Saturday, May 29, 2021

भगवती आराधना में वर्णित आयुर्वेदिक तत्व

 भगवती आराधना (Bhagwati Aaradhana) में वर्णित आयुर्वेद-विद्या

Posted on September 28, 2017 By admin

भगवती आराधना (Bhagwati Aaradhana) में वर्णित आयुर्वेद-विद्या

आर्य सर्वगुप्त के शिष्य आचार्य शिकोटि (अपरनम शिभूति अथवा शिवार्य, प्रथम सदी ईस्वी के आसपास) द्वारा विरचित २१७० गाथा प्रमाण ‘भगवती आराधना’ (Bhagwati Aaradhana) (अपरनाम मूलारधना) नामक ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत के महिमामण्डित-ग्रन्थ वस्तुत: ज्ञान-विज्ञान का अद्भूत विश्व-कोष माना जा सकता है। उसमें वर्णित आयुर्विज्ञान सम्बन्धी सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक वर्णन देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार सम्भवत: दीक्षा-पूर्वकाल में कभी स्वयं ही उस क्षेत्र का सिद्धहस्त चिकित्सक तथा चिकित्सा शास्त्र मर्मज्ञ अनुभवी तथा समाजशास्त्री विद्वान-शिक्षक रहा होगा। बहुत सम्भव है कि उसने आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं शरीर-संरचना विज्ञान सम्बन्धी कोई विशाल स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखा हो, जो किसी परिस्थिति-विशेष में विस्मृत, अथवा प्रच्छन्न या नष्ट हो गया हो ?

प्रस्तुत निबन्ध में उक्त ग्रन्थ में वर्णित समकालीन आयुर्वेद-सम्बन्धी तथ्यों को प्रकाशित करने का प्रयत्न किया गया है। श्रमण-संस्कृति के इतिहास में द्वादशांग वाणी का विशेष महत्त्व है। उसके बारहवें ‘दृष्टिवादांग’ के पाँच भेदों में से ‘पूर्वगत’ नाम का एक प्रमुख भेद है। उसके भी १४ भेदों में से ‘प्राणावाय’ नामक प्रभंद सुप्रसिद्ध रहा है।



१. जैन-परम्परा के अनुसार आयुर्वेद की उत्पत्ति का मूलस्रात वही ‘प्राणावाय’ नाम का पूर्वांग है। यथा – 

‘‘कायचिकित्सादि-अष्टांगायुर्वेद: भूतकर्मजांगुलिप्रक्रम: प्राणापानविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत्प्राणावाय-पूर्वांगं।’’


अर्थात् जिसमें काय, तद्गगतदोष, और उनकी चिकित्सा आदि अष्टांग-आयुर्वेद का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया हो; पृथिवीर आदि भूतों की क्रिया, विषैल जानवर तथा उनकी चिकित्सा आदि और प्राणपान का विभाग जिसमें किया गया वह हो; वह ‘प्राणावाय नाम का पूर्वांगशास्त्र’ कहा गया है। जैनाचार्यों ने उक्त ‘प्राणावाय’ से ही मूलस्रोत ग्रहण कर त्रिकालाबाधित जैनायुर्वेदिक-सिद्धान्तों एवं उनके ग्रन्थों की रचना की।


२. ऐसे आयुर्वेदज्ञ जैनाचार्यों में आचार्य समन्तभद्र

३, पूज्यपाद

४, सिद्धनागार्जुन

५, श्रुतकीर्ति

६, कुमारसेन

७, वीरसेन

८, पात्रकेशरी-स्वामी

९, सिद्धसेन

१०, दशरथगुरु

११, मेघनाद

१२, सिंघनाद

१३, उग्रादित्य

१४, अमृतनन्दि

१५, एवं गुम्मटदेव मुनि

१६ तथा कीर्तिवर्म

१७, मंगराज

१८, अभिनवचन्द्र

१९, देवेन्द्रमुनि

२०, जगदेकमहामन्त्रवादि श्रीधरदेव

२१, साल्व

२२, जगद्दलसोमनाथ

२३ आदि प्रसिद्ध हैं।

एक उल्लेख के अनुसार आचार्य समन्तभद्र ने आयुर्वेद को आठ अंगों में विभक्त किया हैं२४ –


१. कार्य-चिकित्सा – श्वास, कास, प्रमेह, जलोदर, बुखार आदि से सम्बन्धित समस्त धतुक शरीर की चिकित्सा।


२. बाल-चिकित्सा अथवा कौमारमृत्य – बालरोगादि तथा माताओं के रोगों की चिकित्सा।


३. ग्रह-चिकित्सा – नाड़ीचक्र में दोषोत्पन्न रोगों की चिकित्सा।


४. ऊध्र्वांग-चिकित्सा – आँख, कान, गला, नाक, दन्त एवं शिरोरोगें की चिकित्सा।


५. शल्य-चिकित्सा – शस्त्रास्त्रों द्वारा ऑपरेशन कर उनकी चिकित्सा।


६. अगदतन्त्र अथवा द्रंष्ट्रा-चिकित्सा – सर्पादि विष-जन्तुओं द्वारा काटे जाने पर तथा स्थावर, जंगम के द्वारा विष के शरीर में प्रविष्ट हो जाने पर उसकी चिकित्सा।


७. रसायनतन्त्र अथवा जरा-चिकित्सा – पुनयौवन प्राप्त करने की चिकित्सा। एवं


८. वृष्य-चिकित्सा – बाजीकरण चिकित्सा अथवा वीर्यशोधन, वीर्यवर्धन एवं सन्तानोत्पति के उपाय।


उक्त विषयों पर परवर्ती आयुर्वेदज्ञ जैनाचार्यों ने स्वरुचिपूर्वक अनेक ग्रन्थों की रचना की। इन ग्रन्थों एवं ग्रन्थकारों की प्रशंसा जैनेत्तर आयुर्वेदज्ञों ने भी मुक्तकण्ठ से की है।


आयुर्वेद के ख्यातिलब्ध विद्वान् पं० गंगाधर गोपाल गुणे ने उनके प्रति आदरभाव व्यक्त करते हुये लिखा है२५- ‘‘राशास्त्र पर जैनाचार्यों ने विशेष श्रमसाध्य शोध-खोज की है। आज जो भी अनेकानेक सिद्वौषधियाँ आयुर्वेदीय वैद्य प्रचार में लाते हैं, वे जैनाचार्यों की प्रतिभा व अविश्रान्त खोजों की सुपरिणाम है। अनेक प्रतिभावन, त्यागी, विरागी आचार्यों ने जीवनभर गहन वनों में एकान्तवास कर तथा विचारपूर्वक परिश्रम-प्रयोगपूर्वक अनुभव लेकर अनेक औषाधरत्नों का भण्डार संग्रहीत कर रखा है। रसशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, निघण्टू एवं औषधिगुण-धर्मशास्त्र आदि अनेक शास्त्रों का निर्माण अप्रतिमरूप से करके इन जैनाचार्यों ने समस्त आयुर्वेद-जगत पर बड़ा उपकार किया है।’’


अभी तक उपलब्ध जैन ग्रन्थों में नोवी सदी के प्रथम चरण के आचार्य उग्रादित्य२६ कृत ‘कल्याणकारक’ ही प्रकाशित हो सका है, जो अष्टांग आयुर्वेद-विद्याका सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। उक्त ग्रन्थ के २५ अध्यायों में आयुर्वेद की उत्पत्ति एवं विकास की कथा बतलाकर पूर्ववत्र्ती जैनाचार्योंं के अनेक सन्दर्भ प्रस्तुत किए हैं, जो आयुर्वेदिक इतिहास की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।


जैन आयुर्वेदज्ञों की यह विशेषता रही है कि आयुर्वेद को उन्होंने पीड़ित प्राणियों की सेवा का ही माध्यम बनाया, न कि अपनी स्वार्थपूर्ति अथवा धनार्जन का माध्यम। उन्होंने निरन्तर ही अहिंसक वस्तुओं के मिश्रण से औषधियों के निर्माण किए। क्षणभुगुर शरीर की रक्ष के लिए अन्य जीवों के शरीरावयवों को उदरस्थ कर लेने का उपदेश या विधान उसमें भूलकर भी नहीं किया गया। जहाँ जैनेतर आयुर्वेदज्ञों ने औषधियों के निर्माण में मल-मूत्र, अस्थि, चर्म, रक्त एवं माँस आदि के प्रयोग से स्पष्ट विधान किए हैं; तथा क्वचित् कदाचित् गोरक्त, गौमाँस, मानवावयव तक के योग जैनेतर वैद्यक-ग्रन्थों में मिलते हैं; जब कि जैनाचार्यों ने मद्य एवं मधु तक को त्याज्य बतलाया है। आसव एवं अरिष्ट, जिनमें एकेन्द्रिय तो क्या, दो इन्द्रिय जीव तक आँखों से देखे जा सकते हैं; जैन औषधि-निर्माण में त्याज्य बतलाए गए हैं। अवलेह आदि की भी मार्यादा बतलाई गई है; क्योंकि उनमें सीमावधि के बाद आधुनिक खुर्दबीन आदि के द्वारा दो इन्द्रिय जीव देखे गए हैं। इन्हीं कारणों से जैनाचार्यों ने तरल पदार्थों द्वारा चिकित्सा के स्थान पर रसादि-चिकित्सा पर अधिक जोर दिया है। ‘पुष्पायुर्वेद’ जैनाचार्यों की ही देन है, जो जैन औषधि-निर्माण की आश्चर्यजनक अहिंसक पद्धति है और जैनाचार्यों ने ई०पू० की सदियों में ही लगभग १८००० प्रकार के पक्व एवं स्वयं-पतित पुष्पों के प्रयोग से अनेक चूर्ण एवं रसायन तैयार कर पीड़ित प्राणियों की अचूक सेवा की थी। इस ‘पुष्पायुर्वेद’ की विश्व के अनेक चिकित्सकों ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है।२७ वर्तमान के के अनुसार भारत में केवल १५००० प्रकार की पुष्प जातियाँ ही बची हैं, बाकी किन्हीं कारणों से नष्ट हो चुकी हैं।


इस निबन्ध का मुख्य उद्देश्य शौरसेनी प्राकृत में लिखित ‘भगवती-आराधना’ में उपलब्ध आयुर्वेदविद्या-समबन्धी सामग्री को मुखर करना है। ‘भगवती आराधना’ का मूल विषय वस्तुत: आयुर्वेद नहीं, बल्कि मुनि आचार है। प्राप्त परम्परा के अनुसार सुपात्रों को मुनि-दीक्षा के पूर्व देश एवं समाज की सभी परिस्थितियों का यथासम्भव सम्यकज्ञान तथा लोकजीवन एवं लोकचार का पारदर्शी ज्ञान अनिवार्य माना गया है। क्योंकि मुनि-आचार्यग अध्यात्मयोगी होने के साथ-साथ शास्त्रकार, साहित्यकार, प्रचवनकार एवं इतिहास-निर्माता भी होते थे। अत: उन्हें धर्म-साधना के साथ-साथ प्राय: सभी विद्याओं तथा प्राय: समस्त प्राणधारियों का वैज्ञानिक एवं मनोविज्ञानिक ज्ञान भी अनिवार्य था। अत: पूर्ण शिक्षा की प्राप्ति के बाद ही उन्हें दीक्षा-योग्य माना जाता था। इन सभी की जानकारी के लिए सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ‘भगवती आराधना’ में मिलता है, जिसमें उसके लेखक ने मुनि आचार और जैनधर्म के विविध सिद्धान्तों के साथ-साथ ‘अष्टांग-आयुर्वेद’ के काय-चिकित्सा, ग्रह-चिकित्सा, शल्य-चिकित्सा, ऊध्र्वाग-चिकित्सा, आदि पर सुन्दर प्रकाश डाला है। इनके अतिरिक्त भी उसमें शरीर-संरचना, भ्रूण-विज्ञान विविध व्याधियों एवं उनके निदान तथा औषधियों आदि विषयों पर भी सुन्दर प्रकाश डाला गया है। उसके लेखक ने यद्यपि अपने ग्रन्थ-लेखन की स्रोत-सामग्री की चर्चा नहीं की; किन्तु विदित होता है कि जिन ग्रन्थों का उसने अध्ययन किया होगा, बाद में वेग्रन्थ या तो नष्ट हो गये या वर्तमान में देश-विदेश के प्राच्य शास्त्रभण्डारों में कही अप्रकाशितरूप में छिपे पड़े हैं। फिर भी मेरी दृष्टि से परवत्र्ती आयुर्वेदज्ञ जैनाचार्यों के सम्मुख ‘भगवती-आराधना’ ग्रन्थ अवश्य रहा होगा और उससे विषय-सामग्री लेकर आचार्यों ने अपने ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर उसे पर्याप्त विकसित किया है। जैनेतर आयुर्वेदाचार्यों ने भी जैनायुर्वेद-ग्रन्थों से पर्याप्त प्रकणाएँ ली हैं, इसके अनेक सन्दर्भ ‘माधवनिदान’ आदि ग्रन्थों में मिलते हैं।२८


‘भगवती-आराधना’ में वर्णित शारीरिक संरचना, रोगों एवं विभिन्न चिकित्साओं का संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत है –


