Friday, August 14, 2020

पंचाग के पाँच अंगों का विस्तृत वर्णन :सरल सुबोध शैली में

 *सरल शैली में पंचांग के पांच अंगों का विस्तृत वर्णन*


✍️©डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य

निदेशक-

जैन विद्या अनुसंधान केंद्र अविनाश कॉलोनी दमोह म.प्र.


पंचाग के अंग कौन कौन से हैं।

 पञ्चाङ्ग शब्द से स्वयं ज्ञात हो रहा है जिसमें पाँच अंग निहित हों या पाँच हों जिसके वह पञ्चाङ्ग है ।


अब प्रश्न ये उठता है कि वे पाँच अंग कौन कौन से हैं


ज्योतिष शास्त्रों में वे पाँच अंग बताये गए हैं-


तिथि  र्वारं च नक्षत्रं योगः  करणमेव च ।

पञ्चाङ्गस्य फलं श्रुत्वा,कार्याणां सर्वसिद्धयेत् ।।

तिथि, वार(दिवस), नक्षत्र, योग,और करण ये पंचाग के पाँच अंग हैं। जो इन पंचाङ्गों के फल का श्रवण करता है ,जानता है उसके समस्त कार्यों की सर्व सिद्धि होती है ।


तिथि किसे कहते हैं ?


तिथि-पञ्चाङ्ग का प्रमुख और प्रथम अंग तिथि है । जो चंद्रमा की कलाओं पर आधारित होती है । जिससे मास(माह) का निर्माण एवं विभाजन होता है ।

चंद्रमा की एक कला को तिथि कहा जाता है  या चन्द्रमा की एक कला बराबर एक तिथि होती है । सूर्य और चंद्रमा में जब 12 अंश का अंतर होता है तब एक तिथि का निर्माण होता है ।


पक्ष का निर्माण एवं विभाजन


सूर्य और चन्द्र के अंशो के अंतर से ही  मास को विभाजित करने वाले पक्ष का निर्माण होता है।

तिथि एक माह को दो पक्षों में विभाजित करती है । कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष ।


कृष्ण पक्ष


जब सूर्य और चंद्रमा के अंशों में 360 अंश का अंतर होता है तब उससे कृष्ण पक्ष का निर्माण होता है । इस पक्ष में 15 अंश होते हैं अर्थात 15 तिथियां होती हैं । कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा की कलाएं घटती हैं । इस पक्ष की 15 वीं तिथि को अमावश्या कहते हैं । सूर्य ग्रहण भी कृष्ण पक्ष में अमावश्या तिथि को होता है ।


शुक्ल पक्ष-


जब सूर्य और चंद्रमा के अंशों में 180 अंश का अंतर होता है तब उससे शुक्ल पक्ष का निर्माण होता है । इस पक्ष में 15 अंश होते हैं अर्थात 15 तिथियां होती हैं । शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की कलाएं बढ़ती हैं । इस पक्ष की 15 वीं तिथि को   पूर्णिमा कहते हैं । चन्द्र ग्रहण भी शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा तिथि को होता है ।


तिथियों के नाम


1.प्रतिपदा 

2.द्वितीया 

3.तृतीया 

4.चतुर्थी

5.पंचमी

6.षष्ठी 

7.सप्तमी 

8.अष्टमी

9.नवमी

10.दशमी

11.एकादशी

12.द्वादशी

13.त्रयोदशी

14.चतुर्दशी

15.अमावश्या(कृष्ण पक्ष)

15. पूर्णिमा(शुक्ल पक्ष)



वार किसे कहते हैं?

भारतीय ज्योतिष में सूर्योदय से अगले सूर्योदय पर्यन्त काल को वार कहते हैं । 

सूर्योदयात् आरम्भ सूर्योदय पर्यन्तं य:काल:स वारो ज्ञेयः ।

जैन पंचांग में नाक्षत्रमान के हिसाब से वार को रखा गया है ।


वारों की संख्या एवं संज्ञा


 ज्योतिष में वार की संख्या 7 बताई गई है । वारों का क्रम ग्रहों के अनुसार ना होकर उनके स्वामियों के अनुसार है । अन्यथा राहु और केतु ग्रह के भी वार जोडें वारों की संख्या 9 होती । सात वारों का क्रम निम्न है -


रवि: सोमस्तथा भौमौ बुधौ  गीष्पतिरेव च ।

शुक्र:शनैश्चरश्च एव वारा:सप्त प्रकीर्तिताः ।


जिस दिन का स्वामी सूर्य होता है, उसे रविवार या सूर्यवार कहतें । सभी वारो में वारपति के अनुसार ही नामकरण होगा ।


