Saturday, December 17, 2022

सम्मेद शिखर की प्राचीनता

*सम्मेद शिखर तीर्थ पर्यटन का नहीं पर्याय बदलने का स्थान है:* 
डॉ. आशीष शिक्षाचार्य ,निदेशक
संस्कृत-प्राकृत तथा प्राच्य विद्या अनुसंधान केंद्र दमोह ,अध्यक्ष, संस्कृत विभाग,एकलव्य विश्वविद्यालय दमोह म. प्र. 

 सम्मेद शिखर तीर्थ पर्यटन का नहीं पर्याय बदलने का स्थान है क्योेंकि जैन धर्म के अनुसार अयोध्या एवं सम्मेदरशिखर ये दोनों भूमियाँ शाश्वत् कही गई हैं। जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों का जन्म अयोध्या में एवं निर्वाण सम्मेद शिखर में होने के नियोग का वर्णन प्राप्त होता है इसलिए ये शाश्वत् अनादि निधन भूमियां हैं। हुण्डावसर्पिणी काल दोष के कारण वर्तमान चौवीसी के 20 तीर्थकरों का निर्वाण इस पवित्र भूमि की टांेक (पर्वतश्रृंखला) से हुआ है। यह बात ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी प्राकृत भाषा की निर्वाणि भक्ति में लिखते हैं-

वीसं तु जिणवरिंदा अमरा सुरावंदिदा धुदकिलेसा ।
सम्मेदे गिरि - सिहरे निव्वाणगया णमो तेसिं॥2
स्वस्तिकांका नराधीश, सोपि अनादिकालाट्ठि 
सम्मेदामिध भूधरः । 

 जैन शास्त्रों पुराणों एवं आगम ग्रन्थों की माने तो इस पर्वत की भूमि के नीचे जब से सृष्टि का आरम्भ है तब से स्वस्तिक का चिन्ह स्थित है ।  इसका कण-कण पवित्र है और बाल की नोंक के बराबर भी ऐसा स्थान शेष नहीं जहॉं से मुनियों का कल्याण ना हुआ हो । सम्मेद शिखर पर्वत की प्राचीनता के विषय में विचार करें तो 13वीं शताब्दी में भट्टारक मदनकीर्ति  ने ‘‘शासनचतुस्त्रिंशतिका’’ में सौधर्म इन्द्र देव के द्वारा इस पर्वत की प्रतिष्ठा एवं पूजा का उल्लेख किया है तथा जहॉ से भगवान पार्श्वनाथ का निर्वाण हुआ है उसे शास्त्रों में स्वर्णभद्र कूट कहा जाता है उस जिनालय का निर्माण व जीर्णोद्धार‘‘सम्मेदशिखर माहात्म्य’’ ग्रन्थ के अनुसार जम्बूदीप के भरत क्षेत्र अंगदेश की अन्धपुरी नगरी के राजा प्रभासेन- शांतसेना रानी के द्वारा स्वर्णभद्र कूट की प्रतिष्ठा का उल्लेख मिलता है तथा उनके पुत्र भावसेत्र के द्वारा 84 लाख भव्यों के साथ सम्मेद शिखर की वंदना,मुनिदीक्षा धारण व मोक्ष के प्रमाण प्राप्त होते हैं।  16 शताब्दी में सम्राट अकबर ने300 बीघा जमीन श्वेताम्बर जैन साधु के प्रभाव से व 18 वीं शताब्दी में अहमदशाह ने 300 बीघा जमीन सेठ महेतावराय को तीर्थ क्षेत्र हेतु प्रदान की थी । 16-17 शताब्दी में भट्टारक ज्ञानकीर्ति द्वारा प्रणीत ‘‘यशोधर चरित्र‘‘ में तथा जैन पुराण ग्रन्थों एवं जैन साहित्य में सम्म्ेादशिखर की प्राचीनता एवं तप साधना के कई प्रमाण बिखरे पडे हैं और वर्तमान में सभी को ज्ञात है कि यह जैन तीर्थ है भारत सरकार  आजादी के पूर्व से लेकर अद्यतन भारतीय रेल्वे से एवं स्थानीय विभागों से  सर्वे करा ले कि यहां सबसे ज्यादा जैन यात्री दर्शनार्थ आते हैं, जिससे भारत सरकार को कितना रेवेन्यु प्राप्त होता है। अतः जैन तीर्थ सम्मेद शिखर तीर्थ पर्यटन का नहीं पर्याय बदलने का स्थान है, जहां से अनन्तानंत जीवों का कल्याण हुआ है ।। 
*निदेशक,संस्कृत-प्राकृत तथा प्राच्यविद्या अनुसन्धान केंद्र दमोह*

सम्मेद शिखर की प्राचीनता

 *सम्मेद शिखर तीर्थ पर्यटन का नहीं पर्याय बदलने का स्थान है:* 

डॉ. आशीष शिक्षाचार्य ,निदेशक

संस्कृत-प्राकृत तथा प्राच्य विद्या अनुसंधान केंद्र दमोह ,अध्यक्ष, संस्कृत विभाग,एकलव्य विश्वविद्यालय दमोह म. प्र. 


 सम्मेद शिखर तीर्थ पर्यटन का नहीं पर्याय बदलने का स्थान है क्योेंकि जैन धर्म के अनुसार अयोध्या एवं सम्मेदरशिखर ये दोनों भूमियाँ शाश्वत् कही गई हैं। जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों का जन्म अयोध्या में एवं निर्वाण सम्मेद शिखर में होने के नियोग का वर्णन प्राप्त होता है इसलिए ये शाश्वत् अनादि निधन भूमियां हैं। हुण्डावसर्पिणी काल दोष के कारण वर्तमान चौवीसी के 20 तीर्थकरों का निर्वाण इस पवित्र भूमि की टांेक (पर्वतश्रृंखला) से हुआ है। यह बात ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी प्राकृत भाषा की निर्वाणि भक्ति में लिखते हैं-


वीसं तु जिणवरिंदा अमरा सुरावंदिदा धुदकिलेसा ।

सम्मेदे गिरि - सिहरे निव्वाणगया णमो तेसिं॥2

स्वस्तिकांका नराधीश, सोपि अनादिकालाट्ठि 

सम्मेदामिध भूधरः । 


 जैन शास्त्रों पुराणों एवं आगम ग्रन्थों की माने तो इस पर्वत की भूमि के नीचे जब से सृष्टि का आरम्भ है तब से स्वस्तिक का चिन्ह स्थित है ।  इसका कण-कण पवित्र है और बाल की नोंक के बराबर भी ऐसा स्थान शेष नहीं जहॉं से मुनियों का कल्याण ना हुआ हो । सम्मेद शिखर पर्वत की प्राचीनता के विषय में विचार करें तो 13वीं शताब्दी में भट्टारक मदनकीर्ति  ने ‘‘शासनचतुस्त्रिंशतिका’’ में सौधर्म इन्द्र देव के द्वारा इस पर्वत की प्रतिष्ठा एवं पूजा का उल्लेख किया है तथा जहॉ से भगवान पार्श्वनाथ का निर्वाण हुआ है उसे शास्त्रों में स्वर्णभद्र कूट कहा जाता है उस जिनालय का निर्माण व जीर्णोद्धार‘‘सम्मेदशिखर माहात्म्य’’ ग्रन्थ के अनुसार जम्बूदीप के भरत क्षेत्र अंगदेश की अन्धपुरी नगरी के राजा प्रभासेन- शांतसेना रानी के द्वारा स्वर्णभद्र कूट की प्रतिष्ठा का उल्लेख मिलता है तथा उनके पुत्र भावसेत्र के द्वारा 84 लाख भव्यों के साथ सम्मेद शिखर की वंदना,मुनिदीक्षा धारण व मोक्ष के प्रमाण प्राप्त होते हैं।  16 शताब्दी में सम्राट अकबर ने300 बीघा जमीन श्वेताम्बर जैन साधु के प्रभाव से व 18 वीं शताब्दी में अहमदशाह ने 300 बीघा जमीन सेठ महेतावराय को तीर्थ क्षेत्र हेतु प्रदान की थी । 16-17 शताब्दी में भट्टारक ज्ञानकीर्ति द्वारा प्रणीत ‘‘यशोधर चरित्र‘‘ में तथा जैन पुराण ग्रन्थों एवं जैन साहित्य में सम्म्ेादशिखर की प्राचीनता एवं तप साधना के कई प्रमाण बिखरे पडे हैं और वर्तमान में सभी को ज्ञात है कि यह जैन तीर्थ है भारत सरकार  आजादी के पूर्व से लेकर अद्यतन भारतीय रेल्वे से एवं स्थानीय विभागों से  सर्वे करा ले कि यहां सबसे ज्यादा जैन यात्री दर्शनार्थ आते हैं, जिससे भारत सरकार को कितना रेवेन्यु प्राप्त होता है। अतः जैन तीर्थ सम्मेद शिखर तीर्थ पर्यटन का नहीं पर्याय बदलने का स्थान है, जहां से अनन्तानंत जीवों का कल्याण हुआ है ।। 

*निदेशक,संस्कृत-प्राकृत तथा प्राच्यविद्या अनुसन्धान केंद्र दमोह*

Wednesday, November 16, 2022

ऋषि, मुनि, सन्यासी में अंतर

 ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी में  अंतर :------


भारत में प्राचीन काल से ही ऋषि मुनियों का बहुत महत्त्व रहा है। ऋषि मुनि समाज के पथ प्रदर्शक माने जाते थे और वे अपने ज्ञान और साधना से हमेशा ही लोगों और समाज का कल्याण करते आये हैं। आज भी वनों में या किसी तीर्थ स्थल पर हमें कई साधु देखने को मिल जाते हैं। धर्म कर्म में हमेशा लीन रहने वाले इस समाज के लोगों को ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी आदि नामों से पुकारते हैं। ये हमेशा तपस्या, साधना, मनन के द्वारा अपने ज्ञान को परिमार्जित करते हैं। ये प्रायः भौतिक सुखों का त्याग करते हैं हालाँकि कुछ ऋषियों ने गृहस्थ जीवन भी बिताया है। आईये आज के इस पोस्ट में देखते हैं ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी में कौन होते हैं और इनमे क्या अंतर है ?


ऋषि कौन होते हैं


भारत हमेशा से ही ऋषियों का देश रहा है। हमारे समाज में ऋषि परंपरा का विशेष महत्त्व रहा है। आज भी हमारे समाज और परिवार किसी न किसी ऋषि के वंशज माने जाते हैं। 


ऋषि वैदिक परंपरा से लिया गया शब्द है जिसे श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने वाले लोगों के लिए प्रयोग किया गया है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है वैसे व्यक्ति जो अपने विशिष्ट और विलक्षण एकाग्रता के बल पर वैदिक परंपरा का अध्ययन किये और विलक्षण शब्दों के दर्शन किये और उनके गूढ़ अर्थों को जाना और प्राणी मात्र के कल्याण हेतु उस ज्ञान को लिखकर प्रकट किये ऋषि कहलाये। ऋषियों के लिए इसी लिए कहा गया है "ऋषि: तु मन्त्र द्रष्टारा : न तु कर्तार : अर्थात ऋषि मंत्र को देखने वाले हैं न कि उस मन्त्र की रचना करने वाले। हालाँकि कुछ स्थानों पर ऋषियों को वैदिक ऋचाओं की रचना करने वाले के रूप में भी व्यक्त किया गया है। 


ऋषि शब्द का अर्थ


ऋषि शब्द "ऋष" मूल से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ देखना होता है। इसके अतिरिक्त ऋषियों के प्रकाशित कृत्य को आर्ष कहा जाता है जो इसी मूल शब्द की उत्पत्ति है। दृष्टि यानि नज़र भी ऋष से ही उत्पन्न हुआ है। प्राचीन ऋषियों को युग द्रष्टा माना जाता था और माना जाता था कि वे अपने आत्मज्ञान का दर्शन कर लिए हैं। ऋषियों के सम्बन्ध में मान्यता थी कि वे अपने योग से परमात्मा को उपलब्ध हो जाते थे और जड़ के साथ साथ चैतन्य को भी देखने में समर्थ होते थे। वे भौतिक पदार्थ के साथ साथ उसके पीछे छिपी ऊर्जा को भी देखने में सक्षम होते थे। 


ऋषियों के प्रकार


ऋषि वैदिक संस्कृत भाषा से उत्पन्न शब्द माना जाता है। अतः यह शब्द वैदिक परंपरा का बोध कराता है जिसमे एक ऋषि को सर्वोच्च माना जाता है अर्थात ऋषि का स्थान तपस्वी और योगी से श्रेष्ठ होता है। अमरसिंहा द्वारा संकलित प्रसिद्ध संस्कृत समानार्थी शब्दकोष के अनुसार ऋषि सात प्रकार के होते हैं ब्रह्मऋषि, देवर्षि, महर्षि, परमऋषि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि और राजर्षि। 


सप्त ऋषि


पुराणों में सप्त ऋषियों का केतु, पुलह, पुलत्स्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ठ और भृगु का वर्णन है। इसी तरह अन्य स्थान पर सप्त ऋषियों की एक अन्य सूचि मिलती है जिसमे अत्रि, भृगु, कौत्स, वशिष्ठ, गौतम, कश्यप और अंगिरस तथा दूसरी में कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, भरद्वाज को सप्त ऋषि कहा गया है। 


मुनि किसे कहते हैं


मुनि भी एक तरह के ऋषि ही होते थे किन्तु उनमें राग द्वेष का आभाव होता था। भगवत गीता में मुनियों के बारे में कहा गया है जिनका चित्त दुःख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निस्चल बुद्धि वाले संत मुनि कहलाते हैं। 


मुनि शब्द मौनी यानि शांत या न बोलने वाले से निकला है। ऐसे ऋषि जो एक विशेष अवधि के लिए मौन या बहुत कम बोलने का शपथ लेते थे उन्हीं मुनि कहा जाता था। प्राचीन काल में मौन को एक साधना या तपस्या के रूप में माना गया है। बहुत से ऋषि इस साधना को करते थे और मौन रहते थे। ऐसे ऋषियों के लिए ही मुनि शब्द का प्रयोग होता है। कई बार बहुत कम बोलने वाले ऋषियों के लिए भी मुनि शब्द का प्रयोग होता था। कुछ ऐसे ऋषियों के लिए भी मुनि शब्द का प्रयोग हुआ है जो हमेशा ईश्वर का जाप करते थे और नारायण का ध्यान करते थे जैसे नारद मुनि। 


मुनि शब्द का चित्र,मन और तन से गहरा नाता है। ये तीनों ही शब्द मंत्र और तंत्र से सम्बन्ध रखते हैं। ऋग्वेद में चित्र शब्द आश्चर्य से देखने के लिए प्रयोग में लाया गया है। वे सभी चीज़ें जो उज्जवल है, आकर्षक है और आश्चर्यजनक है वे चित्र हैं। अर्थात संसार की लगभग सभी चीज़ें चित्र शब्द के अंतर्गत आती हैं। मन कई अर्थों के साथ साथ बौद्धिक चिंतन और मनन से भी सम्बन्ध रखता है। अर्थात मनन करने वाले ही मुनि हैं। मन्त्र शब्द मन से ही निकला माना जाता है और इसलिए मन्त्रों के रचयिता और मनन करने वाले मनीषी या मुनि कहलाये। इसी तरह तंत्र शब्द तन से सम्बंधित है। तन को सक्रीय या जागृत रखने वाले योगियों को मुनि कहा जाता था।


जैन ग्रंथों में भी मुनियों की चर्चा की गयी है। वैसे व्यक्ति जिनकी आत्मा संयम से स्थिर है, सांसारिक वासनाओं से रहित है, जीवों के प्रति रक्षा का भाव रखते हैं, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ईर्या (यात्रा में सावधानी ), भाषा, एषणा(आहार शुद्धि ) आदणिक्षेप(धार्मिक उपकरणव्यवहार में शुद्धि ) प्रतिष्ठापना(मल मूत्र त्याग में सावधानी )का पालन करने वाले, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायतसर्ग करने वाले तथा केशलोच करने वाले, नग्न रहने वाले, स्नान और दातुन नहीं करने वाले, पृथ्वी पर सोने वाले, त्रिशुद्ध आहार ग्रहण करने वाले और दिन में केवल एक बार भोजन करने वाले आदि 28 गुणों से युक्त महर्षि ही मुनि कहलाते हैं। 