शारीरिक संरचना –

१. मानव-शरीर का ढाँचा अस्थियों से बना है। उसे ‘अस्थिपंजर’ भी कहा जाता हैं, जो माँस, चर्म, शिराएँ, धमनियाँ, स्नायु आदि कोमल अंगों को शरीर के भीतरी गहवरों में सुरक्षित रखने का आधार है। माँस, पेशी, पेशीबन्धन, बन्धनी, सौत्रिक-तन्तु आदि इसी से लिपटे रहते हैं। आचार्य शिवकोटि के अनुसार मनुष्याकार के अस्थिपंजर में कुल ३०० सौ अस्थियाँ है, जो ‘मज्जा’ नाम की धातु से भरी हुई हैं। इसीप्रकार उसमें ३०० सन्धि-स्थ्ल (व्दग्हूे) है। यथा-

अट्ठीणाी हुंति तिण्णि हु सदाणि भरिदाणि कुणिममज्जाए ।

सव्वम्मि चेव देहे संधीणी हवंति तावदिया ।। 

(गा० १०२७)

२. मानव शरीर में ९०० स्नायु तन्त्र हैं, ७०० सिराएँ और ५०० मांसपेशियाँ है यथा –


ण्हारुण णवसदाइं सिरा सदाणि हवंति सत्तेव ।

देहम्मि मंसपेसीण हुंति पंचेव य सदाणि ।। 

(गा० १०२८)

३. मानव शरीर में शिराओं के ४ जाल है, १६ कंडरा (रक्तभरित महाशिराएँ अर्थात् बड़ी मोटी नसें) हैं, ६ मूल शिराएँ है और २ माूंसरज्जू (एक पीठ एवं एक पेट के आश्रित) हैं। यथा-


चत्तारि सिराजालाणि हुंति सोलस य कंडराणि तहा ।

छच्चेव सिराकुच्चा देहे दो मंसरज्जू य ।। 

(गा० १०२९)

४. इस मानव-देह में ७ त्वचाएँ (एव्ग्ह) हैं और ७ कालेयक (माँस-खण्ड) और ८० लाख कोटि रोम हैं। यथा-


सत्त तयाओं कालेज्जयाणि सत्तेव होंति देहम्मि ।

देहम्मि रोकोडीण होंती सीदी सदसहस्सा ।। 

(गा० १०३०)

५. पक्वाशय एवं आमाशय में सोलह आँते रहती है। मानव देह में दुर्गन्धित मलवाले ७ आशय है। यथा-


पक्कासयासयत्था य अंतगुजाओ सोलह हवंति ।

कुणिमस्स आसया सत्त हुंति देहे मणुसस्स ।। 

(गा० १०३१)

६. मानव-शरीर में ३ स्थूणा अर्थात् वात, पित्त एवं कफ हैं और १०७ मर्मस्थान हैं। ९ व्रणमुख या मलद्वार हैं। यथा-


थुणाओ तिण्णि देहम्मि होंति सत्तुत्तरं च मम्मसदं ।

णव होंति वणमुहाइं 

(गा० १०३२)

७. मानव-शरीर में मस्तक अपनी अंजुलि से एक अंजुलि-प्रमाण है। मेद, ओज, अर्थात् शुक्र ये दोनों भी १-१ स्वांजुलि-प्रमाण जानना चाहिए। तीन अंजुली-प्रमाण वसा (चर्बी) तथा पित्त का प्रमाण ६ अंजुलि मात्र हैं; श्लेष्म अर्थात् कफ की मात्रा भी ६ अंजुलि मात्र है; श्लेष्म अर्थात् कफ की मात्रा भी ६ अंजुलि-प्रमाण तथा रुधिर का प्रमाण आधा आढक है। यथा –


देहम्मि मच्छुलिंगं अंजलिमित्तं सयप्पमाणेण ।

अंजलि मित्ता मेदो उज्जोवि य तत्तिओ चेव ।।

तिण्णि य वसंजलीओ छच्चेव य अंजलीओ पित्तस्स ।

सिंभो पित्त-समाणो लोहिदमद्धाढगं होदि ।। 

(गाथा १०३३-३४)

८. मानव देह में मूत्र एक आढक प्रमाण है और उच्चार-विष्ठ ६ प्रस्थ प्रमाण है। स्वाभाविकरूप से नख-संख्या २० और दन्त संख्या ३२ है। यथा –


मुत्तं आढयमेत्तं उच्चारस्स य हवंति छप्पच्छा ।

वीस णहाणि दंता बत्ीसं होंति पगदीए ।। 

(गा० १०३५)

९. मानव देह कृमियों से व्याप्त है। उसमें ५ प्रकार की वायु (प्राण, आपान, उदान, समान एवं व्यान) का संचार रहता है। यथा –


किमिणो व वणो भरिदं सरीरं किमिकुलेहिं बहुगेहिं ।

सव्वं देहं अप्पंदिदूणं वादसा ठिदा पंच ।। 

(गा० १०३६)

१०. यह शरीर मक्खी के पंख के समान पतली चमड़ी से ढँका है। यथा –


मच्छियापत्तसरसियाएथमिदं ।

(गा० १०३९)

११. केवल एक आूंख में ही ९६ प्रकार के रोग उत्पन्न हो सकते हैं। यथा –


रोगा एकम्मि चेव अच्छिम्मि होंति छण्णवदी

(गा० १०५४)

१२. सारे शरीर में कुल मिलाकर ५,६८,९९,५८५ रोग होते हैं। पंचेव य कोडीओ भवंति तह अट्ठसट्ठिलक्खाइं। णव णवरिंच सहस्सा पंचसया होंति चुलसीदी।। -गा० १०४८ टीका


भ्रूण विज्ञान

भौतिक एवं आध्यात्मिक विद्या-सिद्धियों के प्रमुख साधन-केन्द्र इस मानव-तन का निर्माण किस-किस प्रकार होता है, गर्भ में वह किस प्रकार आता है तथा किस प्रकार उसके शरीर का क्रमिक विकास होता है? -उसकी क्रमिक विकसित अववस्थओं का ग्रन्थकार ने स्पष्ट चित्रण इस प्रकार किया है। यथा – (१) कललावस्था – माता के उदर में शुक्राणुओं के प्रविष्ट होने पर १० दिनों तक मानव-तन गले हुए तांबे एवं रजत के मिश्रित रंग के समान रहता है।२९

(२) कलुषावस्था – अगले १० दिनों में वह कृष्ण वर्ण का हो जाता है।३०


(३) स्थिरावस्था – तत्पश्चात् अगले १० दिनों में वह यािावत् स्थिर रहता है।३१


(४) बुब्बुदभूत – दूसरे महीने में मानव-तन क स्थिति एक बबूले के समान हो जाती है।३२


(५) घनभूत – तीसरे मास में वह बबूला कुछ कड़ा हो जाता है।३३


(६) मांसपेशीभूत – चौथे मास में उसमें माँसपेशियों का बनना प्रारम्भ हो जाता है।३४


(७) पुलकभूत – पाँचवे मास में उक्त मांस-पेशियों में पाूंच पुलक अर्थात् ५ अंकुर फुट जाते हैं, जिनमें से नीचे के दो अंकुरों से दो पैर और ऊपर के ३ अंकुरों में से बीच के अंकुर से मस्तक तथा दोनों बाजुओं में से दो हाथों के अंकुर फुटते हैं।३५


(८) छठवें मास – में बालक के अंग-उपांग बनते हैं।३६


(९) सातवें मास – में उस मानव-तन के अवयवों पर चर्म एवं रोम की उत्पत्ति होती है, तथा हाथ-पेर के नख उत्पन्न हो जाते हैं।३७ इसी मास में शरीर में कमल के डण्ठल के समान दीर्घनाल पैदा हो जाता है, तभी से यह जीव माता का खाया हुआ आहार उस दीर्घनाल से ग्रहण करने लगता है।३८


(१०) आठवें मास – में उस गर्भस्थ मानव– तन में हलन-चलन क्रिया होने लगती है।३९


(११) नौवें अथवा दसवें मास – में वह सर्वांग होकर जन्म ले लेता हैं।४०


गर्भ स्थान की अवस्थिति

आमाशय एवं पक्वाशय इन दोनों के बीच में जाल के समान मांस एवं रक्त से लपेआ हुआ गर्भ ९ मास तक रहता है। खाया हुआ अन्य उदराग्नि से जिस स्थान में थोड़ा-सा पचाया जाता है, वह स्थान ‘आमाशय’ और जिस स्थान में यह पूर्णतया पचाया जाता है वह ‘पक्वाशय’ कहलाता है। गर्भस्थान इन दोनों (अर्थात् आमाशय एवं पक्वाशय) के बीच में स्थित रहता है।

ग्रन्थकार ने विविध प्रकार के रोगियों के लिए समय-समय पर चिकित्सक के माध्यम से औषधि-सेवन की जो सलाहें दी है, वे वर्तमान युग की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं तथा सर्वसुलभ, आसान एवं सस्ती भी। उसके कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं –


रोगशामक औषधियाँ (घरेलू इलाज)

(१) कुष्ठ रोग को नष्ट करने के लिए इक्षुरस श्रेष्ठ रसायन है। यथा –

कोढ़ी संतों लद्धूण डहई उच्छूं रसायणं।

(गा० १२२३)

(२) सदैव स्वस्थ रहने के लिए मध्यम रसवाले कटु, तिक्त, आम्ल, कषायले, नमकीन,मधुर, विरस, सुगन्धित, स्वच्छ तथा मध्यम उष्ण भोजन लेना चाहिए। यथा –


अकडगम तितथ मणंविलंव अकसायमलवणममधुरं ।

अविरस मदुरव्विगंधं अच्छमण वहं अणदिसीदं ।। 

(गा० १४९०)

(३) स्वच्छ एवं ताजा जल कफनाशक एवं पथ्यकारक होता है, –


(गा० १४९१)

(४) गो-दुग्ध पित्त शान्त करता है।


(५) शारीरिक स्वास्थ्य तथा सौन्दर्य एवं तेजस्विता की वृद्धि के लिए अभ्यंगन-हेतु तेल, अनुकूल वृक्षों के मूलभाग, छाल, फल, एवं पत्तोंके चूण्र का सेवन करना चाहिए।


(गा० ८८ एवं ९३)

(६) पुरुष के लिए ३२ ग्रास तथा महिला के लिए २८ ग्रास भोजन प्रर्याप्त है। इतने भोजन में उनकी भूख शान्त हो जाती है, यथा –


बत्तीसं किर कवला आहारो कुक्खिपूरणो होइ ।

पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं हवे काला ।। 

(गा० २११)

(७) मक्खन, मदिरा, माँस एवं मधु – ये शरीर में महान् विकृतियाँ एवं रोग उत्पन्न करते हैं। यथा –


चत्तारि महावियडीओ होंति णवणीइ-मज्ज-मंस-महु ।

(गा० २१३)

(८) तेल एवं कषायले द्रव्यों के दिन में कई बार कुल्ले करने से जीभ, नासा, गला, आँख एवं कानो को सामथ्र्य प्राप्त होता है। जीभ का मैल निकल जाने से उच्चारण शुद्धि तथा कान में तेल डालने से श्रवण-शक्ति बढ़ती है। यथा-


तेल्ल कसायादीहिं य बहुसो गंडय सयादु घेत्तव्वा ।

जिब्भाकण्णणबलं होहिदो तुंडं च सेवि सदं ।। 

(गा० ६८८)

(९) काँजी पीने से मदिराजन्यय उन्माद नष्ट जाता है।


(गा० ३६०)

(१०) पेट की मल-शुद्धि के लिए मांड पीना चाहिए। यथा –


उदरमल सोधणिच्छाए मधुरं पिज्जेदव्वो मंडं ।

(गा० ७०२)

(११) मनुष्य को अन्य पानकों की अपेक्षा आचाम्ल-सेवन से कफ का क्षय, पित्त का उपशम एवं वात का क्षरण होता है। यथा –


आयंविलेण सिंभं खीयदि पित्तं च अवसमं जादि ।

वादं रक्खणट्ठं एत्थ पयत्तं खु कादव्वं ।। 

(गा० ७०१)

(१२) उदर विकार में काँजी में बिल्वपात्रों को भिंगोकर उदर को सेकना चाहिए तथा सेंधा नमक में बत्ती को भिगोंकर गुदा-द्वार में प्रवेश करने से उदर का मल निकल जाता है। यथा –


आणाहवत्तियादीहिं व वि कादव्वमुदर-सोधणयं ।

वेदणमुप्पादेज्ज हु करिसं अत्थंतयं उदरे ।। 

(गा०) ७०३

(१३) उपवास के बाद मित का हलका आचाम्ल भोजन लेना चाहिए।


(गा० २५१)

व्याधियाँ

‘भगवती-आराधना’ में जिन रोगों के उल्लेख मिलते हैं, उनके नाम इस प्रकार है – (१) कच्छु (खुजली), ज्वर, खाँसी, श्वास, कुष्ठ नेत्ररोग एवं भस्मक-व्याधि। यथा –

कच्छू जर खास सोसों भतेच्छदुच्छि दुक्खणि ।

(गा० १५४२)

(२) इनके अतिरिक्त भी अनेकरोग उस समय रहे होंगे, किन्तु जिनकी प्रमुखता थी, सम्भवत: उन्हीं के उल्लेख ग्रन्थकार ने किए हैं। इनमें से एक विशिष्ट रोग भस्मक-व्याधि का भी उल्लेख मिलता है, जिसमें रोगी को असाधारण भूख लगती है। वह असाधारण रूप से भोजन भी करता है, किन्तु वह तत्काल ही पेट में जाकर भस्म हो जाता है और उसके रोगी को वही असाधारण भूख बनी रहती है।


