Sunday, February 10, 2019

जैन धर्म क्या है जानिए


जैन दर्शन /जैन धर्म क्या है ?

जैन दर्शन एक प्राचीन भारतीय दर्शन है। इसमें अहिंसा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जैन धर्म की मान्यता अनुसार २४ तीर्थंकर समय-समय पर संसार चक्र में फसें जीवों के कल्याण के लिए उपदेश देने इस धरती पर आते है। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ से क्रमशः पारसनाथ भगवान के पश्चात सदी के ५०० ई॰ पू॰ यानी २५४५ वर्ष पूर्व में अंतिम तीर्थंकर, भगवान महावीर के द्वारा जैन दर्शन का पुनराव्रण (प्रवर्तन)हुआ ।
इसमें कर्मकाण्ड की अधिकता को मिथ्या(गलत) बताया गया इसमें अध्यात्म को प्रधानता दी गई है।
 जैन दर्शन के अनुसार जीव और कर्मो का यह सम्बन्ध अनादि काल से है। जब जीव इन कर्मो को अपनी आत्मा से सम्पूर्ण रूप से मुक्त कर देता हे तो वह स्वयं भगवान(सिद्ध आत्मा) बन जाता है। लेकिन इसके लिए उसे सम्यक पुरुषार्थ करना पड़ता है। यह जैन धर्म की मौलिकता है।

सत्य का मार्ग खोजने वाले 'जैन' शब्द की व्युत्पत्ति ‘जिन’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ होता है- विजेता अर्थात् वह व्यक्ति जिसने इच्छाओं (कामनाओं) , इन्द्रियों
चक्छू इंद्री(आंख), कर्ण इन्द्री(कान), घ्राण इंद्री(नाक),रसना(जिव्हा), स्पर्शन(शरीर) एवं मन पर विजय प्राप्त करके हमेशा के लिए संसार के आवागमन से मुक्ति प्राप्त कर ली है। इन्हीं जिनेन्द्र भगवान के उपदेशों को मानने वाले श्रावक जैन तथा उनके सिद्धान्त जैन दर्शन के रूप में प्रख्यात हैं।
जैन दर्शन ‘अर्हत दर्शन’ के नाम से भी जाना जाता है।
जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकर (महापुरूष, ईश्वर,भगवान) हुए जिनमें प्रथम ऋषभदेव तथा अन्तिम महावीर (वर्धमान) हुए।
 हमारे कुछ तीर्थकरों के नाम ऋग्वेद में भी मिलते हैं, जिससे हमारी प्राचीनता अन्य संप्रदायों/धर्मों से भी प्राचीन प्रमाणित होती है।
हमारे जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ प्राकृत (मागधी) भाषा में लिखे गये हैं। बाद में कुछ विद्वान आचार्यों और पंडितों ने संस्कृत में भी ग्रन्थों की रचनाएं कीं ।
हमारा संस्कृत भाषा में प्रथम ग्रंथ तत्वार्थसूत्र (मोक्षशास्त्र)आचार्य उमस्वामी के द्वारा आज से २ हजार वर्ष पूर्व ईसा की प्रथम शताब्दी में लिखा गया।
यह आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित तत्त्वार्थ सूत्र बड़ा महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
 यह पहला ग्रन्थ है जिसमें संस्कृत भाषा के माध्यम से जैन सिद्धान्तों के सभी अंगों का पूर्ण रूप से वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् अनेक जैन विद्वानों ने संस्कृत में व्याकरण, दर्शन, काव्य, स्त्रोत,पूजाएं, नाटक , पुराण आदि की रचना की।
हमारे ग्रंथों में छह द्रव्यों का वर्णन है ।
हमारे ग्रंथो में अहिंसा का सूक्ष्म विवेचन हुआ है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि इसका प्ररूपण(वर्णन) सर्वज्ञ-सर्वदर्शी जिनेन्द्र भगवान (जिनके ज्ञान से संसार की कोई भी बात छुपी हुई नहीं है, अनादि भूतकाल और अनंत भविष्य के ज्ञाता-दृष्टा), वीतरागी (जिनको किसी पर भी राग-द्वेष नहीं है) प्राणी मात्र के हितेच्छुक, अनंत अनुकम्पा युक्त इसे जिनेश्वर भगवंतों द्वारा हुआ है। उनके बताये हुए मार्ग पर चल कर प्रत्येक आत्मा( जीव) अपना कल्याण कर सकती है।

अपने सुख और दुःख का कारण जीव स्वयं है, कोई दूसरा उसे दुखी कर ही नहीं सकता.पुनर्जन्म, पूर्वजन्म, बंध-मोक्ष आदि को भी जैन धर्म मानता है। अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और तप ये हमारा मूल लक्षण है।
हमारे ग्रंथों में सात तत्त्वों का वर्णन  है।
जीव
अजीव
आस्रव
बन्ध
संवर
निर्जरा
मोक्ष
जैन धर्म/जैन दर्शन
जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कही हुई वाणी के अनुसार इस संसार को किसी भगवान द्वारा बनाया हुआ स्वीकार नहीं करता है, अपितु शाश्वत (अनादिकालीन) मानता है। जन्म मरण आदि जो भी होता है, उसे नियंत्रित करने वाली कोई सार्वभौमिक सत्ता अथवा कोई व्यक्ति विशेष भगवान आत्मा उसका नियंत्रण नहीं करती है। जीव जैसे कर्म करता है, उन के परिणाम स्वरुप अच्छे या बुरे फलों को भुगतने क लिए वह मनुष्य, नरक देव, एवं तिर्यंच  योनियों में जन्म मरण करता रहता है।

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