और चलित कुंडली में क्या अंतर है?

उत्तर: चलित कुंडली में भाव का विस्तार भाव प्रारंभ से भाव समाप्ति तक है और भावमध्य भाव का स्पष्ट माना जाता है। लेकिन निरयण भाव में लग्न को ही भाव का प्रारंभ माना जाता है अर्थात जो भाव चलित कुंडली में भाव मध्य है, निरयण भाव चलित में वह भाव प्रारंभ या भाव संधि है। इस प्रकार एक भाव का विस्तार भाव प्रारंभ से दूसरे भाव के प्रारंभ तक माना जाता है। वैदिक ज्योतिष मे चलित को ही महत्व दिया गया है। कृष्णमूर्ति पद्धति में निरयण भाव को महत्व दिया गया है।

प्रश्न: जन्मपत्री लग्न कुंडली से देखनी चाहिए या चलित कुंडली से?

उत्तर: जन्मपत्री चलित कुंडली से देखनी चाहिए क्योंकि चलित में ग्रहों और भाव राशियों की स्पष्ट स्थिति दी जाती है।

प्रश्न: क्या भाव संधि पर ग्रह फल देने में असमर्थ हैं?

उत्तर: कोई ग्रह उसी भाव का फल देता है जिस भाव में वह रहता है। जो ग्रह भाव संधि में आ जाते हैं वे लग्न के अनुसार भाव के फल न देकर चलित के अनुसार भाव फल देते हैं, लेकिन वे फल कम देते हैं ऐसा नहीं है। वे चलित भाव के पूरे फल देते हैं।

प्रश्न: चलित कुंडली में दो भावों में एक राशि कैसे आ जाती है?

उत्तर: हां, ऐसा हो सकता है। यदि दोनों भावों में भाव मध्य पर एक ही राशि स्पष्ट हो जैसे द्वितीय भाव में कर्क 20 08‘40’’ पर है और तृतीय भाव में कर्क 280 56‘58’’ पर स्पष्ट हुई तो दोनों भावों, द्वितीय और तृतीय में कर्क राशि ही अंकित की जाएगी।

प्रश्न: यदि चलित कुंडली में ग्रह उस भाव में विचरण कर जाए जहां पर उसकी उच्च राशि है तो क्या उसे उच्च का मान लेना चाहिए?

उत्तर: नहीं। ग्रह उच्च राशि में नजर आता है। वास्तव में ग्रह ने भाव बदला है, राशि नहीं। इसलिए वह ग्रह उच्च नहीं माना जा सकता है।

प्रश्न: चलित कुंडली को बनाने में क्या अंतर है ?

उत्तर: चलित कुंडली दो प्रकार से बनाई जाती है - एक, जिसमें भाव की राशियों को दर्शित कर ग्रहों को भावानुसार रख देते हैं। दूसरे, दो भावों के मध्य में भाव संधि बना दी जाती है एवं जो ग्रह भाव बदलते हैं उन्हें भाव संधि में रख दिया जाता है। उदाहरणार्थ निम्न कुंडली दी गई है।

प्रश्न: यदि मंगल लग्न कुंडली में षष्ठ भाव में है और चलित में सप्तम भाव में तो क्या कुंडली मंगली हो जाती है?

उत्तर: चलित कुंडली में ग्रह किस भाव में है इसका महत्व है और मंगली कुंडली भी मंगल की भाव स्थिति के अनुसार ही मंगली कही जाती है। इसलिए यदि चलित में मंगल सप्तम में है तो कुंडली मंगली मानी जाएगी।

प्रश्न: यदि मंगल सप्तम भाव में लग्न
कुंडली में और चलित कुंडली में अष्टम भाव में हो तो क्या कुंडली को मंगली मानें?

उत्तर: मंगल की सप्तम और अष्टम दोनों स्थितियों से कुंडली मंगली मानी जाती है, इसलिए ऐसी स्थिति में मंगल दोष भंग नहीं होता।

प्रश्न: ग्रह किस स्थिति में चलायमान होता है?

उत्तर: यदि ग्रह के स्पष्ट अंश भाव के विस्तार से बाहर हैं तो ग्रह चलायमान हो जाता है।

प्रश्न: किन स्थितियों में चलित में ग्रह और राशि बदलती है?

उत्तर: यदि लग्न स्पष्ट प्रारंभिक या समाप्ति अंशों पर हो तो चलित में ग्रह का भाव बदलने की संभावनाएं अधिक हो जाती हैं क्योंकि किसी भी भाव के मध्य राशि के एक छोर पर होने के कारण यह दो राशियों के ऊपर फैल जाता है। अतः दूसरी राशि में स्थित ग्रह पहली राशि में दृश्यमान होते हैं।

प्रश्न: ग्रह चलित में किस स्थिति में लग्न जैसे रहते हैं?