वार संज्ञाएँ

ज्योतिष शास्त्रों में तिथि, नक्षत्र ,करण एवं योगों की तरह वारों को भी विविध संज्ञा से सज्ञापित किया है । जिनसे उनके कार्यों का निर्धारण एवं   शुभ -अशुभ कार्य बोध सहज  ही हो जाता है ।  

वार संज्ञाएँ निम्न हैं-


स्थिरः सूर्यश्चरश्चन्द्रो भौमश्चोग्रो बुध: समः ।

लघुर्जीवो मृदु: शुक्र:शनिस्तीक्ष्ण: समीरित: ।।


रविवार स्थिर  संज्ञक है इसलिए स्थिर कार्य करना चाहिए, सोमवार चरसंज्ञक  है, भौमवार उग्र संज्ञक है, बुधवार सम संज्ञक है , बृहस्पतिवार लघु संज्ञक है,  शुक्रवार मृदु संज्ञक है एवं शनिवार तीक्ष्ण संज्ञक है । अतः संज्ञाओं के अनुसार ही कार्य करें ।


नक्षत्र किसे कहते हैं ?


नक्षत्र -

सूर्य जिस मार्ग में भ्रमण करता है ,उसे क्रांतिवृत्त या मेरुछिन्न- समानान्तरप्रोतवृत्त कहते हैं । क्रांतिवृत्त के दोनों तरफ 180 अंश का कटिबंध प्रदेश होता है, उसे राशिचक्र कहते हैं ।

ज्योतिष के अनुसार  कई ताराओं के समूह को नक्षत्र कहते हैं। आकाश में इन नक्षत्रों का पंक्तिचक्र रहता है जिसे भचक्र या राशिचक्र कहा जाता है ,जो 360 अंश का होता है इसके 13 अंश को तय करने में चंद्रमा को जितना  समय लगता है वह नक्षत्र कहलाता है । अर्थात 13 अंश का एक नक्षत्र होता है ।


नक्षत्रों की संख्या


 जैन ज्योतिष और वैदिक ज्योतिष  में  नक्षत्र की संख्या को लेकर थोड़ा सा मतान्तर है । जैन ज्योतिष शास्त्रों में अभिजित नक्षत्र को मान्यता प्रदान दी गई  जिससे नक्षत्रों की संख्या 28 बताई गई है । जबकि वैदिक ज्योतिष ग्रन्थों में नक्षत्रों की संख्या 27 बताई गई है ।

ज्योतिर्विदों का मत है कि उत्तराषाढ़ की अंतिम 15 घटी और श्रवण नक्षत्र के प्रारम्भ की 4 घटी के काल प्रमाण 28 वां नक्षत्र अभिजित बनता है । जिसे जैन आगम ग्रंथ धवला जी की पुस्तक 4 में पृष्ठ 318 पर धवलाकर ने  अहोरात्र के 30 मुहूर्तो के प्रकरण में दिवस सम्बन्धी रौद्र से भाग्य पर्यन्त 15 मुहूर्तो में  8वें स्थान पर अभिजित मुहूर्त का वर्णन किया है ।


 नक्षत्रों के नाम

 1.अश्विनी,  2.भरणी,  

3.कृतिका 4.रोहिणी 

5.मृगशिरा , 6.आर्द्रा, 

7.पुनर्वसु, 8.पुष्य,

 9.आश्लेषा,  10.मघा, 

11.पूर्वाफाल्गुनी 12.उत्तराफाल्गुनी, 

13.हस्त, 14.चित्रा, 

15.स्वाति, 16विशाखा,

 17.अनुराधा, 18. ज्येष्ठा, 

19.मूल, 20.पूर्वाषाढ़, 

21.उत्तराषाढ़,( अभिजित),

22.श्रवण, 23.धनिष्ठा, 

24.शतभिषा, 25.पूर्वाभाद्रपद, 

26.उत्तराभाद्रपद, 27रेवती ।


नक्षत्रों की उपादेयता


 नक्षत्रों की उपादेयता एवं उपयोगिता ज्योतिष में महत्वपूर्ण है । नक्षत्रों के आधार से मुहूर्त निर्माण, रोग चिकित्सा, जन्म कुंडली निर्माण,  वर -बधु के गुण मिलान , चोरी गई वस्तु का ज्ञान, जल वृष्टि, मेघ गर्भ, यात्रा आदि अनेक शुभ अशुभ कार्यों का  ज्ञान  एवं विचार  में सहायक होता है ।


 नक्षत्रों की संज्ञाएँ


नक्षत्रों की संज्ञाएं निम्नलिखित हैं-


ध्रुवंचरोग्र मिश्रम् , क्षिप्रं तीक्ष्णमृदुलिंगा: ।

उर्ध्वादि चौरपंचको, एता: नक्षत्रा :संज्ञका: ।


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 योग किसे कहते हैं ?