मुनि ऋषि परंपरा से सम्बन्ध रखते हैं किन्तु वे मन्त्रों का मनन करने वाले और अपने चिंतन से ज्ञान के व्यापक भंडार की उत्पति करने वाले होते हैं। मुनि शास्त्रों का लेखन भी करने वाले होते हैं 


साधु कौन होते हैं 


किसी विषय की साधना करने वाले व्यक्ति को साधु कहा जाता है। प्राचीन काल में कई व्यक्ति समाज से हट कर या कई बार समाज में ही रहकर किसी विषय की साधना करते थे और उस विषय में विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते थे। विषय को साधने या उसकी साधना करने के कारण ही उन्हें साधु कहा गया। 


कई बार अच्छे और बुरे व्यक्ति में फर्क करने के लिए भी साधु शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका कारण है कि सकारात्मक साधना करने वाला व्यक्ति हमेशा सरल, सीधा और लोगों की भलाई करने वाला होता है। आम बोलचाल में साध का अर्थ सीधा और दुष्टता से हीन होता है। संस्कृत में साधु शब्द से तात्पर्य है सज्जन व्यक्ति। लघुसिद्धांत कौमुदी में साधु का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि "साध्नोति परकार्यमिति साधु : अर्थात जो दूसरे का कार्य करे वह साधु है। साधु का एक अर्थ उत्तम भी होता है ऐसे व्यक्ति जिसने अपने छह विकार काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर का त्याग कर दिया हो, साधु कहलाता है। 


साधु के लिए यह भी कहा गया है "आत्मदशा साधे " अर्थात संसार दशा से मुक्त होकर आत्मदशा को साधने वाले साधु कहलाते हैं। वर्तमान में वैसे व्यक्ति जो संन्यास दीक्षा लेकर गेरुआ वस्त्र धारण करते हैं और जिनका मूल उद्द्येश्य समाज का पथ प्रदर्शन करते हुए धर्म के मार्ग पर चलते हुए मोक्ष को प्राप्त करते हैं, साधु कहलाते हैं। 


संन्यासी किसे कहते हैं


सन्न्यासी धर्म की परम्परा प्राचीन हिन्दू धर्म से जुडी नहीं है। वैदिक काल में किसी संन्यासी का कोई उल्लेख नहीं मिलता। सन्न्यासी या सन्न्यास की अवधारणा संभवतः जैन और बौद्ध धर्म के प्रचलन के बाद की है जिसमे सन्न्यास की अपनी मान्यता है। हिन्दू धर्म में आदि शंकराचार्य को महान सन्न्यासी माना गया है। 


सन्न्यासी शब्द सन्न्यास से निकला हुआ है जिसका अर्थ त्याग करना होता है। अतः त्याग करने वाले को ही सन्न्यासी कहा जाता है। सन्न्यासी संपत्ति का त्याग करता है, गृहस्थ जीवन का त्याग करता है या अविवाहित रहता है, समाज और सांसारिक जीवन का त्याग करता है और योग ध्यान का अभ्यास करते हुए अपने आराध्य की भक्ति में लीन हो जाता है। 


हिन्दू धर्म में तीन तरह के सन्न्यासियों का वर्णन है


परिव्राजकः सन्न्यासी : भ्रमण करने वाले सन्न्यासियों को परिव्राजकः की श्रेणी में रखा जाता है। आदि शंकराचार्य और रामनुजनाचार्य परिव्राजकः सन्यासी ही थे। 


परमहंस सन्न्यासी : यह सन्न्यासियों की उच्चत्तम श्रेणी है। 


यति : सन्यासी : उद्द्येश्य की सहजता के साथ प्रयास करने वाले सन्यासी इस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। 


वास्तव में संन्यासी वैसे व्यक्ति को कह सकते हैं जिसका आतंरिक स्थिति स्थिर है और जो किसी भी परिस्थिति या व्यक्ति से प्रभावित नहीं होता है और हर हाल में स्थिर रहता है। उसे न तो ख़ुशी से प्रसन्नता मिलती है और न ही दुःख से अवसाद। इस प्रकार निरपेक्ष व्यक्ति जो सांसारिक मोह माया से विरक्त अलौकिक और आत्मज्ञान की तलाश करता हो संन्यासी कहलाता है। 


उपसंहार


ऋषि, मुनि, साधु या फिर संन्यासी सभी धर्म के प्रति समर्पित जन होते हैं जो सांसारिक मोह के बंधन से दूर समाज कल्याण हेतु निरंतर अपने ज्ञान को परिमार्जित करते हैं और ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हेतु तपस्या, साधना, मनन आदि करते हैं।

Wednesday, September 21, 2022

राम और रामायण के तथ्य

 💥 #रामायण_के_कुछ_रोचक_तथ्य 🚩

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🔸1. रामायण को महर्षि वाल्मीकि जी ने लिखा था तथा इस महाग्रंथ में 24,000 श्लोक, 500 उपखंड तथा उत्तर सहित सात कांड है।


🔸2. जिस समय दशरथ जी ने पुत्रेष्ठी यज्ञ किया था उस समय दशरथ जी की आयु 60 वर्ष थी।


🔸3. तुलसीरामायण में लिखा है की सीता जी के स्वयंवर में श्री राम ने भगवान शिव का धनुष बाण उठाया व इन्हें तोड़ दिया परंतु इस घटना का वाल्मीकि रामायण में कोई उल्लेख नहीं है।


🔸4. रामचरितमानस के अनुसार परशुरामजी सीता स्वयंवर के मध्य में आए थे परंतु बाल्मीकि रामायण के अनुसार जब प्रभु श्री राम, माता सीता के साथ अयोध्या जा रहे थे उस समय बीच रास्ते में परशुराम जी इन्हें मिले थे।


🔸5. जब भगवान श्री राम वनवास के लिए जा रहे थे तब उनकी आयु 27 वर्ष थी।


🔸6. जब लक्ष्मण जी आए और उन्हें पता चला कि श्री राम को वनवास का आदेश मिला है तब वह बहुत क्रोधित हुए तथा श्री राम के पास जाकर उनसे अपने ही पिता के विरुद्ध युद्ध के लिए बोला परंतु बाद में श्री रामजी के समझाने पर वह शांत हो गए।


🔸7. जब दशरथ जी ने श्री राम को वनवास के लिए कहा, तब वह चाहते थे कि श्री राम जी बहुत सा धन एवं दैनिक उपयोग की चीजें अपने साथ ले जाए परंतु कैकई ने इन सब चीजों के लिए भी मना कर दिया।


🔸8. भरत जी को सपने में ही इनके पिता दशरथ की मृत्यु का अनुमान हो गया था क्योंकि उन्होंने अपने सपने में दशरथ जी को काले कपड़े पहने एवं उदास देखा था।


🔸9. हिंदू मान्यताओं के अनुसार इस ब्रह्माण्ड में 33 करोड़ देवी-देवता है लेकिन बाल्मीकि रामायण के के अनुसार 33 करोड़ नहीं अपितू 33 कोटि अर्थात 33 प्रकार के देवी देवता है।


🔸10. प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि जब माता सीता का अपहरण रावण के द्वारा हुआ तब जटायु ने उन्हें बचाने का प्रयास किया और अपना बलिदान दिया परंतु राम वाल्मीकि रामायण के अनुसार यह जटायु नहीं थे अपितु उनके पिता अरुण थे।


🔸11. जिस दिन रावण ने माता सीता का हरण किया तथा उन्हें अशोक वाटिका लेकर आया, उसी रात भगवान ब्रह्मदेव ने इंद्रदेव को एक विशेष प्रकार की खीर सीता जी को देने के लिए कहा, तब इंद्रदेव ने पहले अपनी अलौकिक शक्तियों के द्वारा अशोक वाटिका में उपस्थित सारे राक्षसों को सुला दिया, उसके बाद वह खीर माता सीता को दी।


🔸12. जब भगवान श्री राम, लक्ष्मण जी, माता सीता की खोज में जंगल में गए तब वहां उनकी राह में कंबंध नाम का एक राक्षस आया जो श्री राम व लक्ष्मण के हाथ मारा गया परंतु वास्तव में कंबंध एक श्रापित देवता था और एक श्राप के कारण राक्षस योनी में जन्मा और जब प्रभु श्रीराम ने उसकी उसका मृत शरीर जलाया तब उसकी आत्मा मुक्त हो गई एवं उसने ही उसने ही श्रीराम व लक्ष्मण को सुग्रीव से मित्रता करने का मार्ग सुझाया।


🔸13. एक बार रावण कैलाश पर्वत पर भगवान शिव से मिलने गया और उसने वहां उपस्थित नंदी का मजाक उड़ाया इससे क्रोधित नंदी ने रावण को श्राप दिया कि एक वानर तेरी मृत्यु एवं पतन करण बनेगा।


🔸14. वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब रावण ने कैलाश पर्वत उठाया था तब माता पार्वती ने क्रोधित होकर श्राप दिया था की तेरी मृत्यु का कारण एक स्त्री बनेगी।


🔸15. विद्युतजिन, रावण की बहन शुर्पणखां का पति था तथा यह कालकेय नामक राजा का सेनापति भी था। जब रावण पूरी दुनियाँ को जीतने निकला तब उसने कालकेय से भी युद्ध किया तथा इस युद्ध में विद्युतजिन मारा गया तब क्रोधित शुर्पणखां ने रावण को श्राप दिया की वही एक दिन अपने भाई रावण की मृत्यु का कारण बनेगी।


🔸16. जब राम और रावण के मध्य अंतिम युद्ध लड़ा जा रहा था तब इंद्रदेव ने अपना चमत्कारिक रथ श्रीराम के लिए भेजा था और इस रथ पर बैठ कर ही श्री राम ने रावण का वध किया।


🔸17. एक बार रावण अपने पुष्पक विमान पर कही जा रहा था तब उसने एक सुंदर स्त्री को भगवान विष्णु की तपस्या करते हुए देखा जो श्री हरि विष्णु को पति रूप में पाना चाहती थी। रावण ने उसके बाल पकड़ कर उसे घसीटते हुए अपने साथ चलने को कहा परंतु उस स्त्री ने उसी क्षण अपने प्राण त्याग दिए और रावण को अपने कुल सहित नष्ट हो जाने का श्राप दिया।


🔸18. रावण को अपनी सोने की लंका पर बहुत अहंकार था, परंतु इस लंका पर रावण से पहले उसके भाई कुबेर का राज था। रावण ने लंका को अपने भाई कुबेर से युद्ध करके जीता था।


🔸19. रावण राक्षसों का राजा था तथा उस समय लगभग सभी बालक इससे बहुत ज्यादा डरते थे क्योंकि इसके दस सिर थे परन्तु रावण, शिव का बहुत बड़ा भक्त था तथा बहुत ही बुद्धिमान विद्यार्थी भी था, जिसने सारे वेद का अध्ययन किया।


🔸20. रावण के रथ की ध्वजा पर अंकित वीणा के चिन्ह से यह पता लगता है कि रावण को संगीत थी प्रिय था तथा कई जगह इस बात का उल्लेख है कि रावण वीणा बजाने में भी निपुण था।


🔸21. राजधर्म का निर्वाह करते हुए एक धोबी के कारण श्री राम ने माता सीता की अग्नि परीक्षा ली तथा इसके पश्चात माता सीता को वाल्मीकि आश्रम में छोड़ दिया, बाद में जब पुनः श्री राम ने माता सीता को परीक्षा के लिए कहा तो माता सीता धरती में समा गयी, तब श्री राम व इनके पुत्र कुश, माता सीता को पकड़ने के लिए दौड़े परन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इस घटना के पश्चात श्री राम को अत्यंत ही ग्लानी हुई की उन्होंने राजधर्म का निर्वाह तो किया लेकिन अपनी प्राणों से भी प्रिय पत्नी को उनके कारण कितने ही दुःख झेलने पडे, इसके कुछ समय पश्चात ही भगवान श्री राम ने सरयू नदी में जल समाधि ले ली एवं बैकुंठ धाम प्रस्थान कर गये।


🔸22. जब सीता हरण के पश्चात रावण को पता चला की श्री राम, लंका की ओर युद्ध के लिए आ रहे है तब इनके भाई विभीषण ने माता सीताजी को लौटाकर राम से संधि करने को कहाँ लेकिन तब रावण बोला की अगर वह साधारण मानव है तब वह मुझे नहीं हरा सकते लेकिन अगर वह वास्तव में ईश्वर है तब उनके हाथो मेरी मृत्यु नहीं अपितु मोक्ष प्राप्ति होगी, अतः में युद्ध अवश्य करूँगा।


🔸23. लक्ष्मण जी 14 सालो तक नहीं सोयें थे तथा इसी कारण इन्हें गुडाकेश भी कहा जाता है। रावण पुत्र मेघनाद को वरदान था की उसकी मृत्यु वही करेगा जो 14 वर्षो तक न सोया हो और इसी कारण मेघनाद, लक्ष्मण के द्वारा मारा गया।


💥 24

      👇👇

🔹1:~मानस में राम शब्द=1443 बार आया है।


🔸2:~मानस में सीता शब्द=147 बार आया है।


🔹3:~मानस में जानकी शब्द= 69 बार आया है।


🔸4:~मानस में बड़भागी शब्द=58 बार आया है।


🔹5:~मानस में कोटि शब्द=125 बार आया है।


🔸6:~मानस में एक बार शब्द= 18 बार आया है।


🔹7:~मानस में मन्दिर शब्द= 35 बार आया है।


🔸8:~मानस में मरम शब्द =40  आर आया है।


🔹9:~मानस में श्लोक संख्या=27 है।


🔸10:~लंका में राम जी =111 दिन रहे।


🔹11:~लंका में सीताजी =435 दिन रही।


🔸12:~मानस में चोपाई संख्या=4608 है।


🔹13:~मानस में दोहा संख्या=1074 है।


🔸14:~मानस में सोरठा=207 है।


🔹15:~मानस में छन्द=86 है।


🔸16:~सुग्रीव में बल था=10000 हाथियों का! 


🔹17:~सीता रानी बनी=33वर्ष की उम्र में।


🔸18:~मानस रचना के समय तुलसीदास की उम्र=77 वर्ष


🔹19:~पुष्पक विमान की चाल=400 मील/घण्टा


🔸20:~रामादल व् रावण दल का युद्ध=87 दिन चला


🔹21:~राम रावण युद्ध=32 दिन चला।


🔸22:~सेतु निर्माण=5 दिन में हुआ।


🔹23:~नलनील के पिता=विश्वकर्मा


🔸24:~त्रिजटा के पिता=विभीषण


🔹25:~दशरथ की उम्र थी=60000 वर्ष।


🔸26:~सुमन्त की उम्र=9999 वर्ष।


🔹27:~विश्वामित्र राम को ले गए=10 दिन के लिए।


🔸28:~मानस में बैदेही शब्द=51 बार आया है।


🔹29:~राम ने रावण को सबसे पहले मारा था=6 वर्ष की उम्र में।


🔸30:~रावण को जिन्दा किया=सुखेन बेद ने नाभि में अमृत रखकर।



Monday, September 19, 2022

वैराग्य

 #सुंदर_कथा 🌹


एक राजा की पुत्री के मन में वैराग्य की भावनाएं थीं। जब राजकुमारी विवाह योग्य हुई तो राजा को उसके विवाह के लिए योग्य वर नहीं मिल पा रहा था।


राजा ने पुत्री की भावनाओं को समझते हुए बहुत सोच-विचार करके उसका विवाह एक गरीब संन्यासी से करवा दिया।


राजा ने सोचा कि एक संन्यासी ही राजकुमारी की भावनाओं की कद्र कर सकता है।


विवाह के बाद राजकुमारी खुशी-खुशी संन्यासी की कुटिया में रहने आ गई।


कुटिया की सफाई करते समय राजकुमारी को एक बर्तन में दो सूखी रोटियां दिखाई दीं। उसने अपने संन्यासी पति से पूछा कि रोटियां यहां क्यों रखी हैं?


