Tuesday, August 27, 2019

नवम भाव का महत्व

नवम भाव का महत्व
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जन्मकुंडली का नौवां घर सर्वाधिक शुभ घरों में गिना जाता है | इस घर का अपना विशेष महत्व है | मैंने जीवन में इस घर का प्रभाव स्वयं अनुभव करके देखा है | अक्सर हम राजयोग के बारे में बात करते हैं | हर व्यक्ति की कुंडली में राजयोग और दरिद्र योग मिल जायेंगे | हर योग की कुछ समय अवधि रहती है | दो तीन साल से लेकर पांच छह साल तक ही ये योग प्रभावशाली रहते हैं | जिस राजयोग के विषय में मैं सोच रहा हूँ अलग है | नवम भाव से बनने वाला योग पूरे जीवन में प्रभाव कारी रहता है |
कुछ लोगों को आगे बढ़ने के अवसर ही नहीं मिल पाते और कुछ लोग अवसर मिलते ही बहुत दूर निकल जाते हैं | बदकिस्मती जो जीवन बदल दे इसी घर की देन होती है | खुशकिस्मती जो अगली पीढ़ियों के लिए भी रास्ता साफ़ कर दे नवम भाव का प्रबल होना दर्शाती है |
मनपसंद जीवनसाथी पाने की आस में पूरा जीवन गुजर जाता है उसके साथ जिसे कभी पसंद किया ही नहीं |  जिन्दगी के साथ समझौता कर लेना या यह मान लेना कि यही नसीब था इन घटनाओं के लिए नवम भाव ही उत्तरदायी है |
आस लगाकर बैठे हजारों हजार लोग भाग्य के पीछे भागते रहते हैं और यह भी सच है कि इस दौड़ में हम सब हैं | प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हर कोई भाग्य की और देख रहा है | किस्मत का यह ताना बाना अपने आप में विचित्र है | भाग्य को समझ पाना आसान नहीं परन्तु जन्मकुंडली के द्वारा एक कोशिश की जा सकती है | तो आइये जानते हैं कैसे आपकी जन्मकुंडली का नवम भाव आपके जीवन को प्रभावित करता है |

नवम भाव और राज योग
नवम भाव किस्मत का है | यहाँ बैठे ग्रह आपके भाग्य को बहुत हद तक प्रभावित करते हैं | यदि यहाँ कोई भी ग्रह न हो तो भी यहाँ स्थित राशी के स्वामी को देखा जाता है | नवम भाव भाग्य का और दशम भाव कर्म का है | जब इन दोनों स्थानों के ग्रह आपस में किसी भी प्रकार का सम्बन्ध रखते हैं तब राजयोग की उत्पत्ति होती है | राजयोग में साधारण स्थिति में व्यक्ति सरकारी नौकरी प्राप्त करता है | नवम और दशम भाव का आपस में जितना गहरा सम्बन्ध होगा उतना ही अधिक बड़ा राज व्यक्ति भोगेगा | मंत्री, राजनेता, अध्यक्ष आदि राजनीतिक व्यक्तियों की कुंडली में यह योग होना स्वाभाविक ही है |

नवम भाव और दुर्भाग्य
यदि नवम भाव का स्वामी ग्रह सूर्य के साथ १० डिग्री के बीच में हो तो निस्संदेह व्यक्ति भाग्यहीन होता है | यदि नवमेश नीच राशी में हो तो व्यक्ति चाहे करोडपति क्यों न हो एक न एक दिन उसे सड़क पर आना पड़ ही जाता है | यदि नवमेश १२वे भाव में हो तो व्यक्ति का भाग्य अपने देश में नहीं चमकता | विदेश में जाकर वहां कष्ट उठाकर जीना पड़ता है | उसकी यही मेहनत उसके भाग्य का निर्माण करती है |
नवम भाव का स्वामी बलवान हो या निर्बल, उसकी दशा अन्तर्दशा में व्यक्ति को अवसर खूब मिलते हैं | यदि नवमेश अच्छी स्थिति में होगा तो व्यक्ति अवसर का लाभ उठा पायेगा | अन्यथा अवसर पर अवसर ऐसे ही निकल जाते हैं जैसे मुट्ठी में से रेत |
पाप ग्रह इस स्थान में बैठकर भाग्य की हानि करते हैं और शुभ ग्रह मुसीबतों से बचाते हैं | इस स्थान पर बुध, शुक्र, चन्द्र और गुरु का होना व्यक्ति के उज्ज्वल भविष्य को दर्शाता है | मंगल, शनि, राहू और केतु इस स्थान में बैठकर व्यक्ति को दुर्भाग्य के अवसर प्रदान करते हैं | सूर्य का यहाँ होना निस्संदेह एक बहुत बड़ा राजयोग है | सूर्य स्वयं ग्रहों का राजा है और जब राजा ही भाग्य स्थान में बैठ जाए तो राजयोग स्पष्ट हो जाता है |
कोई भी ग्रह चाहे वह पाप ग्रह मंगल, शनि ही क्यों न हों, इस स्थान में यदि अपनी राशी में हो तो व्यक्ति बहुत भाग्यशाली हो जाता है | पाप ग्रहों से अंतर केवल इतना पड़ता है कि उसके अशुभ कर्मों में भाग्य उसका साथ देता है |

Sunday, August 25, 2019

कुंडली मे चतुर्थ भाव का महत्व

कुंडली मे चतुर्थ भाव का महत्व
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चतुर्थ भाव सुख स्थान या मातृ स्थान के नाम से जाना जाता है| इस भाव में व्यक्ति को प्राप्त हो सकने वाले समस्त सुख विद्यमान है इसलिए इसे सुख स्थान कहते हैं| मनुष्य का प्रथम सुख माता के आँचल में होता है| केवल वही है जो व्यक्ति की तब तक रक्षा करती है जब तक वह अपने सुख को अर्जित करने में सक्षम न हो जाए| चतुर्थ भाव व्यक्ति की माता से संबंधित समस्त विषयों की जानकारी भी देता है इसलिए इसे मातृ भाव भी कहा जाता है| तृतीय भाव से दूसरा भाव होने के कारण यह भाई-बहनों के धन को भी सूचित करता है| ज्योतिष में यह विष्णु स्थान है तथा एक शुभ भाव माना जाता है| परंतु यदि शुभ ग्रह इस भाव का स्वामी हो तो उसे केन्द्राधिपत्य दोष लगता है|
यह केंद्र भावों में से एक भाव माना गया है| मानव जीवन में इस भाव का बहुत अधिक महत्व है| किसी भी मनुष्य के पास भौतिक साधन कितनी भी अधिक मात्रा में क्यों न हों यदि उसके जीवन में सुख-शांति ही नही तो क्या लाभ? इसलिए इस भाव से मनुष्य को प्राप्त होने वाले सभी प्रकार के सुखों का विचार किया जाता है| जन्मकुंडली में यह भाव उत्तर दिशा तथा अर्द्धरात्रि को प्रदर्शित करता है| इस भाव से सुख के अतिरिक्त माता, वाहन, शिक्षा, वक्षस्थल, पारिवारिक सुख, भूमि, कृषि, भवन, चल-अचल संपति, मातृ भूमि, भूमिगत वस्तुएं, मानसिक शांति आदि का विचार किया जाता है| चतुर्थ भाव मुख्य केंद्र स्थान है| “द्वितीय केंद्र” के नाम से प्रसिद्ध यह कालपुरुष के वक्षस्थल का कारक है| यही कारण है कि इस जीवन में पर्याप्त सुख व आनंद प्राप्त करने के लिए व्यक्ति का हृदय निर्मल होना चाहिए|