उत्तर: यदि लग्न स्पष्ट राशि के मध्य में हो और ग्रह भी अपनी राशि के मध्य में अर्थात 5 से 25 अंश के भीतर हों तो ऐसी स्थिति में लग्न और चलित एक से ही रहते हैं।

Thursday, June 27, 2019

ग्रह अशुभ कब देते हैं जानिए

ग्रह कब नहीं देते शुभ फल और क्यों?

सूर्य
सूर्य का संबंध आत्मा से होता है। यदि आपकी आत्मा, आपका मन पवित्र है और आप किसी का दिल दुखाने वाला कार्य नहीं करते हैं तो सूर्यदेव आपसे प्रसन्न रहेंगे। लेकिन किसी का दिल दुखाने (कष्ट देने), किसी भी प्रकार का टैक्स चोरी करने एवं किसी भी जीव की आत्मा को ठेस पहुंचाने पर सूर्य अशुभ फल देता है। कुंडली में सूर्य चाहे जितनी मजबूत स्थिति में हो लेकिन यदि ऐसा कोई कार्य किया है, तो वह अपना शुभ प्रभाव नहीं दे पाता। सूर्य की प्रतिकूलता के कारण व्यक्ति की मान-प्रतिष्ठा में कमी आती है और उसे पिता की संपत्ति से बेदखल होना पड़ता है।

चंद्र
परिवार की स्त्रियों जैसे, मां, नानी, दादी, सास एवं इनके समान पद वाली स्त्रियों को कष्ट देने से चंद्र का बुरा प्रभाव प्राप्त होता है। किसी से द्वेषपूर्वक ली गई वस्तु के कारण चंद्रमा अशुभ फल देता है। चंद्रमा अशुभ हो तो व्यक्ति मानसिक रूप से परेशान रहता है। उसके कार्यों में रुकावट आने लगती है और तरक्की रूक जाती है। जल घात की आशंका बढ़ जाती है। यहां तक कि व्यक्ति मानसिक रोगी भी हो सकता है।
 

मंगल
मंगल का संबंध भाई-बंधुओं और राजकाज से होता है। भाई से झगड़ा करने, भाई के साथ धोखा करने से मंगल अशुभ फल देता है। अपनी पत्नी के भाई का अपमान करने पर भी मंगल अशुभ फल देता है। मंगल की प्रतिकूलता के कारण व्यक्ति जीवन में कभी स्वयं की भूमि, भवन, संपत्ति नहीं बना पाता। जो संपत्ति संचय की होती है वह भी धीरे-धीरे हाथ से छूटने लगती है।

बुध
बहन, बेटी और बुआ को कष्ट देने, साली एवं मौसी को दुखी करने से बुध अशुभ फल देता है। किसी किन्नर को सताने से भी बुध नाराज हो जाता है और अशुभ फल देने लगता है। बुध की अशुभता के कारण व्यक्ति का बौद्धिक विकास रूक जाता है। शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए अशुभ बुध विकट स्थितियां पैदा कर सकता है।

गुरु
अपने पिता, दादा, नाना को कष्ट देने अथवा इनके समान सम्मानित व्यक्ति को कष्ट देने एवं साधु संतों को सताने से गुरु अशुभ फल देने लगता है। जीवन में मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा के कारक ग्रह बृहस्पति के रूठ जाने से जीवन अंधकारमय होने लगता है। व्यक्ति को गंभीर बीमारियां घेरने लगती है और उसका जीवन पल-प्रतिपल कष्टकारी होने लगता है। धन हानि होने लगती है और उसका अधिकांश पैसा रोग में लगने लगता है।

शुक्र
अपने जीवनसाथी को कष्ट देने, किसी भी प्रकार के गंदे वस्त्र पहनने, घर में गंदे एवं फटे पुराने वस्त्र रखने से शुक्र अशुभ फल देता है। चूंकि शुक्र भोग-विलास का कारक ग्रह है अतः शुक्र के अशुभ फलों के परिणामस्वरूप व्यक्ति गरीबी का सामना करता है। जीवन के समस्त भोग-विलास के साधन उससे दूर होने लगते हैं। लक्ष्मी रूठ जाती है। वैवाहिक जीवन में स्थिति विवाह विच्छेद तक पहुंच जाती है। शुक्र की अशुभता के कारण व्यक्ति अपने से निम्न कुल की स्त्रियों के साथ संबंध बनाता है।