संन्यासी ने जवाब दिया कि ये रोटियां कल के लिए रखी हैं, अगर कल खाना नहीं मिला तो हम एक-एक रोटी खा लेंगे।


संन्यासी का ये जवाब सुनकर राजकुमारी हंस पड़ी। राजकुमारी ने कहा कि मेरे पिता ने मेरा विवाह आपके साथ इसलिए किया था, क्योंकि उन्हें ये लगता है कि आप भी मेरी ही तरह वैरागी हैं, आप तो  सिर्फ भक्ति करते हैं और कल की चिंता करते हैं।


सच्चा भक्त वही है जो कल की चिंता नहीं करता और भगवान पर पूरा भरोसा करता है।


अगले दिन की चिंता तो जानवर भी नहीं करते हैं, हम तो इंसान हैं। अगर भगवान चाहेगा तो हमें खाना मिल जाएगा और नहीं मिलेगा तो रातभर आनंद से प्रार्थना करेंगे।


ये बातें सुनकर संन्यासी की आंखें खुल गई। उसे समझ आ गया कि उसकी पत्नी ही असली संन्यासी है। 


उसने राजकुमारी से कहा कि आप तो राजा की बेटी हैं, राजमहल छोड़कर मेरी छोटी सी कुटिया में आई हैं, जबकि मैं तो पहले से ही एक फकीर हूं, फिर भी मुझे कल की चिंता सता रही थी। सिर्फ कहने से ही कोई संन्यासी नहीं होता, संन्यास को जीवन में उतारना पड़ता है। आपने मुझे वैराग्य का महत्व समझा दिया।


शिक्षा: अगर हम भगवान की भक्ति करते हैं तो विश्वास भी होना चाहिए कि भगवान हर समय हमारे साथ है।


उसको (भगवान्) हमारी चिंता हमसे ज्यादा रहती हैं।


कभी आप बहुत परेशान हो, कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा हो।


आप आँखे बंद कर के विश्वास के साथ पुकारे, सच मानिये 

थोड़ी देर में आप की समस्या का समाधान मिल जायेगा।

Thursday, September 15, 2022

पूजन-अभिषेक एवं द्रव्य की व्याख्या -श्री पद्मपुराण के परिप्रेक्ष्य में

 अष्टद्रव्य से पूजा

भगवान की अष्टद्रव्य से पूजा करते समय चरणों में चंदन लगाना। फूल,फल, दीप, धूप वास्तविक लेना ऐसा विधान है प्रमाण देखिये-

जल से पूजन करने का फल

पसमइ रयं असेसं, जिणपयकमलेसु, दिण्णजलधारा।

भिंगारणालणिग्गय, भवंतभिंगेहि कव्वुरिया।।

प्रशमति रज: अशेषं, जिनपदकमलेषु दत्तजलधारा।

भृंगारनालनिर्गता, भ्रमद्भृंगै: कर्बुरिता।।४७०।।

अर्थ- सबसे पहले जल की धारा देकर भगवान की पूजा करनी चाहिए। वह जल की धारा भृंगार (झारी) की नाल से निकलनी चाहिए तथा वह जल इतना सुगंधित होना चाहिए कि उस पर भ्रमर आ जाएँ और जलधारा के चारों ओर घूमते हुये उन भ्रमरों से वह जल की धारा अनेक रंग की दिखाई देने लगे ऐसी जल की धारा भगवान के चरण कमलों पर पड़नी चाहिए। इस प्रकार जल की धारा से भगवान की पूजा करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं अथवा ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्म शांत हो जाते हैं।

चंदन से पूजन करने का फल

चंदणसुअन्धलेओ, जिणवर-चरणेसु जो कुणई भविओ।

लहइ तणू विक्किरियं, सहावसुयंधयं अमलं।।

चन्दनसुगंधलेपं, जिनवरचरणेषु य: करोति भव्य:।

लभते तनुं वैक्रियिवं, स्वभावसुगन्धवं अमलं।।४७१।।

अर्थ – जो भव्य पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों पर (जिन प्रतिमा के चरण कमलों पर) सुगंधित चन्दन का लेप करता है उसको स्वर्ग में जाकर अत्यन्त निर्मल और स्वभाव से ही सुगंधित वैक्रियक शरीर प्राप्त होता है। भावार्थ-चन्दन से पूजा करने वाला भव्य जीव स्वर्ग में जाकर उत्तम देव होता है।

अक्षत से पूजन करने का फल

पुण्णाण पुज्जेहि य, अक्खय-पुंजेहि देवपयपुरओ।

लब्भंति णवणिहाणे सुअक्खए चक्कवट्टित्तं।।

पुर्णै: पूजयेच्च अक्षत-पुंजै: देवपद – पुरत:।

लभ्यन्ते नवनिधानानि, सु अक्षयानि चक्रवर्तित्वं।।४७२।।

अर्थ – जो भव्य जीव भगवान जिनेन्द्र देव के सामने पूर्ण अक्षतों के पुंज चढ़ाता है अक्षतों से भगवान की पूजा करता है वह पुरुष चक्रवर्ती का पद पाकर अक्षयरूप नवनिधियों को प्राप्त करता है। चक्रवर्ती को जो निधियां प्राप्त होती हैं उनमें से चाहे जितना सामान निकाला जाये, निकलता ही जाता है, कम नहीं होता।

पुष्प से पूजन करने का फल

अलि-चुंबिएहिं पुज्जइ, जिणपयकमलं च जाइमल्लीहिं।

सो हवइ सुरवरिंदो, रमेई सुरतरुवरवणेहिं।।

अलि-चुम्बितै: पूजयति, जिनपद-कमलं च जातिमल्लिवै:।

स भवति सुरवरेन्द्र:, रमते सुरतरुवरवनेषु।।४७३।।

अर्थ- जो भव्य पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की जिन पर भ्रमर घूम रहे हैं ऐसे चमेली, मोगरा आदि उत्तम पुष्पों से पूजा करता है वह स्वर्ग में जाकर अनेक देवों का इन्द्र होता है और वह वहाँ पर चिरकाल तक स्वर्ग में होने वाले कल्पवृक्षों के वनों में (बगीचों में) क्रीड़ा किया करता है।

नैवेद्य से पूजन करने का फल

दहिखीर-सप्पि-संभव-उत्तम-चरुएहिं पुज्जए जो हु।

जिणवरपाय – पओरुह, सो पावइ उत्तमे भोए।।

दधि-क्षीर-सर्पि:-सम्भवोत्तम-चरुवैक: पूजयेत् यो हि।

जिनवर-पादपयोरुहं, स प्राप्नोति उत्तमान् भोगान्।।४७४।।

अर्थ – जो भव्य पुरुष दही, दूध, घी, आदि से बने हुये उत्तम नैवेद्य से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की पूजा करता है उसे उत्तमोत्तम भोगों की प्राप्ति होती है।

दीपक से पूजन करने का फल

कप्पूर-तेल्ल-पयलिय-मंद-मरुपहयणडियदीवेहिं।

पुज्जइ जिण-पय-पोमं, ससि-सूरविसमतणुं लहई।।

कर्पूर-तेल-प्रज्वलित-मन्द-मरुत्प्रहतनटितदीपै: ।

पूजयति जिन-पद्मं, शशिसूर्यसमतनुं लभते।।४७५।।

अर्थ – जो दीपक, कपूर, घी, तेल आदि से प्रज्वलित हो रहा है और मन्द-मन्द वायु से नाच सा रहा है ऐसे दीपक से जो भव्य पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की पूजा करता है वह पुरुष सूर्य-चन्द्रमा के समान तेजस्वी शरीर को धारण करता है।

धूप से पूजन करने का फल

सिल्लारस-अयरु-मीसिय-णिग्गय धूवेहिं वहल-धूमेहिं।

धूवइ जो जिणचरणेसु लहइ सुहवत्तणं तिज ए।।

सिलारसागुरुमिश्रितनिर्गतधूपै: बहलधूम्रै:।

धूपयेद्य: जिनचरणेसु लभते शुभवर्तनं त्रिजगति।।४७६।।

अर्थ – जिससे बहुत भारी धुंआं निकल रहा है और जो शिलारस (शिलाजीत) अगुरु, चंदन आदि सुगंधित द्रव्यों से बनी हुयी है ऐसी धूप अग्नि में खेकर भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलो को धूपित करता है वह तीनों लोकों में उत्तम पद को प्राप्त होता है। धूप को अग्नि में खेना चाहिए और उससे निकला हुआ धूंआं दाएं हाथ से भगवान की ओर करना चाहिए ।

फल से पूजन करने का फल

पक्केहिं रसड्ढ-सुमुज्जलेहिं जिणचरणपुरओप्पविएहिं।

णाणाफलेहिं पावइ, पुरिसो हियइच्छयं सुफलं।।

पक्कै: रसाढ्यै: समुज्वलै: जिनवरचरणपुरतउपयुत्तै:।

नानाफलै: प्राप्नोति, पुरुष: हृदयेप्सितं सुफलं।।४७७।।

अर्थ – जो भव्य पुरुष अत्यन्त उज्ज्वल रस से भरपूर ऐसे अनेक प्रकार के पके फलों से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों के सामने समर्पण कर पूजा करता है वह अपने हृदय अनुकुल उत्तम फलों को प्राप्त होता है।

उमास्वामी श्रावकाचार मे श्री उमास्वामी आचार्य कहते हैं-

जिनेन्द्रप्रतिमां भव्य:, स्नापयेत्पंचकामृतै:।

तस्य नश्यति संताप:, शरीरादिसमुद्भव:।।१६१।।

अर्थ – जो भव्य जीव जल, इक्षुरस, दूध, दही, घी, सर्वोषधि आदि से भगवान जिनेन्द्र देव की प्रतिमा का पंचामृताभिषेक करता हैं उसके शरीर से, मन से और अकस्मात् होने वाले सब तरह के संताप अवश्य नष्ट हो जाते हैं।

श्रीमतां श्रीजिनेन्द्राणां, प्रतिमाग्रे च पुण्यदा:।

ददाति जलधारा य:, तिस्त्रो भृंगारनालत:।।१६२।।

जन्म-मृत्यु-जरा-दु:खं, क्रमात्तस्य क्षयं व्रजेत्।

स्वल्पैरेव भवै: पापरज: शाम्यति निश्चितम्।।१६३।।

अर्थ – जो भव्यजीव प्रातिहार्य आदि अनेक शोभाओं से सुशोभित भगवान जिनेन्द्र देव की प्रतिमा के सामने भृगार नाल से (झारी से) तीन बार जल की धारा देता है व पुरुष महापुण्यवान समझा जाता है। और उसके जन्म, मरण, बुढ़ापा आदि के समस्त दु:ख अनुक्रम से नष्ट हो जाते हैं तथा थोड़े ही भवों में उसकी पापरूपी धूलि अवश्य ही शांत हो जाती है।

भावार्थ-भगवान जिनेन्द्र देव की प्रतिमा के सामने झारी की टोंटी से तीन बार जल की धारा देनी चाहिए। यही जल पूजा कहलाती है। जलधारा झारी सही देनी चाहिए कटोरी आदि से नहीं।

चन्दनाद्यर्चनापुण्यात्, सुगंधि-तनुभाग् भवेत्।

सुगंधीकृतदिग्भागो, जायते च भवे भवे।।१६४।।

अर्थ – चन्दन से भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा करने से जो पुण्य होता है उससे यह जीव जन्म-जन्म में अत्यन्त सुगंधित शरीर प्राप्त करता है उस शरीर की सुगंधि से दशों दिशाएँ सुगंधित हो जाती हैं। भावार्थ- भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों के अंगूठे पर अनामिका उंगली से चन्दन लगाना पूजा कहलाती है। सबसे छोटी उंगली के पास की उंगली को अनामिका कहते हैं।

अखण्डतन्दुलै: शुभ्रै:, सुगंधै: शुभशालिजै:।

पूजयन् जिनपादाब्जा-नक्षयां लभते रमाम्।।१६५।।

अर्थ- सपेद सुगंधित और शुभशालि धान्यों से उत्पन्न हुये अखंड तन्दुलों से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की पूजा करने वाला मोक्षरूपी अक्षय लक्ष्मी को प्राप्त होता है। भावार्थ- भगवान की प्रतिमा के सामने चावलों के पुञ्ज चढ़ाने से अक्षत पूजा कही जाती है। वे चावलों के पुञ्ज अंगूठे को ऊपर कर बंधी हुई मुट्ठी से रखने चाहिए, साथ में मंत्र भी पढ़ना चाहिए। रकेबी से अक्षत नहीं चढ़ाना चाहिए।

पुष्पै: संपूजयन् भव्योऽमरस्त्रीलोचनै: सदा।

पूज्यतेऽमरलोकेशदेवीनिकरमध्यग:।।१६६।।

अर्थ -जो भव्य जीव पुष्पों से भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा करता है। वह स्वर्गलोक के इन्द्र की देवियों के मध्य में बैठा हुआ अनेक देवियों के सुंदर नेत्रों के द्वारा सदा पूजा जाता है। भावार्थ वह इन्द्र होता है और अनेक देवांगनाएं उसकी सेवा करती हैं। पुष्प भगवान की प्रतिमा के चरणों पर चढ़ाए जाते हैं। पुष्प दोनों हाथों की अंजलि से चढ़ाना चाहिए। इसी को पुष्प पूजा कहते हैं।

पक्वान्नादिकनैवेद्यै: प्रार्चयत्यनिशं जिनान्।

स भुनक्ति महासौख्यं पचेन्द्रियसमुद्भवम्।।१६७।।

अर्थ- जो भव्य जीव पकाये हुये अनेक प्रकार के नैवेद्य से भगवान जिनेन्द्र देव की प्रतिदिन पूजा करता है वह पांचो इन्द्रियों से उत्पन्न हुये महासुखों का अनुभव करता है। भावार्थ चावलों के भात को अन्न कहते हैं। किसी अच्छे थाल में नैवेद्य को रखकर तथा दोनों हाथों से उस थाल को पकड़कर भगवान के सामने आरती उतारने के समान उस थाल को फिराकर सामने रख देना चाहिए। हाथ या कटोरी से नैवेद्य नहीं चढ़ाना चाहिए।

सुरत्नसर्पि:-कर्पूरभवै – र्दीपैर्जिनेशिनाम्।

द्योतयेद्य: पुमानंघ्रीन् स: स्यात्कांतिकलानिधि:।।१६८।।

अर्थ- जो भव्य जीव रत्न, घी व कपूर के दीपकों से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की आरती उतारता है उस पुरुष की कांति चन्द्रमा के समान निर्मल हो जाती है। भावार्थ दीप पूजा दीपक से ही होती है। रंगे हुए चटक से नहीं। रंगे हुए चटक से भगवान का शरीर दैदीप्यमान नहीं होता। दीपक से आरती उतारी जाती है। इसीलिए परिणामों की विशुद्धि जो आरती से होती है वह रंगे चटक से नहीं हो सकती। दोनों हाथों से दीपक का थाल लेकर दाई ओर से बाई ओर घुमाकर भगवान के सामने बार-बार दैदीप्यमान करने को आरती कहते हैं। इसी को दीप पूजा कहते हैं।

कृष्णागर्वादिजै-र्धूपै-र्धूपयेज्जिनपदयुगम्।

स: सर्वजनतानेत्रवल्लभ: संप्रजायते।।१६९।।

अर्थ –जो भव्य जीव कृष्णगुरु, चन्दन आदि सुगंधित द्रव्यों से बनी हुई धूप से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की पूजा करता है अग्नि में खेकर धूप चढ़ाता है। वह पुरुष समस्त लोगों के नेत्रों का प्यारा हो जाता है। भावार्थ धूप को अग्नि में खेकर उसका धूंआ अपने दांये हाथ से भगवान की ओर करना चाहिए इसी को धूप पूजा कहते हैं। धूप थाल में नहीं चढ़ाई जाती है किन्तु अग्नि में ही खेई जाती है।