चतुर्थ भाव से निम्नलिखित विषयों का विचार किया जाता है-
सुख- चतुर्थ भाव से हम किसी भी व्यक्ति के जीवन के समस्त सुखों का विश्लेषण करते हैं| यह भाव मातृ स्नेह एवं उनसे प्राप्त संरक्षण, पारिवारिक सदस्यों, निवास, वाहन आदि से प्राप्त होने वाले सुखों को दर्शाता है|
माता- यह भाव व्यक्ति की माता, उनका स्वभाव, चरित्र तथा विशेषताओं को सूचित करता है| मनुष्य की माता को जो सुख-सुविधाएं प्राप्त होंगी वे सब इस भाव से तथा मातृ कारक चन्द्र के आधार पर देखी जाती हैं|
निवास(घर)- यह भाव मनुष्य के निवास स्थान अथवा घर का भी प्रतीक है| किसी भी व्यक्ति के सुखमय जीवन के लिए उसके पास निवास स्थान होना अनिवार्य है व्यक्ति केवल गृह में ही विश्राम कर सकता है, अन्य किसी स्थान पर नहीं| मनुष्य का निजी घर उसका अतिरिक्त सुख ही है|
संपति- यह भाव चल व अचल दोनों प्रकार की संपति को दर्शाता है| शुक्र चल संपति जैसे मोटर, वाहन का कारक है तथा मंगल अचल संपति का कारक होता है|
कृषि- यह भाव भूमिगत वस्तुओं का प्रतीक है इसलिए यह स्थान कृषि से भी जुड़ा हुआ है| चतुर्थ भाव का दशम भाव व मंगल से संबंध होना कृषि अथवा कृषि-उत्पादों से संबंधित व्यवसाय का सूचक है|
जीवनसाथी का कर्मस्थान- यह भाव सप्तम स्थान(जीवनसाथी) से दशम है इसलिए यह जीवनसाथी के कार्यक्षेत्र व उसकी आय को बताता है|
शिक्षा- यह भाव व्यक्ति की शिक्षा संबंधी संभावनाओं को दर्शाता है| मनुष्य कितनी शिक्षा प्राप्त करने में सक्षम है और वह किस प्रकार की शिक्षा ग्रहण करेगा यह इस भाव से ज्ञात हो सकता है|
संतान अरिष्ट- यह भाव पंचम स्थान से द्वादश है अतः यह संतान के अरिष्ट का सूचक माना जाता है| इस भाव के स्वामी की दशा-अंतर्दशा में किसी भी व्यक्ति की संतान को शारीरिक कष्ट हो सकता है|
मानसिक शांति- यह भाव व्यक्ति की मानसिक शांति का प्रतीक भी है| चतुर्थ स्थान व चतुर्थेश के पीड़ित होने से व्यक्ति मानसिक शांति से वंचित हो सकता है| इसलिए इस भाव से यह भी पता चलता है कि मनुष्य को मानसिक शांति प्राप्त होगी या नहीं| इस भाव के पीड़ित होने से व्यक्ति को मनोरोग हो सकते हैं|
वक्षस्थल- यह भाव कालपुरुष के वक्षस्थल का सूचक है| इस भाव तथा इसके स्वामी के पीड़ित होने से व्यक्ति को छाती या वक्षस्थल से संबंधित रोग अथवा कष्ट हो सकता है|
वाहन- इस भाव से वाहन संबंधी सूचना भी प्राप्त होती है| किसी व्यक्ति के पास वाहन होगा या नहीं, वाहन की संख्या व उनसे मिलने वाले लाभ की जानकारी भी इस भाव से पता चल सकती है| यदि चतुर्थ भाव, चतुर्थेश तथा वाहन कारक शुक्र कुडंली में बली हों तो मनुष्य को उत्तम वाहन सुख प्राप्त होता है| इसके विपरीत इन घटकों के पीड़ित होने से व्यक्ति वाहन सुख से वंचित हो जाता है|
स्थान परिवर्तन- यह भाव व्यक्ति के निवास से जुड़ा है अतः यदि चतुर्थ स्थान, चतुर्थेश पर शनि, सूर्य, राहु तथा द्वादशेश का प्रभाव हो तो इस पृथकता जनक प्रभाव के कारण मनुष्य को अपना घर-बार, जन्मस्थान तक छोड़ना पड़ता है|
जन-सेवा- चतुर्थ स्थान जनता से संबंधित भाव है| इसलिए यदि चतुर्थ भाव, चतुर्थेश एवं चन्द्र के साथ लग्नेश का युति अथवा दृष्टि द्वारा संबंध हो तो मनुष्य जनसेवा व जनहितकारी कार्यों को कर सकता है|

चतुर्थ भाव में ग्रहों के प्रभाव
1. चौथे घर में सूर्यः इस घर में सूर्य हो तो जातक का जीवन उदासीपूर्ण और दुखों से भरा होता है। व्यक्ति का पूरा जीवन भ्रमण करते गुजर जाता है। जातक पैतृक संपत्ति का मालिक बनता है। चौथे घर में बैठा सूर्य जातक को दर्शनशास्त्र का ज्ञानी, जादू-टोना की जानकारी या चालबाजी करने वाला बनाता है। इस घर का सूर्य यदि मंगल या शनि से प्रभावित हो रहा हो तो जातक को जीवन में कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
2. चौथे घर में चंद्रमाः जातक के पास स्वयं का निवास स्थान होगा। सगे-संबंधियों से मान-सम्मान मिलेगा। जातक ईगो रखने वाला और झगड़ालू प्रवृति का होगा। यदि चंद्रमा इस घर में पीड़ित हुआ तो जातक को माता से दूर करा देगा। चौथे घर में बैठे चंद्रमा परर यदिद गुरु की दृष्टि नहीं पड़ रही हो तो जातक कामुक प्रवृति में लिप्त रहेगा।
3. चौथे घर में मंगलः चौथे घर में मंगल की स्थित जातक के माता या दोस्तों से दूरियां को दर्शाता है। कम उम्र में ही जातक के सिर से मां का साया उठ जाता है। राजनीति के क्षेत्र में जातक को सफलता मिलती है। खुद का घर भी जातक के पास होता है लेकिन घर में खुशियां नहीं रहती हैं।
4. चौथे घर में बुधः इस घर में यदि बुध बैठा हो तो जातक का झुकाव शिक्षा अथवा प्रशासनिक विभाग की तरफ अधिक रहेगा। जातक सत्तारूढ़ सरकार का आलोचक होगा साथ ही अपने जीवन में बहुत ख्याति प्राप्त करेगा। जातक के पिता जमीन से जुड़े व्यक्ति होंगे। चौथे घर का बुध जातक को दूर की यात्रा का सुख प्रदान कराता है साथ ही उसे कला, संगीत का भी आनंद प्राप्त होता है।
5. चौथे घर में गुरुः जातक की सोच दार्शनिक होगी। चौथे घर का गुरु जातक को बहुत बुद्धिमान बनाता है। इस घर में गुरु होने से जातक को समय-समय पर भगवान का आशीर्वाद हासिल होता है। ये जातक बहुत अधिक धार्मिक, सभी काम पाप-पुण्य सोच कर करने वाला और दुश्मनों से डरने वाला होगा।
6. चौथे घर में शुक्रः इस घर में बैठा शुक्र जातक को बहुत भाग्यशाली बनाता है। जातक को जीवन में अनेक वाहनों का सुख प्राप्त होगा। खुद का घर नसीब होगा। जो बेहद साज-सज्जा वाला और साफ-सुथरा होगा। माता के प्रति जातक की बहुत ही अधिक श्रद्धा होगी। इसके जीवन में कई दोस्त बनेंगे।
7. चौथे घर में शनिः जातक का प्रारंभिक जीवन बीमारियों से घिरा होगा। माता से दूर जीवन बीतेगा। वात-पित्त की बीमारी से परेशान रहेगा। स्वभाव से सुस्त होगा। जातक को जीवन में खुद के घर का सुख नहीं मिलेगा और वाहन की तरफ से उसे हमेशा परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। रिशतेदार जातक को पसंद नहीं करेंगे। जातक अकेले जीवन जीना अधिक पसंद करेगा।
8. चौथे घर में राहुः चौथे घर में राहु के प्रभाव से जातक मंद बुद्धि का स्वामी बनता है। बुरे कामों के कारण बदनामी झेलता है। लोगों को ठगने का जातक काम करता है।
9. चौथे घर में केतुः घर और माता के सुख से दूर जातक का जीवन बीतेगा। पैतृक संपत्ति हासिल नहीं होगी। जीवन में कई बार अचानक बदलाव का सामना करना पड़ेगा, साथ ही कई तरह के बुरे अनुभव भी जातक को प्राप्त होंगे।

