Wednesday, February 20, 2019

वर्ण व्यवस्था

वर्ण वयवस्था
उच्चता व नीचता में गुणकर्म व जन्म की कथंचित्‌ प्रधानता व गौणता
कथंचित्‌ गुणकर्म की प्रधानता
कुरल/९८/३ कुलीनोऽपि कदाचारात्‌ कुलीनो नैव जायते । निम्नजोऽपि सदाचारान्‌ न निम्नः प्रतिभासते ।३।
🍹अर्थ:- उत्तम कुल में उत्पन्न होने पर भी यदि कोई सच्चरित्र नहीं है तो वह उच्च नहीं हो सकता और हीन वंश में जन्म लेने मात्र से कोई पवित्र आचार वाला नीच नहीं हो सकता ।३ ।

म.पु./७४/४९१-४९५वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्नप्यदर्शनात्‌ । ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्यैर्गर्भाधानप्रदर्शनात्‌ ।४९१। नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत्‌ । आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते ।४९२। जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः । येषु ते स्युस्त्रयो वर्णाः शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिता: ।४९३। अच्छेदो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंततेः । तद्धेतुनामगोत्राढयजीवाविच्छन्नसंभवात्‌ ।४९४। शेषयोस्तु चतुर्थे स्यात्काले तज्जातिसंततिः । एवं वर्ण विभागः स्यान्मनुष्येषु जिनागमे ।४९५।

🍀अर्थ:-मनुष्यों के शरीरों में न तो कोई आकृति का भेद है और न ही गाय और घोड़े के समान उनमें कोई जाति भेद है, क्योंकि ब्राह्मणी आदि में शूद्र आदि के द्वारा गर्भ धारण किया जाना देखा जाता है । आकृतिका भेद न होने से भी उनमें जाति भेद की कल्पना करना अन्यथा है ।४९१-४९२ । जिनकी जाति तथा कर्म शुक्लध्यान के कारण हैं वे त्रिवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य) कहलाते हैं और बाकी शूद्र कह जाते हैं । (परन्तु यहाँ केवल जाति को ही शुक्लध्यान को कारण मानना योग्य नहीं है -।४९३।
विदेहक्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का कभी विच्छेद नहीं होता, क्योंकि वहाँ उस जाति में कारणभूत नाम और गोत्र से सहित जीवों की निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है ।४९४।

किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थ काल में ही जाति की परम्परा चलती है, अन्य कालों में नहीं । जिनागम में मनुष्यों का वर्ण विभाग इस प्रकार बतलाया गया है ।४९५।

गो.क./मू./१३/९ उच्चं णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं ।१३।

🌺अर्थ:-जहाँ ऊँचा आचरण होता है वहाँ उच्चगोत्र और जहाँ नीचा आचरण होता है वहाँ नीचगोत्र होता है ।
ज्ञान, संयम, तप आदि गुणों को धारण करने से ही ब्राह्मण है, केवल जन्म से नहीं ।)
ज्ञान, रक्षा, व्यवसाय व सेवा इन चार कर्मों के कारण ही इन चार वर्णों का विभाग किया गया है।

सा.ध./७/२० ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो भिक्षुश्च सप्तमे । चत्वारोऽगे क्रियाभेदादुक्ता वर्णवदाश्रमाः ।२०।

🍁अर्थ:- जिस प्रकार स्वाध्याय व रक्षा आदि के भेद से ब्राह्मण आदि चार वर्ण होते हैं, उसी प्रकार धर्म क्रियाओं के भेद से ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास ये चार आश्रम होते हैं । ऐसा सातवें अंग में कहा गया है ।

मो.मा.प्र./३/८९/९ कुल की अपेक्षा आपको ऊँचा नीचा मानना भ्रम है । ऊँचा कुल का कोई निन्द्य कार्य करै तो वह नीचा होइ जाय । अर नीच कुलविषै कोई श्लाघ्य कार्य करै तो वह ऊँचा होइ जाय ।

मो.मा.प्र./६/२५८/२ कुल की उच्चता तो धर्म साधनतैं है । जो उच्चकुलविषै उपजि हीन आचरन करै, तौ वाकौ उच्च कैसे मानिये ।.....धर्म पद्धतिविषै कुल अपेक्षा महंतपना नाहीं संभवै है ।
                        

Monday, February 18, 2019

परीक्षा में आप कितने सफल होंगे जानिये

परीक्षा में सफलता के योग ज्योतिष के अनुसार


परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन के लिए ज्योतिषीय मार्गदर्शन
परीक्षा का समय नजदीक आते ही STUDENTS के मन में अनजाना डर सा लगा रहता है और CONFIDENCE LEVEL काफी कम होता दीखता है कितनी ही मेहनत की हो NERVOUSNESS और EXAM FEVER हो जाता है । कई बार तो परीक्षा हॉल में उत्तर लिखते हुए कोई शब्द, वाक्य या फार्मूला  जल्दी से  याद नहीं आ पाता  या  भूल  जाते है |
 हर छात्र व उनके माता पिता की कामना होती है, कि वह परीक्षा में न केवल उत्तीर्ण हो, बल्कि उसे अच्छी सफलता भी मिले। कई बार बच्चों के कठिन परिश्रम के बाद भी उन्हें अपेक्षित परिणाम नहीं मिलता। तब यह बात सोचने पर मजबूर करती है के ऐसा क्यों हो रहा है |
ऐसे समय में जन्म कुंडली के ग्रहो को रोल काफी महत्वपूर्ण होता है  |
ज्ञान, विज्ञान विद्या के क्षेत्र में ज्योतिष विज्ञान दृष्टि का कार्य करता है।
वेदचक्षुः क्लेदम् स्मृतं ज्योतिषम्।

आपकी  जन्म–कुंडली का ज्योतिषीय विश्लेषण आपको सही प्रकार से मार्गदर्शन कर सकता है।
जन्म कुंडली के ग्रह आपके अध्ययन (Study ) में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिओं का निर्माण करते है।
किसी भी परीक्षा में सफलता की कुंजी है छात्र की योग्यता और कठिन परीश्रम। इन सब चीजों के साथ यदि जन्म कुंडली में ग्रहों की शुभता भी प्राप्त हो जाए तो सफलता की संभावनाएं और अधिक बढ़ जाती हैं।
परीक्षा में  सफलता   के लिए  कुंडली के कई ग्रहो का रोल काफी महत्व रखता है |
ग्रहों की भूमिका