एक किंवदन्ती के अनुसार दूसरी सदी के आचार्य समन्तभद्र को यही भस्मक व्याधि हो गई थी। उसका शमन कैसे हुआ, उसकी कथा अनेक लेखकाचार्यों ने बड़ी ही रोचक शैली में लिखी है। वर्तमान में इस बीमारी की जानकरी नहीं मिलती।


चिकित्सक के विषय में लेखक ने कहा है कि वह अपनी चिकित्सा स्वयं नहीं कर पाता। आजकल भी यह देखा जाता है कि किसी भी पद्धति का चिकित्सक अपना इलाज स्वयं नहीं करता। वह अपने विश्वस्त मित्र चिकित्सक से अपनी चिकित्सा कराता है। ग्रन्थकार की भाषा में ही देखिए – वह कहता है –


जइ सुकुसलो वि वेज्जो अण्णस्स कहेदि आदुरो रोगं ।

वेज्जस्स तस्स सोच्चा सो विय पडिकाम्भमारभइ ।। 

(गा० ५२८)

अर्थात् सुकुशल वैद्य स्वयं बीमार पड़ने पर दूसरे कुशल वैद्य को अपनी बीमारी का लक्षण कहता है, जिसे सुनकर वह भी उसके अनुकूल औषधि तैयार करता है।


सन्दर्भ अनुक्रमणिका – १. श्रीनन्द्याचार्यादशेषागमज्ञाद् ज्ञात्वा दोषान् दोषजानुग्ररोगान् । तद्भषज्यप्रकमं चापि सर्वं प्राणावायादेतदुधृत्यनीतम् ।। – कल्याण – २०/८४ पृ. ५५४ २. सर्वार्धाधिकमागधीयविलसद्भाषा विशेषजोज्ज्वला प्राणवाय महागमादवितथं संगृह्य संक्षेपत: । उग्रादित्यगुरुर्गुरुगणैरुद्भासि सौख्यास्पदं, शास्त्रं संस्कृतभाषया रचितवानित्येष भेदस्तयो: ।। कल्याण्० २५/५४/७०२ ३. अष्टंगायुर्वेद तथा १८००० श्लोकप्रमाण ‘सिद्धान्तरसायनकल्व’ के लेखक (ये ग्रन्थ अनुपलब्ध है)। ४. ‘कल्याणकारक’, ‘शालाक्य-शिराभेदन-तन्त्र’ तथा ‘वैद्यामृत’ नामक ग्रन्थों के लेखक (ये ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं, किन्तु डिटपुट रूप में उनके ६५ सिद्ध-प्रयोग आरा स्थित जैन सिद्धान्त भवन के प्राच्य शास्त्र भण्डार में सुरक्षित हैं)। ५. नागार्जुनकल्प, नागार्जुनकक्षपुट आदि सैद्धान्तिक एवं प्रायोगि महान् ग्रन्थों के लेखक (ये ग्रन्थ अनुपलब्ध है)। ६-८. ग्रन्थ अज्ञात एवं अनुपलब्ध। ९. शल्यतन्त्र-आपरेशन सम्बन्धी ग्रन्थ के लेखक ( ये ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं)। १०. विष एवं उग्रग्रह आदि के शमन-समबन्धी ग्रन्थ के लेखक (ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं) । ११-१२ . बालरोग-चिकित्सा सम्बन्धी ग्रन्थ के लेखक (ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं)। १३. शरीर-बलवर्धक तथा बाजीकरण () आदि सम्बन्धी ग्रन्थ के लेखक (ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं)। १४. ‘कल्याणकारक’ के लेखक ( पं. वर्धमान पाश्र्वनाथ शास्त्री (शोलापुर) द्वारा सम्पादित एवं प्रकाशित, सन् १९४०ई०) १५. २२ सहस्र शब्दप्रमाण ‘निघण्टुकोष’ (अपूर्ण-सकार तक उपलब्ध) के लेखक। १६. ‘मेरुतन्त्र’ नामक वैद्यक ग्रन्थ के लेखक। १७. ‘गोवैद्य’ (कन्नड़) ग्रन्थ के लेखक। १८. ‘खगेन्द्रमणिदर्पण’ (कन्नड़) के लेखक। १९. ‘हयशास्त्र’ (कन्नड़) के लेखक। २०. ‘बालग्रह चिकित्सा’ (कन्नड़) के लेखक। २१.‘वैद्यामृत’ (कन्नड़ १४ अधिकारों में विभक्त) ग्रन्थ के लेखक। २२. ‘रसरत्नाकर’ (कन्नड़) एवं ‘वैद्य सांगत्य’ (कन्नड़) ग्रन्थ के लेख। २३. पूज्यपाद कृत ‘कल्याणकरक’ (संस्कृत) का कन्नड़ भाषा में अनुवाद करने वाले आचार्य। २४. दे० ‘कल्याणकारक’ भूमिका पृ० ५। २५. दे० ‘कल्याणकारक’ भूमिका पृ० १४। २६. वही भूमिका पृ. ४३। २७. ‘वैद्यसार-आयुर्वेदरत्न’ पं. सत्यन्धर जैन (आरा १९३१ ई०) भूमिका। २८. दे० ‘कल्याणकारक’ भूमिका पृ० २३,३२। २९. गा.सं० १००७। ३०-३१. दे० गाथा १००७। ३२. दे० गाथा १००८। ३३. दे० गाथा १००८। ३४. वही। ३५. गाथा सं० १००९। ३६. दे० गाथा १००९। ३७. दे० गाथा १०१०, १०१९। ३८-३९. दे० गाथा १०१०। ४०. दे० गाथा १०१२।


प्रो० डॉ० राजाराम जैन

प्राकृत-विद्या अक्टू.- दिस. १९९६ पृ. २० से २८

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 TIRTHANKARO KI PARAMPARA KA KAALलवण समुद्र–LAVAN SAMUDRA 


2 thoughts on “भगवती आराधना (Bhagwati Aaradhana) में वर्णित आयुर्वेद-विद्या”

 भगवती आराधना (Bhagwati Aaradhana) में वर्णित आयुर्वेद-विद्या

Posted on September 28, 2017 By admin

भगवती आराधना (Bhagwati Aaradhana) में वर्णित आयुर्वेद-विद्या

आर्य सर्वगुप्त के शिष्य आचार्य शिकोटि (अपरनम शिभूति अथवा शिवार्य, प्रथम सदी ईस्वी के आसपास) द्वारा विरचित २१७० गाथा प्रमाण ‘भगवती आराधना’ (Bhagwati Aaradhana) (अपरनाम मूलारधना) नामक ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत के महिमामण्डित-ग्रन्थ वस्तुत: ज्ञान-विज्ञान का अद्भूत विश्व-कोष माना जा सकता है। उसमें वर्णित आयुर्विज्ञान सम्बन्धी सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक वर्णन देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार सम्भवत: दीक्षा-पूर्वकाल में कभी स्वयं ही उस क्षेत्र का सिद्धहस्त चिकित्सक तथा चिकित्सा शास्त्र मर्मज्ञ अनुभवी तथा समाजशास्त्री विद्वान-शिक्षक रहा होगा। बहुत सम्भव है कि उसने आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं शरीर-संरचना विज्ञान सम्बन्धी कोई विशाल स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखा हो, जो किसी परिस्थिति-विशेष में विस्मृत, अथवा प्रच्छन्न या नष्ट हो गया हो ?

प्रस्तुत निबन्ध में उक्त ग्रन्थ में वर्णित समकालीन आयुर्वेद-सम्बन्धी तथ्यों को प्रकाशित करने का प्रयत्न किया गया है। श्रमण-संस्कृति के इतिहास में द्वादशांग वाणी का विशेष महत्त्व है। उसके बारहवें ‘दृष्टिवादांग’ के पाँच भेदों में से ‘पूर्वगत’ नाम का एक प्रमुख भेद है। उसके भी १४ भेदों में से ‘प्राणावाय’ नामक प्रभंद सुप्रसिद्ध रहा है।



१. जैन-परम्परा के अनुसार आयुर्वेद की उत्पत्ति का मूलस्रात वही ‘प्राणावाय’ नाम का पूर्वांग है। यथा – 

‘‘कायचिकित्सादि-अष्टांगायुर्वेद: भूतकर्मजांगुलिप्रक्रम: प्राणापानविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत्प्राणावाय-पूर्वांगं।’’


अर्थात् जिसमें काय, तद्गगतदोष, और उनकी चिकित्सा आदि अष्टांग-आयुर्वेद का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया हो; पृथिवीर आदि भूतों की क्रिया, विषैल जानवर तथा उनकी चिकित्सा आदि और प्राणपान का विभाग जिसमें किया गया वह हो; वह ‘प्राणावाय नाम का पूर्वांगशास्त्र’ कहा गया है। जैनाचार्यों ने उक्त ‘प्राणावाय’ से ही मूलस्रोत ग्रहण कर त्रिकालाबाधित जैनायुर्वेदिक-सिद्धान्तों एवं उनके ग्रन्थों की रचना की।


२. ऐसे आयुर्वेदज्ञ जैनाचार्यों में आचार्य समन्तभद्र

३, पूज्यपाद

४, सिद्धनागार्जुन

५, श्रुतकीर्ति

६, कुमारसेन

७, वीरसेन

८, पात्रकेशरी-स्वामी

९, सिद्धसेन

१०, दशरथगुरु

११, मेघनाद

१२, सिंघनाद

१३, उग्रादित्य

१४, अमृतनन्दि

१५, एवं गुम्मटदेव मुनि

१६ तथा कीर्तिवर्म

१७, मंगराज

१८, अभिनवचन्द्र

१९, देवेन्द्रमुनि

२०, जगदेकमहामन्त्रवादि श्रीधरदेव

२१, साल्व

२२, जगद्दलसोमनाथ

२३ आदि प्रसिद्ध हैं।

एक उल्लेख के अनुसार आचार्य समन्तभद्र ने आयुर्वेद को आठ अंगों में विभक्त किया हैं२४ –


१. कार्य-चिकित्सा – श्वास, कास, प्रमेह, जलोदर, बुखार आदि से सम्बन्धित समस्त धतुक शरीर की चिकित्सा।


२. बाल-चिकित्सा अथवा कौमारमृत्य – बालरोगादि तथा माताओं के रोगों की चिकित्सा।


३. ग्रह-चिकित्सा – नाड़ीचक्र में दोषोत्पन्न रोगों की चिकित्सा।


४. ऊध्र्वांग-चिकित्सा – आँख, कान, गला, नाक, दन्त एवं शिरोरोगें की चिकित्सा।


५. शल्य-चिकित्सा – शस्त्रास्त्रों द्वारा ऑपरेशन कर उनकी चिकित्सा।


६. अगदतन्त्र अथवा द्रंष्ट्रा-चिकित्सा – सर्पादि विष-जन्तुओं द्वारा काटे जाने पर तथा स्थावर, जंगम के द्वारा विष के शरीर में प्रविष्ट हो जाने पर उसकी चिकित्सा।


७. रसायनतन्त्र अथवा जरा-चिकित्सा – पुनयौवन प्राप्त करने की चिकित्सा। एवं


८. वृष्य-चिकित्सा – बाजीकरण चिकित्सा अथवा वीर्यशोधन, वीर्यवर्धन एवं सन्तानोत्पति के उपाय।


उक्त विषयों पर परवर्ती आयुर्वेदज्ञ जैनाचार्यों ने स्वरुचिपूर्वक अनेक ग्रन्थों की रचना की। इन ग्रन्थों एवं ग्रन्थकारों की प्रशंसा जैनेत्तर आयुर्वेदज्ञों ने भी मुक्तकण्ठ से की है।


आयुर्वेद के ख्यातिलब्ध विद्वान् पं० गंगाधर गोपाल गुणे ने उनके प्रति आदरभाव व्यक्त करते हुये लिखा है२५- ‘‘राशास्त्र पर जैनाचार्यों ने विशेष श्रमसाध्य शोध-खोज की है। आज जो भी अनेकानेक सिद्वौषधियाँ आयुर्वेदीय वैद्य प्रचार में लाते हैं, वे जैनाचार्यों की प्रतिभा व अविश्रान्त खोजों की सुपरिणाम है। अनेक प्रतिभावन, त्यागी, विरागी आचार्यों ने जीवनभर गहन वनों में एकान्तवास कर तथा विचारपूर्वक परिश्रम-प्रयोगपूर्वक अनुभव लेकर अनेक औषाधरत्नों का भण्डार संग्रहीत कर रखा है। रसशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, निघण्टू एवं औषधिगुण-धर्मशास्त्र आदि अनेक शास्त्रों का निर्माण अप्रतिमरूप से करके इन जैनाचार्यों ने समस्त आयुर्वेद-जगत पर बड़ा उपकार किया है।’’


अभी तक उपलब्ध जैन ग्रन्थों में नोवी सदी के प्रथम चरण के आचार्य उग्रादित्य२६ कृत ‘कल्याणकारक’ ही प्रकाशित हो सका है, जो अष्टांग आयुर्वेद-विद्याका सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। उक्त ग्रन्थ के २५ अध्यायों में आयुर्वेद की उत्पत्ति एवं विकास की कथा बतलाकर पूर्ववत्र्ती जैनाचार्योंं के अनेक सन्दर्भ प्रस्तुत किए हैं, जो आयुर्वेदिक इतिहास की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।