जैन धर्म का पुरा इतिहास

Digambar mat anusar
मध्य एशिया जैनधर्म

मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में लेनिनग्राड स्थित पुरातत्व संस्थान के प्रोफेसर ‘यूरि जेडनेयोहस्की’ ने २० जून सन् १९६७ को दिल्ली में एक पत्रकार सम्मेलन में कहा था कि ‘‘भारत और मध्य एशिया के बीच संबंध लगभग एक लाख वर्ष पुराना है। अत: यह स्वाभाविक है कि जैनधर्म मध्य एशिया में फैला हुआ था।’’
प्रसिद्ध प्रसीसी इतिहासवेत्ता श्री जे.ए. दुबे ने लिखा है कि आक्सियाना कैस्मिया, बल्ख ओर समरकंद नगर जैनधर्म के आरंभिक केन्द्र थे। सोवियत आर्मीनिया में नेशवनी नामक प्राचीन नगर हैं। प्रोफेसर एम.एस. रामस्वामी आयंगर के अनुसार जैन मुनि संत ग्रीस, रोम, नार्वे में भी विहार करते थे। श्री जान लिंगटन आर्किटेक्ट एवं लेखक नार्वे के अनुसार नार्वे म्यूजियम में ऋषभदेव की मूर्तियाँ हैं। वे नग्न और खड्गासन हैं। तर्जिकिस्तान में सराज्य के पुरातात्विक उत्खनन में प्राप्त पंचमार्क सिक्कों तथा सीलों पर नग्न मुद्रायें बनीं हैं। जो कि सिंधु घाटी सभ्यता के सदृश हैं। हंगरी के ‘बुडापेस्ट’ नगर में ऋषभदेव की मूर्ति एवं भगवान महावीर की मूर्ति भूगर्भ से मिली हैं।
ईसा से पूर्व ईराक, ईरान और फिलिस्तीन में जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु हजारों की संख्या में चहुं ओर फैले थे, पश्चिमी एशिया, मिर, यूनान और इथियोपिया के पहाड़ों और जंगलों में उन दिनों अगणित श्रमण-साधु रहते थे, जो अपने त्याग और विद्या के लिए प्रसिद्ध थे। ये साधु नग्न थे। वानक्रेपर के अनुसार मध्य-पूर्व में प्रचलित समानिया सम्प्रदाय श्रमण का अपभ्रंश है। यूनानी लेखक मिस्र एचीसीनिया और इथियोपिया में दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व बताते हैं।
प्रसिद्ध इतिहास-लेखक मेजर जनरल जे.जी. आर फर्लांग ने लिखा है कि अरस्तू ने ईसवी सन् से ३३० वर्ष पहले कहा है, कि प्राचीन यहूदी वास्तव में भारतीय इक्ष्वाकु-वंशी जैन थे, जो जुदिया में रहने के कारण
‘यहूदी’ कहलाने लगे थे। इस प्रकार यहूदीधर्म का स्रोत भी जैनधर्म प्रतीत होता है। इतिहासकारों के अनुसार तुर्किस्तान में भारतीय-सभ्यता के अनेकानेक चिन्ह मिले हैं। इस्तानबुल नगर से ५७० कोस की दूरी पर स्थित तारा तम्बोल नामक विशाल व्यापारिक नगर में बड़े-बड़े विशाल जैन मंदिर उपाश्रय, लाखों की संख्या में जैन धर्मानुयायी चतुर्विध संघ तथा संघपति जैनाचार्य अपने शिष्यों-प्रशिष्यों के साथ विद्यमान थे। आचार्य का नाम उदयप्रभ सूरि था। वहाँ का राजा और सारी प्रजा जैन धर्मानुयायी थी।
प्रसिद्ध जर्मन-विद्वान वानक्रूर के अनुसार मध्य पूर्व एशिया प्रचलित समानिया सम्प्रदाय श्रमण जैन-सम्प्रदाय था। विद्वान जी.एफ कार ने लिखा है कि ईसा की जन्मशती के पूर्व मध्य एशिया ईराक, डबरान और फिलिस्तीन, तुर्कीस्तान आदि में जैन मुनि हजारों की संख्या में फैलकर अहिंसा धर्म का प्रचार करते रहे। पश्चिमी एशिया, मिस्र, यूनान और इथियोपिया के जंगलों में अगणित जैन-साधु रहते थे।
मिस्र के दक्षिण भाग के भू-भाग को राक्षस्तान कहते हैं। इन राक्षसों को जैन-पुराणों में विद्याधर कहा गया है। ये जैन धर्म के अनुयायी थे। उस समय यह भू भाग सूडान, एबीसिनिया और इथियोपिया कहलाता था। यह सारा क्षेत्र जैनधर्म का क्षेत्र था।
मिस्र (एजिप्ट) की प्राचीन राजधानी पैविक्स एवं मिस्र की विशिष्ट पहाड़ी पर मुसाफिर लेखराम ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘कुलपति आर्य मुसाफिर’ में इस बात की पुष्टि की है कि उसने वहाँ ऐसी मूर्तियाँ देखी है, जो जैन तीर्थ गिरनार की मूर्तियों से मिलती जुलती है।

प्राचीन काल से ही भारतीय
मिस्र, मध्य एशिया, यूनान आदि देशों से व्यापार करते थे, तथा अपने व्यापार के प्रसंग में वे उन देशों में जाकर बस गये थे। बोलान के अनेक जैन मंदिरों का निर्माण हुआ। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत (उच्चनगर) में भी जैनधर्म का बड़ा प्रभाव था। उच्चनगर का जैनों से अतिप्राचीनकाल से संबंध चला आ रहा है तथा तक्षशिला के समान ही वह जैनों का केन्द्र-स्थल रहा है। तक्षशिला, पुण्डवर्धन, उच्चनगर आदि प्राचीन काल में बड़े ही महत्वपूर्ण नगर रहे हैं, इन अतिप्राचीन नगरों में भगवान ऋषभदेव के काल से ही हजारों की संख्या में जैन परिवार आबाद थे। घोलक के वीर धवल के महामंत्री वस्तुपाल ने विक्रम सं. १२७५ से १३०३ तक जैनधर्म के व्यापक प्रसार के लिए योगदान किया था। इन लोगों ने भारत और बाहर के विभिन्न पर्वत शिखरों पर सुन्दर जैन मंदिरों का निर्माण कराया, और उनका जीर्णोद्धार कराया एवं सिंध (पाकिस्तान), पंजाब, मुल्तान, गांधार, कश्मीर, सिंधुसोवीर आदि जनपदों में उन्होंने जैन मंदिरों, तीर्थों आदि का नव निर्माण कराया था, कम्बोज (पामीर) जनपद में जैनधर्म पेशावर से उत्तर की ओर स्थित था। यहाँ पर जैनधर्म की महती प्रभावना और जनपद में बिहार करने वाले श्रमण-संघ कम्बोज, याकम्बेडिग गच्छ के नाम से प्रसिद्ध थे। गांधार गच्छ और कम्बोज गच्छ सातवीं शताब्दी तक विद्यामान थे। तक्षशिला के उजड़ जाने के समय तक्षशिला में बहुत से जैन मंदिर और स्तूप विद्यमान थे।
अरबिया में जैनधर्म इस्लाम के फैलने पर अरबिया स्थित आदिनाथ नेमिनाथ और बाहुबली के मंदिर और अनेक मूर्तियाँ नष्ट हो गई थीं। अरबिया स्थित पोदनपुर जैनधर्म का गढ था, और यह वहाँ की राजधानी थी। वहाँ बाहुबली की उत्तुंग प्रतिमा विद्यमान थी।