A मंगल से व्यक्ति में साहस और उत्साह की वृद्घि होती है जो परीक्षा में सफलता की प्राप्ति के लिये अत्यन्त आवश्यक है।
B सूर्य का सम्बन्ध आत्म विश्वास से है | सूर्य यदि पीड़ित, निर्बल अशुभ प्रभाव में हो तो आत्म बल कमजोर हो जाता है। इस कारण पढाई में मन काम लगता है |

C गुरु का सम्बन्ध ज्ञान से है |
D परीक्षा का संबंध स्मरणशक्ति से है, जो बुध की देन है। बुध की अशुभता के कारण विधार्थी में तर्क एवं कुशलता के कमी होती है
E परीक्षा भवन में मानसिक संतुलन एवं एकाग्रता का कारक है चंद्रमा | चंद्रमा की स्थिति विद्यार्थी के दृष्टिकोण को प्रभावित करती है ।

जन्म कुंडली के अनुसार परीक्षा में ऊच्च सफलता के ज्योतिषीय योग
1 ज्योतिषशास्त्र का मानना है जिनकी कुंडली में ज्ञान भाव (पंचम भाव), धन भाव (द्वितीय), आय, भाग्य और सुख भाव मजबूत व शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट होते हैं, तो उन्हें सफलता मिलती है।
2 यदि जन्मकुंडली में बुधादित्य-योग, गजकेसरी-योग, सरस्वती-योग, शारदा-योग, हंस-योग, भारती-योग, शारदा लक्ष्मी योग हो तो जातक परीक्षा में अच्छी सफलता प्राप्त करता है एवेम उच्च शिक्षा प्राप्त करता है |
3 केंद्र स्थान में उच्च के गुरू, चंद्रमा, शुक्र या शनि हो तो जातक परीक्षा प्रतियोगिता में असफल नहीं होता है।
4 लग्नेश त्रिकोण में, धनेश एकादश में तथा पंचम भाव पंचमेश की शुभ दृष्टि हो तो जातक विद्वान होता है और प्रतियोगिता में सफलता पाता है।
5 पंचम भाव के स्वामी गुरू हों और दशम भाव के स्वामी शुक्र हों तथा गुरू दशम भाव में व शुक्र पंचम भाव में हो, तो सफलता प्राप्त होती है।
6 गुरू चंद्रमा के घर में तथा चंद्रमा गुरू के घर में साथ ही चंद्रमा पर गुरू की दृष्टि हो, तो सरस्वती योग बनता है |
7 केंद्र में किसी भी स्थान पर चंद्र-गुरू का गजकेशरी योग हो, तो ऎसा जातक बड़ी प्रतियोगी परीक्षाओं में अवश्य सफल होता है।
8 कुंडली में क्षीण चंद्र हो तो शिक्षा में बाधा आती है। चन्दमा अशुभ होता है तो चंचल होता है इस कारण मन मस्तिष्क में स्थिरता और एकाग्रता को प्रभावित करता है |

क्या उपाय करें

माँ सरस्वती विद्या व ज्ञान की अधिष्ठात्री हैं। माँ सरस्वती की पूजा-आराधना से स्मरण शक्ति तीव्र होती है, सौभाग्य प्राप्त होता है, विद्या में कुशलता प्राप्त होती है।

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं महासरस्वती देव्यै नम:

इस मन्त्र के जाप से जन्मकुण्डली के लग्न (प्रथम भाव), पंचम (विद्या) और नवम (भाग्य) भाव के दोष भी समाप्त हो जाते हैं। इन तीनों भावों (त्रिकोण) पर श्री महाकाली, श्री महासरस्वती और श्री महालक्ष्मी का अधिपत्य माना जाता है। मां सरस्वती की कृपा से ही विद्या, बुद्धि, वाणी और ज्ञान की प्राप्ति होती है।
कुशल ज्योतिषी की सलाह पर परीक्षा में अच्छे अंको के प्राप्ति के लिए जन्म कुंडली के सम्बंधित भाव , भावेश तथा कारक ग्रह से सम्बंधित ज्योतिषीय उपाय करने से सफलता की संभावनाएं और अधिक बढ़ जाती हैं।
पढ़ाई के साथ इन्हें भी अपनाएँ और अच्छे परिणाम पाए |

Sunday, February 17, 2019

कुंडली में भकूट दोष

भकूट दोष
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विवाह के लिये अष्टकूट गुण मिलान
भकूट को 7 अंक प्राप्त है ।
भकूट दोष बनता केसे है ?

भकूट दोष का निर्णय वर वधू की जन्म कुंडलियों में चन्द्रमा की किसी राशि में उपस्थिति के कारण बन रहे संबंध के चलते किया जाता है। यदि वर-वधू की कुंडलियों में चन्द्रमा परस्पर 6-8, 9-5 या 12-2 राशियों में स्थित हों तो भकूट मिलान के 0 अंक होते है ।
इसके परिणाम क्या होते है ?
शास्त्रानुसार 6-8 होने पर पति या पत्नी मे से एक कि अकाल मृत्यु , 9-5 होने पर संतानोत्पत्ति मे बाधा ,तथा 2-12 होने पर जीवन मे दरिद्रता देखनी पडती है ।
परिहार उपाय
इसका परिहार केसे होता है ?

यदि वर-वधू दोनों की जन्म कुंडलियों में चन्द्र राशियों का स्वामी एक ही ग्रह हो तो भकूट दोष खत्म हो जाता है। जैसे कि मेष-वृश्चिक तथा वृष-तुला राशियों के एक दूसरे से छठे-आठवें स्थान पर होने के पश्चात भी भकूट दोष नहीं बनता क्योंकि मेष-वृश्चिक दोनों राशियों के स्वामी मंगल हैं तथा वृष-तुला दोनों राशियों के स्वामी शुक्र हैं। इसी प्रकार मकर-कुंभ राशियों के एक दूसरे से 12-2 स्थानों पर होने के पश्चात भी भकूट दोष नहीं बनता क्योंकि इन दोनों राशियों के स्वामी शनि हैं।

यदि वर-वधू दोनों की जन्म कुंडलियों में चन्द्र राशियों के स्वामी आपस में मित्र हैं तो भी भकूट दोष का प्रभाव कम हो जाता है जैसे कि मीन-मेष तथा मेष-धनु में भकूट दोष निर्बल रहता है क्योंकि इन दोनों ही उदाहरणों में राशियों के स्वामी गुरू तथा मंगल हैं जो कि आपसे में मित्र माने जाते हैं।