जैन आयुर्वेदज्ञों की यह विशेषता रही है कि आयुर्वेद को उन्होंने पीड़ित प्राणियों की सेवा का ही माध्यम बनाया, न कि अपनी स्वार्थपूर्ति अथवा धनार्जन का माध्यम। उन्होंने निरन्तर ही अहिंसक वस्तुओं के मिश्रण से औषधियों के निर्माण किए। क्षणभुगुर शरीर की रक्ष के लिए अन्य जीवों के शरीरावयवों को उदरस्थ कर लेने का उपदेश या विधान उसमें भूलकर भी नहीं किया गया। जहाँ जैनेतर आयुर्वेदज्ञों ने औषधियों के निर्माण में मल-मूत्र, अस्थि, चर्म, रक्त एवं माँस आदि के प्रयोग से स्पष्ट विधान किए हैं; तथा क्वचित् कदाचित् गोरक्त, गौमाँस, मानवावयव तक के योग जैनेतर वैद्यक-ग्रन्थों में मिलते हैं; जब कि जैनाचार्यों ने मद्य एवं मधु तक को त्याज्य बतलाया है। आसव एवं अरिष्ट, जिनमें एकेन्द्रिय तो क्या, दो इन्द्रिय जीव तक आँखों से देखे जा सकते हैं; जैन औषधि-निर्माण में त्याज्य बतलाए गए हैं। अवलेह आदि की भी मार्यादा बतलाई गई है; क्योंकि उनमें सीमावधि के बाद आधुनिक खुर्दबीन आदि के द्वारा दो इन्द्रिय जीव देखे गए हैं। इन्हीं कारणों से जैनाचार्यों ने तरल पदार्थों द्वारा चिकित्सा के स्थान पर रसादि-चिकित्सा पर अधिक जोर दिया है। ‘पुष्पायुर्वेद’ जैनाचार्यों की ही देन है, जो जैन औषधि-निर्माण की आश्चर्यजनक अहिंसक पद्धति है और जैनाचार्यों ने ई०पू० की सदियों में ही लगभग १८००० प्रकार के पक्व एवं स्वयं-पतित पुष्पों के प्रयोग से अनेक चूर्ण एवं रसायन तैयार कर पीड़ित प्राणियों की अचूक सेवा की थी। इस ‘पुष्पायुर्वेद’ की विश्व के अनेक चिकित्सकों ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है।२७ वर्तमान के के अनुसार भारत में केवल १५००० प्रकार की पुष्प जातियाँ ही बची हैं, बाकी किन्हीं कारणों से नष्ट हो चुकी हैं।


इस निबन्ध का मुख्य उद्देश्य शौरसेनी प्राकृत में लिखित ‘भगवती-आराधना’ में उपलब्ध आयुर्वेदविद्या-समबन्धी सामग्री को मुखर करना है। ‘भगवती आराधना’ का मूल विषय वस्तुत: आयुर्वेद नहीं, बल्कि मुनि आचार है। प्राप्त परम्परा के अनुसार सुपात्रों को मुनि-दीक्षा के पूर्व देश एवं समाज की सभी परिस्थितियों का यथासम्भव सम्यकज्ञान तथा लोकजीवन एवं लोकचार का पारदर्शी ज्ञान अनिवार्य माना गया है। क्योंकि मुनि-आचार्यग अध्यात्मयोगी होने के साथ-साथ शास्त्रकार, साहित्यकार, प्रचवनकार एवं इतिहास-निर्माता भी होते थे। अत: उन्हें धर्म-साधना के साथ-साथ प्राय: सभी विद्याओं तथा प्राय: समस्त प्राणधारियों का वैज्ञानिक एवं मनोविज्ञानिक ज्ञान भी अनिवार्य था। अत: पूर्ण शिक्षा की प्राप्ति के बाद ही उन्हें दीक्षा-योग्य माना जाता था। इन सभी की जानकारी के लिए सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ‘भगवती आराधना’ में मिलता है, जिसमें उसके लेखक ने मुनि आचार और जैनधर्म के विविध सिद्धान्तों के साथ-साथ ‘अष्टांग-आयुर्वेद’ के काय-चिकित्सा, ग्रह-चिकित्सा, शल्य-चिकित्सा, ऊध्र्वाग-चिकित्सा, आदि पर सुन्दर प्रकाश डाला है। इनके अतिरिक्त भी उसमें शरीर-संरचना, भ्रूण-विज्ञान विविध व्याधियों एवं उनके निदान तथा औषधियों आदि विषयों पर भी सुन्दर प्रकाश डाला गया है। उसके लेखक ने यद्यपि अपने ग्रन्थ-लेखन की स्रोत-सामग्री की चर्चा नहीं की; किन्तु विदित होता है कि जिन ग्रन्थों का उसने अध्ययन किया होगा, बाद में वेग्रन्थ या तो नष्ट हो गये या वर्तमान में देश-विदेश के प्राच्य शास्त्रभण्डारों में कही अप्रकाशितरूप में छिपे पड़े हैं। फिर भी मेरी दृष्टि से परवत्र्ती आयुर्वेदज्ञ जैनाचार्यों के सम्मुख ‘भगवती-आराधना’ ग्रन्थ अवश्य रहा होगा और उससे विषय-सामग्री लेकर आचार्यों ने अपने ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर उसे पर्याप्त विकसित किया है। जैनेतर आयुर्वेदाचार्यों ने भी जैनायुर्वेद-ग्रन्थों से पर्याप्त प्रकणाएँ ली हैं, इसके अनेक सन्दर्भ ‘माधवनिदान’ आदि ग्रन्थों में मिलते हैं।२८


‘भगवती-आराधना’ में वर्णित शारीरिक संरचना, रोगों एवं विभिन्न चिकित्साओं का संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत है –


शारीरिक संरचना –

१. मानव-शरीर का ढाँचा अस्थियों से बना है। उसे ‘अस्थिपंजर’ भी कहा जाता हैं, जो माँस, चर्म, शिराएँ, धमनियाँ, स्नायु आदि कोमल अंगों को शरीर के भीतरी गहवरों में सुरक्षित रखने का आधार है। माँस, पेशी, पेशीबन्धन, बन्धनी, सौत्रिक-तन्तु आदि इसी से लिपटे रहते हैं। आचार्य शिवकोटि के अनुसार मनुष्याकार के अस्थिपंजर में कुल ३०० सौ अस्थियाँ है, जो ‘मज्जा’ नाम की धातु से भरी हुई हैं। इसीप्रकार उसमें ३०० सन्धि-स्थ्ल (व्दग्हूे) है। यथा-

अट्ठीणाी हुंति तिण्णि हु सदाणि भरिदाणि कुणिममज्जाए ।

सव्वम्मि चेव देहे संधीणी हवंति तावदिया ।। 

(गा० १०२७)

२. मानव शरीर में ९०० स्नायु तन्त्र हैं, ७०० सिराएँ और ५०० मांसपेशियाँ है यथा –


ण्हारुण णवसदाइं सिरा सदाणि हवंति सत्तेव ।

देहम्मि मंसपेसीण हुंति पंचेव य सदाणि ।। 

(गा० १०२८)

३. मानव शरीर में शिराओं के ४ जाल है, १६ कंडरा (रक्तभरित महाशिराएँ अर्थात् बड़ी मोटी नसें) हैं, ६ मूल शिराएँ है और २ माूंसरज्जू (एक पीठ एवं एक पेट के आश्रित) हैं। यथा-


चत्तारि सिराजालाणि हुंति सोलस य कंडराणि तहा ।

छच्चेव सिराकुच्चा देहे दो मंसरज्जू य ।। 

(गा० १०२९)

४. इस मानव-देह में ७ त्वचाएँ (एव्ग्ह) हैं और ७ कालेयक (माँस-खण्ड) और ८० लाख कोटि रोम हैं। यथा-


सत्त तयाओं कालेज्जयाणि सत्तेव होंति देहम्मि ।

देहम्मि रोकोडीण होंती सीदी सदसहस्सा ।। 

(गा० १०३०)

५. पक्वाशय एवं आमाशय में सोलह आँते रहती है। मानव देह में दुर्गन्धित मलवाले ७ आशय है। यथा-


पक्कासयासयत्था य अंतगुजाओ सोलह हवंति ।

कुणिमस्स आसया सत्त हुंति देहे मणुसस्स ।। 

(गा० १०३१)

६. मानव-शरीर में ३ स्थूणा अर्थात् वात, पित्त एवं कफ हैं और १०७ मर्मस्थान हैं। ९ व्रणमुख या मलद्वार हैं। यथा-


थुणाओ तिण्णि देहम्मि होंति सत्तुत्तरं च मम्मसदं ।

णव होंति वणमुहाइं 

(गा० १०३२)

७. मानव-शरीर में मस्तक अपनी अंजुलि से एक अंजुलि-प्रमाण है। मेद, ओज, अर्थात् शुक्र ये दोनों भी १-१ स्वांजुलि-प्रमाण जानना चाहिए। तीन अंजुली-प्रमाण वसा (चर्बी) तथा पित्त का प्रमाण ६ अंजुलि मात्र हैं; श्लेष्म अर्थात् कफ की मात्रा भी ६ अंजुलि मात्र है; श्लेष्म अर्थात् कफ की मात्रा भी ६ अंजुलि-प्रमाण तथा रुधिर का प्रमाण आधा आढक है। यथा –


देहम्मि मच्छुलिंगं अंजलिमित्तं सयप्पमाणेण ।

अंजलि मित्ता मेदो उज्जोवि य तत्तिओ चेव ।।

तिण्णि य वसंजलीओ छच्चेव य अंजलीओ पित्तस्स ।

सिंभो पित्त-समाणो लोहिदमद्धाढगं होदि ।। 

(गाथा १०३३-३४)

८. मानव देह में मूत्र एक आढक प्रमाण है और उच्चार-विष्ठ ६ प्रस्थ प्रमाण है। स्वाभाविकरूप से नख-संख्या २० और दन्त संख्या ३२ है। यथा –


मुत्तं आढयमेत्तं उच्चारस्स य हवंति छप्पच्छा ।

वीस णहाणि दंता बत्ीसं होंति पगदीए ।। 

(गा० १०३५)

९. मानव देह कृमियों से व्याप्त है। उसमें ५ प्रकार की वायु (प्राण, आपान, उदान, समान एवं व्यान) का संचार रहता है। यथा –


किमिणो व वणो भरिदं सरीरं किमिकुलेहिं बहुगेहिं ।

सव्वं देहं अप्पंदिदूणं वादसा ठिदा पंच ।। 

(गा० १०३६)

१०. यह शरीर मक्खी के पंख के समान पतली चमड़ी से ढँका है। यथा –


मच्छियापत्तसरसियाएथमिदं ।

(गा० १०३९)

११. केवल एक आूंख में ही ९६ प्रकार के रोग उत्पन्न हो सकते हैं। यथा –


रोगा एकम्मि चेव अच्छिम्मि होंति छण्णवदी

(गा० १०५४)

१२. सारे शरीर में कुल मिलाकर ५,६८,९९,५८५ रोग होते हैं। पंचेव य कोडीओ भवंति तह अट्ठसट्ठिलक्खाइं। णव णवरिंच सहस्सा पंचसया होंति चुलसीदी।। -गा० १०४८ टीका


भ्रूण विज्ञान

भौतिक एवं आध्यात्मिक विद्या-सिद्धियों के प्रमुख साधन-केन्द्र इस मानव-तन का निर्माण किस-किस प्रकार होता है, गर्भ में वह किस प्रकार आता है तथा किस प्रकार उसके शरीर का क्रमिक विकास होता है? -उसकी क्रमिक विकसित अववस्थओं का ग्रन्थकार ने स्पष्ट चित्रण इस प्रकार किया है। यथा – (१) कललावस्था – माता के उदर में शुक्राणुओं के प्रविष्ट होने पर १० दिनों तक मानव-तन गले हुए तांबे एवं रजत के मिश्रित रंग के समान रहता है।२९

(२) कलुषावस्था – अगले १० दिनों में वह कृष्ण वर्ण का हो जाता है।३०


(३) स्थिरावस्था – तत्पश्चात् अगले १० दिनों में वह यािावत् स्थिर रहता है।३१


(४) बुब्बुदभूत – दूसरे महीने में मानव-तन क स्थिति एक बबूले के समान हो जाती है।३२


(५) घनभूत – तीसरे मास में वह बबूला कुछ कड़ा हो जाता है।३३


(६) मांसपेशीभूत – चौथे मास में उसमें माँसपेशियों का बनना प्रारम्भ हो जाता है।३४


(७) पुलकभूत – पाँचवे मास में उक्त मांस-पेशियों में पाूंच पुलक अर्थात् ५ अंकुर फुट जाते हैं, जिनमें से नीचे के दो अंकुरों से दो पैर और ऊपर के ३ अंकुरों में से बीच के अंकुर से मस्तक तथा दोनों बाजुओं में से दो हाथों के अंकुर फुटते हैं।३५