आम्रनारिंगजंबीरकदल्यादि-तरुद्भवै: ।

फलैर्यजति सर्वज्ञं, लभतेऽपीहितं फलम्।।१७०।।

अर्थ- जो भव्य जीव आम, नारंगी, नींबू, केला, आदि वृक्षों से उत्पन्न होने वाले फलों से भगवान सर्वज्ञदेव की पूजा करता है वह पुरुष अपनी इच्छा के अनुसार फलों को प्राप्त होता है। भावार्थ जिन फलों से इन्द्रिय और मन को संतोष हो ऐसे हरे व सूखे फल चढ़ाना चाहिए। फल देखने में सुन्दर और मनोहर होने चाहिए। गोला या बाकी मिंगी फल नहीं कहलाते किन्तु नैवेद्य कहलाते हैं। इसीलिए गोला के बदले नारियल चढ़ाना चाहिए, बादाम भी फोड़कर नहीं चढ़ाना चाहिए। रकेबी में फल रखकर बड़ी विनय और भक्ति से भगवान के सामने रखने चाहिए। आठो द्रव्यों में फल सर्वोत्कृष्ट द्रव्य है। 

श्री रविषेणाचार्य कहते हैं- अथानन्तर भरत, पिता के समान, प्रजा पर राज्य करने लगा। उसका राज्य समस्त शत्रुओं से रहित तथा समस्त प्रजा को सुख देने वाला था।।१३६।। तेजस्वी भरत अपने मन में असहनीय शोकरूपी शल्य को धारण कर रहा था इसलिए ऐसे व्यवस्थित राज्य में भी उसे क्षणभर के लिए संतोष नही होता था।।१३७।।वह तीनों काल अरनाथ भगवान की वन्दना करता था भोगों से सदा उदास रहता था और समीचीन धर्म का श्रवण करने के लिए मंदिर जाता था। यही इसका नियम था।।१३८।।वहां स्व और पर शास्त्रों के पारगामी तथा अनेक मुनियों का संघ जिनकी निरन्तर सेवा करता था ऐसे द्युति नाम के आचार्य रहते थे।।१३९।। उनके आगे बुद्धिमान भरत ने प्रतिज्ञा की कि मैं राम के दर्शन मात्र से मुनिव्रत धारण करूँगा।। १४०।। तदनन्तर अपनी गंभीर वाणी से मयूर समूह को नृत्य कराते हुये भगवान द्युति भट्टारक इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने वाले भरत से बोले।।१४१।।कि हे भव्य! कमल के समान नेत्रों के धारक राम जब तक आते तबतक तू गृहस्थ धर्म के द्वारा अभ्यास कर ले।।१४२।महात्मा निग्र्रन्थ मुनियों की चेष्टा अत्यन्त कठिन है पर जो अभ्यास के द्वारा परिपक्व होते हैं उन्हें उसका साधन करना सरल हो जाता है।।१४३।।‘‘मैं आगे तप करूंगा” ऐसा कहने वाले अनेक जड़बुद्धि मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं पर तप नहीं कर पाते हैं।।१४४।। ‘‘निग्र्रन्थ मुनियों का तपअमूल्य रत्न के समान है’‘। ऐसा कहना भी अशक्य है फिर उसकी अन्य उपमा तो हो ही क्या सकती है?।।१४५।।गृहस्थों के धर्म को जिनेन्द्र भगवान ने मुनिधर्म का छोटा भाई कहा है सो बोधि को प्रदान करने वाले इस धर्म में भी प्रमादरहित होकर लीन रहना चाहिए।।१४६।। जैसे कोई मनुष्य रत्नद्वीप में गया वहां वह जिस किसी भी रत्न को उठाता है वही उसके लिए अमूल्यता को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार धर्मचक्र की प्रवृत्ति करने वाले जिनेन्द्र भगवान के शासन में जो कोई इस नियमरूपी द्वीप में आकर जिस किसी नियम को ग्रहण करता है वही उसके लिए अमूल्य हो जाता है।।१४७-१४८।।जो अत्यन्त श्रेष्ठ अहिंसारूपी रत्न को लेकर भक्तिपूर्वक दाम जनेन्द्रदेव की पूजा करता है वह स्वर्ग में परम वृद्धि को प्राप्त होता है।।१४९।।जो सत्यव्रत का धारी होकर मालाओं से भगवान की अर्चा करता है उसके वचनों को सब ग्रहण करते हैं तथा उज्ज्वल कीर्ति से वह समस्त संसार को व्याप्त करता है।।१५०।।जो अदत्तादान अर्थात् चोरी से दूर रहकर जिनेन्द्र भगवान की पूजा करता है वह रत्नों से परिपूर्ण निधियों का स्वामी होता है।।१५१।। जो जिनेन्द्र भगवान की सेवा करता हुआ परस्त्रियों में प्रेम नहीं करता है वह सबके नेत्रों को हरण करने वाला परम सौभाग्य को प्राप्त होता है।।१५२।। जो परिग्रह की सीमा नियत कर भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान की अर्चा करता है वह अतिशय विस्तृत लाभों को प्राप्त होता है तथा लोग उसकी पूजा करते हैं।।१५३।। आहार-दान के पुण्य से यह जीव भोग से सहित होता है। अर्थात सब प्रकार के भोग इसे प्राप्त होते हैं यदि यह परदेश भी जाता है तो वहां भी उसे सदा सुख ही प्राप्त होता है।।१५४।। अभयदान के पुण्य से यह जीव निर्भय होता है और बहुत भारी संकट में पड़कर भी उसका शरीर उपद्रव से शून्य रहता है।।१५५।। ज्ञानदान से यह जीव विशाल सुखों का पात्र होता है और कलारूपी सागर से निकले हुये अमृत के कुल्ले करता है।।१५६।। जो मनुष्य रात्रि में आहार का त्याग करता है वह सब प्रकार के आरंभ में प्रवृत्त रहने पर भी सुखदायी गति को प्राप्त होता है।।१५७।। जो मनुष्य तीनों काल में जिनेन्द्रभगवान की वन्दना करता है उसके भाव सदा शुद्ध रहते हैं तथा उसका सब पाप नष्ट हो जाता है।।१५८।। जो पृथिवी तथा जल में उत्पन होने वाले सुगंधित फूलों से जिनेन्द्र भगवान की अर्चा करता है वह पुष्पक विमान को पाकर इच्छानुसार क्रीड़ा करता है।।१५९।। जो अतिशय निर्मल भावरूपी फूलों से जिनेन्द्र देव की पूजा करता है वह लोगों के द्वारा पूजनीय तथ ा अत्यन्त सुन्दर होता है।।(१६०)।। जो बुद्धिमान चन्दन तथा कालागुरु आदि से उत्पन्न धूप जिनेन्द्र भगवान के लिए चढ़ाता है वह मनोज्ञ देव होता है।।(१६१)।। जो जिनमंदिर में शुभ भाव से दीपदान करता है वह स्वर्ग में देदीप्यमान शरीर का धारक होता है।।(१६२)।। जो मनुष्य छत्र, चमर, फन्नूस, पताका तथा दर्पण आदि के द्वारा जिनमंदिर को विभूषित करता है वह आश्चर्यकारक लक्ष्मी को प्राप्त होता है।।(१६३)।। जो मनुष्य सुगंधि से दिशाओं को व्याप्त करने वाली गंध से जिनेन्द्र भगवान का लेपन करता है वह सुगंधि से युक्त, स्त्रियों को आनन्द देने वाला प्रिय पुरुष होता है।।(१६४)।। जो मनुष्य सुगंधित जल से जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करता है वह जहाँ-जहाँ उत्पन्न होता है वहा अभिषेक को प्राप्त होता है।।१६५।। जो दूध की धारा से जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करता है वह दूध के समान धवल विमान में उत्तम कान्ति का धारक होता है।।१६६।। जो दही के कलशों से जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करता है वह दही के समान फर्श वाले स्वर्ग में उत्तम देव होता है।।१६७।। जो घी से जिनदेव का अभिषेक करता है वह कांति, द्युति और प्रभाव से युक्त विमान का स्वामी देव होता है।।१६८।। पुराण में सुुना जाता है कि अभिषेक के प्रभाव से अनन्तवीर्य आदि अनेक विद्वज्जन, स्वर्ग की भूमि में अभिषेक को प्राप्त हुये हैं।।१६९।। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक जिनमंदिर में रंगावलि आदि का उपहार चढ़ाता है वह उत्तम हृदय का धारक होकर परमविभूति और आरोग्य को प्राप्त होता है।।१७०।। जो जिनमंदिर में गीत, नृत्य तथा वादित्रों से महोत्सव करता है वह स्वर्ग में परम उत्सव को प्राप्त होता है।।१७१।। जो मनुष्य जिनमंदिर बनवाता है उस सुचेता के भोगोत्सव का वर्णन कौन कर सकता है?।।१७२।। जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा बनवाता है वह शीघ्र ही सुर तथा असुरों के उत्तम सुख प्राप्त कर परमपद को प्राप्त होता है।।१७३।। तीनों कालों और तीनों लोकों में व्रत, ज्ञान, तप और दान के द्वारा मनुष्य के जो पुण्यकर्म संचित होते हैं वे भावपूर्वक एक प्रतिमा के बनवाने से उत्पन्न हुये पुण्य की बराबरी नहीं कर सकते।।१७४-१७५।। इस कहे हुये फल को जीव स्वर्ग में प्राप्त कर जब मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होते हैं तब चक्रवर्ती आदि का पद पाकर वहां भी उसका उपभोग करते हैं।।१७६।। जो कोई मनुष्य इस विधि से धर्म का सेवन करता है वह संसार-सागर से पार होकर तीन लोक के शिखर पर विराजमान होता है।।१७७।। जो मनुष्य जिनप्रतिमा के दर्शन का चितंवन करता है वह बेला का, जो उद्यम का अभिलाषी होता है वह तेला का, जो जाने का आरंभ करता है वह चौला का, जो जाने लगता है वह पांच उपवास का, जो कुछ दूर पहुंच जाता है बारह उपवास का, जो बीच में पहुंच जाता है वह पन्द्रह उपवास का, जो मंदिर के दर्शन करता है वह मासोपवास का, जो मंदिर के आंगन में प्रवेश करता है वह छहमास के उपवास का, जो द्वार में प्रवेश करता है वह वर्षोपवास का, जो प्रदक्षिणा देता है वह सौ वर्ष के उपवास का, जो जिनेन्द्र देव के मुख का दर्शन करता है वह हजार वर्ष के उपवास का और जो स्वभाव से स्तुति करता है वह अनन्त उपवास के फल को प्राप्त करता है। यथार्थ में जिनभक्ति से बढ़कर उत्तम पुण्य नहीं है ।।१७८-१८२।। आचार्य द्युति कहते हैं कि हे भरत! जिनेन्द्र देव की भक्ति से कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं और जिसके कर्म क्षीण हो गये है |

धूपैरालेपनै: पुष्पै-र्मनोज्ञैर्बहुभक्तिभि:।।८९।।

विधाय महतीं पूजां, सन्निविष्ट: पुरोऽवनौ।

सगर्भं वदनं चक्रे पूतै: स्तुत्यक्षरैश्चिरम्।।९०।|

प्रतिमा स्थापित कर उसने भारी सुगंधि से भ्रमरों को आकर्षित करने वाले धूप, चन्दन, पुष्प तथा मनोहर नैवेद्य के द्वारा बड़ी पूजा की और सामने बैठकर चंदन से पूजन करने का फल

चंदणसुअन्धलेओ, जिणवर-चरणेसु जो कुणई भविओ।

लहइ तणू विक्किरियं, सहावसुयंधयं अमलं।।

चन्दनसुगंधलेपं, जिनवरचरणेषु य: करोति भव्य:।

लभते तनुं वैक्रियिवं, स्वभावसुगन्धवं अमलं।।४७१।।

अर्थ – जो भव्य पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों पर (जिन प्रतिमा के चरण कमलों पर) सुगंधित चन्दन का लेप करता है उसको स्वर्ग में जाकर अत्यन्त निर्मल और स्वभाव से ही सुगंधित वैक्रियक शरीर प्राप्त होता है। भावार्थ-चन्दन से पूजा करने वाला भव्य जीव स्वर्ग में जाकर उत्तम देव होता है।

अक्षत से पूजन करने का फल

पुण्णाण पुज्जेहि य, अक्खय-पुंजेहि देवपयपुरओ।

लब्भंति णवणिहाणे सुअक्खए चक्कवट्टित्तं।।

पुर्णै: पूजयेच्च अक्षत-पुंजै: देवपद – पुरत:।

लभ्यन्ते नवनिधानानि, सु अक्षयानि चक्रवर्तित्वं।।४७२।।

अर्थ – जो भव्य जीव भगवान जिनेन्द्र देव के सामने पूर्ण अक्षतों के पुंज चढ़ाता है अक्षतों से भगवान की पूजा करता है वह पुरुष चक्रवर्ती का पद पाकर अक्षयरूप नवनिधियों को प्राप्त करता है। चक्रवर्ती को जो निधियां प्राप्त होती हैं उनमें से चाहे जितना सामान निकाला जाये, निकलता ही जाता है, कम नहीं होता।

पुष्प से पूजन करने का फल

अलि-चुंबिएहिं पुज्जइ, जिणपयकमलं च जाइमल्लीहिं।

सो हवइ सुरवरिंदो, रमेई सुरतरुवरवणेहिं।।

अलि-चुम्बितै: पूजयति, जिनपद-कमलं च जातिमल्लिवै:।

स भवति सुरवरेन्द्र:, रमते सुरतरुवरवनेषु।।४७३।।

अर्थ- जो भव्य पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की जिन पर भ्रमर घूम रहे हैं ऐसे चमेली, मोगरा आदि उत्तम पुष्पों से पूजा करता है वह स्वर्ग में जाकर अनेक देवों का इन्द्र होता है और वह वहाँ पर चिरकाल तक स्वर्ग में होने वाले कल्पवृक्षों के वनों में (बगीचों में) क्रीड़ा किया करता है।

नैवेद्य से पूजन करने का फल

दहिखीर-सप्पि-संभव-उत्तम-चरुएहिं पुज्जए जो हु।

जिणवरपाय – पओरुह, सो पावइ उत्तमे भोए।।

दधि-क्षीर-सर्पि:-सम्भवोत्तम-चरुवैक: पूजयेत् यो हि।

जिनवर-पादपयोरुहं, स प्राप्नोति उत्तमान् भोगान्।।४७४।।

अर्थ – जो भव्य पुरुष दही, दूध, घी, आदि से बने हुये उत्तम नैवेद्य से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की पूजा करता है उसे उत्तमोत्तम भोगों की प्राप्ति होती है।

दीपक से पूजन करने का फल

कप्पूर-तेल्ल-पयलिय-मंद-मरुपहयणडियदीवेहिं।

पुज्जइ जिण-पय-पोमं, ससि-सूरविसमतणुं लहई।।

कर्पूर-तेल-प्रज्वलित-मन्द-मरुत्प्रहतनटितदीपै: ।

पूजयति जिन-पद्मं, शशिसूर्यसमतनुं लभते।।४७५।।

अर्थ – जो दीपक, कपूर, घी, तेल आदि से प्रज्वलित हो रहा है और मन्द-मन्द वायु से नाच सा रहा है ऐसे दीपक से जो भव्य पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की पूजा करता है वह पुरुष सूर्य-चन्द्रमा के समान तेजस्वी शरीर को धारण करता है।

धूप से पूजन करने का फल

सिल्लारस-अयरु-मीसिय-णिग्गय धूवेहिं वहल-धूमेहिं।

धूवइ जो जिणचरणेसु लहइ सुहवत्तणं तिज ए।।

सिलारसागुरुमिश्रितनिर्गतधूपै: बहलधूम्रै:।

धूपयेद्य: जिनचरणेसु लभते शुभवर्तनं त्रिजगति।।४७६।।

अर्थ – जिससे बहुत भारी धुंआं निकल रहा है और जो शिलारस (शिलाजीत) अगुरु, चंदन आदि सुगंधित द्रव्यों से बनी हुयी है ऐसी धूप अग्नि में खेकर भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलो को धूपित करता है वह तीनों लोकों में उत्तम पद को प्राप्त होता है। धूप को अग्नि में खेना चाहिए और उससे निकला हुआ धूंआं दाएं हाथ से भगवान की ओर करना चाहिए ।