प्राचीन ज्योतिष शास्त्र मे केवल भकूट दोष के आधार पर ""पति-पत्नी"" मे से एक कि मृत्यु , संतानोत्पत्ति मे बाधा, तथा दरिद्रता जैसे फल बताये गये है ।
यदि ऐसा विवाह हो गया है तो क्या होगा ?
आधुनिक तथा व्यवहारिक ज्योतिष मे भकूट दोष के परिणाम:--
अगर भकूट दोष के होते वर वधु का विवाह कर दिया जाये तो जीवन मे पति ओर पत्नी दोनों को 100% अत्यंत बुरा समय एक साथ देखना होगा, इस बुरे समय मे उनके साथ किसी भी प्रकार कि बुरी घटना घटित हो सकती है । तथा इस बुरे समय मे उन्हे कहीं से भी किसी भी प्रकार कि सहायता प्राप्त नही होगी । भाग्य साथ छोडकर दुर्भाग्य साथ पकड लेगा ।
अगर भकूट दोष ना हो तथा जीवन मे पति का खराब समय आ जाये तो पत्नी के ग्रह पति के बुरे समय मे उसकी रक्षा करते है , तथा किसी ना किसी प्रकार से समस्या का समाधान हो ही जाता है । आजकल ज्योतिष मे छोटी छोटी बातों पर ध्यान न देकर बहुत बडी गलती कर दी जाती है, जिसका परिणाम विवाह के बाद दम्पत्ति को भुगतना पडता है । कुछ घटनाये जीवन मे अवश्यंभावी होती है, उनका घटना 100% निश्चित होता है, अतः उसी के अनुसार मनुष्य कि बुद्धि हो जाती है ।