(८) छठवें मास – में बालक के अंग-उपांग बनते हैं।३६


(९) सातवें मास – में उस मानव-तन के अवयवों पर चर्म एवं रोम की उत्पत्ति होती है, तथा हाथ-पेर के नख उत्पन्न हो जाते हैं।३७ इसी मास में शरीर में कमल के डण्ठल के समान दीर्घनाल पैदा हो जाता है, तभी से यह जीव माता का खाया हुआ आहार उस दीर्घनाल से ग्रहण करने लगता है।३८


(१०) आठवें मास – में उस गर्भस्थ मानव– तन में हलन-चलन क्रिया होने लगती है।३९


(११) नौवें अथवा दसवें मास – में वह सर्वांग होकर जन्म ले लेता हैं।४०


गर्भ स्थान की अवस्थिति

आमाशय एवं पक्वाशय इन दोनों के बीच में जाल के समान मांस एवं रक्त से लपेआ हुआ गर्भ ९ मास तक रहता है। खाया हुआ अन्य उदराग्नि से जिस स्थान में थोड़ा-सा पचाया जाता है, वह स्थान ‘आमाशय’ और जिस स्थान में यह पूर्णतया पचाया जाता है वह ‘पक्वाशय’ कहलाता है। गर्भस्थान इन दोनों (अर्थात् आमाशय एवं पक्वाशय) के बीच में स्थित रहता है।

ग्रन्थकार ने विविध प्रकार के रोगियों के लिए समय-समय पर चिकित्सक के माध्यम से औषधि-सेवन की जो सलाहें दी है, वे वर्तमान युग की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं तथा सर्वसुलभ, आसान एवं सस्ती भी। उसके कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं –


रोगशामक औषधियाँ (घरेलू इलाज)

(१) कुष्ठ रोग को नष्ट करने के लिए इक्षुरस श्रेष्ठ रसायन है। यथा –

कोढ़ी संतों लद्धूण डहई उच्छूं रसायणं।

(गा० १२२३)

(२) सदैव स्वस्थ रहने के लिए मध्यम रसवाले कटु, तिक्त, आम्ल, कषायले, नमकीन,मधुर, विरस, सुगन्धित, स्वच्छ तथा मध्यम उष्ण भोजन लेना चाहिए। यथा –


अकडगम तितथ मणंविलंव अकसायमलवणममधुरं ।

अविरस मदुरव्विगंधं अच्छमण वहं अणदिसीदं ।। 

(गा० १४९०)

(३) स्वच्छ एवं ताजा जल कफनाशक एवं पथ्यकारक होता है, –


(गा० १४९१)

(४) गो-दुग्ध पित्त शान्त करता है।


(५) शारीरिक स्वास्थ्य तथा सौन्दर्य एवं तेजस्विता की वृद्धि के लिए अभ्यंगन-हेतु तेल, अनुकूल वृक्षों के मूलभाग, छाल, फल, एवं पत्तोंके चूण्र का सेवन करना चाहिए।


(गा० ८८ एवं ९३)

(६) पुरुष के लिए ३२ ग्रास तथा महिला के लिए २८ ग्रास भोजन प्रर्याप्त है। इतने भोजन में उनकी भूख शान्त हो जाती है, यथा –


बत्तीसं किर कवला आहारो कुक्खिपूरणो होइ ।

पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं हवे काला ।। 

(गा० २११)

(७) मक्खन, मदिरा, माँस एवं मधु – ये शरीर में महान् विकृतियाँ एवं रोग उत्पन्न करते हैं। यथा –


चत्तारि महावियडीओ होंति णवणीइ-मज्ज-मंस-महु ।

(गा० २१३)

(८) तेल एवं कषायले द्रव्यों के दिन में कई बार कुल्ले करने से जीभ, नासा, गला, आँख एवं कानो को सामथ्र्य प्राप्त होता है। जीभ का मैल निकल जाने से उच्चारण शुद्धि तथा कान में तेल डालने से श्रवण-शक्ति बढ़ती है। यथा-


तेल्ल कसायादीहिं य बहुसो गंडय सयादु घेत्तव्वा ।

जिब्भाकण्णणबलं होहिदो तुंडं च सेवि सदं ।। 

(गा० ६८८)

(९) काँजी पीने से मदिराजन्यय उन्माद नष्ट जाता है।


(गा० ३६०)

(१०) पेट की मल-शुद्धि के लिए मांड पीना चाहिए। यथा –


उदरमल सोधणिच्छाए मधुरं पिज्जेदव्वो मंडं ।

(गा० ७०२)

(११) मनुष्य को अन्य पानकों की अपेक्षा आचाम्ल-सेवन से कफ का क्षय, पित्त का उपशम एवं वात का क्षरण होता है। यथा –


आयंविलेण सिंभं खीयदि पित्तं च अवसमं जादि ।

वादं रक्खणट्ठं एत्थ पयत्तं खु कादव्वं ।। 

(गा० ७०१)

(१२) उदर विकार में काँजी में बिल्वपात्रों को भिंगोकर उदर को सेकना चाहिए तथा सेंधा नमक में बत्ती को भिगोंकर गुदा-द्वार में प्रवेश करने से उदर का मल निकल जाता है। यथा –


आणाहवत्तियादीहिं व वि कादव्वमुदर-सोधणयं ।

वेदणमुप्पादेज्ज हु करिसं अत्थंतयं उदरे ।। 

(गा०) ७०३

(१३) उपवास के बाद मित का हलका आचाम्ल भोजन लेना चाहिए।


(गा० २५१)

व्याधियाँ

‘भगवती-आराधना’ में जिन रोगों के उल्लेख मिलते हैं, उनके नाम इस प्रकार है – (१) कच्छु (खुजली), ज्वर, खाँसी, श्वास, कुष्ठ नेत्ररोग एवं भस्मक-व्याधि। यथा –

कच्छू जर खास सोसों भतेच्छदुच्छि दुक्खणि ।

(गा० १५४२)

(२) इनके अतिरिक्त भी अनेकरोग उस समय रहे होंगे, किन्तु जिनकी प्रमुखता थी, सम्भवत: उन्हीं के उल्लेख ग्रन्थकार ने किए हैं। इनमें से एक विशिष्ट रोग भस्मक-व्याधि का भी उल्लेख मिलता है, जिसमें रोगी को असाधारण भूख लगती है। वह असाधारण रूप से भोजन भी करता है, किन्तु वह तत्काल ही पेट में जाकर भस्म हो जाता है और उसके रोगी को वही असाधारण भूख बनी रहती है।


एक किंवदन्ती के अनुसार दूसरी सदी के आचार्य समन्तभद्र को यही भस्मक व्याधि हो गई थी। उसका शमन कैसे हुआ, उसकी कथा अनेक लेखकाचार्यों ने बड़ी ही रोचक शैली में लिखी है। वर्तमान में इस बीमारी की जानकरी नहीं मिलती।


चिकित्सक के विषय में लेखक ने कहा है कि वह अपनी चिकित्सा स्वयं नहीं कर पाता। आजकल भी यह देखा जाता है कि किसी भी पद्धति का चिकित्सक अपना इलाज स्वयं नहीं करता। वह अपने विश्वस्त मित्र चिकित्सक से अपनी चिकित्सा कराता है। ग्रन्थकार की भाषा में ही देखिए – वह कहता है –


जइ सुकुसलो वि वेज्जो अण्णस्स कहेदि आदुरो रोगं ।

वेज्जस्स तस्स सोच्चा सो विय पडिकाम्भमारभइ ।। 

(गा० ५२८)

अर्थात् सुकुशल वैद्य स्वयं बीमार पड़ने पर दूसरे कुशल वैद्य को अपनी बीमारी का लक्षण कहता है, जिसे सुनकर वह भी उसके अनुकूल औषधि तैयार करता है।


सन्दर्भ अनुक्रमणिका – १. श्रीनन्द्याचार्यादशेषागमज्ञाद् ज्ञात्वा दोषान् दोषजानुग्ररोगान् । तद्भषज्यप्रकमं चापि सर्वं प्राणावायादेतदुधृत्यनीतम् ।। – कल्याण – २०/८४ पृ. ५५४ २. सर्वार्धाधिकमागधीयविलसद्भाषा विशेषजोज्ज्वला प्राणवाय महागमादवितथं संगृह्य संक्षेपत: । उग्रादित्यगुरुर्गुरुगणैरुद्भासि सौख्यास्पदं, शास्त्रं संस्कृतभाषया रचितवानित्येष भेदस्तयो: ।। कल्याण्० २५/५४/७०२ ३. अष्टंगायुर्वेद तथा १८००० श्लोकप्रमाण ‘सिद्धान्तरसायनकल्व’ के लेखक (ये ग्रन्थ अनुपलब्ध है)। ४. ‘कल्याणकारक’, ‘शालाक्य-शिराभेदन-तन्त्र’ तथा ‘वैद्यामृत’ नामक ग्रन्थों के लेखक (ये ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं, किन्तु डिटपुट रूप में उनके ६५ सिद्ध-प्रयोग आरा स्थित जैन सिद्धान्त भवन के प्राच्य शास्त्र भण्डार में सुरक्षित हैं)। ५. नागार्जुनकल्प, नागार्जुनकक्षपुट आदि सैद्धान्तिक एवं प्रायोगि महान् ग्रन्थों के लेखक (ये ग्रन्थ अनुपलब्ध है)। ६-८. ग्रन्थ अज्ञात एवं अनुपलब्ध। ९. शल्यतन्त्र-आपरेशन सम्बन्धी ग्रन्थ के लेखक ( ये ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं)। १०. विष एवं उग्रग्रह आदि के शमन-समबन्धी ग्रन्थ के लेखक (ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं) । ११-१२ . बालरोग-चिकित्सा सम्बन्धी ग्रन्थ के लेखक (ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं)। १३. शरीर-बलवर्धक तथा बाजीकरण () आदि सम्बन्धी ग्रन्थ के लेखक (ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं)। १४. ‘कल्याणकारक’ के लेखक ( पं. वर्धमान पाश्र्वनाथ शास्त्री (शोलापुर) द्वारा सम्पादित एवं प्रकाशित, सन् १९४०ई०) १५. २२ सहस्र शब्दप्रमाण ‘निघण्टुकोष’ (अपूर्ण-सकार तक उपलब्ध) के लेखक। १६. ‘मेरुतन्त्र’ नामक वैद्यक ग्रन्थ के लेखक। १७. ‘गोवैद्य’ (कन्नड़) ग्रन्थ के लेखक। १८. ‘खगेन्द्रमणिदर्पण’ (कन्नड़) के लेखक। १९. ‘हयशास्त्र’ (कन्नड़) के लेखक। २०. ‘बालग्रह चिकित्सा’ (कन्नड़) के लेखक। २१.‘वैद्यामृत’ (कन्नड़ १४ अधिकारों में विभक्त) ग्रन्थ के लेखक। २२. ‘रसरत्नाकर’ (कन्नड़) एवं ‘वैद्य सांगत्य’ (कन्नड़) ग्रन्थ के लेख। २३. पूज्यपाद कृत ‘कल्याणकरक’ (संस्कृत) का कन्नड़ भाषा में अनुवाद करने वाले आचार्य। २४. दे० ‘कल्याणकारक’ भूमिका पृ० ५। २५. दे० ‘कल्याणकारक’ भूमिका पृ० १४। २६. वही भूमिका पृ. ४३। २७. ‘वैद्यसार-आयुर्वेदरत्न’ पं. सत्यन्धर जैन (आरा १९३१ ई०) भूमिका। २८. दे० ‘कल्याणकारक’ भूमिका पृ० २३,३२। २९. गा.सं० १००७। ३०-३१. दे० गाथा १००७। ३२. दे० गाथा १००८। ३३. दे० गाथा १००८। ३४. वही। ३५. गाथा सं० १००९। ३६. दे० गाथा १००९। ३७. दे० गाथा १०१०, १०१९। ३८-३९. दे० गाथा १०१०। ४०. दे० गाथा १०१२।


प्रो० डॉ० राजाराम जैन

प्राकृत-विद्या अक्टू.- दिस. १९९६ पृ. २० से २८

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 TIRTHANKARO KI PARAMPARA KA KAALलवण समुद्र–LAVAN SAMUDRA 


2 thoughts on “भगवती आराधना (Bhagwati Aaradhana) में वर्णित आयुर्वेद-विद्या”

Monday, May 24, 2021

गुरुकुल शिक्षा प्रणाली और आधुनिक शिक्षा प्रणाली एक चिंतन

 *आर्यावर्त भारत वर्ष से* 

*गुरुकुल कैसे खत्म हो गये*


आपको पहले ये बता दें कि 

हमारे सनातन संस्कृति परम्परा के 

गुरुकुल में 

क्या क्या पढ़ाई होती थी ! 


आर्यावर्त के गुरुकुल के बाद 

ऋषिकुल में क्या पढ़ाई होती थी 

यह जान लेना आवश्यक है । 


इस शिक्षा को लेकर अपने विचारों में 

परिवर्तन लायें और 

कृपया

प्रचलित भ्रान्तियों को दूर करें !