 योग-

जो सूर्य और चंद्रमा के अंशों के योग से उत्पन्न होता है उसे योग कहते हैं ।


विशेषता


प्राचीन जैन ग्रंथों में मुहूर्तादि के लिए योग को प्रधान अंग माना गया है । पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है । 

जैन पंचांग निर्माण विधि में इनकी संख्या 27 बताई गई है । ये शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं ।

योग निकालने के लिए दैनिक स्पष्ट सूर्य एवं चंद्र स्पष्ट के योग की कला बनाकर उसमें 800 का भाग देने से लब्धिगत योग होता है । फिर गत और भोग्यकला को 60 से गुणा कर रवि-चंद्र की गति कला योग से भाग देने से गत और भोग्य घटियां आती हैं ।


27 योगों के नाम

1.विष्कुम्भ 

2.प्रीति

3.आयुष्यमान

4.सौभाग्य

5.शोभन

6.अतिगंड

7.सुकर्मा

8.धृति

9.शूल

10.गण्ड 

11.वृद्धि

12.ध्रुव

13.व्याघात

14.हर्षण

15.वज्र

16सिद्धि.

17.व्यतिपात

18.वरियान

19.परिध 

20.शिव

21.सिद्ध

22.साध्य

23.शुभ

24.शुक्ल

25.ब्रह्म

26.ऐंद्र

27.वैधृति


करण किसे कहते हैं ?

तिथि के  भाग को करण कहते हैं । गत तिथि को 2 से गुणा कर 7 का भाग देने से जो शेष रहे उसी के हिसाब से  करण होता है ।



करण की संख्या


जैनाचार्य श्रीधर ने ''ज्योतिर्ज्ञानविधि'' नामक ग्रंथ में कारणों की संख्या 11 बताई है । जो निम्न हैं-



वव-वालव-कौलव तैत्तिलगरजा वणिजविष्टिचर करणा: ।

शकुनि चतुष्पडनागा: किंस्तुघ्न श्चेत्यमी स्थिरा:करणा:।।


ऊपर के 7 करण चर एवं 4 करण स्थिर होते हैं ।

Tuesday, August 11, 2020

मूल नक्षत्रों का जन्म कितना शुभ कितना अशुभ

 *मूल नक्षत्रों कस जन्म कितना शुभ कितना अशुभ होता*



✍️©डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य


मूल नक्षत्र कौन कौन से हैं ।


ज्योतिष शास्त्र में नक्षत्रों की संख्या 27 है । उनमें से अश्विनी, मघा, आश्लेषा, ज्येष्ठा, मूल एवं रेवती नक्षत्र ये 6 नक्षत्र मूल संज्ञक नक्षत्र हैं ।


मूल नक्षत्रों में जन्मी संतान  की शुभता-अशुभता का ज्ञान नक्षत्रों के चरणों के क्रम से होता है । उससे ही फल का ज्ञान होता है ।


*मूल कितने दिन के लगते हैं*


अश्विनी नक्षत्र के मूल 12 दिन, 

  मघा नक्षत्र के मूल - 14 दिन

रेवती नक्षत्र के मूल-   8 दिन

आश्लेषा नक्षत्र के मूल -28 दिन, 

  ज्येष्ठा नक्षत्र के मूल - 28 दिन

  मूल  नक्षत्र के मूल-   28 दिन


मूल का नक्षत्र  एवं चरण  फल


 अश्विनी नक्षत्र का फल

प्रथम चरण -   पिता को कष्ट

द्वितीय चरण-  सुख ऐश्वर्य

तृतीय चरण - श्रेष्ठ पद

चतुर्थ चरण- राज सम्मान


मघा नक्षत्र का फल

प्रथम चरण -   पिता को कष्ट

द्वितीय चरण-  माता को कष्ट

तृतीय चरण -  धन का नाश

चतुर्थ चरण-  शुभ(शान्ति उपरांत)


आश्लेषा नक्षत्र का फल

प्रथम चरण -   शुभ (शान्ति के उपरांत)