फल से पूजन करने का फल

पक्केहिं रसड्ढ-सुमुज्जलेहिं जिणचरणपुरओप्पविएहिं।

णाणाफलेहिं पावइ, पुरिसो हियइच्छयं सुफलं।।

पक्कै: रसाढ्यै: समुज्वलै: जिनवरचरणपुरतउपयुत्तै:।

नानाफलै: प्राप्नोति, पुरुष: हृदयेप्सितं सुफलं।।४७७।।

अर्थ – जो भव्य पुरुष अत्यन्त उज्ज्वल रस से भरपूर ऐसे अनेक प्रकार के पके फलों से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों के सामने समर्पण कर पूजा करता है वह अपने हृदय अनुकुल उत्तम फलों को प्राप्त होता है।

उमास्वामी श्रावकाचार मे श्री उमास्वामी आचार्य कहते हैं-

जिनेन्द्रप्रतिमां भव्य:, स्नापयेत्पंचकामृतै:।

तस्य नश्यति संताप:, शरीरादिसमुद्भव:।।१६१।।

अर्थ – जो भव्य जीव जल, इक्षुरस, दूध, दही, घी, सर्वोषधि आदि से भगवान जिनेन्द्र देव की प्रतिमा का पंचामृताभिषेक करता हैं उसके शरीर से, मन से और अकस्मात् होने वाले सब तरह के संताप अवश्य नष्ट हो जाते हैं।

श्रीमतां श्रीजिनेन्द्राणां, प्रतिमाग्रे च पुण्यदा:।

ददाति जलधारा य:, तिस्त्रो भृंगारनालत:।।१६२।।

जन्म-मृत्यु-जरा-दु:खं, क्रमात्तस्य क्षयं व्रजेत्।

स्वल्पैरेव भवै: पापरज: शाम्यति निश्चितम्।।१६३।।

अर्थ – जो भव्यजीव प्रातिहार्य आदि अनेक शोभाओं से सुशोभित भगवान जिनेन्द्र देव की प्रतिमा के सामने भृगार नाल से (झारी से) तीन बार जल की धारा देता है व पुरुष महापुण्यवान समझा जाता है। और उसके जन्म, मरण, बुढ़ापा आदि के समस्त दु:ख अनुक्रम से नष्ट हो जाते हैं तथा थोड़े ही भवों में उसकी पापरूपी धूलि अवश्य ही शांत हो जाती है।

भावार्थ-भगवान जिनेन्द्र देव की प्रतिमा के सामने झारी की टोंटी से तीन बार जल की धारा देनी चाहिए। यही जल पूजा कहलाती है। जलधारा झारी सही देनी चाहिए कटोरी आदि से नहीं।

चन्दनाद्यर्चनापुण्यात्, सुगंधि-तनुभाग् भवेत्।

सुगंधीकृतदिग्भागो, जायते च भवे भवे।।१६४।।

अर्थ – चन्दन से भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा करने से जो पुण्य होता है उससे यह जीव जन्म-जन्म में अत्यन्त सुगंधित शरीर प्राप्त करता है उस शरीर की सुगंधि से दशों दिशाएँ सुगंधित हो जाती हैं। भावार्थ- भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों के अंगूठे पर अनामिका उंगली से चन्दन लगाना पूजा कहलाती है। सबसे छोटी उंगली के पास की उंगली को अनामिका कहते हैं।

अखण्डतन्दुलै: शुभ्रै:, सुगंधै: शुभशालिजै:।

पूजयन् जिनपादाब्जा-नक्षयां लभते रमाम्।।१६५।।

अर्थ- सपेद सुगंधित और शुभशालि धान्यों से उत्पन्न हुये अखंड तन्दुलों से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की पूजा करने वाला मोक्षरूपी अक्षय लक्ष्मी को प्राप्त होता है। भावार्थ- भगवान की प्रतिमा के सामने चावलों के पुञ्ज चढ़ाने से अक्षत पूजा कही जाती है। वे चावलों के पुञ्ज अंगूठे को ऊपर कर बंधी हुई मुट्ठी से रखने चाहिए, साथ में मंत्र भी पढ़ना चाहिए। रकेबी से अक्षत नहीं चढ़ाना चाहिए।

पुष्पै: संपूजयन् भव्योऽमरस्त्रीलोचनै: सदा।

पूज्यतेऽमरलोकेशदेवीनिकरमध्यग:।।१६६।।

अर्थ -जो भव्य जीव पुष्पों से भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा करता है। वह स्वर्गलोक के इन्द्र की देवियों के मध्य में बैठा हुआ अनेक देवियों के सुंदर नेत्रों के द्वारा सदा पूजा जाता है। भावार्थ वह इन्द्र होता है और अनेक देवांगनाएं उसकी सेवा करती हैं। पुष्प भगवान की प्रतिमा के चरणों पर चढ़ाए जाते हैं। पुष्प दोनों हाथों की अंजलि से चढ़ाना चाहिए। इसी को पुष्प पूजा कहते हैं।

पक्वान्नादिकनैवेद्यै: प्रार्चयत्यनिशं जिनान्।

स भुनक्ति महासौख्यं पचेन्द्रियसमुद्भवम्।।१६७।।

अर्थ- जो भव्य जीव पकाये हुये अनेक प्रकार के नैवेद्य से भगवान जिनेन्द्र देव की प्रतिदिन पूजा करता है वह पांचो इन्द्रियों से उत्पन्न हुये महासुखों का अनुभव करता है। भावार्थ चावलों के भात को अन्न कहते हैं। किसी अच्छे थाल में नैवेद्य को रखकर तथा दोनों हाथों से उस थाल को पकड़कर भगवान के सामने आरती उतारने के समान उस थाल को फिराकर सामने रख देना चाहिए। हाथ या कटोरी से नैवेद्य नहीं चढ़ाना चाहिए।

सुरत्नसर्पि:-कर्पूरभवै – र्दीपैर्जिनेशिनाम्।

द्योतयेद्य: पुमानंघ्रीन् स: स्यात्कांतिकलानिधि:।।१६८।।

अर्थ- जो भव्य जीव रत्न, घी व कपूर के दीपकों से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की आरती उतारता है उस पुरुष की कांति चन्द्रमा के समान निर्मल हो जाती है। भावार्थ दीप पूजा दीपक से ही होती है। रंगे हुए चटक से नहीं। रंगे हुए चटक से भगवान का शरीर दैदीप्यमान नहीं होता। दीपक से आरती उतारी जाती है। इसीलिए परिणामों की विशुद्धि जो आरती से होती है वह रंगे चटक से नहीं हो सकती। दोनों हाथों से दीपक का थाल लेकर दाई ओर से बाई ओर घुमाकर भगवान के सामने बार-बार दैदीप्यमान करने को आरती कहते हैं। इसी को दीप पूजा कहते हैं।

कृष्णागर्वादिजै-र्धूपै-र्धूपयेज्जिनपदयुगम्।

स: सर्वजनतानेत्रवल्लभ: संप्रजायते।।१६९।।

अर्थ –जो भव्य जीव कृष्णगुरु, चन्दन आदि सुगंधित द्रव्यों से बनी हुई धूप से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की पूजा करता है अग्नि में खेकर धूप चढ़ाता है। वह पुरुष समस्त लोगों के नेत्रों का प्यारा हो जाता है। भावार्थ धूप को अग्नि में खेकर उसका धूंआ अपने दांये हाथ से भगवान की ओर करना चाहिए इसी को धूप पूजा कहते हैं। धूप थाल में नहीं चढ़ाई जाती है किन्तु अग्नि में ही खेई जाती है।

आम्रनारिंगजंबीरकदल्यादि-तरुद्भवै: ।

फलैर्यजति सर्वज्ञं, लभतेऽपीहितं फलम्।।१७०।।

अर्थ- जो भव्य जीव आम, नारंगी, नींबू, केला, आदि वृक्षों से उत्पन्न होने वाले फलों से भगवान सर्वज्ञदेव की पूजा करता है वह पुरुष अपनी इच्छा के अनुसार फलों को प्राप्त होता है। भावार्थ जिन फलों से इन्द्रिय और मन को संतोष हो ऐसे हरे व सूखे फल चढ़ाना चाहिए। फल देखने में सुन्दर और मनोहर होने चाहिए। गोला या बाकी मिंगी फल नहीं कहलाते किन्तु नैवेद्य कहलाते हैं। इसीलिए गोला के बदले नारियल चढ़ाना चाहिए, बादाम भी फोड़कर नहीं चढ़ाना चाहिए। रकेबी में फल रखकर बड़ी विनय और भक्ति से भगवान के सामने रखने चाहिए। आठो द्रव्यों में फल सर्वोत्कृष्ट द्रव्य है। 

श्री रविषेणाचार्य कहते हैं- अथानन्तर भरत, पिता के समान, प्रजा पर राज्य करने लगा। उसका राज्य समस्त शत्रुओं से रहित तथा समस्त प्रजा को सुख देने वाला था।।१३६।। तेजस्वी भरत अपने मन में असहनीय शोकरूपी शल्य को धारण कर रहा था इसलिए ऐसे व्यवस्थित राज्य में भी उसे क्षणभर के लिए संतोष नही होता था।।१३७।।वह तीनों काल अरनाथ भगवान की वन्दना करता था भोगों से सदा उदास रहता था और समीचीन धर्म का श्रवण करने के लिए मंदिर जाता था। यही इसका नियम था।।१३८।।वहां स्व और पर शास्त्रों के पारगामी तथा अनेक मुनियों का संघ जिनकी निरन्तर सेवा करता था ऐसे द्युति नाम के आचार्य रहते थे।।१३९।। उनके आगे बुद्धिमान भरत ने प्रतिज्ञा की कि मैं राम के दर्शन मात्र से मुनिव्रत धारण करूँगा।। १४०।। तदनन्तर अपनी गंभीर वाणी से मयूर समूह को नृत्य कराते हुये भगवान द्युति भट्टारक इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने वाले भरत से बोले।।१४१।।कि हे भव्य! कमल के समान नेत्रों के धारक राम जब तक आते तबतक तू गृहस्थ धर्म के द्वारा अभ्यास कर ले।।१४२।महात्मा निग्र्रन्थ मुनियों की चेष्टा अत्यन्त कठिन है पर जो अभ्यास के द्वारा परिपक्व होते हैं उन्हें उसका साधन करना सरल हो जाता है।।१४३।।‘‘मैं आगे तप करूंगा” ऐसा कहने वाले अनेक जड़बुद्धि मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं पर तप नहीं कर पाते हैं।।१४४।। ‘‘निग्र्रन्थ मुनियों का तपअमूल्य रत्न के समान है’‘। ऐसा कहना भी अशक्य है फिर उसकी अन्य उपमा तो हो ही क्या सकती है?।।१४५।।गृहस्थों के धर्म को जिनेन्द्र भगवान ने मुनिधर्म का छोटा भाई कहा है सो बोधि को प्रदान करने वाले इस धर्म में भी प्रमादरहित होकर लीन रहना चाहिए।।१४६।। जैसे कोई मनुष्य रत्नद्वीप में गया वहां वह जिस किसी भी रत्न को उठाता है वही उसके लिए अमूल्यता को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार धर्मचक्र की प्रवृत्ति करने वाले जिनेन्द्र भगवान के शासन में जो कोई इस नियमरूपी द्वीप में आकर जिस किसी नियम को ग्रहण करता है वही उसके लिए अमूल्य हो जाता है।।१४७-१४८।।जो अत्यन्त श्रेष्ठ अहिंसारूपी रत्न को लेकर भक्तिपूर्वक दाम जनेन्द्रदेव की पूजा करता है वह स्वर्ग में परम वृद्धि को प्राप्त होता है।।१४९।।जो सत्यव्रत का धारी होकर मालाओं से भगवान की अर्चा करता है उसके वचनों को सब ग्रहण करते हैं तथा उज्ज्वल कीर्ति से वह समस्त संसार को व्याप्त करता है।।१५०।।जो अदत्तादान अर्थात् चोरी से दूर रहकर जिनेन्द्र भगवान की पूजा करता है वह रत्नों से परिपूर्ण निधियों का स्वामी होता है।।१५१।। जो जिनेन्द्र भगवान की सेवा करता हुआ परस्त्रियों में प्रेम नहीं करता है वह सबके नेत्रों को हरण करने वाला परम सौभाग्य को प्राप्त होता है।।१५२।। जो परिग्रह की सीमा नियत कर भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान की अर्चा करता है वह अतिशय विस्तृत लाभों को प्राप्त होता है तथा लोग उसकी पूजा करते हैं।।१५३।। आहार-दान के पुण्य से यह जीव भोग से सहित होता है। अर्थात सब प्रकार के भोग इसे प्राप्त होते हैं यदि यह परदेश भी जाता है तो वहां भी उसे सदा सुख ही प्राप्त होता है।।१५४।। अभयदान के पुण्य से यह जीव निर्भय होता है और बहुत भारी संकट में पड़कर भी उसका शरीर उपद्रव से शून्य रहता है।।१५५।। ज्ञानदान से यह जीव विशाल सुखों का पात्र होता है और कलारूपी सागर से निकले हुये अमृत के कुल्ले करता है।।१५६।। जो मनुष्य रात्रि में आहार का त्याग करता है वह सब प्रकार के आरंभ में प्रवृत्त रहने पर भी सुखदायी गति को प्राप्त होता है।।१५७।। जो मनुष्य तीनों काल में जिनेन्द्रभगवान की वन्दना करता है उसके भाव सदा शुद्ध रहते हैं तथा उसका सब पाप नष्ट हो जाता है।।१५८।। जो पृथिवी तथा जल में उत्पन होने वाले सुगंधित फूलों से जिनेन्द्र भगवान की अर्चा करता है वह पुष्पक विमान को पाकर इच्छानुसार क्रीड़ा करता है।।१५९।। जो अतिशय निर्मल भावरूपी फूलों से जिनेन्द्र देव की पूजा करता है वह लोगों के द्वारा पूजनीय तथ ा अत्यन्त सुन्दर होता है।।(१६०)।। जो बुद्धिमान चन्दन तथा कालागुरु आदि से उत्पन्न धूप जिनेन्द्र भगवान के लिए चढ़ाता है वह मनोज्ञ देव होता है।।(१६१)।। जो जिनमंदिर में शुभ भाव से दीपदान करता है वह स्वर्ग में देदीप्यमान शरीर का धारक होता है।।(१६२)।। जो मनुष्य छत्र, चमर, फन्नूस, पताका तथा दर्पण आदि के द्वारा जिनमंदिर को विभूषित करता है वह आश्चर्यकारक लक्ष्मी को प्राप्त होता है।।(१६३)।। जो मनुष्य सुगंधि से दिशाओं को व्याप्त करने वाली गंध से जिनेन्द्र भगवान का लेपन करता है वह सुगंधि से युक्त, स्त्रियों को आनन्द देने वाला प्रिय पुरुष होता है।।(१६४)।। जो मनुष्य सुगंधित जल से जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करता है वह जहाँ-जहाँ उत्पन्न होता है वहा अभिषेक को प्राप्त होता है।।१६५।। जो दूध की धारा से जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करता है वह दूध के समान धवल विमान में उत्तम कान्ति का धारक होता है।।१६६।। जो दही के कलशों से जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करता है वह दही के समान फर्श वाले स्वर्ग में उत्तम देव होता है।।१६७।। जो घी से जिनदेव का अभिषेक करता है वह कांति, द्युति और प्रभाव से युक्त विमान का स्वामी देव होता है।।१६८।। पुराण में सुुना जाता है कि अभिषेक के प्रभाव से अनन्तवीर्य आदि अनेक विद्वज्जन, स्वर्ग की भूमि में अभिषेक को प्राप्त हुये हैं।।१६९।। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक जिनमंदिर में रंगावलि आदि का उपहार चढ़ाता है वह उत्तम हृदय का धारक होकर परमविभूति और आरोग्य को प्राप्त होता है।।१७०।। जो जिनमंदिर में गीत, नृत्य तथा वादित्रों से महोत्सव करता है वह स्वर्ग में परम उत्सव को प्राप्त होता है।।१७१।। जो मनुष्य जिनमंदिर बनवाता है उस सुचेता के भोगोत्सव का वर्णन कौन कर सकता है?।।१७२।। जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा बनवाता है वह शीघ्र ही सुर तथा असुरों के उत्तम सुख प्राप्त कर परमपद को प्राप्त होता है।।१७३।। तीनों कालों और तीनों लोकों में व्रत, ज्ञान, तप और दान के द्वारा मनुष्य के जो पुण्यकर्म संचित होते हैं वे भावपूर्वक एक प्रतिमा के बनवाने से उत्पन्न हुये पुण्य की बराबरी नहीं कर सकते।।१७४-१७५।। इस कहे हुये फल को जीव स्वर्ग में प्राप्त कर जब मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होते हैं तब चक्रवर्ती आदि का पद पाकर वहां भी उसका उपभोग करते हैं।।१७६।। जो कोई मनुष्य इस विधि से धर्म का सेवन करता है वह संसार-सागर से पार होकर तीन लोक के शिखर पर विराजमान होता है।।१७७।। जो मनुष्य जिनप्रतिमा के दर्शन का चितंवन करता है वह बेला का, जो उद्यम का अभिलाषी होता है वह तेला का, जो जाने का आरंभ करता है वह चौला का, जो जाने लगता है वह पांच उपवास का, जो कुछ दूर पहुंच जाता है बारह उपवास का, जो बीच में पहुंच जाता है वह पन्द्रह उपवास का, जो मंदिर के दर्शन करता है वह मासोपवास का, जो मंदिर के आंगन में प्रवेश करता है वह छहमास के उपवास का, जो द्वार में प्रवेश करता है वह वर्षोपवास का, जो प्रदक्षिणा देता है वह सौ वर्ष के उपवास का, जो जिनेन्द्र देव के मुख का दर्शन करता है वह हजार वर्ष के उपवास का और जो स्वभाव से स्तुति करता है वह अनन्त उपवास के फल को प्राप्त करता है। यथार्थ में जिनभक्ति से बढ़कर उत्तम पुण्य नहीं है ।।१७८-१८२।। आचार्य द्युति कहते हैं कि हे भरत! जिनेन्द्र देव की भक्ति से कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं और जिसके कर्म क्षीण हो गये है |