शनि
ताऊ एवं चाचा से झगड़ा करने एवं किसी भी मेहनतकश व्यक्ति को कष्ट देने, अपशब्द कहने एवं इसी के साथ शराब, मांस खाने से शनि देव अशुभ फल देते हैं। कुछ लोग मकान एवं दुकान किराये से लेने के बाद खाली नहीं करते अथवा उसके बदले पैसा मांगते हैं तो शनि अशुभ फल देने लगता है। शनि के अशुभ फल के कारण व्यक्ति रोगों से घिर जाता है। उसकी संपत्ति छिन जाती है और वह वाहनों के कारण लगातार दुर्घटनाग्रस्त होने लगता है।

ग्रह उपचार में किस वृक्ष की समिधा का प्रावधान है

ज्योतिषीय उपचारों के लिए यज्ञ में वनस्पति का इस्तेमाल बताया गया है।  जानिये माइंड मन्थन
👌▪️ज्योतिष केअनुसार ग्रह शांति का सबसे सशक्त माध्यम यज्ञ है। 👌

👌▪️बाद में विद्वानों ने स्पष्ट किया है कि कौन-सी वनस्पति के काष्ठ की आहुति देने पर क्या उपचार हो सकता है।

👌▪️यज्ञाग्रि प्रज्वलित रखने के लिए प्रयोग किए जाने वाले काष्ठ को समिधा कहते हैं।

👌▪️प्रत्येक लकड़ी को समिधा नहीं बनाया जा सकता।

👌▪️आह्निक, सूत्रावली में ढाक, फल्गु, वट, पीपल, विकंकल, गूलर, चंदन, सरल, देवदारू, शाल, शैर का विधान है।

👌▪️वायु पुराण में ढाक, काकप्रिय, बड़, पिलखन, पीपल, विकंकत, गूलर, बेल, चंदन, पीतदारू, शाल, खैर को यज्ञ के लिए उपयोगी माना गया है।

👌यज्ञ के लिए पलाश, शमी, पीपल, बड़, गूलर, आम व बिल्व को उपयोगी बताया है। 👌

👌▪️उन्होंने चंदन, पलाश और आम की लकड़ी को तो यज्ञ के लिए सर्वश्रेष्ठ बताया है।

1👌▪️सूर्य के लिए अर्क

2👌▪️चंद्र के लिए ढाक

3👌▪️मंगल के लिए खैर

4👌▪️बुध के लिए अपामार्ग

5👌▪️गुरु के लिए पीपल

6👌▪️शुक्र के लिए गूलर

7👌▪️शनि के लिए शमी

8👌▪️और राहु के लिए दूर्वा

9👌▪️व केतू के लिए कुश वनस्पतियों को उपचार का आधार बनाया जाता है।

👌▪️पर्वतों पर उगने वाले पौधे, मिर्च, शलजम, काली मिर्च व गेहूं को सूर्य के अधिकार में बताया गया है।

👌▪️इसी तरह खोपरा, ठंडे पदार्थ, रसीले फल, चावल और सब्जियां चंद्रमा से संबंधित हैं।

👌▪️नुकीले वृक्ष, अदरक, अनाज, जिन्सें, तुअर दाल और मूंगफली को मंगल से देखा जाएगा।

👌▪️बुध के अधिकार में नर्म फसल, ङ्क्षभडी, मूंग दाल और बैंगन आते हैं।

👌▪️बृहस्पति ग्रह से केले के वृक्ष, खड़ी फसल, जड़ें, बंगाली चना और गांठों वाले पादप जुड़े हैं।

👌▪️शुक्र के अधीन फलदार वृक्ष, फूलदार पौधे, पहाड़ी पादप, मटर, बींस और लताओं के अलावा मेवे पैदा करने वाले पादप आते हैं।

👌▪️शनि से संबंधित पादपों में जहरीले और कांटेदार पौधे, खारी सब्जियां, शीशम और तम्बाकू शामिल हैं।

👌▪️राहु और केतू के अधिकार में शनि से संबंधित पादपों के अलावा लहसुन, काले चने, काबुली चने और मसाले पैदा करने वाले पौधे आते हैं।

गाय के गोबर का महत्व

 आयुर्वेद ग्रंथों  में हमारे ऋषि मुनियों ने पहले ही बता दिया गया  था कि   *धोवन पानी पीने का वैज्ञानिक तथ्य और आज की आवश्यकता* वायुमण्डल में...