Monday, February 11, 2019

प्रमुख ग्रंथ और उनके रचनाकार

*☀प्रमुख जैन ग्रंथ,और रचनाकार☀*

1 - श्री आदि पुराण
*श्री जिनसेनाचार्य जी*

2 - श्री उत्तर पुराण
*श्री रविसेनाचार्य जी*

3 - श्री चौबीसी पुराण 
*श्री शुभचन्द्र आचार्य*

4 - श्री पांडव पुराण
*श्री शुभ चन्द्राचार्य जी*

5 - श्री श्रेणिक चरित्र
*श्री शुभ चन्द्राचार्य*

6 - श्री प्रद्युमनचरित्र
*श्री आचार्य सकल कीर्ति जी*

7 - श्री क्षत्रचूड़ामणि 
*आचार्य श्री वादीभसिंह जी*

8 - श्री गद्यचिंतामणी
*आचार्य श्री वादीभसिंह जी*

9 - श्री हरिवंश पुराण
*आचार्य श्री जिनसैन जी*

 10 - श्री श्रीपाल चरित्र
*श्री सकल कीर्ति आचार्य*

11 - श्री शांतिनाथ पुराण
*श्री महाकवि असग जी*

12 - श्री महापुराण 
  *आचार्य श्री पुष्पदंत जी*

 13 - श्री यशः तिलक चंपू
  *आचार्य श्री सोमदेव जी*

 14 - श्री चंदाप्रभू चरितम्
*आचार्य श्री वीर नंदी जी*

 15 - श्री धर्मशर्माभ्युदय
  *आचार्य श्री जिनसेन जी*

16 - तिलोयपण्णत्ति
  *आचार्यश्री यतिवृषभजी*

 17 - जम्बूद्वीप पण्णत्ति
  *आचार्यश्री यतिवृषभजी*

 18 - लब्धिसार
*आचार्य श्री नेमचन्द्र जी*

19 - क्षपणसार
 *आचार्य श्री नेमचन्द्र जी*

20  - त्रिलोकसार
**श्री नेमीचन्द्राचार्य*

21 -  मरण कंडिका
*आचार्य श्री अमितगति जी*

22 - षट्खंडगम
*आचार्य श्री भूतबली पुष्पदंत जी*

23 - कषाय पाहुड
 *श्रीगुणभद्राचार्य*

24 - कर्म प्रकृति ग्रन्थ
  *आचार्यश्रीअभयचन्द्र जी*

 25 - भारतीय ज्योतिष
  *पंडित डां. नेमीचन्द्र जी*

 26 - श्री मूलाचार ग्रन्थ
*आचार्य श्री वट्टकेर स्वामी*

 27 - श्री भगवाती आराधना
  *आ.श्री अपराजितसूरि*

 28 - श्री अमितगति श्रावकाचार
  *श्री अमितगति आचार्य*

 29 - प्रवचसार नियमसार
*श्री कुंदकुंदाचार्य*

 30 - श्री नियमसार के कर्ता
*श्री कुंदकुंदाचार्य*

 31 - सम्यक्त्व कौमद
*श्री पंडितपन्ना लाल साहित्याचार्य(हिन्दी टीका)* 

32 - *श्री कुंदकुंदाचार्य ने चौरासी पाहुड् ग्रन्थ लिखे*

 33 - श्री चारित्रसार ग्रन्थ
*श्री चामुंडराय जी*

 34 - श्री अनागार धर्मामृत
  *पं0 श्री आशाधर जी*

 35 - श्री पुरूषार्थ सिद्धिय्युपाय
*श्री अमृतचन्द्र आचार्य*

36 - श्री छहढाला
* पं0 श्री दौलतराम जी*

37- श्री पद्मनंदी पंचविंशतिका
  *श्री पद्मनंदी आचार्य*

38 - श्री समयसार जी
*श्री कुंदकुंदाचार्य*

39 - श्री प्रवचन सार जी
*श्री कुंदकुंदाचार्य*

40 - श्री तत्वार्थ सूत्र- (मोक्ष शास्त्र)
*श्री उमास्वामी आचार्य*

 41- श्री नियमसार जी
*श्री कुंदकुंदाचार्य*

 42 - श्री परमात्मप्रकाश जी
*आचार्य श्री योगीन्द्र देव*

 43 - श्री तत्वार्थ राजवार्तिक जी
*आचार्य श्री अकलंक देव*

44 - श्री द्रव्य संग्रह
*श्री नेमी चन्द्र आचार्य सिद्धांत चक्रवर्ती*

45 - श्री अष्टसहस्त्री ग्रन्थ जी
   *श्री विद्यानंदी आचार्य*

46 - लब्धिसार क्षपणासार
*आचार्य श्री नेमीचन्द सिद्धांत चक्रवर्ती*

47 - सर्वार्थसिद्धि जी
*आचार्य श्री पूज्यपाद जी*

48 - पंचास्तिकाय जी
*श्री कुन्दकुन्दाचार्य*

49 - अष्ठपाहुड जी
*श्री कुन्दकुन्दाचार्य*

50 - पद्मपुराण जी
*आचार्य श्री रविसेनाचार्य*

51 - त्रिलोकसार
 *श्री नेमीचन्दाचार्य*

52 - कातंत्र व्याकरण
*आचार्य श्री सर्ववमजी*

53 - धर्म परीक्षा
*आचार्य श्री अमितगति जी*

54 - जिनदत्त चरित्र
*आचार्यश्री गुणभद्र जी*

55 - जिनेन्द्र सिद्धांत कोष
*क्षुल्लक श्री जिनेन्द्र प्रसाद जी वर्णी*

56 - नय दर्पण
*श्री जिनेन्द्र जी वर्णी*

57 - चूर्णी सूत्र
*श्री यति वृषभाचार्य*

58 - गोम्मटसार कर्मकांड
*श्री नेमीचन्दाचार्य*

59 - मोक्षमार्ग प्रकाशक
*पंडित श्री टोडरमल जी*

60 - कार्तिकेयानुप्रेक्षा
*श्री स्वामी कार्तिकेयाचार्य*

61 - आराधना कथाकोष
*ब्रम्हचारी श्री नेमीचंद जी*

62 - पुण्यास्रव कथाकोष
*श्री रामसेन जी*

63 - सुर्दशन चरित्र
*आचार्य श्री विद्यानन्दि जी*

64 - शांति पथ प्रर्दशन
*श्री जिनेन्द्र जी वर्णी*

65 - न्याय दीपिका
*आचार्य श्री अकलंक देव जी*

66 - आलाप पद्धति
*आचार्य श्री देवसेन जी*

67 - बृहत्कथा कोष
*आचार्य श्री हरिषेण जी*

68 - सागार धर्मामृत
*पंडित श्री आशाधर जी*

69 - श्लोक वार्तिक
*आचार्य श्री विद्यानंद जी*

70 - तत्वार्थसार
*आचार्य श्री अमृतचंद जी*

71 - धन्यकुमार चरित्र
*श्री भदन्त गुणभ्रद जी*

72 - चन्द्रप्रभ चरित्र
*श्री वीरनंदी जी*

73 - मल्लिनाथ पुराण
*आचार्य श्री सकल कीर्ति जी*

74 - श्री महावीर पुराण
*आचार्य श्री सकलकीर्ति जी*

75 - श्री पाल पुराण
*पंडित श्री परिमल्ल जी*

76 - गोम्मटसार जीवकांड
 *श्री नेमीचन्दाचार्य*

77 - भद्रवाहु संहिता
*पंडित डां. नेमीचंद जी*

78 - आत्मानुशासन
*आचार्य श्री गुणभ्रद जी*

79 - चारित्र चक्रवर्ती
*पंडित सुमेरचंद जी दिवाकर*

80 - श्री विमल पुराण
*श्री ब्रम्हचारी कृष्णदास जी*

81 - पार्श्व पुराण
*पंडित श्री भूधर दास जी*

82 - मूकमाटी महाकाव्य
*आचार्य श्री विद्या सागर जी*

83 - भरतेश वैभव
*महाकवि रत्नाकर जी*

84 -  जैन लक्षणावलि
*सम्पादन पंडित बाल चंद सिद्धांत शास्त्री*


85 - परीक्षा मुख
*आचार्य श्री माणिक्य नंदी जी*

86 - णमोकार ग्रन्थ
*आचार्य श्री देशभूषण जी*

87 - जैन तत्व विद्या
*मुनि श्री प्रमाण सागर जी*

88 - जैन भारती
*आर्यिका श्री ज्ञान मति माता जी*

89 - षट् खण्डागम परिशीलन
*श्री बाल चंद जी सिद्धांत शास्त्री*

90 - इष्टोपदेश
*आचार्य श्री पूज्यपाद जी*

91 - समाधितंत्र
*आचार्य श्री पूज्यपाद जी*

92 - जैन व्रत विधि संग्रह
*आर्यिका श्री ज्ञानमति माता जी*

93 - आराधना सार
*आचार्य श्री देवसेन जी*

94 - योगसार
*आचार्य श्री योगीन्दु देव जी*

95 - नाममाला
*श्री धंनजय कवि जी*

96 - रयणसार
*आचार्य श्री कुन्दकुन्द जी*

97 - देवागम स्तोत्र
*आचार्य श्री समंतभद्र जी*

98 - तत्वसार
*श्री देवसेनाचार्य जी*

99 - ध्यान सूत्राणि
*आचार्यश्री माघ नन्दि जी*

100 - जैन सिद्धांत प्रवेशिका
*पंडित गोपाल दास जी वरैया*

101 - मेरु मन्दर पुराण
*श्री वामन मुनि जी*

102 - मलाचार प्रदीप
*आचार्य श्री सकल कीर्ति जी*

103 - गणित सार संग्रह
*आचार्य श्री महावीर जी*

104 - ज्ञानार्णव
*आचार्य श्री शुभचन्द्र जी*

105 - क्रिया कोष
*पंडित श्री किशन सिंह जी*

106 - कल्याण कारक ग्रन्थ
*आचार्य श्री उग्रादित्य जी*

107 - जैनेन्द्र महावृति
*आचार्य श्री अभय नन्दि जी*

108 - वरांग चरित्र
*श्री जटासिंह नन्दि जी*


Sunday, February 10, 2019

जैन साधु एवम उनके आचरण को जानिये


साधु परमेष्ठी(मुनिधर्म)

प्रश्न. साधु परमेष्ठी किसे कहते हैं ?
जो सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान एवं सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रयमय मोक्षमार्ग की निरन्तर साधना करते हैं तथा समस्त आरम्भ एवं परिग्रह से रहित होते हैं। पूर्ण नग्न दिगम्बर मुद्रा के धारी होते हैं जो ज्ञान,ध्यान और तप में लीन रहते हैं, उन्हें साधु परमेष्ठी कहते हैं।

प्रश्न. साधु परमेष्ठी के कितने मूलगुण होते हैं ?

साधु परमेष्ठी के २८ मूलगुण होते हैं  - ५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रिय निरोध, ६ आवश्यक और ७ शेष गुण।

प्रश्न. साधु परमेष्ठी के पर्यायवाची नाम कौन-कौन से हैं ?