द्वितीय चरण-  धन नाश

तृतीय चरण - माता की हानि

चतुर्थ चरण- पिता की हानि


ज्येष्ठा नक्षत्र का फल

प्रथम चरण -   अग्रज को कष्ट

द्वितीय चरण-  अनुज को कष्ट

तृतीय चरण - माता की हानि

चतुर्थ चरण-  स्वयं की हानि


मूल नक्षत्र का फल

प्रथम चरण -   पिता नाशक

द्वितीय चरण-  माता नाशक

तृतीय चरण - धन हानि

चतुर्थ चरण- शांति उपरांत शुभ


रेवती  नक्षत्र का फल

प्रथम चरण -   राज्य सम्मान

द्वितीय चरण-  भाग्य पर

तृतीय चरण - धन सुख की प्राप्ति

चतुर्थ चरण- अनेक कष्ट

Sunday, August 9, 2020

सुभाषितरत्न संदोह नामक नीति शास्त्र का संक्षिप्त परिचय*

 *आचार्य अमित गति एवं  सुभाषितरत्न संदोह नामक नीति शास्त्र का संक्षिप्त परिचय*


✍️© डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य

       जिला परामर्शदाता CMCLDP दमोह


आचार्य अमितगति एक समर्थ ग्रंथकार थे । आपका संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार आपकी  उदबोधन प्रधान रचनाओं की प्रांजल रचना शैली प्रसादगुण युक्त सरल सरस् काव्यकौमुदी रसास्वादन सहज ही  सहृदय को आल्हादित करता  है ।  आप आचार्य माधवसेन जी के शिष्य थे । सभाषित रत्न संदोह की प्रशस्ति  से उसकी रचना  संवत 1050 में मुंजनृपतौ अर्थात राजा मुंज के शासनकाल में हुई थी ।


*सुभाषितरत्न संदोह*


पृथ्वी पर तीन रत्न ही रत्न हैं - जलं अन्नं सुभाषितं । उन्हीं तीन रत्नों में से सुभाषितरत्न सर्व श्रेष्ठ रत्न है । अतः संस्कृत साहित्य में सुभाषितों की प्रचुरता है। 

आचार्य अमितगति की सुभाषित रत्न संदोह नामक कृति ने जैन संस्कृत के सुभाषित रत्न  भांडागार की  श्री  वृद्धि की है ।  यह ग्रन्थ 32 प्रकरणों में विभक्त 922 पद्यों में सृजित 339 पृष्ठों  में  श्री जीवराज जैन ग्रंथमाला सोलापुर से प्रकाशित है ।  यह ग्रंथ उद्बोधन प्रधान है जिसमें मनुष्य को असत्प्रवृत्तियों  को त्यागकर सत्प्रवृत्तियों को अपनाने की प्रेरणा प्रदान की गई है ।


*सभाषित रत्न संदोह के 32 प्रकरण*


1. सांसारिक विषय विचार- 20 पद्य

2. कोप निषेध    -               20 पद्य

3. मान माया निषेध-           20 पद्य 

4. लोभ निवारण -               20 पद्य

5.इन्द्रीयराग निषेध-             20 पद्य

6.स्त्री गुण-दोष विचार -        20पद्य

7. मिथ्यात्व-सम्यक्त्वविचार -20 पद्य

8.ज्ञान निरूपण-                 30 पद्य 9.चारित्र निरूपण  -           30 पद्य 10.जन्म निरूपण-           26 पद्य 11.जरा निरूपण - 24 पद्य 

12.मरण निरूपण- 20 पद्य

13.अनित्यता निरूपण-24 पद्य 

14. दैव निरूपण- 32 पद्य

15.जठर निरूपण- 20 पद्य

16.जीव संबोधन -24 पद्य

 17. दुर्जन निरूपण -24 पद्य

18. सूजन निरूपण-18पद्य 

19.दान निरूपण -19 पद्य

20.मद्य निषेध-25 पद्य .

21.मांस निषेध- 26 पद्य 

22.मधु निषेध -22 पद्य

 23. काम निषेध- 25 पद्य 

24. वेश्यासंग निषेध- 25पद्य

 25.द्यूत निषेध -20 पद्य

26.आप्त विचार -22पद्य

27.गुरु स्वरूप  -26पद्य

28.धर्म निरूपण- 22पद्य

29.शोक निरूपण-28 पद्य

30.शौच निरूपण-22पद्य

31.श्रावक धर्म कथन-117 पद्य

32.तपश्चरण निरूपण-  36पद्य


*विशेष*

 ग्रन्थकार प्रशस्ति-8 पद्य इस प्रकार सम्पूर्ण ग्रन्थ में 922 पद्य हैं।  जिनमें उपरोक्त 32 प्रकरणों में  सुललित प्रासाद गुण युक्त पद्यों में विविध छन्दों का प्रयोग ,वर्णन शैली कल्पना शक्ति और कवित्व शक्ति आपके संस्कृत भाषा के असाधारण अधिकार को स्वाभाविक प्रकट ही नहीं करती अपितु  विषयानुकूल वर्णन का चित्र पाठक के चित्त पर अंकित भ्य करता है ।

गाय के गोबर का महत्व

 आयुर्वेद ग्रंथों  में हमारे ऋषि मुनियों ने पहले ही बता दिया गया  था कि   *धोवन पानी पीने का वैज्ञानिक तथ्य और आज की आवश्यकता* वायुमण्डल में...