: अरबिया में जैनधर्म इस्लाम के फैलने पर अरबिया स्थित आदिनाथ नेमिनाथ और बाहुबली के मंदिर और अनेक मूर्तियाँ नष्ट हो गई थीं। अरबिया स्थित पोदनपुर जैनधर्म का गढ था, और यह वहाँ की राजधानी थी। वहाँ बाहुबली की उत्तुंग प्रतिमा विद्यमान थी।
ऋषभदेव को अरबिया में ‘‘बाबा आदम’’ कहा जाता है। मौर्य सम्राट सम्प्रति के शासनकाल में वहाँ और फारस में जैन संस्कृति का व्यापक प्रचार हुआ था, तथा वहाँ अनेक बस्तियाँ विद्यमान थी।
मक्का में इस्लाम की स्थापना के पूर्व वहाँ जैनधर्म का व्यापक प्रचार प्रसार था। वहाँ पर अनेक जैन मंदिर विद्यमान थे। इस्लाम का प्रचार होने पर जैन मूर्तियाँ तोड़ दी गई, और मंदिरों को मस्जिद बना दिया गया। इस समय वहाँ जो मस्जिदें हैं, उनकी बनावट जैन मंदिरों के अनुरूप है। इस बात की पुष्टि जैम्सफग्र्यूसन ने अपनी ‘विश्व की दृष्टि’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक के पृष्ठ २६ पर की है। मध्यकाल में भी जैन दार्शनिकों के अनेक संघ बगदाद और मध्य एशिया गये थे, और वहाँ पर अहिंसा धर्म का प्रचार किया था।
यूनानियों के धार्मिक इतिहास से भी ज्ञात होता है, कि उनके देश में जैन सिद्धांत प्रचलित थे। पाइथागोरस, पायरों, प्लोटीन आदि महापुरूष श्रमणधर्म और श्रमण दर्शन के मुख्य प्रतिपादक थे। एथेन्स में दिगम्बर जैन संत श्रमणाचार्य का चैत्य विद्यमान है, जिससे प्रकट है कि यूनान में जैनधर्म का व्यापक प्रसार था। प्रोफेसर रामस्वामी ने कहा था कि बौद्ध और जैन श्रमण अपने-अपने धर्मों के प्रचारार्थ यूनान रोमानिया और नार्वें तक गये थे। नार्वे के अनेक परिवार आज भी जैन धर्म का पालन करते हैं। आस्ट्रिया और हंगरी में भूकम्प के कारण भूमि में से बुडापेस्ट नगर के एक बगीचे से महावीर स्वामी की एक प्राचीन मूर्ति हस्तगत हुई थी। अत: यह स्वत: सिद्ध है कि वहाँ जैन श्रावकों की अच्छी बस्ती थी।

सीरियां में निर्जनवासी
: सीरियां में निर्जनवासी श्रमण सन्यासियों के संघ और आश्रम स्थापित थे। ईसा ने भी भारत आकर संयास और जैन तथा भारतीय दर्शनों का अध्ययन किया था। ईसा मसीह ने बाइबिल में जो अहिंसा का उपदेश दिया था, वह जैन संस्कृति और जैन सिद्धांत के अनुरूप है।
स्केडिनेविया में जैन धर्म के बारे में कर्नल टाड अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘राजस्थान’ में लिखते हैं कि ‘‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में चार बुद्ध या मेधावी महापुरुष हुये हैं। इनमें पहले आदिनाथ और दूसरे नेमिनाथ थे। ये नेमिनाथ की स्केडिनेविया निवासियों के प्रथम औडन तथा चीनियों के प्रथम ‘फे’ नामक देवता थे। डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार के अनुसार सुमेर जाति में उत्पन्न बाबुल के सिल्दियन सम्राट नेबुचंद नेजर ने द्वारका जाकर ईसा पूर्व ११४० में लगभग नेमिनाथ का एक मंदिर बनवाया था। सौराष्ट में इसी सम्राट नेबुचंद नेजर का एक ताम्र पत्र प्राप्त हुआ है।’’ कोश्पिया में जैनधर्म मध्य एशिया में बलख क्रिया मिशी, माकेश्मिया, उसके बाद मासवों नगरों अमन, समरवंâद आदि में जैनधर्म प्रचलित था, इसका उल्लेख ईसापूर्व पांचवीं, छठी शती में यूनानी इतिहास में किया गया था। अत: यह बिल्कुल संभव है कि जैनधर्म का प्रचार केश्पिया, रूकाबिया और समरवंâद बोक आदि नगरों में रहा था।
इन्टरनेट से साभार

Saturday, August 10, 2019

जन्म दोष शांति के उपाय


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अशुभ जन्म समय जिनके उपाय करने जरूरी है।

हम जैसा कर्म करते हैं उसी के अनुरूप हमें ईश्वर सुख दु:ख देता है। सुख दु:ख का निर्घारण ईश्वर कुण्डली में ग्रहों स्थिति के आधार पर करता है। जिस व्यक्ति का जन्म शुभ समय में होता है उसे जीवन में अच्छे फल मिलते हैं और जिनका अशुभ समय में उसे कटु फल मिलते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह शुभ समय क्या है और अशुभ समय किसे कहते हैं

अमावस्या में जन्म

ज्योतिष शास्त्र में अमावस्या को दर्श के नाम से भी जाना जाता है। इस तिथि में जन्म माता पिता की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव डालता है। जो व्यक्ति अमावस्या तिथि में जन्म लेते हैं उन्हें जीवन में आर्थिक तंगी का सामना करना होता है। इन्हें यश और मान सम्मान पाने के लिए काफी प्रयास करना होता है।

अमावस्या तिथि में भी जिस व्यक्ति का जन्म पूर्ण चन्द्र रहित अमावस्या में होता है वह अधिक अशुभ माना जाता है। इस अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए घी का छाया पात्र दान करना चाहिए, रूद्राभिषेक और सूर्य एवं चन्द्र की शांति कराने से भी इस तिथि में जन्म के अशुभ प्रभाव को कम किया जा सकता है।

संक्रान्ति में जन्म

संक्रान्ति के समय भी संतान का जन्म अशुभ माना जाता है। इस समय जिस बालक का जन्म होता है उनके लिए शुभ स्थिति नहीं रहती है। संक्रान्ति के भी कई प्रकार होते हैं जैसे रविवार के संक्रान्ति को होरा कहते हैं, सोमवार को ध्वांक्षी, मंगलवार को महोदरी, बुधवार को मन्दा, गुरूवार को मन्दाकिनी, शुक्रवार को मिश्रा व शनिवार की संक्रान्ति राक्षसी कहलाती है।

अलग अलग संक्रान्ति में जन्म का प्रभाव भी अलग होता है। जिस व्यक्ति का जन्म संक्रान्ति तिथि को हुआ है उन्हें ब्राह्मणों को गाय और स्वर्ण का दान देना चाहिए इससे अशुभ प्रभाव में कमी आती है। रूद्राभिषेक एवं छाया पात्र दान से भी संक्रान्ति काल में जन्म का अशुभ प्रभाव कम होता है।

भद्रा काल में जन्म

जिस व्यक्ति का जन्म भद्रा में होता है उनके जीवन में परेशानी और कठिनाईयां एक के बाद एक आती रहती है। जीवन में खुशहाली और परेशानी से बचने के लिए इस तिथि के जातक को सूर्य सूक्त, पुरूष सूक्त, रूद्राभिषेक करना चाहिए। पीपल वृक्ष की पूजा एवं शान्ति पाठ करने से भी इनकी स्थिति में सुधार होता है।

कृष्ण चतुर्दशी में जन्म

पराशर महोदय कृष्ण चतुर्दशी तिथि को छ: भागों में बांट कर उस काल में जन्म लेने वाले व्यक्ति के विषय में अलग अलग फल बताते हैं। इसके अनुसार प्रथम भाग में जन्म शुभ होता है परंतु दूसरे भाग में जन्म लेने पर पिता के लिए अशुभ होता है, तृतीय भाग में जन्म होने पर मां को अशुभता का परिणाम भुगतना होता है, चौथे भाग में जन्म होने पर मामा पर संकट आता है, पांचवें भाग में जन्म लेने पर वंश के लिए अशुभ होता है एवं छठे भाग में जन्म लेने पर धन एवं स्वयं के लिए अहितकारी होता है।

कृष्ण चतुर्दशी में संतान जन्म होने पर अशु प्रभाव को कम करने के लिए माता पिता और जातक का सर्वोषधि से स्नान कराएं  साथ ही सत्पात्रों को आहार एवं संयम पात्र दान देना चाहिए।

समान जन्म नक्षत्र

ज्योतिषशास्त्र के नियमानुसार अगर परिवार में पिता और पुत्र का, माता और पुत्री का अथवा दो भाई और दो बहनों का जन्म नक्षत्र एक होता है तब दोनो में जिनकी कुण्डली में ग्रहों की स्थिति कमज़ोर रहती है उन्हें जीवन में अत्यंत कष्ट का सामना करना होता है।
इस स्थिति में नवग्रह पूजन, नक्षत्र देवता की पूजा, सत्पात्रों को भोजन एवं दान देने से अशुभ प्रभाव में कमी आती है।

सूर्य और चन्द्र ग्रहण में जन्म

सूर्य और चन्द्र ग्रहण को शास्त्रों में अशुभ समय कहा गया है। इस समय जिस व्यक्ति का जन्म होता है उन्हें शारीरिक और मानसिक कष्ट का सामना करना होता है। इन्हें अर्थिक परेशानियों का सामना करना होता है।