श्रमण, संयत, वीतराग, ऋषि, मुनि, साधु और अनगार।
प्रश्न - महाव्रत किसे कहते हैं एवं उसके कितने भेद हैं ?
हिंसादि पाँचों पापों का मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग करना महापुरुषों का महाव्रत है। इसके ५भेद हैं।
१ अहिंसा महाव्रत - छ: काय के जीवों को मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से पीड़ा नहीं पहुँचाना, सभी जीवों पर दया करना, अहिंसा महाव्रत है।

२ सत्य महाव्रत - क्रोध, लोभ, भय, हास्य के कारण असत्य वचन तथा दूसरों को संताप देने वाले सत्य वचन का भी त्याग करना, सत्य महाव्रत है।

३ अचौर्य महाव्रत - वस्तु के स्वामी की आज्ञा बिना वस्तु को ग्रहण नहीं करना, अचौर्य महाव्रत है।

४ ब्रह्मचर्य महाव्रत - जो मन, वचन, काय एवं कृत, कारित, अनुमोदना से वृद्धा, बाला, यौवन वाली स्त्री को देखकर अथवा उनकी फोटो को देखकर उनको माता, पुत्री, बहिन समझ स्त्री सम्बन्धी अनुराग को छोड़ता है, वह तीनों लोकों में पूज्य ब्रह्मचर्य महाव्रत है।

५ परिग्रह त्याग महाव्रत - अंतरंग चौदह एवं बाहरी दस प्रकार के परिग्रहों का त्याग करना तथा संयम, ज्ञान और शौच के उपकरणों में भी ममत्व नहीं रखना, परिग्रह त्याग महाव्रत है।

प्रश्न - समिति किसे कहते हैं एवं उसके कितने भेद हैं ?
‘सम्’अर्थात् सम्यक् ‘इति'अर्थात् गति या प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। चलने-फिरने में, बोलने-चालने में, आहार ग्रहण करने में, वस्तुओं को उठाने-रखने में और मल-मूत्र का निक्षेपण करने में यत्न पूर्वक सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करते हुए जीवों की रक्षा करना, समिति है।
१ - ईर्या समिति - प्रासुक मार्ग से दिन में चार हाथ (छ: फुट) प्रमाण भूमि देखकर चलना, यह ईयर्र समिति है। भूमि देखकर चलने का अर्थ भूमि पर चलने वाले जीवों को बचाकर चलना।

२- भाषा समिति - चुगली, निंदा, आत्म प्रशंसा आदि का परित्याग करके हित, मित और प्रिय वचन बोलना, भाषा समिति है। जैसे-कपड़ा मीटर से नापते हैं और धान्य आदि बाँट से तौलते हैं, वैसे ही नाप-तौल कर बोलना चाहिए अर्थात् हमारे वाक्य ज्यादा लम्बे न हों फिर भी अर्थ ठोस निकले।

३- एषणा समिति - 46 दोष एवं 32 अंतराय टालकर सदाचारी उच्चकुलीन श्रावक के यहाँ विधि पूर्वक निर्दोष आहार ग्रहण करना, एषणा समिति है।

४- आदाननिक्षेपण समिति - शास्त्र, कमण्डलु, पिच्छी आदि उपकरणों को देखकर-शोधकर रखना और उठाना, आदाननिक्षेपण समिति है।
५- उत्सर्ग समिति - जीव रहित स्थान में मल-मूत्र आदि का त्याग करना, उत्सर्ग समिति है।

प्रश्न- पञ्चेन्द्रिय निरोध किसे कहते हैं एवं उसके कितने भेद हैं ?

स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों के मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों में राग-द्वेष का परित्याग करना पञ्चेन्द्रिय निरोध है।
स्पर्शन इन्द्रिय निरोध - शीत-उष्ण, कोमल - कठोर, हल्का - भारी और स्निग्ध - रूक्ष इन स्पर्शन इन्द्रिय के विषयों में राग - द्वेष नहीं करना, स्पर्शनेन्द्रिय निरोध है।

रसना इन्द्रिय निरोध - खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला और चरपरा इन रसना इन्द्रिय के विषयों में राग - द्वेष नहीं करना, रसना इन्द्रिय निरोध है।

घ्राण इन्द्रिय निरोध - सुगंध और दुर्गध इन घ्राण इन्द्रिय के विषयों में राग - द्वेष नहीं करना, घ्राण इन्द्रिय निरोध है।

चक्षु इन्द्रिय निरोध - काला, पीला, नीला, लाल और सफेद इन चक्षु इन्द्रिय के विषयों में राग - द्वेष नहीं करना, चक्षु इन्द्रिय निरोध है।

श्रोत्र इन्द्रिय निरोध - मधुर स्वर, गान, वीणा आदि को सुनकर राग नहीं करना एवं कठोर निंद्य, गाली आदि के शब्द सुनकर द्वेष नहीं करना, श्रोत्र इन्द्रिय निरोध है।

प्रश्न - आवश्यक किसे कहते हैं एवं उसके कितने भेद हैं ?
अवश्य करने योग्य क्रियाएँ आवश्यक कहलाती हैं। साधु को अपने उपयोग की रक्षा के लिए नित्य ही छ: क्रियाएँ करनी आवश्यक होती हैं, उन्हें ही छ: (षट्) आवश्यक कहते हैं।

जो कषाय, राग-द्वेष आदि के वशीभूत न हो वह अवश है। उस अवश का जो आचरण होता है व आवश्यक है, आवश्यक छ: होते हैं।
समता या सामायिक - राग-द्वेष आदि समस्त विकार भावों का तथा हिंसा आरम्भ आदि समस्त बहिरंग पाप कर्मो का त्याग करके जीवन - मरण, हानि - लाभ, सुख - दुःख आदि में साम्यभाव रखना समता या सामायिक है।
स्तुति - २४ तीर्थंकरो के गुणों का स्तवन करना स्तुति है।
वन्दना - चौबीस तिर्थंकरो में से किसी एक की एवं पज्चपरमेष्ठियों में से किसी एक की मुख्य रूप से स्तुति करना वंदना है। यह दिन में तीन बार करते हैं।

प्रतिक्रमण - व्रतों में लगे दोषों की आलोचना करना प्रतिक्रमण है। अथवा ‘‘मेरा दोष मिथ्या हो ' ऐसा कहना प्रतिक्रमण है। ‘तस्स मिच्छा मे दुक्कड”। प्रतिक्रमण भी दिन में तीन बार करते हैं। प्रतिक्रमण सात प्रकार के होते हैं। दैवसिक, रात्रिक, ईर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, संवत्सरिक (वार्षिक), औतमार्थिक प्रतिक्रमण जो सल्लेखना के समय होता है।

प्रत्याख्यान - आगामी काल में दोष न करने की प्रतिज्ञा करना प्रत्याख्यान है। अथवा सीमित काल के लिए आहारादि का त्याग करना प्रत्याख्यान है।

कायोत्सर्ग - परिमित काल के लिए शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग का अर्थ होता है शिथिलीकरण - रिलेक्सेशन। इससे शरीर की शक्ति शिथिल हो जाएगी एवं आत्मा की शक्ति सक्रिय हो जाएगी।

प्रश्न -  मुनियों के शेष ७ गुण कौन-कौन से हैं ?

