Sunday, August 4, 2019

अध्यात्म क्या है एक दृष्टि

*अध्यात्म*

*अध्यात्म वह है जो आत्मा के अध्यायों का अध्ययन करने लिए प्रेरित करता है । जिसके माध्यम से प्राणी मात्र के प्रति कल्याण की भावना स्वतः ही उत्पन्न होने लगती है ।* 
*अध्यात्म में भौतिक अभौतिक दोनों प्रकार के साधनों की आवश्यकता ही नहीं होती है उसका मूल साधन और साधना का केंद्र स्वय का चित्त  होता है  जो चित्त वृत्तियां पर नियंत्रण करने में सक्षम हो जाता है ।*

अध्यात्म के क्षेत्र में भौतिक उपकरणों की जरूरत ही नहीं होती है वहां तो -
योग, ध्यान , भाव,  परिणाम, आत्मा, स्वाध्याय , चित्त आदि अंतः उपकरण
 एवम गुरु, गुरु चर्या, चारित्र, ज्ञान ,तप, साधना, ग्रंथ, सत्संगति इसके बाह्य उपकरण के रूप में कार्य करते हैं ।

अतः कहा जा सकता है कि मानव आधात्मिक साधना से सुरक्षित है

क्योकि भौतिक साधनों से मुख्य रूप से आत्मा के आध्यात्म का घात होता है ।
कलिकाल के मानव का मन बहुत जल्दी चंचल एवम पतित भी हो जाता है । साधना को रोक साधनों के उपयोग से अपने साध्य से भृमित हो जाता है

भौतिक साधन संयम को भंग कर असंयम को उत्पन्न करने में निमित्त बन जाते हैं। साधनों के नाम --

टेलीविजन के असंयमित सीरियल और कामुक चित्र
मोबाइल 
इंटरनेट (अंतः जाल)


अध्यात्म का संबंध मन से होता है मन ही इंद्रियों का राजा होता है अर्थात छठी इंद्रिय जिस पर आधारित है। पांचों इंद्रियां यदि मन में आध्यात्मिकता का गुणारोपण वहो जाता है तो इंद्रियां संतुलित हो जाती हैं जो मानव के  मन वचन के सवांगीण विकास में सहायक होकर मानव जीवन को  लब्धियों से युक्त बना देता है ।

 *आधुनिकता मानव मन पर भौतिकता विषय भोग की इच्छाएं,  असंतुष्टि और वाञ्छाओं इच्छाओं के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करने में सहायता प्रदान करता है ।*
 अध्यात्म  मानव जीवन को सफल एवं संतुष्ट बनाकर दर्शन ज्ञान चारित्र को उच्च शिखर तक पहुंचाती है।
 *अध्यात्म आत्मा से परमात्मा बनने का एक सोपान है जो आत्मा को बहिर्मुखता से अंतर्मुखता  की ओर ले जाता है जो जीव की युक्ति पूर्वक मुक्ति दिलाने में सहायक है ।*

*वही आधुनिकता मानव की अंतर्मुखता से  बहिर्मुखता की ओर लाती है ।*

*जो संसार को बढ़ाने तथा मानव जीवन को असंतुष्टीकरण की ओर ले जा उसे असंवेदनशील बना देती है यथा मानव के प्रति व्यक्तिगत संबंधों के प्रति, सामाजिकता के प्रति, परमार्थ के प्रति आदि अनेक असंवेदनशीलता उत्पन्न हो जाती है।*
आध्यात्मिकता मानव को अभ्यस्त बनाती है ---आत्म सुख के प्रति
किंतु आधुनिकता व्यस्त बनाती है- स्वार्थ के प्रति ।


अध्यात्म का अर्थ है अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना,मनना और दर्शन करना अर्थात अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना |गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरुप अर्थात जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है |
"परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते "|


आत्मा परमात्मा का अंश है यह तो सर्विविदित है | जब इस सम्बन्ध में शंका या संशय,अविश्वास की स्थिति अधिक क्रियमान होती है तभी हमारी दूरी बढती जाती है और हम विभिन्न रूपों से अपने को सफल बनाने का निरर्थक प्रयास करते रहते हैं जिसका परिणाम नाकारात्मक ही होता है |