सूर्य ग्रहण में जन्म लेने वाले के लिए मृत्यु की संभवना भी रहती है। इस दोष के निवारण के लिए नक्षत्र स्वामी की पूजा करनी चाहिए। सूर्य व चन्द्र ग्रहण में जन्म दोष की शांति के लिए सूर्य, चन्द्र और राहु की पूजा भी कल्यणकारी होती है।

सर्पशीर्ष में जन्म

अमावस्या तिथि में जब अनुराधा नक्षत्र का तृतीय व चतुर्थ चरण होता है तो सर्पशीर्ष कहलाता है। सार्पशीर्ष को अशुभ समय माना जाता है। इसमें कोई भी शुभ काम नहीं होता है। सार्पशीर्ष मे शिशु का जन्म दोष पूर्ण माना जाता है।

जो शिशु इसमें जन्म लेता है उन्हें इस योग का अशुभ प्रभाव भोगना होता है। इस योग में शिशु का जन्म होने पर पार्श्वनाथ भगवान का अभिषेक कराना चाहिए और सत्पात्रों को भोजन एवं दान देना चाहिए इससे दोष के प्रभाव में कमी आती है।

गण्डान्त योग में जन्म

गण्डान्त योग को संतान जन्म के लिए अशुभ समय कहा गया है। इस समय संतान जन्म लेती है तो गण्डान्त शान्ति कराने के बाद ही पिता को शिशु का मुख देखना चाहिए। पराशर महोदय के अनुसार तिथि गण्ड में बैल का दान, नक्षत्र गण्ड में गाय का दान और लग्न गण्ड में स्वर्ण का दान करने से दोष मिटता है।

संतान का जन्म अगर गण्डान्त पूर्व में हुआ है तो पिता और शिशु का अभिषेक करने से और गण्डान्त के अतिम भाग में जन्म लेने पर माता एवं शिशु का सर्वोषधि से स्नान कराने से दोष कटता है।

त्रिखल दोष में जन्म

जब तीन पुत्री के बाद पुत्र का जन्म होता है अथवा तीन पुत्र के बाद पुत्री का जन्म होता है तब त्रिखल दोष लगता है। इस दोष में माता पक्ष और पिता पक्ष दोनों को अशुभता का परिणाम भुगतना पड़ता है। इस दोष के अशुभ प्रभाव से बचने के लिए माता पिता को दोष शांति का उपाय करना चाहिए।

मूल में जन्म दोष

मूल नक्षत्र में जन्म अत्यंत अशुभ माना जाता है। मूल के प्रथम चरण में पिता को दोष लगता है, दूसरे चरण में माता को, तीसरे चरण में धन और अर्थ का नुकसान होता है। इस नक्षत्र में जन्म लेने पर 1 वर्ष के अंदर पिता की, 2 वर्ष के अंदर माता की मृत्यु हो सकती है। 3 वर्ष के अंदर धन की हानि होती है।

इस नक्षत्र में जन्म लेने पर 1वर्ष के अंदर जातक की भी मृत्यु की संभावना रहती है। इस अशुभ स्थित का उपाय यह है कि मास या वर्ष के भीतर जब भी मूल नक्षत्र पड़े मूल शान्ति करा देनी चाहिए। अपवाद स्वरूप मूल का चौथ चरण जन्म लेने वाले व्यक्ति के स्वयं के लिए शुभ होता है।

अन्य दोष

ज्योतिषशास्त्र में इन दोषों के अलावा कई अन्य योग और हैं जिनमें जन्म होने पर अशुभ माना जाता है इनमें से कुछ हैं यमघण्ट योग, वैधृति या व्यतिपात योग एव दग्धादि योग हें। इन योगों में अगर जन्म होता है तो इसकी शांति अवश्य करानी चाहिए।

यहां ग्रहों की पूजन के लिए प्रेरित नहीं किया जा रहा है उनके अधिष्ठाता श्री जिनेन्द्र  प्रभु का पूजन विधानं अनुष्ठान करें ।

ज्योतिषीय योग

ज्योतिषीय योग
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अत्यन्त महत्वपूर्ण योग ।

दीर्घायु, संतान व समृद्धि - लग्नेश, गुरु या शुक्र केंद्र में स्थित हो।

पूर्णायु - लग्नेश गुरु से केंद्र में तथा कोई शुभ ग्रह लग्न से केंद्र में।

सुखी जीवन - लग्नेश लग्न से या चंद्र से केंद्र में हो तथा उदित भाग में हो। (सप्तम से दशम तक व दशम से लग्न तक उदित भाग) या नवमेश-लग्नेश की युति दशम में हो।

उच्च शिक्षा - नवमेश-लग्नेश की युति केंद्र में हो और उन पर पंचमेश की दृष्टि हो।

ख्याति व समृद्धि - लग्नेश उच्च राशि में हो और उन पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो, एक शुभ ग्रह चंद्र या लग्न से युत हो।

दुर्बल शरीर - निर्बल लग्नेश शुष्क राशि (मेष, 5, 9) में स्थित हो और उस पर पाप ग्रह की दृष्टि हो।

राज्य कृपा - लग्न में शुभ ग्रह व नवमेश-दशमेश की युति हो।

जुड़वां संतान - राहु लग्न में, लग्न पर मंगल व शनि की दृष्टि तथा लग्नेश गुलिक से युत हो।

भरण पोषण - चंद्र व सूर्य  एक ही राशि व एक ही नवांश में हों तो जातक का भरण/पालन-पोषण माता सहित तीन स्त्रियां करेंगी।

अतुल धन लाभ - द्वितीयेश केंद्र में व एकादशेश उससे केंद्र में या त्रिकोण में तथा गुरु व शुक्र से युत या दृष्ट हो।

शत्रु से धन लाभ - द्वितीयेश की छठे भाव में एकादशेश से युति होने पर।

दरिद्रता - द्वितीयेश + एकादशेश नीचस्थ व पापग्रह युक्त होने पर।

धन कुबेर - द्वितीयेश परमोच्च स्थिति में होने पर

असीमित धन प्राप्ति - द्वितीयेश एकादश में वर्गोत्तम भी (नवांश में), स्वराशि, निम्न राशि या शुक्र/बुध से युक्त हो, गुरु की दृष्टि भी हो।

नेत्र - बली द्वितीयेश-सुंदर नेत्र, द्वितीयेश 6, 8, 12 में नेत्र कष्ट/नेत्र/प्रकाशहीन की संभावना।

क्रूर व असत्यवादी - द्वितीय में पापग्रह तथा द्वितीयेश भी पापयुक्त होने पर।

भाई-बहनों का सुख - तृतीयेश केंद्र/त्रिकोण/उच्च या स्वराशि के अथवा शुभवर्गों में हो और कारक (मंगल) शुभग्रह से युक्त हो तो भाई-बहनों का सुख निश्चित है।

सुख व वाहन - चतुर्थेश वर्गोत्तम या उच्चस्थ तथा शुभ ग्रह चतुर्थ भावस्थ।

समृद्धि - चतुर्थेश दशम में तथा नवमेश, दशमेश व लग्नेश चतुर्थस्थ।

प्रतिष्ठा - चतुर्थेश शुभ ग्रह हो, उस पर शुभ दृष्टि भी हो तथा चंद्र सशक्त हो।

माता की आयु - चतुर्थेश उच्चस्थ, चतुर्थ में शुभ ग्रह व चंद्रमा बली हो,

गृह तथा भूमि संपत्ति - चतुर्थेश स्थिर राशि (2, 5, 8, 11) तथा शुभ षडवर्गों में, दशमेश उच्चस्थ होने पर भी।

आयु व शिक्षा - गुरु व शुक्र लग्न या चंद्रमा से चतुर्थ में स्थित, बुध उच्चस्थ।

धार्मिक प्रवृत्ति - सूर्य-चतुर्थस्थ, चंद्र-नवमस्थ व मंगल एकादशस्थ।

शराबी - पाप ग्रह 6, 8, 12 में, चतुर्थ में नीचस्थ ग्रह या चतुर्थेश स्वयं नीचस्थ या नीच ग्रह से युति करे।

यात्रा - चतुर्थेश-अष्टमेश चर राशियों में (1, 4, 7, 10) या चर नवांश में हो,उनपर द्वादशेश की दृष्टि हो या द्वादशेश नीच हो।

ऋण - छठे भाव का स्वामी चतुर्थ में, चतुर्थ भाव का स्वामी स्थिर राशि में और दशमेश की दृष्टि पड़े।