धूपैरालेपनै: पुष्पै-र्मनोज्ञैर्बहुभक्तिभि:।।८९।।

विधाय महतीं पूजां, सन्निविष्ट: पुरोऽवनौ।

सगर्भं वदनं चक्रे पूतै: स्तुत्यक्षरैश्चिरम्।।९०।|

प्रतिमा स्थापित कर उसने भारी सुगंधि से भ्रमरों को आकर्षित करने वाले धूप, चन्दन, पुष्प तथा मनोहर नैवेद्य के द्वारा बड़ी पूजा की और सामने बैठकर चिरकाल तक स्तुति कर पवित्र अक्षरों से अपने मुख को सहित किया।।८९-९०।।

सचित्त पूजा निर्दोष है

-यथा विषकण: प्राप्त: सरसीं नैव दुष्यति।

जिनधर्मोद्यतस्यैवं, हिंसालेशो वृथोद्भव:।।९२।।

प्रासादादि तत: कार्यं, जिनानां भक्तितत्परै:।

माल्याधूपप्रदीपादि, सर्वं च कुशलैर्जनै:।।९३।।

जिस प्रकार विष का एक कण तालाब में पहुंचकर पूरे तालाब को दूषित नहीं कर सकता उसी प्रकार जिनधर्मानुकुल आचरण करने वाले पुरुष से जो थोड़ी हिंसा होती है वह उसे दूषित नहीं कर सकती। उसकी वह अल्प हिंसा व्यर्थ रहती है।।९२।। इसलिए भक्ति मेें तत्पर रहने वाले कुशल मनुष्यों को जिनमंदिर आदि बनवाना चाहिए और माला, धूप, दीप आदि सबकी व्यवस्था करनी चाहिए।।९३।।

सफेद ध्वजा जिनमंदिर पर-

सितकेतुकृतच्छाया:, सहस्राकारतोरणा:।

शृंङ्गेषु पर्वतस्यामी, विराजन्ते जिनालया:।।२७६।।

कारिता हरिषेणेन, सज्जनेन महात्मना।

एतान् वत्स नमस्य, त्वं भव पूतमना: क्षणात्।।२७७।।

किन्तु सफेद पताकाएं जिन पर छाया कर रही हैं तथा जिनमें हजारों प्रकार के तोरण बने हुये हैं ऐसे ये जिनमंदिर पर्वत के शिखरों पर सुशोभित हो रहे हैं।।२७६।। ये सब मंदिर महापुरुष हरिषेण चक्रवर्ती के द्वारा बनवाये हुये हैं। हे वत्स! तू इन्हें नमस्कार कर और क्षणभर में अपने हृदय को पवित्र कर।।२७७।।

अंजना ने भगवान की पूजा की-चिरकाल तक स्तुति कर पवित्र अक्षरों से अपने मुख को सहित किया।।८९-९०।।

सचित्त पूजा निर्दोष है

-यथा विषकण: प्राप्त: सरसीं नैव दुष्यति।

जिनधर्मोद्यतस्यैवं, हिंसालेशो वृथोद्भव:।।९२।।

प्रासादादि तत: कार्यं, जिनानां भक्तितत्परै:।

माल्याधूपप्रदीपादि, सर्वं च कुशलैर्जनै:।।९३।।

जिस प्रकार विष का एक कण तालाब में पहुंचकर पूरे तालाब को दूषित नहीं कर सकता उसी प्रकार जिनधर्मानुकुल आचरण करने वाले पुरुष से जो थोड़ी हिंसा होती है वह उसे दूषित नहीं कर सकती। उसकी वह अल्प हिंसा व्यर्थ रहती है।।९२।। इसलिए भक्ति मेें तत्पर रहने वाले कुशल मनुष्यों को जिनमंदिर आदि बनवाना चाहिए और माला, धूप, दीप आदि सबकी व्यवस्था करनी चाहिए।।९३।।

सफेद ध्वजा जिनमंदिर पर-

सितकेतुकृतच्छाया:, सहस्राकारतोरणा:।

शृंङ्गेषु पर्वतस्यामी, विराजन्ते जिनालया:।।२७६।।

कारिता हरिषेणेन, सज्जनेन महात्मना।

एतान् वत्स नमस्य, त्वं भव पूतमना: क्षणात्।।२७७।।

किन्तु सफेद पताकाएं जिन पर छाया कर रही हैं तथा जिनमें हजारों प्रकार के तोरण बने हुये हैं ऐसे ये जिनमंदिर पर्वत के शिखरों पर सुशोभित हो रहे हैं।।२७६।। ये सब मंदिर महापुरुष हरिषेण चक्रवर्ती के द्वारा बनवाये हुये हैं। हे वत्स! तू इन्हें नमस्कार कर और क्षणभर में अपने हृदय को पवित्र कर।।२७७।।

अंजना ने भगवान की पूजा की-

तस्मात्साधुमिमं देवं समाश्रित्य कृतोचितम्।

मुनिपर्यंज्र्पूतायां गुहायामत्र संक्षयात्।।२८९।।

मुनिसुव्रतनाथस्य विन्यस्य प्रतियातनाम्।

अर्चयन्त्यौ सुखप्राप्त्यै स्वामोदै: कुसुमैरलम्।।२९०।।

सुखप्रसूतिमेतस्य, गर्भस्याध्यायचेतसि।

विस्मृत्य वैरहं दु:खं, समयं विंचिदास्वहे।।२९१।।

इसलिए इस उत्तम देव का यथोचित आश्रय लेकर मुनिराज की पद्मासन से पवित्र इस गुफा में श्री मुनिसुव्रत भगवान की प्रतिमा विराजमान कर सुख-प्राप्ति के लिए अत्यंत सुगंधित पूलों से उसकी पूजा करती हुई हम दोनों कुछ समय तक यहीं रहें। इस गर्भ की सुख से प्रसूति हो जाये चित्त में इसी बात का ध्यान रखें और विरह-संबंधी सब दुख भूल जावें।।२८९-२९१।।

सचित्त पूजा-

माल्यगंधप्रधूपाद्यै:, सचित्तै: कोऽर्चयेज्जिनम्।

सावद्यसंभवं वक्ति य:, स एवं प्रबोध्यते।।१४०।। 

जिनार्चानेकजन्मोत्थं, किल्विषं हंति यत्कृतम्।

सा विंचिद् यजनाचारभवं सावद्यमंगिनाम्।।१४१।।

अर्थ- कोई कोई लोग यह कहते हैं कि पुष्पमाला, धूप, दीप, जल, फल आदि सचित्त पदार्थों से भगवान की पूजा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि सचित्त पदार्थों से पूजा करने में सावद्य जन्य पाप (सचित्त के आरंभ से उत्पन्न हुआ पाप) उत्पन्न होता है। उनके लिए आचार्य समझाते हैं कि भगवान की पूजा करने से अनेक जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं फिर क्या उसी पूजा से उसी पूजा में होने वाला आंरभ जनित वा सचित्त जन्य थोड़ा सा पाप नष्ट नहीं होगा ? अवश्य होगा।

इसका भी कारण यह है कि-

प्रेर्यन्ते यत्र वातेन, दन्तिन: पर्वतोपमा:।

तत्राल्पशक्तितेजस्सु, का कथा मशकादिषु।।१४२।।

भक्तं स्यात्प्राणनाशाय, विषं केवलमंगिनाम्।

जीवनाय मरीचादि-सदौषधिविमिश्रतम्।।१४३।।

अर्थ- जिस वायु से पर्वत के समान बड़े-बड़े हाथी उड़ जाते हैं उस वायु के सामने अत्यन्त अल्प शक्ति को धारण करने वाले डांस मच्छर क्या टिक सकते हैं ? कभी नहीं। उसी प्रकार जिस पूजा से जन्म-जन्मान्तर के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं उसी पूजा से क्या उसी पूजा के विधि-विधान में होने वाली बहुत ही थोड़ी हिंसा नष्ट नहीं हो सकती ? अवश्य होती है। इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। विष भक्षण करने से प्राणियों के प्राण नष्ट हो जाते हैं परन्तु वही विष यदि सोंठ, मिरच, पीपल आदि औषधियों के साथ मिलाकर दिया जाये तो उसी से अनेक रोग नष्ट होकर जीवन अवस्था प्राप्त होती है। इसी प्रकार सावद्य कर्म यदि विषय सेवन के लिए किये जांये तो वे पाप के कारण हैं ही परन्तु भगवान की पूजा के लिए बहुत ही थोड़े सावद्य कर्म पाप के कारण नहीं होते, पुण्य के ही कारण होते हैं। मंदिर बनवाना, पूजा करना, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करना, रथोत्सव करना आदि जितने पुण्य के कारण हैं उन सबमें थोड़ा बहुत सावद्य अवश्य होता है। परन्तु वह सावद्य दोष पुण्य का ही कारण होता है। इसी प्रकार सचित्त द्रव्य से होने वाली पूजा में होने वाला सावद्य दोष पुण्य का ही कारण होता है। भगवान की पूजा केवल पुण्य उपार्जन करने के लिए, आत्मा का कल्याण करने के लिए और परम्परा से मोक्ष प्राप्त करने के लिए की जाती है, अक्षतों को शेषाक्षत कहते हैं। पूजा करने के बाद शेषाक्षतों को मस्तक पर धारण करना चाहिए।

इसी प्रकार चंदन से पूजा करने के बाद बचे हुये चंदन से तिलक लगाने में कोई दोष नहीं है प्रत्युत गुण ही है।

‘‘पुष्पस्रग्मंजरी व: फलमलघुजिनेन्द्रांघ्रिदिव्याङ्घ्रिपस्था।।२६।।

अर्थात् जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों पर स्थित चढ़ाए गये पुष्प तुम्हें महान फलदायक होवे।

Monday, August 29, 2022

आत्मा के उत्थान का पर्व है :दश लक्षण



जैनधर्म में भाद्र मास के शुक्लपक्ष की पंचमी से चतुर्दशी तक दस दिनों तक मनाया जाने वाला दशलक्षण पर्व विश्व का अद्वितीय आध्यात्मिक पर्व है । इसे पर्युषण पर्व भी कहा जाता है । इस पर्व में जैनधर्मावलम्बियों के द्वारा जिनेन्द्र प्रभु की विशेष अर्चना और भक्ति के साथ-साथ आत्मपरिष्कार के लिए तप, त्याग और संयम की विशेष साधना की जाती है । 

जैनधर्म की मान्यता है कि आत्मा की यात्रा अनादि काल से अनवरत चल रही है । इस यात्रा में आत्मा ने सूक्ष्म जीव जन्तुओं से लेकर पशु - पक्षी आदि विविध रूपों को धारण किया है । इस यात्रा में आत्मा ने अनेक बार मनुष्य जन्म भी प्राप्त किया है । सभी जन्मों में मनुष्य जन्म को श्रेष्ठ माना गया है । इस श्रेष्ठता का कारण न तो मनुष्य की शारीरिक शक्ति, सौन्दर्य एवं बुद्धि है और न ही उसे मिलने वाले विषय भोग और सुख साधन हैं । ये सभी सांसारिक शक्ति और समृद्धि तो देवों में प्रचुरता से हैं । इन सांसारिक सुख साधनों की अधिकता से जो श्रेष्ठता प्राप्त होती है वह नश्वर होती है । इसलिए देवों की श्रेष्ठता भी नश्वर है । मनुष्य जन्म सर्वश्रेष्ठ इसलिए है ,क्योंकि एकमात्र मनुष्य ही है जो शाश्वत और अविनाशी श्रेष्ठता को प्राप्त करने का अधिकारी है । इसका कारण यह है कि आत्मा की अनन्त यात्रा में मनुष्य जन्म एक ऐसे पड़ाव की तरह है जहाँ उसकी चेतना परिष्कृत होती है और स्वयं को नियन्त्रित करने की चरम शक्ति होती है । जब मनुष्य अपनी इन शक्तियों को पहचान कर स्वयं को अनुशासित कर संयम और तप की साधना करता है तो वह अपनी शाश्वत अवस्था के या तो निकट पहुँच जाता है या अपनी शाश्वत अवस्था को प्राप्त कर लेता है । 


सम्यग्दृष्टि आत्मा के द्वारा स्वयं की शाश्वत सम्पदा को प्राप्त करने का पुरुषार्थ सतत चलता रहता है । दशलक्षण पर्व या पर्युषण पर्व उस पुरुषार्थ को और अधिक बढ़ाने का अवसर प्रदान करते हैं । ये पर्व साधना पथ पर होने वाली भटकन को रोककर पुनः लक्ष्य की ओर केन्द्रित कर देते हैं । पर्व शब्द का अर्थ ही है जोड़ना । स्वयं को स्वयं के लक्ष्य से जोड़ना । लक्ष्य प्राप्त होने पर तो जुड़ने या जोड़ने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है । वस्तुतः देखा जाए तो मुक्त होने की साधना किसी से जुड़कर नहीं हो सकती है । यह साधना तो अनादि से जुड़े हुए विकारों और वासनाओं से अलग होने की साधना है । आत्मा का कषायों और विकारों से जुड़े रहना आत्मा का विभाव है और इन कषायों और विकारों से पृथक् होना स्वभाव है ।


 जैनधर्म का यह उद्घोष है कि "वत्थु सहाओ धम्मो" अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म है । इसलिए आत्मा का स्वभाव ही आत्मा का वास्तविक धर्म है । वास्तविक इसलिए है, क्योंकि यह शाश्वत होता है और इसकी अनुभूति स्वाश्रित और स्वाधीन है । स्वभाव का आनन्द किसी साधन पर आश्रित नहीं है । साधनों को भोगने और उनके संग्रह एवं स्वामित्व से जो सुख प्राप्त होता है वह वास्तविक सुख न होकर सुख जैसा प्रतीत होने वाला दुःख ही है । 