ये तो असंभव सा जान पड़ता है-मिटटी के बर्तन मिटटी से अलग पहचान बनाने की कोशिश करें तो कोई क्या कहे ? यह विषय विचारणीय है |

अध्यात्म की अनुभूति सभी प्राणियों में सामान रूप से निरंतर होती रहती है | स्वयं की खोज तो सभी कर रहे हैं,परोक्ष व अपरोक्ष रूप से |

परमात्मा के असीम प्रेम की एक बूँद मानव में पायी जाती है जिसके कारण हम उनसे संयुक्त होते हैं किन्तु कुछ समय बाद इसका लोप हो जाता है और हम निराश हो जाते हैं,सांसारिक बन्धनों में आनंद ढूंढते ही रह जाते हैं परन्तु क्षणिक ही ख़ुशी पाते हैं |

जब हम क्षणिक संबंधों,क्षणिक वस्तुओं को अपना जान कर उससे आनंद मनाते हैं,जब की हर पल साथ रहने वाला शरीर भी हमें अपना ही गुलाम बना देता है | हमारी इन्द्रियां अपने आप से अलग कर देती है यह इतनी सूक्ष्मता से करती है - हमें महसूस भी नहीं होता की हमने यह काम किया है ?

जब हमें सत्य की समझ आती है तो जीवन का अंतिम पड़ाव आ जाता है व पश्चात्ताप के सिवाय कुछ हाथ नहीं लग पाता | ऐसी स्थिति का हमें पहले ही ज्ञान हो जाए तो शायद हम अपने जीवन में पूर्ण आनंद की अनुभूति के अधिकारी बन सकते हैं |हमारा इहलोक तथा परलोक भी सुधर सकता है |

अब प्रश्न उठता है की यह ज्ञान क्या हम अभी प्राप्त कर सकते हैं ? हाँ ! हम अभी जान सकते हैं की अंत समय में किसकी स्मृति होगी, हमारा भाव क्या होगा ? हम फिर अपने भाव में अपेक्षित सुधार कर सकेंगे | गीता के आठवें अध्याय श्लोक संख्या आठ में भी बताया गया है

यंयंवापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् |

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः ||

अर्थात-"हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है,  उस-उस को ही प्राप्त होता है ;क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है |"

एक संत ने इसे बताते हुए कहा था की सभी अपनी अपनी आखें बंद कर यह स्मरण करें की सुबह अपनी आखें खोलने से पहले हमारी जो चेतना सर्वप्रथम जगती है उस क्षण हमें किसका स्मरण होता है ? बस उसी का स्मरण अंत समय में भी होगा | अगर किसी को भगवान् के अतिरिक्त किसी अन्य चीज़ का स्मरण होता है तो अभी से वे अपने को सुधार लें और निश्चित कर लें की हमारी आँखें खुलने से पहले हम अपने चेतन मन में भगवान् का ही स्मरण करेंगे |बस हमारा काम बन जाएगा नहीं तो हम जीती बाज़ी भी हार जायेंगे |

कदाचित अगर किसी की बीमारी के कारण या अन्य कारण से बेहोशी की अवस्था में मृत्यु हो जाती है तो दीनबंधु भगवान् उसके नित्य प्रति किये गए इस छोटे से प्रयास को ध्यान में रखकर उन्हें स्मरण करेंगे और उनका उद्धार हो जाएगा क्योंकि परमात्मा परम दयालु हैं जो हमारे छोटे से छोटे प्रयास से द्रवीभूत हो जाते हैं |

ये विचार मानव-मात्र के कल्याण के लिए समर्पित है |

सत्यम शिवम् सुन्दरम


आध्यात्म शब्द संस्कृत भाषा का है। जिन लोगों को संस्कृत भाषा नहीं भी आती है वो भी इस शब्द का प्रयोग करते हैं क्योंकि यह लगभग हर भारतीय भाषा में वर्णित है। अध्यात्म का व्यापक रूप से अर्थ है परमार्थ चिंतन, लेकिन इस शब्द के मूल में इसके दूसरे अर्थ भी देखना आवश्यक है। यह एक संस्कृत शब्द है। ग्रीक, लेटिन और फारसी की तरह ही संस्कृत भी पुरातन भाषा है। कई पुरातन भाषाओं की तरह ही संस्कृत भाषा में ज़्यादातर शब्द जड़ या मूल से लिए गए हैं।