गृह संपत्ति - चतुर्थेश निर्बल हो, अष्टम या नीच राशि के निकट हो तो गृह/सम्पत्ति नहीं, यदि जन्म नक्षत्रेश एकादशेश भी हो तो स्वयं के लिए गृह निर्माण करायेगा।

सुख-शांति - दशमेश जलीय राशि में हो तो जल संबंधी व्यवसाय से सुख (व्यवसाय, जल सेना, जल यान, यात्रा)।

दत्तक पुत्र - 1. पंचम में बुध या शनि की राशि तथा शनि/गुलिक से युत/दृष्ट हो। 2. पंचममेश षष्ठ में, षष्ठेश द्वादश में व द्वादशेश लग्न में हो तो।

संतान सुख - पंचमेश शुभ ग्रह युक्त शुभ राशि में हो। पंचम में शुभ ग्रह की दृष्टि हो।पंचम में वृष या तुला राशि हो, शुक्र हो, पाप ग्रह की दृष्टि/प्रभाव से भी कोई बाधा नहीं।

संतान हानि - शनि पंचम में, पंचमेश द्वादश में तथा चंद्र-राहु युति।

पर स्त्री/पुरुष से संतान - ए. स्वराशि के पंचमेश की पंचम में राहु से युति हो और गुरु व चंद्र की दृष्टि न हो। बी. चंद्रमा द्वादश में गुरु अष्टम में पाप प्रभाव में।

संतान संख्या - लग्नेश से पंचम भाव तक जितने अंश हों उन पर 12 से भाग देने पर शेष संख्या।

संतान नाश - राहु उच्चस्थ हो, पंचमेश पापग्रह हो और गुरु नीच राशिस्थ हो।

शत्रु नाशक योग - षष्ठ भाव ए. छठे में पापग्रह, छठे भाव का स्वामी पापस्थ तथा शनि-राहु युति। बी. मंगल छठे में षष्ठेश अष्टम में हो।

पाप कर्म - षष्ठेश व नवमेश दोनों पापग्रह युक्त होकर दशम में षष्ठ में स्थित हो।

मृत्यु - लग्नेश व नवमेश-दशमेश से युत या दृष्ट हो, एकादशेश शुभ हो तो शांतिपूर्ण मृत्यु।

दुर्घटना/प्रेतात्मा पीड़ा - अष्टम भाव का स्वामी छठे में, लग्नेश द्वादश में, चंद्रमा क्रूर राशि/ग्रहों के साथ दुर्घटना या प्रेतात्माओं की पीड़ा।

पीड़ित ग्रहों से रोग -

सूर्य - अग्नि, ज्वर, जलन, क्षय।
चंद्रमा - कफ, अग्नि, धात, घाव।
बुध - गुह्य, उदर, वायु, कुष्ठ।
गुरु - शाप दोष, गुल्भ (जिगर, तिल्ली)।
शुक्र - गुप्तांग।
शनि - रोगों की वृद्धि, गठिया, क्षय
राहु- मिर्गी, फांसी, संक्रामक, नेम, कृमि, प्रेत पिशाच भय। केतु - राहु व मंगल के समान।

दांपत्य सुख - ए. सप्तमेश शुभ ग्रह युक्त या दृष्ट हो। बी. ग्रहों के बल से सुख की प्रचुरता का अनुमान। सप्तमस्थ ग्रहों से जातकों का संबंध पता चलता है। सूर्य सप्तम - जातक को अधिकार में रखने वाला/वाली। चंद्र- कल्पना के श्रोत में बहाव। मंगल - मासिक रक्तस्राव में भी रतिक्रिया पसंद/ आपत्ति नहीं। बुध - नपुंसकता/ बंध्या गुरु - ब्राह्मण/धार्मिक प्रवृत्ति। शुक्र - संदेहास्पद आचरण। शनि - राहु व केतु- नीच जाति या स्तर।

बंध्या - द्वादश में पापग्रह, निर्बल चंद्र व पंचम में सप्तमेश बंध्या।

आचरण संदेहास्पद - ए. शनि सप्तमस्थ व सप्तमेश शनि की राशि में बी. शुक्र मंगल युति राशि या नवांश में हो तो अधिक कामवासना/ अनैतिक व अप्राकृतिक क्रियायें करने वाले।

सदाचारी - सप्तमेश शुभग्रह, सप्तमस्थ शुभ ग्रह व शुक्र केंद्रस्थ हो।

पति/पत्नी की आयु - शुक्र नीचस्थ व दशमेश निर्बल होकर 6, 8, 12 में हो तो अल्पायु, मंगलीक योग भी जीवनसाथी की अल्पायु का कारण।

मंगलीक योग - मंगल 1, 4, 7, 8 या 12 में।

शीघ्र विवाह - बली सप्तमेश शुभ ग्रह की राशि में। शुक्र केंद्र या त्रिकोण में शुक्र द्वितीय में व एकादशेश अपने भाव में, शुक्र चंद्र से सप्तम में शुक्र, लग्न से केंद्र त्रिकोण में।

विलंब से विवाह - लग्न-लग्नेश, सप्तम-सप्तमेश व शुक्र स्थिर राशियों में हो और चंद्रमा चर राशि में हो। ग्रह निर्बल हो (लग्न का स्वामी, सप्तम भाव का स्वामी व शुक्र)। शनि भी ऊपरी योग बनाये तो वृद्धावस्था में विवाह।

अल्पायु - निर्बल अष्टमेश अष्टम में या केंद्र में और लग्नेश भी कमजोर।

मध्यायु - अल्पायु के योगों के साथ लग्नेश व चंद्र बली हो तो मध्यायु।

आयु की वृद्धि - तृतीय भाव में स्वराशि, उच्च या मित्र राशीश हों तो वृद्धि।

दीर्घायु - बुध, गुरु, शुक्र केंद्र त्रिकोणस्थ। - लग्न/लग्नेश चंद्र व सूर्य यदि बली हो तो दीर्घायु व भविष्य भी निष्कंटक व सुख-शांतिपूर्ण।

पैतृक संपत्ति - बली नवमेश दशम में, चंद्र सूर्य से नवम में व गुरु चंद्र से नवम।

धनहीन - पिता चंद्र-मंगल द्वितीय या नवमस्थ और नवमेश नीचस्थ।

समृद्धि व दीर्घायु - शुक्र चतुर्थ में, नवमेश परमोच्च में तथा नवम में गुरु।

पिता की समृद्धि - केंद्रस्थ नवमेश पर गुरु व सूर्य की दृष्टि हो।

पितृ भक्ति - सूर्य केंद्र या त्रिकोण में, नवम में शुभ ग्रह, गुरु लग्न में हो।

पिता की मृत्यु - नवमेश नीचस्थ और उसका स्वामी नवम में हो और तृतीय में पाप ग्रह हो उस पाप ग्रह की दशा में पिता की मृत्य

गंगा स्नान - राहु-सूर्य का संबंध। - संन्यास दशम में मीन राशि, सांसारिक प्रलोभनों का त्याग।

ज्ञान व सम्मान - गुरु-शुक्र की दशम में युति, लग्नेश बली, शनि उच्च के।

सफलता - दशमेश-लग्नेश की एकादश में युति पर मंगल की दृष्टि।

ख्याति - दशमेश केंद्र-त्रिकोण में और गुरु उससे त्रिकोण में

पापकर्म - अष्टमेश-दशमेश का परिवर्तन योग। -

असफलता - दशमेश निर्बल व दशम में पापग्रह युक्त हो।

प्रतिष्ठा - लग्न, दशम व चंद्र बली प्रतिष्ठा प्राप्त।

आयु - दशमेश - नवमेश द्वादश में अल्पायु - राजयोग - बली नवमेश व दशमेश हो, उच्च के ग्रह केंद्र/त्रिकोण में ।
राजदंड- दशम में सूर्य-राहु-मंगल युति हो और शनि द्वारा दृष्ट हो।

भारी आर्थिक लाभ - ए. एकादश में गुरु बी. एकादशेश तीव्रगति का ग्रह स्थिर राशि में हो।