आत्मा में स्वाभाविक रूप से विद्यमान शाश्वत गुण ही उसके धर्म हैं । जैन शास्त्रों में उत्तम क्षमा,उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम , उत्तम तप , उत्तम त्याग , उत्तम आकिंचन्य एवं उत्तम ब्रह्मचर्य को आत्मा का धर्म कहा है । इन्हें धर्म इसलिए कहा है, क्योंकि ये आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं । आत्मा में क्षमा आदि की तरह अनन्त स्वाभाविक गुण विद्यमान हैं , परन्तु ये दशधर्म आत्मा के प्रमुख गुण हैं । इन सभी स्वाभाविक गुणों को न तो आत्मा में उत्पन्न किया जा सकता है और न ही इन गुणों को नष्ट किया जा सकता है । मोह, मिथ्यात्व और अज्ञान के कारण इन गुणों पर एक आवरण पड़ जाता है । दशलक्षण पर्व के दश दिनों में इन आवरणों को हटाकर क्षमा आदि शाश्वत गुणों के प्रकटीकरण के लिए तप और संयम की साधना की जाती है । पर्व की साधना का मूल उद्देश्य आत्मा को विभावों या विकारों से हटाकर स्वभाव में केन्द्रित करने की है । 


उत्तम क्षमा,मार्दव,आर्जव एवं शौच गुणों के विभाव या विरोधी क्रोध,मान,माया और लोभ हैं । ये चारों ही विभाव आत्मा के विरोधी हैं,विकार हैं,स्वभाव के प्रकटीकरण में बाधक हैं । ये आत्मा के लिए कष्टकारी हैं इसलिए जैनशास्त्रों में इन्हें कषाय कहा गया है । क्रोध को छोड़कर ही आत्मा में क्षमा धर्म प्रकट हो सकता है । घृणा,बैर और द्वेष आदि विकृत मनोभाव भी क्रोध के ही रूप हैं । मान या अहंकार को छोड़कर आत्मा में मृदुता या कोमलता प्रकट करना ही मार्दव धर्म है । माया या छल कपट का विसर्जन करके आत्मा का सरल होना ही आर्जव धर्म है । लोभ लालच की मलिनता को हटाकर आत्मा को शुचि या पवित्र बनाना ही शौच धर्म है । असत्य वाणी, विचार और व्यवहार को छोड़ना ही सत्यधर्म है ।



इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण प्राप्त करना ही उत्तम संयम धर्म है । संयम के बिना व्रत नियमों की साधना भी संभव नहीं है । संयम के मूल में अहिंसा की पवित्र भावना है । पाँच इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण यदि इन्द्रिय संयम है तो सभी सूक्ष्म और स्थूल प्राणियों की रक्षा करना प्राणि-संयम है । इन्द्रिय संयम और प्राणि-संयम दोनों ही एक दूसरे की पूरक हैं । इन्द्रियजय के बिना हिंसा से नहीं बचा जा सकता है और अहिंसा की पवित्र भावना के बिना इन्द्रियजय भी निरर्थक है । संयम की साधना धीरे-धीरे तप की ओर ले जाती है । 


अपनी इच्छाओं को छोड़कर आत्मोन्मुखी होना उत्तम तप है । तप करने का उद्देश्य यदि सांसारिक सिद्धियां और लौकिक मनोकामनाओं की पूर्ति करना है तो ऐसा अज्ञानतापूर्ण तप व्यर्थ है । तप का मूल उद्देश्य अनादिकाल से कर्मबंधन में बद्ध आत्मा को कर्मबंधन से मुक्त करना है । इसे जैनशास्त्रों में कर्मनिर्जरा कहा है । कर्मनिर्जरा के लिए ही व्रत,उपवास,ध्यान एवं स्वाध्याय आदि तप किए जाते हैं । इन सभी तप क्रियाओं को शरीर की शक्ति और संहनन के अनुसार करना चाहिए । तपस्वी को आकुल-व्याकुल परिणाम छोड़ना चाहिए और सांसारिक कार्यों से रुचि हटाकर आत्मा और परमात्मा के ध्यान में चित्त लगाना चाहिए । तप के लिए भेदविज्ञान का ज्ञान और अभ्यास आवश्यक है । आत्मा और शरीर साथ रहते हुए भी भिन्न- भिन्न स्वभाव वाले द्रव्य हैं । शरीर से मैं भिन्न हूँ । मुझे शरीर से राग नहीं करना चाहिए - यही भावना भेदविज्ञान है ।


आत्मकल्याण के लिए तप के साथ-साथ त्याग धर्म का पालन करना भी अनिवार्य है । गृहस्थों के लिए दान क्रिया ही त्याग धर्म है । आत्मकल्याण के लिए उत्तम पात्रों को आहार,औषधि,शास्त्र आदि विधिपूर्वक दान देना त्यागधर्म है । गृहत्यागी श्रमणों को उत्तम पात्र कहा गया है । मोक्षमार्ग पर चलने वाले अन्य साधक भी पात्र हैं । दान देने वाले दाता में पात्र के प्रति श्रद्धा और विनय होनी चाहिए । दाता को संतोषी और निरभिमानी होना चाहिए । वस्तुतः पर पदार्थों के प्रति राग-द्वेष को छोड़ना ही उत्तम त्यागधर्म है । त्याग धर्म में पर पदार्थों और उनके प्रति राग से आंशिक निवृत्ति होती है । वस्तुओं का दान करने के लिए पहले वस्तुओं को ग्रहण करना पड़ता है ।


 जब साधक समस्त प्रकार के धन सम्पत्ति आदि बाह्य परिग्रह और लोभ, मोह आदि अन्तरंग परिग्रह से मुक्त होने की साधना करता है तब उसकी आत्मा में उत्तम आकिञ्चन्य धर्म प्रकट होता है । आत्म गुणों के अतिरिक्त अन्य सभी पर पदार्थों और उनके रागभाव से शून्य होना ही आकिञ्चन्य धर्म है ।


 समस्त परिग्रह के त्याग से जो रिक्तता या खालीपन आ जाता है वह दुःखद नहीं है । पर पदार्थों से राग समाप्त होने पर आत्मा का उपयोग शुद्ध होकर स्वयं में लीन होकर अक्षय और असीम आनन्द की अनुभूति करने लगता है । यही उत्तम ब्रह्मचर्य है । ब्रह्म का अर्थ आत्मा है और चर्य का अर्थ लीनता या विचरण करना है । स्वयं में स्वयं की लीनता से प्राप्त होने वाला सुख अवर्णनीय और अकल्पनीय है । इसके आगे पांँच इन्द्रियों के द्वारा काम वासना और भोगों से मिलने वाला सुख तुच्छ है ।स्त्री पुरुषों में परस्पर दैहिक सम्बन्धों से उत्पन्न सुख क्षणिक और पापजन्य होने के कारण अब्रह्म है । इसलिए साधक ब्रह्मचारी की दृष्टि में पवित्रता रहती है । ब्रह्मचर्य की साधना के लिए स्त्रियों के प्रति विकार भाव छोड़कर उनके प्रति माता बहिन के समान दृष्टि रखना आवश्यक है । 


क्षमा आदि गुण तब उत्तम अवस्था को प्राप्त होते हैं जब कषायों से रहित होकर इन्हें आत्मा में अन्तरंग से प्रकट किया जाता है । यदि लोभ और स्वार्थ की पूर्ति के लिए कोई क्षमा धारण करता है तो वह मात्र कषाय परिवर्तन करता है । वह अपने क्रोध को लोभ में बदल देता है । कषाय परिवर्तन का नाम धर्म नहीं है । धर्म तो कषाय के उन्मूलन से प्रकट होता है । आत्मपरिणामों में विशुद्धि और क्रियाचरण में पवित्रता से आत्मोत्थान होता है । यही उत्तम क्षमा आदि दशधर्मों के परिपालन का ध्येय है ।

Sunday, August 28, 2022

हवन की वैज्ञानिकता

 *हवन का महत्व*

फ्रांसके ट्रेले नामक वैज्ञानिकने हवनपर रिसर्च की। जिसमें उन्हें पता चला कि हवन मुख्यत:

आमकी लकड़ीपर किया जाता है ।

जब आमकी लकड़ी जलती है तो फार्मिक एल्डिहाइड नामक गैस उत्पन्न होती है जो कि खतरनाक बैक्टीरिया और जीवाणुओंको मारती है तथा वातावरणको शुद्ध करती है। इस रिसर्चके बाद ही वैज्ञानिकोंको इस गैस और इसे बनाने का तरीका पता चला।

गुड़को जलानेपर भी यह गैस उत्पन्न होती है। टौटीक नामक वैज्ञानिक ने हवन पर की गई अपनी रिसर्चमें पाया कि यदि आधे घंटे हवन में बैठा जाए अथवा हवन के धुंए से शरीरका संपर्क हो टाइफाइड जैसे खतरनाक रोग फैलानेवाले रोगाणु भी मर जाते हैं और शरीर शुद्ध हो जाता है।

हवनकी महत्ताको देखते हुए राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों ने भी इस पर एक रिसर्च की कि क्या वाकई में हवनसे वातावरण शुद्ध होता है और जीवाणुओंका नाश होता है? उन्होंने ग्रंथोंमें वर्णित हवन सामग्री जुटाई और इसे जलानेपर पाया कि ये विषाणुओंका नाश करती हैं और फिर उन्होंने विभिन्न प्रकारके धुंए पर भी काम किया और देखा कि सिर्फ आम की लकड़ी एक किलो जलाने पर हवामें मौजूद विषाणुं बहुत कम नहीं हुए। पर जैसे ही उसके ऊपर आधा किलो हवन सामग्री डालकर जलाई गई तो एक घंटेके भीतर ही कक्षमें मौजूद नैगेटिव बैक्टीरिया का स्तर 94 प्रतिशत तक कम हो गया। यही नहीं उन्होंने आगे भी कक्षकी हवामें मौजूद जीवाणु

ओंका परीक्षण किया और पाया कि कक्षके दरवाजे खोले जाने और सारा धुंआ निकलने के 24 घंटे बाद भी बैक्टीरियाका स्तर सामान्यसे 96 प्रतिशत कम था। बार-बार परीक्षण करनेपर ज्ञात हुआ कि इस एक बार हुएका असर एक एक माह तक रहा और उस कक्षकी वायुमें विषाणु स्तर 30 दिन बाद भी सामान्यसे बहुत कम था यह रिपोर्ट एथ्नोफार्मोकोलॉजी के शोधपत्रमें दिसंबर 2007 में छप चुकी है रिपोर्ट में लिखा गया की हवन सामग्रीके द्वारा न केवल मनुष्य बल्कि वनस्पतियों एवं फसलोंको नुकसान पहुंचानेवाले बैक्टीरियाका  भी नाश होता है जिससे फसलोंमें रसायनिक खादोंका प्रयोग कम हो सकता है।

Saturday, August 27, 2022

ज्ञान केंद्रित संस्कृत भाषा का वैभव

 *ज्ञान केंद्रित संस्कृत भाषा का वैभव*


संस्कृत के विकास से भारत के विश्वगुरु बनने का स्वप्न तो साकार होगा ही, दुनिया भी शांति के साथ समग्र विकास के पथ पर अग्रसर होगी।                                


  ज्ञान केंद्रित संस्कृत भाषा के विषय मेंकुछ महीने पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने  ‘मन की बात’ कार्यक्रम में संस्कृत भाषा के वैभव और उसके पुनः उभरते वैश्विक परिदृश्य पर बात की थी। भारतवर्ष के प्राचीन ज्ञान-साम्राज्य का वैभव, जो संस्कृत के विलुप्त होते जाने से अक्षुण्ण न रह सका, वस्तुतः संस्कृत की ही महिमा है। संसार की आंखों में भारतीय संस्कृति के लिए वर्तमान में भी जो सम्मान शेष है, उसके मूल में भी कहीं न कहीं संस्कृत ही है, जिसने हमारी भारतीय विद्वता का सार्वभौमिक परिचय कराया।


संस्कृत अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, ज्यामिति, खगोलशास्त्र, भौतिकी, रासायनिकी, आयुर्वेद, दर्शनशास्त्र आदि सभी Mother की जननी है। अतः संस्कृत का पुनरुत्थान जरूरी है। प्रधानमंत्री ने संस्कृत का सूरज चढ़ने की बात कही है, तो सरकार का दायित्व बनता है कि वह संस्कृत का पुनरुत्थान करने के लिए समुचित प्रबंध करे। संस्कृत दुनिया के लिए भारत का सर्वश्रेष्ठ उपहार होगा।


मानव जाति की सबसे बड़ी पहचान और सबसे बड़ी उपलब्धि है भाषा। भाषा न होती, तो हम अन्य प्राणियों से केवल अपनी आकृति में ही भिन्न होते। लेकिन भाषा ने हमें पृथ्वी के सभी जीवों से सर्वथा भिन्न और सर्वथा विशिष्ट बना दिया है। भाषा के विकास के साथ मानव सर्वगुण-संपन्न बनता चला गया। भाषा के साथ ही मानव सभ्यताएं बनती चली गईं।


भाषा और भूगोल का एक गहरा संबंध है। भाषा वास्तव में पारिस्थितिकी का 'उत्पाद' है। मिट्टी और जलवायु से बनती है कोई भाषा। यही कारण है कि भाषा भूगोल के अनुसार बदलती है। धर्म, जाति, पंथ अथवा समूहों से उसका मौलिक संबंध नहीं है। संस्कृति का भाषा से अटूट संबंध है और भाषा का संस्कृति से एक गहरा सरोकार है। भाषा के माध्यम से ही कोई संस्कृति अपने यश को समय की तरंगों पर बहाती है।


संस्कृत से प्रभावशाली कोई भाषा संसार में नहीं हुई। मानव सभ्यताओं के इतिहास में ज्ञान-विज्ञान और दर्शनशास्त्रों से भरे ग्रंथों और उत्कृष्टतम साहित्य का जितना सृजन संस्कृत भाषा ने किया है, उतना आज तक किसी भी अन्य भाषा के लिए संभव नहीं हुआ है। पर विडंबना यह है कि संस्कृत आज विलुप्तप्राय हो चुकी है, और जिस भारतीय सभ्यता-संस्कृति को उसने हजारों वर्षों से संभाल कर रखा है, वही उससे पीछा छुड़ाने का प्रयास कर रही है। लेकिन संस्कृति का वैभव इतना विराट है कि आज भी दुनिया की कोई भाषा उसके सामानांतर खड़ी नहीं हो पाई।


संस्कृत भाषा के रचनात्मक वैभव से भिज्ञ लोग इस प्राचीनतम भाषा को स्कूलों और विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहे हैं। यूरोप में संस्कृत इसलिए पढ़ाई जा रही है कि इसके स्पंदन से विद्यार्थियों का मष्तिष्क अधिक प्रखर और रचनात्मक होता है। थाईलैंड और ऑस्ट्रेलिया में संस्कृत को उत्कृष्ट रचनाधर्मिता के लिए आवश्यक मानते हैं। संस्कृत शब्दों के उच्चारण से तंत्रिका तंत्र झंकृत होता है, जिससे मष्तिष्क की सक्रियता और सृजनशीलता में वृद्धि होती है। अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह ने कहा था कि वह दूरदर्शन पर संस्कृत के समाचार अवश्य सुनते थे, क्योंकि इससे उन्हें एक अलग प्रकार की आनंदपूर्ण अनुभूति होती थी, जबकि उन्हें उसका अर्थ समझ में नहीं आता था। संस्कृत का विकास करने वाली और संस्कृत से सुसंस्कृत होने वाली संस्कृति आज के युग में भी विश्व शांति और सामजिक विकास का जागरण करती है। इतिहास साक्षी है कि प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक भारत ने कभी किसी अन्य देश की भूमि पर आक्रमण नहीं किया।