*वैज्ञानिक विद्यायें* 


०१ अग्नि विद्या (Metallurgy)

०२ वायु विद्या (Flight) 

०३ जल विद्या (Navigation) 

०४ अन्तरिक्ष विद्या (Space Science) 

०५ पृथ्वी विद्या (Environment)

०६ सूर्य विद्या (Solar Study) 

०७ चन्द्र व लोक विद्या (Lunar Study) 

०८ मेघ विद्या (Weather Forecast) 

०९ पदार्थ विद्युत विद्या (Battery) 

१० सौर ऊर्जा विद्या (Solar Energy) 

११ दिन रात्रि विद्या 

१२ सृष्टि विद्या (Space Research) 

१३ खगोल विद्या (Astronomy) 

१४ भूगोल विद्या (Geography) 

१५ काल विद्या (Time) 

१६ भूगर्भ विद्या (Geology Mining) 

१७ रत्न व धातु विद्या (Gems & Metals)

१८ आकर्षण विद्या (Gravity) 

१९ प्रकाश विद्या (Solar Energy) 

२० तार विद्या (Communication) 

२१ विमान विद्या (Plane)

२२ जलयान विद्या (Water Vessels) 

२३ अग्नेय अस्त्र विद्या (Arms & Ammunition)

२४ जीव जन्तु विज्ञान विद्या (Zoology Botany) 

२५ यज्ञ विद्या (Material Sic)


ये तो बातें हुई 

*वैज्ञानिक विद्याओं* की । 


अब बात करते हैं 

*व्यावसायिक और तकनीकी* *विद्या* की !


२६ वाणिज्य (Commerce)

२७ कृषि (Agriculture)

२८ पशुपालन (Animal Husbandry) 

२९ पक्षीपालन (Bird Keeping) 

३० पशु प्रशिक्षण (Animal Training) 

३१ यान यन्त्रकार (Mechanics) 

३२ रथकार (Vehicle Designing) 

३३ रतनकार (Gems) 

३४ सुवर्णकार (Jewellery Designing)

३५ वस्त्रकार (Textile) 

३६ कुम्भकार (Pottery) 

३७ लोहकार (Metallurgy)

३८ तक्षक

३९ रङ्ग साज (Dying) 

४० खटवाकर 

४१ रज्जुकर (Logistics)

४२ वास्तुकार (Architect)

४३ पाक विद्या (Cooking)

४४ सारथ्य (Driving)

४५ नदी प्रबन्धक (Water Management)

४६ सुचिकार (Data Entry)

४७ गोशाला प्रबन्धक (Animal Husbandry)

४८ उद्यान पाल (Horticulture)

४९ वन पाल (Horticulture)

५० नापित (Paramedical)


यह सभी विद्यायें 

*गुरुकुल में* सिखाई जाती थीं 


पर समय के साथ गुरुकुल लुप्त हुए तो 

यह सभी विद्यायें भी लुप्त होती गयी ! 


आज मैकाले पद्धति से 

हमारे देश के युवाओं का भविष्य नष्ट हो रहा है


तब ऐसे समय में गुरुकुल के 

पुनः उद्धार की आवश्यकता है।


भारतवर्ष में गुरुकुल कैसे खत्म हो गये ? 


कॉन्वेण्ट स्कूलों ने किया बर्बाद । 


1858 में 

Indian Education Act 

बनाया गया। 


इसकी ड्राफ्टिंग ‘लोर्ड मैकाले’ ने की थी। 


लेकिन उसके पहले उसने यहाँ (भारत) के 

शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण कराया था, 


उसके पहले भी कई अङ्गरेजों ने 

भारत की शिक्षा व्यवस्था के बारे में 

अपनी रिपोर्ट दी थी। 


अङ्गरेजों का एक अधिकारी था 

*G.W. Luther* और 

दूसरा था 

*Thomas Munro* ! 


*लूथर और मुनरो* 

दोनों ने अलग अलग इलाकों का 

अलग-अलग समय सर्वे किया था। 


*LUTHER* 

जिसने उत्तर भारत का सर्वे किया था, 

उसने लिखा है कि यहाँ 97% साक्षरता है और 


*MUNARO* 

जिसने दक्षिण भारत का सर्वे किया था, 

उसने लिखा कि यहाँ तो 100% साक्षरता है ।


मैकाले का स्पष्ट कहना था कि 

भारत को हमेशा-हमेशा के लिए 

अगर गुलाम बनाना है तो 


इसकी 

“देशी और सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था” 

को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और 


उसकी जगह 

“अँग्रेजी शिक्षा व्यवस्था” 

लानी होगी और 

तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी 

लेकिन दिमाग से अङ्ग्रेज पैदा होंगे और 

जब इस देश की यूनिवर्सिटी से निकलेंगे तो 

हमारे हित में काम करेंगे । 


मैकाले एक मुहावरा इस्तेमाल कर रहा है - 


“कि जैसे किसी खेत में कोई फसल लगाने के पहले 

पूरी तरह जोत दिया जाता है 

वैसे ही इसे जोतना होगा और 

अँग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी।” 


इस लिए उसने सबसे पहले गुरुकुलों को 

गैरकानूनी घोषित किया । 


जब गुरुकुल गैरकानूनी हो गए तो 

उनको मिलने वाली सहायता 

जो समाज की तरफ से होती थी 

वो गैरकानूनी हो गयी ।


फिर संस्कृत को गैरकानूनी घोषित किया और 

इस प्रकार से

इस देश के गुरुकुलों को 

घूम घूम कर ख़त्म कर दिया | 


उनमें आग लगा दी, 

उसमें पढ़ाने वाले गुरुओं को 

उसने मारा- पीटा, 

जेल में डाला। 


1850 तक इस देश में ’

7 लाख 32 हजार’ गुरुकुल हुआ करते थे 

और उस समय इस देश में गाँव थे ’

7 लाख 50 हजार’ । 

मतलब हर गाँव में औसतन 

एक गुरुकुल ।

और 

ये जो गुरुकुल होते थे 

वो सब के सब आज की भाषा में 

‘Higher Learning Institute’ 

हुआ करते थे । 


उन सबमें 18 विषय पढाया जाता था और 

ये गुरुकुल समाज के लोग मिलकर चलाते थे 

न कि राजा, महाराजा ।


गुरुकुलों में शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी। 


इस तरह से सारे गुरुकुलों को ख़त्म किया गया और 

फिर अँग्रेजी शिक्षा को 

कानूनी घोषित किया गया और 


कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल खोला गया । 

उस समय इसे 

*‘फ्री स्कूल’* कहा जाता था 


इसी कानून के तहत भारत में 

*कलकत्ता यूनिवर्सिटी* 

बनाई गयी, 

*बम्बई यूनिवर्सिटी* बनाई गयी, 

*मद्रास यूनिवर्सिटी* बनाई गयी, 


ये तीनों ब्रिटिश गुलामी ज़माने के यूनिवर्सिटी 

आज भी देश में हैं !


मैकाले ने अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी 

बहुत मशहूर चिट्ठी है वो, 

उसमें वो लिखता है कि: 


“इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे 

जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन 

दिमाग से अङ्ग्रेज होंगे और 


इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा । 

इनको अपने संस्कृति के बारे में 

कुछ पता नहीं होगा, 


इनको अपने परम्पराओं के बारे में 

कुछ पता नहीं होगा, 

इनको अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे, 


जब ऐसे बच्चे होंगे 

इस देश में तो 

अङ्ग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से 

अङ्ग्रेजियत नहीं जाएगी।” 


उस समय लिखी चिट्ठी की सच्चाई 

इस देश में अब साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है 

और उस एक्ट की महिमा देखिये कि 

हमें अपनी भाषा बोलने में शर्म आती है । 


अँग्रेजी में बोलते हैं तो

दूसरों पर रोब पड़ेगा । 

हम तो खुद में हीन हो गए हैं 


जिसे अपनी भाषा बोलने में शर्म आ रही है, 

दूसरों पर रोब क्या पड़ेगा। 


लोगों का तर्क है कि 

अँग्रेजी अन्तर्राष्ट्रीय भाषा है । 


दुनिया में 204 देश हैं और 

अँग्रेजी भाषा सिर्फ 

11 देशों में बोली, पढ़ी और समझी जाती है, 

फिर ये कैसे अन्तर्राष्ट्रीय भाषा है ॽ  


शब्दों के मामले में भी 

अँग्रेजी समृद्ध नहीं दरिद्र भाषा है। 

इन अङ्गरेजों की जो बाइबिल है 

वो भी अँग्रेजी में नहीं थी और 

ईसा मसीह अँग्रेजी नहीं बोलते थे। 

ईशा मसीह की भाषा और 

बाइबिल की भाषा 

अरमेक थी। 


अरमेक भाषा की लिपि जो थी वो 

हमारे बङ्गला भाषा से मिलती जुलती थी । 

समय के कालचक्र में वो भाषा विलुप्त हो गयी। 


*संयुक्त राष्ट्र संघ* 

जो अमेरिका में है 

वहाँ की भाषा अँग्रेजी नहीं है, 

वहाॅ का सारा काम फ्रेन्च में होता है। 


जो समाज अपनी मातृभाषा से कट जाता है 

उसका कभी भला नहीं होता 


और यही मैकाले की रणनीति थी ! 

जिसमें लगभग वो विजय पा चुके हैं


क्योंकि आज के हमारे युवा 

भारतीय बच्चों को

भारतीयता कम 

यूरोप की ज्यादा जानकारी है 


हमारे भारतीय बच्चे

विदेशी मुद्राओं 

और 

विदेशी वस्तुओं के प्रयोग के कारण 

हमारी भारतीय वैदिक सनातन संस्कृति को 

ढकोसला समझते हैं 

लेकिन पाश्चात्य देशों की नकल करते हैं ।  


सनातन धर्म की प्रमुखता और विशेषता को 

न जानते हुए भी 

वामपन्थियों का समर्थन करते हैं।


सभी वैदिक भारतीय सनातनियों से 

एक चुभता सवाल 


हम सभी भारतीयों को 

*सनातन वैदिक धर्म* की जानकारी होनी चाहिये । 


क्योंकि 

वैदिक साहित्य सनातन धर्म ही 

हमें *राष्ट्र धर्म* सिखाती है, 


*राष्ट्र धर्म* ही हमें

सामूहिक परिवार में रहना ,

भारतीयता ,

देशभक्ति और सामाजिकता सिखाती है, 


*राष्ट्र धर्म* ही हमें 

माता - पिता, और  गुरु 

के प्रति कर्तव्य 

और 

राष्ट्र के प्रति प्राण न्योछावर करने की 

प्रेरणा देती है। 


वैदिक सनातन परम्परा एक 

आध्यात्मिक विज्ञान है, 


जिस विज्ञान को हम सभी आज जानते हैं 

उससे हमारा बहुत ही समृद्ध  विज्ञान ही 

अध्यात्म है ।


*जयतु गुरुकुलम् , जयतु भारतम् ...*

*स्वदेशी शिक्षा अभियान...*

Friday, May 14, 2021

वैदिक धर्म की महत्वपूर्ण जानकारी

 #हिंदुओं #जानो #अपने #धर्म और #संस्कृति के #बारे #मे


*पाण्डव पाँच भाई थे जिनके नाम हैं -*

*1. युधिष्ठिर    2. भीम    3. अर्जुन*

*4. नकुल।      5. सहदेव*


*( इन पांचों के अलावा , महाबली कर्ण भी कुंती के ही पुत्र थे , परन्तु उनकी गिनती पांडवों में नहीं की जाती है )*


*यहाँ ध्यान रखें कि… पाण्डु के उपरोक्त पाँचों पुत्रों में से युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन*

*की माता कुन्ती थीं ……तथा , नकुल और सहदेव की माता माद्री थी ।*


*वहीँ …. धृतराष्ट्र और गांधारी के सौ पुत्र…..*

*कौरव कहलाए जिनके नाम हैं -*

*1. दुर्योधन      2. दुःशासन   3. दुःसह*

*4. दुःशल        5. जलसंघ    6. सम*

*7. सह            8. विंद         9. अनुविंद*

*10. दुर्धर्ष       11. सुबाहु।   12. दुषप्रधर्षण*

*13. दुर्मर्षण।   14. दुर्मुख     15. दुष्कर्ण*

*16. विकर्ण     17. शल       18. सत्वान*

*19. सुलोचन   20. चित्र       21. उपचित्र*

*22. चित्राक्ष     23. चारुचित्र 24. शरासन*

*25. दुर्मद।       26. दुर्विगाह  27. विवित्सु*

*28. विकटानन्द 29. ऊर्णनाभ 30. सुनाभ*

*31. नन्द।        32. उपनन्द   33. चित्रबाण*

*34. चित्रवर्मा    35. सुवर्मा    36. दुर्विमोचन*

*37. अयोबाहु   38. महाबाहु  39. चित्रांग 40. चित्रकुण्डल41. भीमवेग  42. भीमबल*

*43. बालाकि    44. बलवर्धन 45. उग्रायुध*

*46. सुषेण       47. कुण्डधर  48. महोदर*

*49. चित्रायुध   50. निषंगी     51. पाशी*

*52. वृन्दारक   53. दृढ़वर्मा   54. दृढ़क्षत्र*

*55. सोमकीर्ति  56. अनूदर    57. दढ़संघ 58. जरासंघ   59. सत्यसंघ 60. सद्सुवाक*

*61. उग्रश्रवा   62. उग्रसेन     63. सेनानी*

*64. दुष्पराजय        65. अपराजित* 

*66. कुण्डशायी        67. विशालाक्ष*

*68. दुराधर   69. दृढ़हस्त    70. सुहस्त*

*71. वातवेग  72. सुवर्च    73. आदित्यकेतु*

*74. बह्वाशी   75. नागदत्त 76. उग्रशायी*

*77. कवचि    78. क्रथन। 79. कुण्डी* 

*80. भीमविक्र 81. धनुर्धर  82. वीरबाहु*

*83. अलोलुप  84. अभय  85. दृढ़कर्मा*

*86. दृढ़रथाश्रय    87. अनाधृष्य*

*88. कुण्डभेदी।     89. विरवि*

*90. चित्रकुण्डल    91. प्रधम*

*92. अमाप्रमाथि    93. दीर्घरोमा*

*94. सुवीर्यवान     95. दीर्घबाहु*

*96. सुजात।         97. कनकध्वज*

*98. कुण्डाशी        99. विरज*

*100. युयुत्सु*


*( इन 100 भाइयों के अलावा कौरवों की एक बहनभी थी… जिसका नाम""दुशाला""था,*

*जिसका विवाह"जयद्रथ"सेहुआ था )*


*"श्री मद्-भगवत गीता"के बारे में-*


*ॐ . किसको किसने सुनाई?*

*उ.- श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाई।* 


*ॐ . कब सुनाई?*

*उ.- आज से लगभग 7 हज़ार साल पहले सुनाई।*


*ॐ. भगवान ने किस दिन गीता सुनाई?*

*उ.- रविवार के दिन।*


*ॐ. कोनसी तिथि को?*

*उ.- एकादशी* 


*ॐ. कहा सुनाई?*

*उ.- कुरुक्षेत्र की रणभूमि में।*


*ॐ. कितनी देर में सुनाई?*

*उ.- लगभग 45 मिनट में*


*ॐ. क्यू सुनाई?*

*उ.- कर्त्तव्य से भटके हुए अर्जुन को कर्त्तव्य सिखाने के लिए और आने वाली पीढियों को धर्म-ज्ञान सिखाने के लिए।*