अध्यात्म शब्द उपसर्ग ‘आधी’ और ‘आत्मा’ का समास है। ‘आत्मा’, आत्मन शब्द का संक्षिप्त रूप है, जो सांस लेने, आगे बढने आदि से लिया गया है। ‘आत्मन’ शब्द का अर्थ आत्मा से है जिसमें जीवन और संवेदना के सिद्धान्त, व्यक्तिगत आत्मा, उसमें रहने वाले अस्तित्व, स्वयं, अमूर्त व्यक्ति, शरीर, व्यक्ति या पूरे शरीर को एक ही और विपरीत भी मानते हुए अलग-अलग अंगों में ज्ञान, मन, जीवन के उच्च व्यक्तिगत सिद्धान्त, ब्राह्मण, अभ्यास, सूर्य, अग्नि, और एक पुत्र भी शामिल है। उपसर्ग ‘आदी’ को क्रिया और संज्ञा के साथ जोड़ दिया जाता है और जिसका अर्थ यह भी हो सकता है कि ऊपर से, उसमें उपस्थित, बाद में, इसके बजाय, ऊपर, किसी की तुलना में, ऊपर, फिर उसके भी ऊपर और कोई विषय समाहित हो। अध्यात्म का अर्थ आत्मा या आत्मन, जो सर्वोच्च आत्मा है, का स्वागत करे, जो उसकी खुद की है, स्वयं से या व्यक्तिगत व्यक्तित्व से संबन्धित हो। इसका यह भी अर्थ हो सकता है कि विवेकी व्यक्तित्व जो वास्तविकता को अवास्तविकता से अलग कर सके। साथ ही यह भी कि आध्यात्मिकता या अनुशासन जो स्वयं के स्वभाव की अनुभूति करा सके।

आध्यात्म का अर्थ व्यक्तिगत या खुद का स्वभाव होता है, जो हर शरीर में सर्वोच्च भाव के रूप में ब्राह्मण की तरह रहता है। इसका अर्थ, जो अस्तित्व के स्वयं के रूप में शरीर में निवास करती है, आत्मा, वह शरीर को उसके रहने के लिए अधिकृत करती है और जो परम विश्लेषण का उच्च स्तर है। अध्यात्म भी ज्ञान अर्जित करता है जो आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता और आखिरकार मोक्ष या मुक्ति तक ले जाता है। यह ज्ञान अध्यात्म से संबन्धित है, जो स्वयं से तो संबन्धित है ही साथ ही स्वयं और दूसरी आत्मा के बीच के संबंध से भी संबन्धित है। अध्यात्म, आत्मा के ज्ञान से संबन्धित है, और जिस रास्ते पर चलकर ये प्राप्त हो सकता है, वह ज्ञान अनंत है। अध्यात्म का अर्थ उस ब्राह्मण के बारे में बताना है, जो परम सच्चाई है। शास्त्रों के पढ़ने और किसी के आत्मा के स्वभाव को समझना ही अध्यात्म कहलता है। इसका अर्थ भगवान के सामने आत्म समर्पण करना और अपने अहंकार को तिलांजलि देना है।

वह जो कुछ स्वयं से संबन्धित है, जिसमें मन, शरीर, ऊर्जा शामिल हैं, अध्यात्म कहलता है। यह शरीर और चित्त में उत्पन्न होने वाली परेशानियां भी दर्शाता है, जो जीव में उत्पन्न होने वाली तीन परेशानियों में से एक है। बाकी दो परेशानियाँ, आधिभौतिका और अधिदैविका हैं। आधिभौतिका दूसरे जीवों के द्वारा होतीं हैं, और अधिदैविका प्राकृतिक और ब्रह्मांडीय शक्तियों के द्वारा।

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