धन लाभ - ए. चंद्रमा द्वितीय में, शुक्र नवम में और गुरु एकादश में। बी. 11 भाव चर राशि में, द्वितीयेश स्थिर ग्रह व द्वितीय में चंद्रमा। - लाभ की सीमा दशमेश व लग्नेश के बल पर निर्भर। - एकादश में पापग्रह व ग्यारहवां भाव का स्वामी पाप ग्रह युत/दृष्ट व लग्न में भी पापग्रह होने पर आप कम व जो भी हो वह भी तुरंत समाप्त। - एकादशेश अस्त हो तो भीख मांगकर उदर पूर्ति। सप्तमेश एकादश में हो तो विवाह पश्चात धनोपार्जन।

नर्क प्राप्ति- राहु, मंगल या सूर्य द्वादश में हो, द्वादशेश नीचस्थ हो तो नर्क प्राप्ति।

स्वर्गलोक - द्वादश में गुरु पर शुभ दृष्टि हो, केतु उच्च का हो तो स्वर्गलोक।

द्वादशेश पापयुक्त तथा द्वादश में भी पाप ग्रह हो तथा उस पर पापग्रह की दृष्टि हो तो अपमानित होकर मातृभूमि का त्याग।

द्वादशेश शुभ ग्रह की राशि में, शुभ दृष्टि भी हो तो सुखपूर्वक भ्रमण।

शनि द्वादश में हो, मंगल की उस पर दृष्टि-संपत्ति दुष्कर्मों में नष्ट।

लग्नेश-द्वादशेश में परिवर्तन योग- दान, धार्मिक व परोपकार के कार्यों में धन व्यय।

Sunday, August 4, 2019

अध्यात्म क्या है एक दृष्टि

*अध्यात्म*

*अध्यात्म वह है जो आत्मा के अध्यायों का अध्ययन करने लिए प्रेरित करता है । जिसके माध्यम से प्राणी मात्र के प्रति कल्याण की भावना स्वतः ही उत्पन्न होने लगती है ।* 
*अध्यात्म में भौतिक अभौतिक दोनों प्रकार के साधनों की आवश्यकता ही नहीं होती है उसका मूल साधन और साधना का केंद्र स्वय का चित्त  होता है  जो चित्त वृत्तियां पर नियंत्रण करने में सक्षम हो जाता है ।*

अध्यात्म के क्षेत्र में भौतिक उपकरणों की जरूरत ही नहीं होती है वहां तो -
योग, ध्यान , भाव,  परिणाम, आत्मा, स्वाध्याय , चित्त आदि अंतः उपकरण
 एवम गुरु, गुरु चर्या, चारित्र, ज्ञान ,तप, साधना, ग्रंथ, सत्संगति इसके बाह्य उपकरण के रूप में कार्य करते हैं ।

अतः कहा जा सकता है कि मानव आधात्मिक साधना से सुरक्षित है

क्योकि भौतिक साधनों से मुख्य रूप से आत्मा के आध्यात्म का घात होता है ।
कलिकाल के मानव का मन बहुत जल्दी चंचल एवम पतित भी हो जाता है । साधना को रोक साधनों के उपयोग से अपने साध्य से भृमित हो जाता है

भौतिक साधन संयम को भंग कर असंयम को उत्पन्न करने में निमित्त बन जाते हैं। साधनों के नाम --

टेलीविजन के असंयमित सीरियल और कामुक चित्र
मोबाइल 
इंटरनेट (अंतः जाल)


अध्यात्म का संबंध मन से होता है मन ही इंद्रियों का राजा होता है अर्थात छठी इंद्रिय जिस पर आधारित है। पांचों इंद्रियां यदि मन में आध्यात्मिकता का गुणारोपण वहो जाता है तो इंद्रियां संतुलित हो जाती हैं जो मानव के  मन वचन के सवांगीण विकास में सहायक होकर मानव जीवन को  लब्धियों से युक्त बना देता है ।

 *आधुनिकता मानव मन पर भौतिकता विषय भोग की इच्छाएं,  असंतुष्टि और वाञ्छाओं इच्छाओं के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करने में सहायता प्रदान करता है ।*
 अध्यात्म  मानव जीवन को सफल एवं संतुष्ट बनाकर दर्शन ज्ञान चारित्र को उच्च शिखर तक पहुंचाती है।
 *अध्यात्म आत्मा से परमात्मा बनने का एक सोपान है जो आत्मा को बहिर्मुखता से अंतर्मुखता  की ओर ले जाता है जो जीव की युक्ति पूर्वक मुक्ति दिलाने में सहायक है ।*

*वही आधुनिकता मानव की अंतर्मुखता से  बहिर्मुखता की ओर लाती है ।*

*जो संसार को बढ़ाने तथा मानव जीवन को असंतुष्टीकरण की ओर ले जा उसे असंवेदनशील बना देती है यथा मानव के प्रति व्यक्तिगत संबंधों के प्रति, सामाजिकता के प्रति, परमार्थ के प्रति आदि अनेक असंवेदनशीलता उत्पन्न हो जाती है।*
आध्यात्मिकता मानव को अभ्यस्त बनाती है ---आत्म सुख के प्रति
किंतु आधुनिकता व्यस्त बनाती है- स्वार्थ के प्रति ।


अध्यात्म का अर्थ है अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना,मनना और दर्शन करना अर्थात अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना |गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरुप अर्थात जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है |
"परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते "|


आत्मा परमात्मा का अंश है यह तो सर्विविदित है | जब इस सम्बन्ध में शंका या संशय,अविश्वास की स्थिति अधिक क्रियमान होती है तभी हमारी दूरी बढती जाती है और हम विभिन्न रूपों से अपने को सफल बनाने का निरर्थक प्रयास करते रहते हैं जिसका परिणाम नाकारात्मक ही होता है |

ये तो असंभव सा जान पड़ता है-मिटटी के बर्तन मिटटी से अलग पहचान बनाने की कोशिश करें तो कोई क्या कहे ? यह विषय विचारणीय है |

अध्यात्म की अनुभूति सभी प्राणियों में सामान रूप से निरंतर होती रहती है | स्वयं की खोज तो सभी कर रहे हैं,परोक्ष व अपरोक्ष रूप से |

परमात्मा के असीम प्रेम की एक बूँद मानव में पायी जाती है जिसके कारण हम उनसे संयुक्त होते हैं किन्तु कुछ समय बाद इसका लोप हो जाता है और हम निराश हो जाते हैं,सांसारिक बन्धनों में आनंद ढूंढते ही रह जाते हैं परन्तु क्षणिक ही ख़ुशी पाते हैं |

जब हम क्षणिक संबंधों,क्षणिक वस्तुओं को अपना जान कर उससे आनंद मनाते हैं,जब की हर पल साथ रहने वाला शरीर भी हमें अपना ही गुलाम बना देता है | हमारी इन्द्रियां अपने आप से अलग कर देती है यह इतनी सूक्ष्मता से करती है - हमें महसूस भी नहीं होता की हमने यह काम किया है ?

जब हमें सत्य की समझ आती है तो जीवन का अंतिम पड़ाव आ जाता है व पश्चात्ताप के सिवाय कुछ हाथ नहीं लग पाता | ऐसी स्थिति का हमें पहले ही ज्ञान हो जाए तो शायद हम अपने जीवन में पूर्ण आनंद की अनुभूति के अधिकारी बन सकते हैं |हमारा इहलोक तथा परलोक भी सुधर सकता है |

अब प्रश्न उठता है की यह ज्ञान क्या हम अभी प्राप्त कर सकते हैं ? हाँ ! हम अभी जान सकते हैं की अंत समय में किसकी स्मृति होगी, हमारा भाव क्या होगा ? हम फिर अपने भाव में अपेक्षित सुधार कर सकेंगे | गीता के आठवें अध्याय श्लोक संख्या आठ में भी बताया गया है

यंयंवापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् |

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः ||

अर्थात-"हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है,  उस-उस को ही प्राप्त होता है ;क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है |"

एक संत ने इसे बताते हुए कहा था की सभी अपनी अपनी आखें बंद कर यह स्मरण करें की सुबह अपनी आखें खोलने से पहले हमारी जो चेतना सर्वप्रथम जगती है उस क्षण हमें किसका स्मरण होता है ? बस उसी का स्मरण अंत समय में भी होगा | अगर किसी को भगवान् के अतिरिक्त किसी अन्य चीज़ का स्मरण होता है तो अभी से वे अपने को सुधार लें और निश्चित कर लें की हमारी आँखें खुलने से पहले हम अपने चेतन मन में भगवान् का ही स्मरण करेंगे |बस हमारा काम बन जाएगा नहीं तो हम जीती बाज़ी भी हार जायेंगे |