अस्नान व्रत - स्नान करने का त्याग, साधु का शरीर धूल, पसीने से लिप्त रहता है, उसमें अनेक सूक्ष्म जीव रहते हैं, उनका घात न हो इससे स्नान नहीं करते हैं।

भूमि शयन - थकान दूर करने के लिए शयन/ सोना आवश्यक है। रात्रि में एक करवट से थोड़ा शयन करने के लिए भूमि, शिला, लकड़ी के पाटे, तृण अर्थात् सूखी घास या चटाई का उपयोग करते हैं। और किसी का नहीं।

अचेलकत्व - वस्त्र, चर्म और पत्ते आदि से शरीर को नहीं ढकना अर्थात् नग्न रहना। दिशाएँ ही जिनके अम्बर अर्थात् वस्त्र हैं, वे दिगम्बर हैं।

केशलोंच - दो माह से चार माह के बीच में प्रतिक्रमण सहित दिन में उपवास के साथ अपने हाथों से सिर, दाढ़ी एवं मूंछों के केशों को उखाड़ना केशलोंच है। दो माह में करना उत्कृष्ट है, चार माह में करना जघन्य है एवं दोनों के बीच में करना मध्यम है।

एक भुक्ती - चौबीस घंटों में मात्र एक बार आहार करना। सूर्योदय के ३ घड़ी के बाद (७२ मिनट) एवं सूर्यास्त से ३ घड़ी पहले। सामायिक का काल छोड़कर शेष काल में ३ मुहूर्त (२ घंटे २४ मिनट) तक आहार ले सकते हैं। (मूला.)

अदंतधावन - अंगुली, नख, दातुन, छाल, मंजन, ब्रुश, पेस्ट आदि से दाँतों के मल का शोधन/ साफ नहीं करना, इन्द्रिय संयम की रक्षा करने वाला अदंतधावन मूलगुण है।

स्थिति भोजन - दीवार आदि का सहारा लिए बिना खड़े होकर आहार करना। खड़े होते समय दोनों पैर के बीच ४ अंगुल का अंतर या पीछे ४ अर्जुल एवं आगे ४ से १२ अंगुल तक का अंतर रह सकता है। (आदि.पु.)

प्रश्न - मुनियों के उत्तर गुण कितने हैं ?
मुनियों के ३४ उत्तर गुण होते हैं। १२ तप और २२ परीषहजय
प्रश्न - क्या आचार्य, उपाध्याय परमेष्ठी के २८ मूलगुण नहीं होते हैं ?
साधु जिन २८ मूलगुणों का पालन करते हैं। उन २८ मूलगुणों का पालन आचार्य, उपाध्याय परमेष्ठी भी करते हैं, किन्तु आचार्य के अतिरिक्त ३६ मूलगुण एवं उपाध्याय के अतिरिक्त २५ मूलगुण होते हैं।
               

जैन धर्म क्या है जानिए


जैन दर्शन /जैन धर्म क्या है ?

जैन दर्शन एक प्राचीन भारतीय दर्शन है। इसमें अहिंसा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जैन धर्म की मान्यता अनुसार २४ तीर्थंकर समय-समय पर संसार चक्र में फसें जीवों के कल्याण के लिए उपदेश देने इस धरती पर आते है। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ से क्रमशः पारसनाथ भगवान के पश्चात सदी के ५०० ई॰ पू॰ यानी २५४५ वर्ष पूर्व में अंतिम तीर्थंकर, भगवान महावीर के द्वारा जैन दर्शन का पुनराव्रण (प्रवर्तन)हुआ ।
इसमें कर्मकाण्ड की अधिकता को मिथ्या(गलत) बताया गया इसमें अध्यात्म को प्रधानता दी गई है।
 जैन दर्शन के अनुसार जीव और कर्मो का यह सम्बन्ध अनादि काल से है। जब जीव इन कर्मो को अपनी आत्मा से सम्पूर्ण रूप से मुक्त कर देता हे तो वह स्वयं भगवान(सिद्ध आत्मा) बन जाता है। लेकिन इसके लिए उसे सम्यक पुरुषार्थ करना पड़ता है। यह जैन धर्म की मौलिकता है।

सत्य का मार्ग खोजने वाले 'जैन' शब्द की व्युत्पत्ति ‘जिन’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ होता है- विजेता अर्थात् वह व्यक्ति जिसने इच्छाओं (कामनाओं) , इन्द्रियों
चक्छू इंद्री(आंख), कर्ण इन्द्री(कान), घ्राण इंद्री(नाक),रसना(जिव्हा), स्पर्शन(शरीर) एवं मन पर विजय प्राप्त करके हमेशा के लिए संसार के आवागमन से मुक्ति प्राप्त कर ली है। इन्हीं जिनेन्द्र भगवान के उपदेशों को मानने वाले श्रावक जैन तथा उनके सिद्धान्त जैन दर्शन के रूप में प्रख्यात हैं।
जैन दर्शन ‘अर्हत दर्शन’ के नाम से भी जाना जाता है।
जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकर (महापुरूष, ईश्वर,भगवान) हुए जिनमें प्रथम ऋषभदेव तथा अन्तिम महावीर (वर्धमान) हुए।
 हमारे कुछ तीर्थकरों के नाम ऋग्वेद में भी मिलते हैं, जिससे हमारी प्राचीनता अन्य संप्रदायों/धर्मों से भी प्राचीन प्रमाणित होती है।
हमारे जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ प्राकृत (मागधी) भाषा में लिखे गये हैं। बाद में कुछ विद्वान आचार्यों और पंडितों ने संस्कृत में भी ग्रन्थों की रचनाएं कीं ।
हमारा संस्कृत भाषा में प्रथम ग्रंथ तत्वार्थसूत्र (मोक्षशास्त्र)आचार्य उमस्वामी के द्वारा आज से २ हजार वर्ष पूर्व ईसा की प्रथम शताब्दी में लिखा गया।
यह आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित तत्त्वार्थ सूत्र बड़ा महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
 यह पहला ग्रन्थ है जिसमें संस्कृत भाषा के माध्यम से जैन सिद्धान्तों के सभी अंगों का पूर्ण रूप से वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् अनेक जैन विद्वानों ने संस्कृत में व्याकरण, दर्शन, काव्य, स्त्रोत,पूजाएं, नाटक , पुराण आदि की रचना की।
हमारे ग्रंथों में छह द्रव्यों का वर्णन है ।
हमारे ग्रंथो में अहिंसा का सूक्ष्म विवेचन हुआ है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि इसका प्ररूपण(वर्णन) सर्वज्ञ-सर्वदर्शी जिनेन्द्र भगवान (जिनके ज्ञान से संसार की कोई भी बात छुपी हुई नहीं है, अनादि भूतकाल और अनंत भविष्य के ज्ञाता-दृष्टा), वीतरागी (जिनको किसी पर भी राग-द्वेष नहीं है) प्राणी मात्र के हितेच्छुक, अनंत अनुकम्पा युक्त इसे जिनेश्वर भगवंतों द्वारा हुआ है। उनके बताये हुए मार्ग पर चल कर प्रत्येक आत्मा( जीव) अपना कल्याण कर सकती है।