*ॐ. कितने अध्याय है?*

*उ.- कुल 18 अध्याय*


*ॐ. कितने श्लोक है?*

*उ.- 700 श्लोक*


*ॐ. गीता में क्या-क्या बताया गया है?*

*उ.- ज्ञान-भक्ति-कर्म योग मार्गो की विस्तृत व्याख्या की गयी है, इन मार्गो पर चलने से व्यक्ति निश्चित ही परमपद का अधिकारी बन जाता है।* 


*ॐ. गीता को अर्जुन के अलावा* 

*और किन किन लोगो ने सुना?*

*उ.- धृतराष्ट्र एवं संजय ने*


*ॐ. अर्जुन से पहले गीता का पावन ज्ञान किन्हें मिला था?*

*उ.- भगवान सूर्यदेव को*


*ॐ. गीता की गिनती किन धर्म-ग्रंथो में आती है?*

*उ.- उपनिषदों में*


*ॐ. गीता किस महाग्रंथ का भाग है....?*

*उ.- गीता महाभारत के एक अध्याय शांति-पर्व का एक हिस्सा है।*


*ॐ. गीता का दूसरा नाम क्या है?*

*उ.- गीतोपनिषद*


*ॐ. गीता का सार क्या है?*

*उ.- प्रभु श्रीकृष्ण की शरण लेना*


*ॐ. गीता में किसने कितने श्लोक कहे है?*

*उ.- श्रीकृष्ण जी ने- 574*

*अर्जुन ने- 85* 

*धृतराष्ट्र ने- 1*

*संजय ने- 40.*


*अपनी युवा-पीढ़ी को गीता जी के बारे में जानकारी पहुचाने हेतु इसे ज्यादा से ज्यादा शेअर करे। धन्यवाद*


*अधूरा ज्ञान खतरनाक होता है।*


*33 करोड नहीँ  33 कोटी देवी देवता हैँ हिँदू*

*धर्म मेँ।*


*कोटि = प्रकार।* 

*देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है,*


*कोटि का मतलब प्रकार होता है और एक अर्थ करोड़ भी होता।*


*हिन्दू धर्म का दुष्प्रचार करने के लिए ये बात उडाई गयी की हिन्दुओ के 33 करोड़ देवी देवता हैं और अब तो मुर्ख हिन्दू खुद ही गाते फिरते हैं की हमारे 33 करोड़ देवी देवता हैं...*


*कुल 33 प्रकार के देवी देवता हैँ हिँदू धर्म मे :-*


*12 प्रकार हैँ*

*आदित्य , धाता, मित, आर्यमा,*

*शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवास्वान, पूष,*

*सविता, तवास्था, और विष्णु...!*


*8 प्रकार हे :-*

*वासु:, धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।*


*11 प्रकार है :-* 

*रुद्र: ,हर,बहुरुप, त्रयँबक,*

*अपराजिता, बृषाकापि, शँभू, कपार्दी,*

*रेवात, मृगव्याध, शर्वा, और कपाली।*


*एवँ*

*दो प्रकार हैँ अश्विनी और कुमार।*


*कुल :- 12+8+11+2=33 कोटी* 


*अगर कभी भगवान् के आगे हाथ जोड़ा है*

*तो इस जानकारी को अधिक से अधिक*

*लोगो तक पहुचाएं। ।*


*🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏*


*१ हिन्दु हाेने के नाते जानना ज़रूरी है*


*THIS IS VERY GOOD INFORMATION FOR ALL OF US ... जय श्रीकृष्ण ...*


*अब आपकी बारी है कि इस जानकारी*

 *को आगे बढ़ाएँ ......*


*अपनी भारत की संस्कृति* 

*को पहचाने.*

*ज्यादा से ज्यादा*

*लोगो तक पहुचाये.* 

*खासकर अपने बच्चो को बताए* 

*क्योकि ये बात उन्हें कोई नहीं* *बताएगा...*


*📜😇  दो पक्ष-*


*कृष्ण पक्ष ,* 

*शुक्ल पक्ष !*


*📜😇  तीन ऋण -*


*देव ऋण ,* 

*पितृ ऋण ,* 

*ऋषि ऋण !*


*📜😇   चार युग -*


*सतयुग ,* 

*त्रेतायुग ,*

*द्वापरयुग ,* 

*कलियुग !*


*📜😇  चार धाम -*


*द्वारिका ,* 

*बद्रीनाथ ,*

*जगन्नाथ पुरी ,* 

*रामेश्वरम धाम !*


*📜😇   चारपीठ -*


*शारदा पीठ ( द्वारिका )*

*ज्योतिष पीठ ( जोशीमठ बद्रिधाम )* 

*गोवर्धन पीठ ( जगन्नाथपुरी ) ,* 

*शृंगेरीपीठ !*


*📜😇 चार वेद-*


*ऋग्वेद ,* 

*अथर्वेद ,* 

*यजुर्वेद ,* 

*सामवेद !*


*📜😇  चार आश्रम -*


*ब्रह्मचर्य ,* 

*गृहस्थ ,* 

*वानप्रस्थ ,* 

*संन्यास !*


*📜😇 चार अंतःकरण -*


*मन ,* 

*बुद्धि ,* 

*चित्त ,* 

*अहंकार !*


*📜😇  पञ्च गव्य -*


*गाय का घी ,* 

*दूध ,* 

*दही ,*

*गोमूत्र ,* 

*गोबर !*


*📜😇  पञ्च देव -*


*गणेश ,* 

*विष्णु ,* 

*शिव ,* 

*देवी ,*

*सूर्य !*


*📜😇 पंच तत्त्व -*


*पृथ्वी ,*

*जल ,* 

*अग्नि ,* 

*वायु ,* 

*आकाश !*


*📜😇  छह दर्शन -*


*वैशेषिक ,* 

*न्याय ,* 

*सांख्य ,*

*योग ,* 

*पूर्व मिसांसा ,* 

*दक्षिण मिसांसा !*


*📜😇  सप्त ऋषि -*


*विश्वामित्र ,*

*जमदाग्नि ,*

*भरद्वाज ,* 

*गौतम ,* 

*अत्री ,* 

*वशिष्ठ और कश्यप!* 


*📜😇  सप्त पुरी -*


*अयोध्या पुरी ,*

*मथुरा पुरी ,* 

*माया पुरी ( हरिद्वार ) ,* 

*काशी ,*

*कांची* 

*( शिन कांची - विष्णु कांची ) ,* 

*अवंतिका और* 

*द्वारिका पुरी !*


*📜😊  आठ योग -* 


*यम ,* 

*नियम ,* 

*आसन ,*

*प्राणायाम ,* 

*प्रत्याहार ,* 

*धारणा ,* 

*ध्यान एवं* 

*समाधि !*


*📜😇 आठ लक्ष्मी -*


*आग्घ ,* 

*विद्या ,* 

*सौभाग्य ,*

*अमृत ,* 

*काम ,* 

*सत्य ,* 

*भोग ,एवं* 

*योग लक्ष्मी !*


*📜😇 नव दुर्गा --*


*शैल पुत्री ,* 

*ब्रह्मचारिणी ,*

*चंद्रघंटा ,* 

*कुष्मांडा ,* 

*स्कंदमाता ,* 

*कात्यायिनी ,*

*कालरात्रि ,* 

*महागौरी एवं* 

*सिद्धिदात्री !*


*📜😇   दस दिशाएं -*


*पूर्व ,* 

*पश्चिम ,* 

*उत्तर ,* 

*दक्षिण ,*

*ईशान ,* 

*नैऋत्य ,* 

*वायव्य ,* 

*अग्नि* 

*आकाश एवं* 

*पाताल !*


*📜😇  मुख्य ११ अवतार -*


 *मत्स्य ,* 

*कच्छप ,* 

*वराह ,*

*नरसिंह ,* 

*वामन ,* 

*परशुराम ,*

*श्री राम ,* 

*कृष्ण ,* 

*बलराम ,* 

*बुद्ध ,* 

*एवं कल्कि !*


*📜😇 बारह मास -* 


*चैत्र ,* 

*वैशाख ,* 

*ज्येष्ठ ,*

*अषाढ ,* 

*श्रावण ,* 

*भाद्रपद ,* 

*अश्विन ,* 

*कार्तिक ,*

*मार्गशीर्ष ,* 

*पौष ,* 

*माघ ,* 

*फागुन !*


*📜😇  बारह राशी -* 


*मेष ,* 

*वृषभ ,* 

*मिथुन ,*

*कर्क ,* 

*सिंह ,* 

*कन्या ,* 

*तुला ,* 

*वृश्चिक ,* 

*धनु ,* 

*मकर ,* 

*कुंभ ,*

*मीन!*


*📜😇 बारह ज्योतिर्लिंग -* 


*सोमनाथ ,*

*मल्लिकार्जुन ,*

*महाकाल ,* 

*ओमकारेश्वर ,* 

*बैजनाथ ,* 

*रामेश्वरम ,*

*विश्वनाथ ,* 

*त्र्यंबकेश्वर ,* 

*केदारनाथ ,* 

*घुष्नेश्वर ,*

*भीमाशंकर ,*

*नागेश्वर !*


*📜😇 पंद्रह तिथियाँ -*


*प्रतिपदा ,*

*द्वितीय ,*

*तृतीय ,*

*चतुर्थी ,* 

*पंचमी ,* 

*षष्ठी ,* 

*सप्तमी ,* 

*अष्टमी ,* 

*नवमी ,*

*दशमी ,* 

*एकादशी ,* 

*द्वादशी ,* 

*त्रयोदशी ,* 

*चतुर्दशी ,* 

*पूर्णिमा ,* 

*अमावास्या !*


*📜😇 स्मृतियां -* 


*मनु ,* 

*विष्णु ,* 

*अत्री ,* 

*हारीत ,*

*याज्ञवल्क्य ,*

*उशना ,* 

*अंगीरा ,* 

*यम ,* 

*आपस्तम्ब ,* 

*सर्वत ,*

*कात्यायन ,* 

*ब्रहस्पति ,* 

*पराशर ,* 

*व्यास ,* 

*शांख्य ,*

*लिखित ,* 

*दक्ष ,* 

*शातातप ,* 

*वशिष्ठ !*


हिन्दू धर्म की 10 महत्वपूर्ण बातें ........


