Sunday, March 17, 2019

जानिए दिगम्बर जैन साधु के विषय में

जानिए दिगम्बर जैन साधु की दिनचर्या पालन को
*मुनिराज के आहार में 46 दोषो में उत्पादन सम्बंधी 16 दोष*

* *धात्री - धाय के सदृश बालक का पोषण संरक्षण आदि करके आहार लेना।*

* *दूत - अन्य ग्राम आदि जाते समय किसी का सन्देश कहकर आहार लेना।*

* *निमित्त - स्वर व्यंजन आदि निमित्तों से शुभ- अशुभ फल बताकर आहार लेना।*

* *अजीव - जाति, कुल, शिल्प आदि को बताकर दाता को प्रसन्न कर आहार लेना।*

* *वनीपक - दाता के अनुकूल वचन बोलकर आहार लेना अर्थात यदि दाता ने पूछा कि ब्राह्मण , भिक्षुक , आदि को भोजन देना पुण्य है या नही ? तब उसके अभिप्राय को देखकर "पुण्य" ऐसा कहकर आहार लेना।*

* *चिकित्सा - औषधि आदि से दाता को खुश करके आहार लेना।*

* *क्रोधिदि कषाय - क्रोध ,मान , माया ,  लोभ , इन कषायों को करके आहार उत्पादन करना ,ये इन चार कषायों के निमित्त से चार दोष होते है।*

* *पूर्व स्तुति - तू दानी है, कीर्तिमान है । इत्यादि रुप से दाता की प्रशंसा करके आहार लेना।*

* *पश्चात स्तुति - आहार लेने के बाद दाता की प्रशंसा करना ।*

* *विद्या - विद्या आदि का प्रलोभन देकर आहार ग्रहण करना ।*

* *मंत्र - मन्त्र का प्रलोभन देकर आहार ग्रहण करना।*

* *चूर्ण दोष - अंजन चूर्ण आदि देकर भोजन ग्रहण करना।*

*  *मूलकर्म दोष - अवश को वश करने का उपाय बताकर आहार ग्रहण करना।*

*ये उत्पादन आदि सोलह दोष साधु के द्वारा किये जाने से उत्पादन दोष कहलाते हैं।*


*ऐषणा (अशन) के 10 दोष*

*(1) शंकित (2) म्रक्षित (3) निक्षिप्त (4) पिहित (5) संव्यवहरण (6) दायक (7) उन्मिश्र (8) अपरिणत (9)लिप्त (10) छोटित ।*

* *शंकित -यह भोजन अध: कर्म से उत्पन्न हुआ है या नही ? इत्यादि शंका करके आहार लेना*

* *म्रक्षित - घी ,तेल आदि लिप्त , हाथ से या लिप्त कलछी से दिया हुआ आहार लेना ।*

* *निक्षिप्त - सचित्त पृथ्वी, जल आदि पर रखा हुआ आहार लेना ।*

* *पिहित - अप्रासुक अथवा प्रासुक ऐसे बडे आच्छादन हटाकर आहार लेना ।*

* *संव्यवहरण - आदर से या डर से आहार देते समय वस्त्र आदि खींच कर आहार लेना ।*

* *दायक - अशुद्ध दाता से,सूतक पातक दोषों से युक्त जन से, दूध पिलाती हुई स्त्रीे से,नपुंसक से आहार लेना ।*

* *उन्मिश्र - अप्रासुक द्रव्य से मिश्र आहार लेना।*

* *अपरिणत - अग्न्यादि से अपक्व आहार या लवंग आदि से परिणत नहीं हुए जलादि का आहार लेना।*

* *लिप्त - गेरु आदि से लिप्त पात्र से या हाथ से दिये हुए आहार को लेना या अप्रासुक जलादि का आहार लेना।*

* *छोटित - हाथ से बहुत सा दूध आदि गिराते हुए या अरुचिकर वस्तु को हाथ से गिराते हुए आहार लेना।*

*ये अशन के दस दोष हैं जो हाथ में आये हुए भोजन से सम्बन्ध रखते हैं इसलिए अशन दोष कहलाते हैं।*

* *चार अन्य दोष*

* *संयोजना - आहार और दान के पदार्थ मिश्रित कर देना अथवा ठंडा आहार उष्ण पान आदि से मिश्रत करना।*

* *अतिमात्र - (अप्रमाण) दोष - उदर के दो भाग खाद्य पदार्थ से एवं एक भाग पेय पदार्थ से पूरित करना चाहिए तथा एक भाग खाली रखना चाहिए। तभी आलस्य के बिना स्वाध्याय आदि क्रियायें निर्विघ्न होती हैं। इसका उल्लंघन करके अतिमात्र में भोजन करना ये दोष है।*

* *अंगार दोष - अति लम्पटता से भोजन करना अंगार दोष है।*

* *धूम दोष - अपने को इष्ट नहीं ऐसे पदार्थों की निन्दा करता हुआ आहार ग्रहण करना धूम दोष है।*

**इस प्रकार से 16 उद्गम के, 16 उत्पादन के, 10 ऐषणा के, और चार अन्य (संयोजना, अप्रमाण, अंगार, धूम,) कुल 46 दोष हैं। साधु परमेष्ठी इन दोषों से रहित आहार ग्रहण करते हैं।

*साधू परमेष्ठी के पर्यायवाची नाम*

*श्रमण , संयत , वीतराग , ऋषि , मुनि , साधु , अनगार*

*श्रमण - तपश्चरण करके अपनी आत्मा को श्रम व परिश्रम पहुंचाते हैं।*

*संयत - कषाय तथा इन्द्रियों को शांत करते हैं , इसलिए संयत कहलाते हैं ।*


*वीतराग - वीत अर्थात नष्ट हो गया है राग जिनका वे वीतराग कहलाते हैं।*

*ऋषि - सप्त ऋद्धि को प्राप्त होते हैं, इसलिए ऋषि कहलाते हैं।*

*मुनि - आत्मा अथवा अन्य पदार्थों का मनन करते हैं, इसलिए मुनि कहलाते हैं।*

*साधु - रत्नत्रय को सिद्ध करते हैं, इसलिए साधु कहलाते हैं।*

*अनगार - नियत स्थान में नही रहते हैं , इसलिए अनगार कहलाते हैं।*

छ: प्रकार का आहार

(1) *नोकर्माहार - केवली का होता है।*

(2) *कर्माहार - नारकियों का होता है।*

(3) *कवलाहार - मनुष्य और तिर्यंचों का होता है।(कवल अर्थात ग्रास)*

(4) *लेपाहार - वनस्पति का होता है।*

(5) *ओज आहार - अण्डस्थ पक्षियों का होता है।*

(6) *मानसिक - देवों का होता है।*

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