कदाचित अगर किसी की बीमारी के कारण या अन्य कारण से बेहोशी की अवस्था में मृत्यु हो जाती है तो दीनबंधु भगवान् उसके नित्य प्रति किये गए इस छोटे से प्रयास को ध्यान में रखकर उन्हें स्मरण करेंगे और उनका उद्धार हो जाएगा क्योंकि परमात्मा परम दयालु हैं जो हमारे छोटे से छोटे प्रयास से द्रवीभूत हो जाते हैं |

ये विचार मानव-मात्र के कल्याण के लिए समर्पित है |

सत्यम शिवम् सुन्दरम


आध्यात्म शब्द संस्कृत भाषा का है। जिन लोगों को संस्कृत भाषा नहीं भी आती है वो भी इस शब्द का प्रयोग करते हैं क्योंकि यह लगभग हर भारतीय भाषा में वर्णित है। अध्यात्म का व्यापक रूप से अर्थ है परमार्थ चिंतन, लेकिन इस शब्द के मूल में इसके दूसरे अर्थ भी देखना आवश्यक है। यह एक संस्कृत शब्द है। ग्रीक, लेटिन और फारसी की तरह ही संस्कृत भी पुरातन भाषा है। कई पुरातन भाषाओं की तरह ही संस्कृत भाषा में ज़्यादातर शब्द जड़ या मूल से लिए गए हैं।

अध्यात्म शब्द उपसर्ग ‘आधी’ और ‘आत्मा’ का समास है। ‘आत्मा’, आत्मन शब्द का संक्षिप्त रूप है, जो सांस लेने, आगे बढने आदि से लिया गया है। ‘आत्मन’ शब्द का अर्थ आत्मा से है जिसमें जीवन और संवेदना के सिद्धान्त, व्यक्तिगत आत्मा, उसमें रहने वाले अस्तित्व, स्वयं, अमूर्त व्यक्ति, शरीर, व्यक्ति या पूरे शरीर को एक ही और विपरीत भी मानते हुए अलग-अलग अंगों में ज्ञान, मन, जीवन के उच्च व्यक्तिगत सिद्धान्त, ब्राह्मण, अभ्यास, सूर्य, अग्नि, और एक पुत्र भी शामिल है। उपसर्ग ‘आदी’ को क्रिया और संज्ञा के साथ जोड़ दिया जाता है और जिसका अर्थ यह भी हो सकता है कि ऊपर से, उसमें उपस्थित, बाद में, इसके बजाय, ऊपर, किसी की तुलना में, ऊपर, फिर उसके भी ऊपर और कोई विषय समाहित हो। अध्यात्म का अर्थ आत्मा या आत्मन, जो सर्वोच्च आत्मा है, का स्वागत करे, जो उसकी खुद की है, स्वयं से या व्यक्तिगत व्यक्तित्व से संबन्धित हो। इसका यह भी अर्थ हो सकता है कि विवेकी व्यक्तित्व जो वास्तविकता को अवास्तविकता से अलग कर सके। साथ ही यह भी कि आध्यात्मिकता या अनुशासन जो स्वयं के स्वभाव की अनुभूति करा सके।

आध्यात्म का अर्थ व्यक्तिगत या खुद का स्वभाव होता है, जो हर शरीर में सर्वोच्च भाव के रूप में ब्राह्मण की तरह रहता है। इसका अर्थ, जो अस्तित्व के स्वयं के रूप में शरीर में निवास करती है, आत्मा, वह शरीर को उसके रहने के लिए अधिकृत करती है और जो परम विश्लेषण का उच्च स्तर है। अध्यात्म भी ज्ञान अर्जित करता है जो आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता और आखिरकार मोक्ष या मुक्ति तक ले जाता है। यह ज्ञान अध्यात्म से संबन्धित है, जो स्वयं से तो संबन्धित है ही साथ ही स्वयं और दूसरी आत्मा के बीच के संबंध से भी संबन्धित है। अध्यात्म, आत्मा के ज्ञान से संबन्धित है, और जिस रास्ते पर चलकर ये प्राप्त हो सकता है, वह ज्ञान अनंत है। अध्यात्म का अर्थ उस ब्राह्मण के बारे में बताना है, जो परम सच्चाई है। शास्त्रों के पढ़ने और किसी के आत्मा के स्वभाव को समझना ही अध्यात्म कहलता है। इसका अर्थ भगवान के सामने आत्म समर्पण करना और अपने अहंकार को तिलांजलि देना है।

वह जो कुछ स्वयं से संबन्धित है, जिसमें मन, शरीर, ऊर्जा शामिल हैं, अध्यात्म कहलता है। यह शरीर और चित्त में उत्पन्न होने वाली परेशानियां भी दर्शाता है, जो जीव में उत्पन्न होने वाली तीन परेशानियों में से एक है। बाकी दो परेशानियाँ, आधिभौतिका और अधिदैविका हैं। आधिभौतिका दूसरे जीवों के द्वारा होतीं हैं, और अधिदैविका प्राकृतिक और ब्रह्मांडीय शक्तियों के द्वारा।

Thursday, August 1, 2019

ज्योतिष की कुछ कहावतें

ज्योतिष के चमत्कारी योग - 2

1)  मंगल पांचवे घर मे-चैन से ना सोये तथा अपनों से धोखा खाये |
2)  गुरु केतू की युति-मुंह पर आलोचना करे |
3)  मंगल का संबंध लग्न या लग्नेश से-पुरुषार्थी बनाए |
4)  शनि का लग्न या लग्नेश से संबंध –स्वयं क्रोध मे अहंकार से सब कुछ गवाए |
5)  गुरु का लग्न या लग्नेश से संबंध- स्वयं ज्ञान की पराकाष्ठा होवे|
6)  गुरु अस्त/वक्री –पाचन तंत्र कमजोर एवं मोटापा |
7)  सम राशि का लग्न,गुरु बलवान-पत्नी शास्त्र मे निपुण वेदो का अर्थ जानने वाली |
8)  छठे भाव मे गुरु- कर्जा चढ़े |
9)  विवाह लग्न मे गुरु- धनवान,3रे सन्तानवान ,5वे-कई पुत्र,10वे-धार्मिक,7,8 मे अशुभ |
10) मंगल पर गुरु की दृस्टी –समझौता वादी प्रवर्ति |
11) मंगल संग राहू-कुछ भी कर ले,मारक गुण |
12) मंगल संग बुध- छल छद्म एवं शरीर मे तेजाब बने |
13) दशमेश का अस्ट्मेश या द्वादशेश से संबंध- जन्म स्थान से दूर सफलता |
14) मंगल का दूसरे घर व द्वितीयेश पर प्रभाव –पत्नी की मृत्यु बाद दूसरा विवाह |
15) सप्तम भाव से नवां भाव मे केतू-पति धार्मिक,शारीरिक सुख कम |
16) बुध लग्नेश हो तो- प्रबंधन कार्य,लेखाकार्य एवं बुध कार्य करे |
17) सप्तम भाव मे वक्री ग्रह –दाम्पत्य जीवन मे अडचने
18) बुध पूर्णस्त –स्मरण शक्ति मे कमी |
19) शुक्र संग चन्द्र-भावुकता ज़्यादा |
20) केंद्र स्थान खाली- गौड़ फादर नहीं |
21) चन्द्र 12वे घर मे –नींद कम रात को जागे |
22) सूर्य/बुध दूसरे भाव मे –पत्नी सुख मे कमी |
23) चन्द्र पर शनि दृस्टी-मानसिक अस्थिरता |डबल माईंड |
24) सप्तमेश नीच राशि का –विवाह मे धोखा |
25) लग्नेश छठे घर मे –सभी के प्रति आशंका एवं डर की भावना |
26) अस्ट्मेश नवमेश की युति-प्रेत बाधा
27) छठे व दूसरे घर के स्वामी का परिवर्तन-प्रतियोगिता द्वारा धननाश |
28) सूर्य चन्द्र जिस भाव मे संग- उस भाव का नाश|
29) सूर्य संग शनि लग्न मे –विवाह देर से |

गाय के गोबर का महत्व

 आयुर्वेद ग्रंथों  में हमारे ऋषि मुनियों ने पहले ही बता दिया गया  था कि   *धोवन पानी पीने का वैज्ञानिक तथ्य और आज की आवश्यकता* वायुमण्डल में...