१...10 ध्वनियां :  1.घंटी, 2.शंख, 3.बांसुरी, 4.वीणा, 5. मंजीरा, 6.करतल, 7.बीन (पुंगी), 8.ढोल, 9.नगाड़ा और 10.मृदंग


२,,,,10 कर्तव्य:- 1. संध्यावंदन, 2. व्रत, 3. तीर्थ, 4. उत्सव, 5. दान, 6. सेवा 7. संस्कार, 8. यज्ञ, 9. वेदपाठ, 10. धर्म प्रचार। आओ जानते हैं इन सभी को विस्तार से।


३,,,,10 दिशाएं : दिशाएं 10 होती हैं जिनके नाम और क्रम इस प्रकार हैं- उर्ध्व, ईशान, पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य, उत्तर और अधो। एक मध्य दिशा भी होती है। इस तरह कुल मिलाकर 11 दिशाएं हुईं।


४....10 दिग्पाल : 10 दिशाओं के 10 दिग्पाल अर्थात द्वारपाल होते हैं या देवता होते हैं। उर्ध्व के ब्रह्मा, ईशान के शिव व ईश, पूर्व के इंद्र, आग्नेय के अग्नि या वह्रि, दक्षिण के यम, नैऋत्य के नऋति, पश्चिम के वरुण, वायव्य के वायु और मारुत, उत्तर के कुबेर और अधो के अनंत।


५.….10 देवीय आत्मा : 1.कामधेनु गाय, 2.गरुढ़, 3.संपाति-जटायु, 4.उच्चै:श्रवा अश्व, 5.ऐरावत हाथी, 6.शेषनाग-वासुकि, 7.रीझ मानव, 8.वानर मानव, 9.येति, 10.मकर।


६.....10 देवीय वस्तुएं : 1.कल्पवृक्ष, 2.अक्षयपात्र, 3.कर्ण के कवच कुंडल, 4.दिव्य धनुष और तरकश, 5.पारस मणि, 6.अश्वत्थामा की मणि, 7.स्यंमतक मणि, 8.पांचजन्य शंख, 9.कौस्तुभ मणि और संजीवनी बूटी।


७....10 पवित्र पेय : 1.चरणामृत, 2.पंचामृत, 3.पंचगव्य, 4.सोमरस, 5.अमृत, 6.तुलसी रस, 7.खीर, 9.आंवला रस


८....10 महाविद्या : 1.काली, 2.तारा, 3.त्रिपुरसुंदरी, 4. भुवनेश्‍वरी, 5.छिन्नमस्ता, 6.त्रिपुरभैरवी, 7.धूमावती, 8.बगलामुखी, 9.मातंगी और 10.कमला।


९....10 उत्सव : नवसंवत्सर, मकर संक्रांति, वसंत पंचमी, पोंगल, होली, दीपावली, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्‍टमी, महाशिवरात्री और नवरात्रि।


१०...10 बाल पुस्तकें : 1.पंचतंत्र, 2.हितोपदेश, 3.जातक कथाएं, 4.उपनिषद कथाएं, 5.वेताल पच्चिसी, 6.कथासरित्सागर, 7.सिंहासन बत्तीसी, 8.तेनालीराम, 9.शुकसप्तति, 10.बाल कहानी संग्रह।


११....10 पूजा : गंगा दशहरा, आंवला नवमी पूजा, वट सावित्री, तुलसी विवाह पूजा, शीतलाष्टमी, गोवर्धन पूजा, हरतालिका तिज, दुर्गा पूजा, भैरव पूजा और छठ पूजा।


१२...10 धार्मिक स्थल : 12 ज्योतिर्लिंग, 51 शक्तिपीठ, 4 धाम, 7 पुरी, 7 नगरी, 4 मठ, आश्रम, 10 समाधि स्थल, 5 सरोवर, 10 पर्वत और 10 गुफाएं।


१३..10 पूजा के फूल : आंकड़ा, गेंदा, पारिजात, चंपा, कमल, गुलाब, चमेली, गुड़हल, कनेर, और रजनीगंधा।


१४...10 धार्मिक सुगंध : गुग्गुल, चंदन, गुलाब, केसर, कर्पूर, अष्टगंथ, गुढ़-घी, समिधा, मेहंदी, चमेली।


१५...10 यम-नियम :1.अहिंसा, 2.सत्य, 3.अस्तेय 4.ब्रह्मचर्य और 5.अपरिग्रह। 6.शौच 7.संतोष, 8.तप, 9.स्वाध्याय और 10.ईश्वर-प्रणिधान।


१६...10 सिद्धांत : 

1.एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति (एक ही ईश्‍वर है दूसरा नहीं), 2.आत्मा अमर है, 

3.पुनर्जन्म होता है, 

4.मोक्ष ही जीवन का लक्ष्य है, 5.कर्म का प्रभाव होता है, जिसमें से ‍कुछ प्रारब्ध रूप में होते हैं इसीलिए कर्म ही भाग्य है, 6.संस्कारबद्ध जीवन ही जीवन है, 

7.ब्रह्मांड अनित्य और परिवर्तनशील है, 

8.संध्यावंदन-ध्यान ही सत्य है, 9.वेदपाठ और यज्ञकर्म ही धर्म है, 

10.दान ही पुण्य है।


*इस पोस्ट को अधिकाधिक शेयर करें जिससे सबको हमारी संस्कृति का ज्ञान हो।*


Thursday, May 6, 2021

तीनों लोकों में स्थित अकृत्रिम जिन मंदिर चैत्यालय

 *तीनलोक के संपूर्ण अकृत्रिम चैत्यालय*

*१० भवनवासी संबंधी अकृत्रिम चैत्यालय*

👉असुरकुमार~देवों के भवनों में ६४ लाख चैत्यालय हैं।

👉नागकुमार~देवों के भवनों में ८४ लाख चैत्यालय हैं।

👉सुपर्णकुमार~देवों के भवनों में ७२ लाख चैत्यालय हैं।

👉द्वीपकुमार~देवों के भवनों में ७६ लाख चैत्यालय हैं।

👉दिक्कुमार~देवों के भवनों में ‌७६ लाख चैत्यालय हैं।

👉उदधिकुमार~देवों के भवनों में ७६ लाख चैत्यालय हैं।

👉स्तनिकुमार~देवों के भवनों में ७६ लाख चैत्यालय हैं।

👉विद्युतकुमार देवों के भवनोंमें ७६ लाख चैत्यालय हैं।

👉अग्निकुमार~देवों के भवनों में ७६ लाख‌ चैत्यालय हैं।

👉वायुकुमार~देवों के भवनों में ९६ लाख चैत्यालय हैं।

👉भवनवासी देवों संबंधी अकृत्रिम चैत्यालय की सम्पूर्ण संख्या ७ करोड़ ७२ लाख है।

👉व्यंतर देवों संबंधी सम्पूर्ण अकृत्रिम चैत्यालय असंख्यात हैं।

👉इस प्रकार उर्ध्व लोक के अकृत्रिम चैत्यालय‌‌ की संख्या ८४ ९७,०२३(चौरासी लाख सत्तानवें हजार तेईस) है।

👉मध्यलोक संबंधी सम्पूर्ण अकृत्रिम चैत्यालय की संख्या ४५८ है।

👉अधोलोक संबंधी संपूर्ण अकृत्रिम चैत्यालय की संख्या ७ करोड़ ७२ लाख है।

👉इस प्रकार ८४,९७,०२३+४५८+७,७२०००००=८ करोड़ ५६ लाख ९७ हजार ४८१ तीन लोकों के अकृत्रिम चैत्यालय‌‌ हैं।

👉इन तीनों लोकों के अकृत्रिम चैत्यालय‌‌ और उनमें विराजमान समस्त जिन~प्रतिमाओं को मेरा मन वचन काम से त्रिकाल में त्रिबार नमोस्तु 

महानायक चंद्रगुप्त मौर्य

 महाप्रतापी चंद्रगुप्त मौर्य "महान सम्राट" की भारतीय अवधारणा का साक्षात उदाहरण थे। अहर्निश जनकल्याण को समर्पित, अनुशासित, करूणावत्सल, उदार, योग्य प्रशासक, महान सेनानायक थे। वे जैन धर्म के अनुयायी थे। ईसापूर्व चौथी शती में जब ग्रीक आक्रमणों से भयभीत, छोटे छोटे टुकड़ों में बंटे देश को जोड़ कर चंद्रगुप्त मौर्य ने महान रणनीतिकार व कूटनीतिज्ञ, सर्वश्रेष्ठ महामंत्री व देशभक्त गुरू चाणक्य के आशीर्वाद, कृपा और सहायता से अखंड भारत की कल्पना को साकार किया। वह भारत का महानतम साम्राज्य था । उसके पौत्र अशोक ने उसमें केवल कलिंग और जोड़ा। यह भ्रम देशी व वामंपथी इतिहासकारों द्वारा फैलाया गया है कि भारतवर्ष को राजनीतिक एकता का पाठ अंग्रेजों ने पढ़ाया। यह गलत है। 

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जब चंद्रगुप्त मौर्य अपनी प्रांतीय उपराजधानी उज्जैन में ठहरे थे, तब जैनाचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवली विशाल संघ सहित वहां पधारे। चंद्रगुप्त को उन्ही दिनों 16 स्वप्न दिखे। उनका फल भद्रबाहुस्वामी ने दुखद बताया और आचार्य भद्रबाहु ने निमित्त ज्ञान से जान लिया कि उत्तर भारत में 12 वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ने वाला है। महाराजाधिराज चंद्रगुप्त को वैराग्य हो गया। अपना मुकुट पुत्र बिंदुसार के सिर पर रख कर उन्होंने जिनदीक्षा ले ली, और आचार्य भद्रबाहु स्वामी के साथ वे दक्षिण में श्रवणबेलगोल चले गये, जहां मुनि भद्रबाहु स्वामी ने संल्लेखना ली। एकमात्र शिष्य चंद्रगुप्त जिनका दीक्षा पश्चात् नाम मुनिप्रभाचंद्र था, को छोड़ शेष को दक्षिण में पांड्य प्रदेश की ओर भेज दिया। अपने आपको महान सौभाग्यशाली व धन्य समझ इन्होंने गुरु की वैयावृत्ति आदि करते हुए संल्लेखना सहित समाधि करायी। चंद्रगुप्त मौर्य अंतिम मुकुटधारी सम्राट थे जिन्होंने जिनदीक्षा ली। श्रवणबेलगोल के चंद्रगिरि नामक पर्वत अथवा चिकबैट्ट पर आज भी भद्रबाहु गुफा स्थित है जहां भद्रबाहुस्वामी और मुनि श्री प्रभाचंद ने समाधि प्राप्त की और उनके चरण चिन्ह अंकित हैं।

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इतिहास की पुस्तकें इस बारे में मौन हैं कि चंद्रगुप्त मौर्य  कठिनता से प्राप्त पाये साम्राज्य को छोड़ 50 वर्ष की उम्र में कहां चले गए थे। चंद्रगिरि पर्वत अथवा चिकबैट्ट पर स्थित 7वीं- 8वीं शती के पाश्र्वनाथ मंदिर अथवा चंद्रगुप्तबसदि के गर्भगृह द्वार के दोंनो ओर जालीदार पाषाण फलकों पर शिल्पांकिंत भद्रबाहुस्वामी और चंद्रगुप्त मौर्य की जीवन कथा से तथा इसी  पर्वत पर प्राप्त 7वीं शताब्दी के अभिलेख से इस बात की पुष्टि होती है। इस अभिलेख के अनुसार ’जो जैनधर्म भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मुनीन्द्र के तेज से भारी समृद्धि को प्राप्त हुआ था, उसके किंचित् क्षीण हो जाने पर शान्तिसेन मुनि ने उसे पुनः स्थापित किया। इन मुनियों ने बेलगोल पर्वत पर अन्न आदि का त्याग कर पुर्नजन्म को जीत लिया।’

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भद्रबाहुसचन्द्रगुप्तमुनीचन्द्रयुगमदिनोप्पेवल्।

भद्रमागिद धम्र्ममन्दु वलिक्केवन्दिनिसल्कलो।।

विद्रुमाधर शान्तिसेन-मुनीशनाक्किएवेल्गोल

अद्रिमेलशनादि विट्ट पुनर्भवक्केरे आगि...।।

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यह इतिहास की वह गुमी हुई कड़ी है जो चंद्रगुप्त मौर्य के अंतिम दिनों के बारे में बताती है। अनेक विद्वान अब इस तथ्य को स्वीकार करते हैं। समय है कि देश इस तथ्य को जाने समझे। जैनशास्त्र स्पष्ट संकेत दे रहे थे कि चंद्रगुप्त मौर्य जैनमुनि हो गये थे। किंतु जैसा कि इतिहासवेत्ता राईस डेविड्स का कथन सटीक हैै कि ”चूंकि चन्द्रगुप्त जैन धर्मानुयायी हो गया था इसी कारण जैनेतरों द्वारा वह अगली दस शताब्दियों तक इतिहास में उपेक्षित ही बना रहा (बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ 164)। यूनानी राजदूत मेगस्थनीज का साक्ष्य भी पुष्ट करता है कि चंद्रगुप्त मौर्य जैन धर्मपालक थे। अजीब बात है कि अशोक का बौद्धधर्म को अपनाना और धम्मविजय, इतिहास में अनेक तरह से लिखी गई पर भारत के लिखित इतिहास के प्रथम महान सम्राट उनके पितामह चंद्रगुप्त मौर्य का अल्पायु में मोह माया छोड़ जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने के बारे में इतिहास मौन रहा। विद्वान थाॅमस ने लिखा है - चंद्रगुप्त जैन थे (जर्नल आफ दि रियल सीरीज, लेख 8, जैन धर्म और अशोक का पूर्व धर्म)। प्रसिद्ध इतिहासकार विसेंट स्मिथ ने माना है कि लेविस राईस के द्वारा खोजे गये श्रवणबेलगोल के शिलालेखों को अविश्वसनीय मानना जैनों को समस्त परंपरा और उल्लेखों को अविश्वसनीय मानना है। मैं मानता हूं कि चंद्रगुप्त सिंहासन का त्याग कर जैनमुनि हो गये थे, मानने की परंपरा सत्य है (भारत का प्राचीन इतिहास, तृतीय संस्करण पृ. 146)


गाय के गोबर का महत्व

 आयुर्वेद ग्रंथों  में हमारे ऋषि मुनियों ने पहले ही बता दिया गया  था कि   *धोवन पानी पीने का वैज्ञानिक तथ्य और आज की आवश्यकता* वायुमण्डल में...