अपने सुख और दुःख का कारण जीव स्वयं है, कोई दूसरा उसे दुखी कर ही नहीं सकता.पुनर्जन्म, पूर्वजन्म, बंध-मोक्ष आदि को भी जैन धर्म मानता है। अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और तप ये हमारा मूल लक्षण है।
हमारे ग्रंथों में सात तत्त्वों का वर्णन  है।
जीव
अजीव
आस्रव
बन्ध
संवर
निर्जरा
मोक्ष
जैन धर्म/जैन दर्शन
जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कही हुई वाणी के अनुसार इस संसार को किसी भगवान द्वारा बनाया हुआ स्वीकार नहीं करता है, अपितु शाश्वत (अनादिकालीन) मानता है। जन्म मरण आदि जो भी होता है, उसे नियंत्रित करने वाली कोई सार्वभौमिक सत्ता अथवा कोई व्यक्ति विशेष भगवान आत्मा उसका नियंत्रण नहीं करती है। जीव जैसे कर्म करता है, उन के परिणाम स्वरुप अच्छे या बुरे फलों को भुगतने क लिए वह मनुष्य, नरक देव, एवं तिर्यंच  योनियों में जन्म मरण करता रहता है।

Wednesday, February 6, 2019

कल्यामन्दिर स्तोत्र

*श्री कल्याण मन्दिर स्त्रोत*

कल्याण-मन्दिरमुदारमवद्यभेदि ,

भीता-भयप्रदमनिन्दितमङ्-धिपद्मम्।

संसार-सागर-निमज्जदशेषजंतु -

पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य॥ 1॥



यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशे:,

स्तोत्रं सुविस्तृतमतिर्न विभुर्विधातुम्।

तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकेतोस्

तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये॥ 2॥



सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप-

मस्मादृशा: कथमधीश भवन्त्यधीशा:।

धृष्टोऽपि कौशिकशिशुर्यदि वा दिवान्धो

रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मे: ॥ 3॥



मोहक्षयादनु-भवन्नपि नाथ मत्र्यो

नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत।

कल्पान्तवान्तपयस: प्रकटोऽपि यस्मान्

मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशि:॥ 4॥



अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जडाशयोऽपि

कर्तुं स्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य।

बालोऽपि किं न निजबाहुयुगं वितत्य

विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशे:॥5॥



ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश

वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाश:।

जाता तदेवमसमीक्षितकारितेयं

जल्पन्ति वा निजगिरा ननु पक्षिणोऽपि॥ 6॥



आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन! संस्तवस्ते

नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति।

तीव्रातपोपहतपान्थजनान्निदाघे

प्रीणाति पद्मसरस: सरसोऽनिलोऽपि॥ 7॥



हृद्वर्तिनि त्वयि विभो शिथिलीभवन्ति

जन्तो: क्षणेन निबिडा अपि कर्मबन्धा:।

सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभाग-

मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य॥ 8॥



मुच्यन्त एव मनुजा: सहसा जिनेन्द्र !

रौद्रैरुपद्रवशतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि।

गोस्वामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमात्रे

चौरैरिवाशु पशव: प्रपलायमानै: ॥ 9॥



त्वं तारको जिन ! कथं भविनां त एव

त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्त:।

यद्वा दृतिस्तरति यज्जलमेष नून-

मन्तर्गतस्य मरुत: स किलानुभाव:॥ 10॥



यस्मिन् हर-प्रभृतयोऽपि हतप्रभावा:

सोऽपि त्वया रतिपति: क्षपित: क्षणेन।

विध्यापिता हुतभुज: पयसाथ येन

पीतं न किं तदपि दुद्र्धरवाडवेन॥ 11॥



स्वामिन्ननल्पगरिमाणमपि प्रपन्नास्-

त्वां जन्तव: कथमहो हृदये दधाना:।

जन्मोदधिं लघु तरन्त्यतिलाघवेन

चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभाव:॥ 12॥



क्रोधस्त्वया यदि विभो ! प्रथमं निरस्तो-

ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौरा:।

प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके

नीलद्रुमाणि विपिनानि न किं हिमानी॥ 13॥



त्वां योगिनो जिन ! सदा परमात्मरूप

मन्वेषयन्ति हृदयाम्बुजकोशदेशे।

पूतस्य निर्मल-रुचे-र्यदि वा किमन्य

दक्षस्य सम्भवपदं ननु कर्णिकाया:॥ 14॥ 



ध्यानाज्जिनेश ! भवतो भविन: क्षणेन

देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति।

तीव्रानलादुपलभावमपास्य लोके

चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदा: ॥ 15॥



अन्त: सदैव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वं

भव्यै: कथं तदपि नाशयसे शरीरम्।

एतत्स्वरूपमथ मध्यविवर्तिनो हि

यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावा:॥ 16॥



आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्ध्या

ध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभाव:।

पानीयमप्यमृत-मित्यनुचिन्त्यमानं

किं नाम नो विषविकारमपाकरोति॥ 17॥



त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि

नूनं विभो हरिहरादिधिया प्रपन्ना:।

किं काचकामलिभिरीश सितोऽपि शङ्खो

नो गृह्यते विविधवर्णविपर्ययेण ॥ 18॥



धर्मोपदेशसमये सविधानुभावा-

दास्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोक:।

अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि

किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोक:॥ 19॥



चित्रं विभो ! कथमवाङ्मुखवृन्तमेव

विष्वक्पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टि:।

त्वद्-गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश!

गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि॥ 20॥



स्थाने गभीरहृदयोदधिसम्भवाया:

पीयूषतां तव गिर: समुदीरयन्ति।

पीत्वा यत: परमसम्मदसङ्गभाजो

भव्या व्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम्॥ 21॥



स्वामिन्! सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो

मन्ये वदन्ति शुचय: सुरचामरौघा:।

येऽस्मै नतिं विदधते मुनिपुङ्गवाय

ते नूनमूध्र्वगतय: खलु शुद्धभावा:॥ 22॥



श्यामं गभीरगिरमुज्ज्वलहेमरत्न-

सिंहासनस्थमिह भव्यशिखण्डिनस्त्वाम्।

आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चैश्-

चामीकराद्रिशिरसीव नवाम्बुवाहम्॥ 23॥



उद्गच्छता तव शितिद्युतिमण्डलेन

लुप्तच्छदच्छवि-रशोकतरुर्बभूव ।

सान्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग!

नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि॥ 24॥



भो ! भो ! प्रमादमवधूय भजध्वमेन-

मागत्य निर्वृतिपुरीं प्रति सार्थवाहम्।

एतन्निवेदयति देव जगत्त्रयाय

मन्ये नदन्नभिनभ: सुरदुन्दुभिस्ते॥ 25॥



उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ!

तारान्वितो विधुरयं विहताधिकार:।

मुक्ताकलाप-कलितोल्लसितातपत्र

व्याजात्त्रिधा धृततनुध्र्रुवमभ्युपेत:॥ 26॥



स्वेन प्रपूरितजगत्त्रयपिण्डितेन

कान्तिप्रतापयशसामिव सञ्चयेन।

माणिक्यहेमरजत-प्रविनिर्मितेन

सालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि॥ 27॥



दिव्यस्रजो जिन नमत्त्रिदशाधिपाना-

मुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान्।

पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वापरत्र

त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एव॥ 28॥



त्वं नाथ ! जन्मजलधेर्विपराङ्मुखोऽपि

यत्तारयस्यसुमतो निजपृष्ठलग्नान्।

युक्तं हि पार्थिवनिपस्य सतस्तवैव

चित्रं विभो ! यदसि कर्मविपाकशून्य:॥ 29॥



विश्वेश्वरोऽपि जनपालक ! दुर्गतस्त्वं

किं वाक्षरप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश!

अज्ञानवत्यपि सदैव कथञ्चिदेव

ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकासहेतु:॥ 30॥



प्राग्भारसम्भृत-नभांसि रजांसि रोषा-

दुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि।

छायापि तैस्तव न नाथ हता हताशो

ग्रस्तस्त्वमी-भिरयमेव परं दुरात्मा॥ 31॥



यद्गर्जदूर्जित घनौघमदभ्रभीम

भ्रश्यत्तडिन्-मुसल-मांसल-घोरधारम्।

दैत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दध्रे

तेनैव तस्य जिन! दुस्तरवारिकृत्यम्॥ 32॥



ध्वस्तोध्र्वकेश-विकृताकृतिमत्र्यमुण्ड-

प्रालम्बभृद्भयदवक्त्र विनिर्यदग्रि:।

प्रेतव्रज: प्रति भवन्तमपीरितो य:

सोऽस्याभवत्प्रतिभवं भवदु:खहेतु:॥ 33॥



धन्यास्त एव भुवनाधिप ! ये त्रिसन्ध्य-

माराधयन्ति विधिवद् विधुतान्यकृत्या:।

भक्त्योल्लसत्पुलकपक्ष्मलदेहदेशा: ।

पादद्वयं तव विभो! भुवि जन्मभाज:॥34॥



अस्मिन्नपार-भव- वारिनिधौ मुनीश!

मन्ये न मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि।

आकर्णिते तु तव गोत्रपवित्रमन्त्रे

किं वा विपद्विषधरी सविधं समेति॥ 35॥



जन्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देव!

मन्ये मया महितमीहितदानदक्षम्।

तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां

जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम्॥ 36॥



नूनं न मोहतिमिरावृतलोचनेन

पूर्वं विभो! सकृदपि प्रविलोकितोऽसि।

मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनर्था:

प्रोद्यत्प्रबन्धगतय: कथमन्यथैते॥ 37॥



आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि

नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या।

जातोऽस्मि तेन जनबान्धव! दु:खपात्रम्

यस्मात्िक्रया: प्रतिफलन्ति न भावशून्या:॥ 38॥



त्वं नाथ ! दु:खिजनवत्सल! हे शरण्य!

कारुण्यपुण्यवसते ! वशिनां वरेण्य!

भक्त्या नते मयि महेश ! दयां विधाय

दु:खाङ्कुरोद्दलनतत्परतां विधेहि ॥ 39॥



नि:संख्यसारशरणं शरणं शरण्य-

मासाद्य सादितरिपु-प्रथितावदानम्।

त्वत्पादपङ्कजमपि प्रणिधानवन्ध्यो

वन्ध्योऽस्मि चेद्भुवनपावन! हा हतोऽस्मि॥४०॥



देवेन्द्रवन्द्य! विदिताखिलवस्तुसार!

संसारतारक ! विभो! भुवनाधिनाथ!

त्रायस्व देव! करुणाहृद ! मां पुनीहि

सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशे:॥ 41॥



यद्यस्ति नाथ ! भवदङ्िघ्रसरोरुहाणां

भक्ते: फलं किमपि सन्ततसञ्िचताया:।

तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य! भूया:

स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि॥ 42॥



इत्थंसमाहितधियो विधिवज्िजनेन्द्र!

सान्द्रोल्लसत्पुलक-कञ्चुकिताङ्गभागा:।

त्वद्बिम्बनिर्मल मुखाम्बुजबद्धलक्ष्या:

ये संस्तवं तव विभो! रचयन्ति भव्या:॥ 43॥



जननयन ‘कुमुदचन्द्र’! प्रभास्वरा: स्वर्गसम्पदो भुक्त्वा।

ते विगलितमलनिचया अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते॥ 44॥

गाय के गोबर का महत्व

 आयुर्वेद ग्रंथों  में हमारे ऋषि मुनियों ने पहले ही बता दिया गया  था कि   *धोवन पानी पीने का वैज्ञानिक तथ्य और आज की आवश्यकता* वायुमण्डल में...