आज के युग में जो भाषाएं सर्वाधिक पुष्पित-पल्लवित हो रही हैं, वे आर्थिकी-केंद्रित हैं, जिनकी बाजार पर पकड़ है। अंग्रेजी इसका ज्वलंत उदाहरण है। संस्कृत ज्ञान-केंद्रित भाषा है, इसलिए वह पिछड़ गई। अगर संस्कृत को पुनर्स्थापित करना है, तो उसका आर्थिकी के साथ अनुबंध बनाना होगा। संस्कृत के विकास से भारत के विश्वगुरु बनने का स्वप्न तो साकार होगा ही, दुनिया भी शांति के साथ समग्र विकास के पथ पर अग्रसर होगी।

Wednesday, August 17, 2022

दमोह जिले के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी

 दमोह जिले के अपराजेय जैन स्वतंत्रता संग्राम सेनानी   


डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य

अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, 

एकलव्य विश्वविद्यालय, दमोह  निदेशक-संस्कृत प्राकृत तथा प्राच्यविद्या अनुसन्धान केंद्र दमोह    

’9826443973

                                

 *नमःस्वाधीन कर्त्तारं,भेत्तारं परतन्त्रताम् ।* *स्वाधीनसंग्रामयोद्धान्,सेनानिभ्यः नमो नमः।।*     

भारत देश की स्वतंत्रता का मुख्य बीज 1857 की क्रान्ति से माना जा सकता है । आजादी के इस महायज्ञ में देश की शांति , धर्म एवं संस्कृति का सम्मान , पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए देश के शहीदों ने अपने प्राणों की आहूति देते समय अनेकों गोलियाँ , जेल यात्राएं,फांसी, डण्डे , क्षुधा , तृषा , पारिवारिक वियोग , पारिवारिक विघटन आदि अनेकांे यातनाओं- मानसिक प्रताड़नाओें एवं समस्याओं का सामना किया ।

भारत के संविधान निर्माण और आजाद हिन्द फौज में भारत के जैन समाज ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है जिसमें विशेष रूप से मध्यप्रदेश , उत्तर प्रदेश ,राजस्थान, छत्तीसगढ़,उत्तरांचल के जैन स्वतन्त्रता के दीवाने सेनानियों ने  एवं जैन पत्रकारों,साहित्यकारों , कवियों , जैन मंदिरों की समितियों के पदाधिकारियों ने अपना प्रत्यक्ष एवं परोक्षरूप में पूर्ण चेतना के साथ सहयोग किया ।  अनेकों जैन परिवारों नें इस स्वतन्त्रता के समर को अपने धन एवं परोपकार की भावना से प्रेरित होकर आर्थिक सहयोग प्रदान कर जेल गए परिवारों का भरण - पोषण शिक्षा एवं सुरक्षा प्रदान की । 

 9 मई 1857 से 15 अगस्त 1947 तक - सम्पूर्ण देश  से लगभग  7 लाख 72 हजार 780 लोगों ने सक्रिय भूमिका स्वतन्त्रता संग्राम में निभायी थी  उनमें  जैन समाज  के  सेनानियों ने अपनी सक्रियता से  रही है      

 इस आलेख में मैं केवल दमोह जिले के जैन स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों के स्वतन्त्रता संग्राम को दिए गए अवदान को प्रमुखता से उद्धृत कर रहा हूं। जिन्हें एकत्रित करने में प्रथमतः स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों के परिवारों  तथा समाज के वरिष्ठजनों से संपर्क तथा कुछ शासकीय दस्तावेज,संग्राम में जैन नामक पुस्तक के आधार पर प्रस्तुत व एकत्रित किए गए नाम हैं                         


 दमोह जिले के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम निम्न हैं   

1.अमर शहीद सिंघई प्रेमचंद जैन,                                

 2.अमर शहीद चौधरी भैयालाल,                       

3.श्री कपूरचन्दचौधरी,        

4 .श्री कामता प्रसाद शास्त्री,

5.श्री कुंदनलाल जैन,            

6 .श्री गुलाबचंद सिंघई,         

7.श्री गोकुलचंद सिंघई,       

8.श्री चिन्तामन जैन सगरा,       

09 श्री डालचंद जैन,               

10 श्री पूरन चंद जैन,          

11.श्री प्रेमचंद कापड़िया,         

12.श्री बाबूराम जैन पथरिया,     

13.श्री बाबूलाल जैन पथरिया,  

14.श्री बाबूलाल पलन्दी ,    

15.श्री रघवर प्रसाद मोदी, 

16. श्री रघवर प्रसाद जुझार

17.सिंघई रतन चंद जैन,    

18.श्री राजाराम बजाज, 

19.श्रीरामचरण जैन,     

20 .सवाई सिंघई रूपचन्द जैन पटेरा,                             

21.नगर सेठ श्री लालचंद जैन, 

22.श्री लीलाधर सराफ,         

23.श्री शंकरलाल जैन उर्फ ज्ञानचंद जैन,                      

24.श्री शिवप्रसाद सिंघई,     

25.श्रीसाबूलाल जैन,             

26.श्री खेमचंद जी बजाज  

27.श्री नन्दनलाल सराफ 

28 राजाराम उर्फ राजेन्द्र जैन पथरिया



आप सभी ने दमोह जिले का नाम स्वतंत्रता संग्राम में अपना तन-मन-धन एवं सर्वस्व समर्पित करके स्वर्णाक्षरों से अंकित किया है  ।।                                         


 

1.अमर शहीद सिंघई प्रेमचन्द्र जैन - 

आप दमोह जिले के सेमरा बुजुर्ग में सिंघई सुखलाल एवं माता सिरदार बहु के घर जन्मे भारत माता के निर्भीक , साहसी , कर्मठ , समर्पित माल थे । आपकी शिक्षा महाराजा प्रताप हाई स्कूल से हुई । सन् 1933 में आपने दमोह पधारे महात्मा गांधी के भाषण को सुनकर झण्डा सत्याग्रह ,  जंगल सत्याग्रह ,नमक सत्याग्रह, विदेशी बहिष्कार ,स्वदेशी अपनाओ जैसे महाभियानों में अपना तन-मन-धन एवं सर्वस्व समर्पण किया । इन गतिविधियों को देख श्री रणछोड़शंकर धगट आपको गांधी आश्रम मेरठ ले गए । वहाँ 3 वर्षों तक रहे वहां से 1937 में लौटकर सिंघई गोकुलचंद , श्री रघुवर प्रसाद मोदी, श्री बाबुलाल पलंदी व प्रेमशंकर घगट के  साथ आप कांग्रेस के कर्मठ कार्यकर्ता बने । 

सन् 1939-40 के मध्य में द्वितीय विश्व युद्ध की स्थिति थी , उसके लिए ब्रिटिश सरकार सैनिकों की भर्ती अभियान चल रही थी । जिसमें ब्रिटिश सरकार अपना हित चाहती थी, दमोह के टाउन हाल में सागर के डिप्टी कमिश्नर फारुख दमोह आये उन्होंने 6000 श्रोताओं की जनसभा को सेना भर्ती हेतु सम्बोधित किया ।  सिंघई प्रेमचन्द्र जैन  भाषण के मध्य कमिश्नर के भाषण का बहिष्कार किया फलस्वरूप उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार किया , जनता ने इसका विरोध किया उन्हें छोड़कर सिंघई प्रेमचन्द्र जी का भाषण कराया गया । जिसमें उन्होंने ब्रिटिश सरकार की सेना भर्ती को निजी लाभ के उद्देश्य मुख्य कारण से जनता को अवगत कराया । जिससे उनके मनसूबों पर पानी फिर गया ।

14 जनवरी 1941 में हटा में सत्याग्रह किया ब्रिटिश शामन विरोधी भाषण के कारण उन्हें गिरफ्तार कर 4 माह कारावास की सजा दी गई । आपको सागर जेल से नागपुर जेल स्थानांतरित किया गया । नागपुर जेल में भाग्यवशात डिप्टी फारुख नागपुर जेल का स्थानांतरित हुए और उन्होंने दमोह के अपमान का का बदला , प्रेमचंद जी की सजा पूरी होने पर उन्हें प्रीति - भोज पर मृत्यु परोसकर लिया और उन्हें नागपुर से दमोह ट्रेन में व्यवस्थित बैठाया और दमोह आते - आते उनका स्वास्थ्य खराब होता गया और अन्ततः वह 9 मई 1941 को भारत माता की गोद में प्राणोत्सर्ग करके सदा - सदा   के लिए समा गए । 

2.श्री प्रेमचन्द्र उस्ताद - 

 आप बाहुवली व्यायाम शाला के शक्तिशाली पहलवान होने के कारण दमोह में उस्ताद नाम से विख्यात हुए । यद्यपि आप जबलपुर निवासी थे लेकिन आपके पिता श्री पन्नालाल जी जैन ने सन् 1904 में अपने बालक प्रेमचन्द का विवाह श्री सुखलाल चौधरी की पुत्री से किया और भाग्यवश आपने दमोह को अपना निवास रखा । आप पहलवानी के साथ बन्दूक व अन्य शस्त्रों को चलाने में ही नहीं अपितु उनके संग्रह में रूचिवान थे।  

 सन् 1923 में झण्डा सत्याग्रह के अवसर पर जबलपुर विक्टोरिया टाउन हाल की गुम्बज पर झण्डारोहण किया । फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार उन्हें गोली से मारने में विफल रही , उन्हें गिरफतार किया गया और 1वर्ष  6 माह का सी  ग्रेड का कठिन कारावास हुआ और वहां वे खड़े-खड़े पांच सेर गेहूं पीसने की सजा पाकर प्रसन्न रहे और अपने शरीर को और व्यवस्थित किया। 

आपकी राष्ट्र भावना के कारण दमोह में जैन सेवादल बना , जिसमें आप लाठी लेजिम , तलवार , भाला व अन्य आत्मरक्षा के शस्त्रों को चलाने का प्रशिक्षण देते थे । सन् 1939 में त्रिपुरी कांग्रेस में केप्टिन ट्रेनिंग में 21 दिनों तक 110 स्वयं सेवकों को लेकर त्रिपुरी में रहे । 

सन् 1942 के बम्बई कांग्रेस अधिवेशन से  ‘करो या मरो’ की प्रेरणा लेकर साथ ही साइक्लोस्टाइल मशीनें , तार काटने तथा पटरी उखाड़ने वाले औजार व पिस्तौले वेश बदलकर- बदलकर दमोह लेकर आए ,उनका उपयोग किया नमक आंदोलन में भाग लिया। अन्ततः  भारत माता की सेवा करते हुए 26 नव. 1980 को अपना निधन हो गया ।

3.श्री प्रेमचन्द्र कापड़िया - 

श्री प्रेमचंद कापड़िया का जन्म 1923 में श्री फूलचन्द जैन कापड़िया के यहाँ हुआ । आपके परिवार में कपड़े का व्यापार होने से आप लोग कापड़िया नाम से विख्यात थे । आप स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रघुवर प्रसाद मोदी के विचारों से प्रभावित रहते थे । आप 1939 में त्रिपुरी कांग्रेस में स्वयंसेवक के रूप में 21 दिन प्रशिक्षण प्राप्त किया । 

आप 8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आन्दोलन में बम्बई गये थे । वहां आपने आजादी के लिए हो रहे विरोध  एवं क्रियाकलापों को देखकर प्रेरणा ली । अपने साथ वहां से विशेष जानकारी एवं सामग्री लेकर बीना मार्ग से  जबलपुर -दमोह आये , खूफिया पुलिस ने आपको जबलपुर के छोटे फुहारा पर बुलेटिन सहित गिरफ्तार कर लिए गये शेष सामग्री अपने ससुराल में छिपा दी । स्वयं जेल चले गए ।

 15- फरवरी 1943 को आप जेल से मुक्त हुए और आजाद हिन्द फौज में रहकर फौजी  का अभ्यास किया  और शांति सेना का गठन कर आन्दोलन संचालित किया। 

 4.श्री बाबूराम जैन पथरिया 

श्री बाबूराम जैन पिता बिहारी लाल जैन का जन्म 1918 में पथरिया , जिला- दमोह ( म.प्र . ) में हुआ। आप रसगुल्ला बेचते थे । आपने जंगल सत्याग्रह व 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में बढ़ - चढ़कर भागीदारी की और 2 माह 8 दिन का कारावास भोगा । साथ ही आपके भाई राजाराम उर्फ राजेन्द्र कुमार को 2 वर्ष 4माह का कारावास हुआ । 

5.श्रीबाबूलाल  जैन पथरिया 

 सन् 1896 में बाबूलाल जी का जन्म  पिता गिरधारी लाल जी के यहां हुआ । आपका विवाह कंछेदीलाल मास्टर  की बेटी तुलसी से हुआ और आप पथरिया ही रहने लगे थे ।  आपके वंशज सिंघई वंशीधर भी  मैहर रियासत  कोषाध्यक्ष रहे है । 


 आपने नमक आन्दोलन एवं 1930 के जंगल सत्याग्रह में 1 दिन की जेल के साथ 40/ - रुपये का जुर्माना हुआ । सन्1942 में मण्डल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के रूप में 14 अगस्त 1942 को भाषण देने के कारण सागर जेल भेजा गया साथ ही आपके ज्येष्ठ पुत्र पदमचंद्र को पर्चे बांटने के अपराध में पकड़ा गया । आपको सागर से नागपुर जेल भेजा गया । जहां पर सेठ गोविन्दास विनोबा भावे बृजलाल वियाणी , कुमारप्पा आदि से भेंट हुई , पुनः सागर जेल आए। 

4 जनवरी 1943 को सश्रम कारावास की सजा दी गई । कारावास मुक्त हुए और 1945 में ध्वज फहराते हुए फिर 15 दिन तक हिरासत में रखा गया । आजादी के बाद ग्राम पंचायत एवं जनपद पंचायत के पदों पर आसीन रहे । 16 मार्च 1983 को धार्मिक मरण को प्राप्त किया । 

6 श्री बाबूलाल पलंदी दमोह- श्री नाथूराम पलंदी के पुत्र श्री बाबूलाल पलंदी का जन्म 4 फरवरी 1920 को हुआ । आपने 12 वर्ष की उम्र में 1932 में जंगल सत्याग्रह में सहभागिता की  और अपने विद्यालय में ध्वज फहराने के कारण न्यायाधीश जगन्नाथ प्रसाद ने अदालत  समाप्ति तक की सजा दी । आपको इस कारण शासकीय विद्यालय से निकाला गया । 

केशरचंद पलंदी  आपके भाई थे । आपका विवाह बैनी बाई से हुआ । आपके  दाम्पत्य जीवन   में 6 पुत्रों  एवं 3 पुत्रियों  से परिपूर्ण था । आप श्री रघुवर प्रसाद मोदी जी से अत्यन्त ही प्रभावित थे। 1939 में त्रिपुरी काग्रेस में स्वयं सेवक के रूप में जुडकर 1941 में ब्रिटिश सरकार विरोधी सन्देशों को जन - जन तक पहुंचाने के अपराध में गिरफ्तार हुए । 13 अगस्त 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार होने पर आपको सागर जेल फिर नागपुर जेल भेजा गया । 4 जून 1943 को रिहा हुए । 1941 से 1956 एवं  1969-1977 तक आप जिला कांग्रेस कमेटी के महामन्त्रीे अध्यक्ष  पद को संभाला  तथा कमला नेहरू कालेज के सचिव व स्वतंत्रता संग्राम सैनिक संघ दमोह के उपाध्यक्ष रहे । जैन प्रगतिशील परिषद एवं आदर्श  शिक्षा समिति के संस्थपक रहे  । आप  शिक्षा, राजनीति एवं समाजकार्य में अग्रणी रहे। सतत् सेवाप्रेमी पलंदी का  25 मार्च 1985 को देहावसान हुआ ।

7.अमर शहीद चौधरी भैयालाल -

 आप का जन्म बिहारी लाल जैन के घर सन् 1886 में दमोह मध्यप्रदेश में हुआ  आप बचपन से ही अपने नेतृत्व कौशल,संगठन कौशल और वाणी वव्यवहार और वे-वाक् राय के कारण सबके हृदय को मोह लेते थे । इन्हीं गुणों के कारण में दमोह कांग्रेस में सन् 1920-21 में अग्रणी रहे । 1908 के बंग- भंग से आप राजनीति में सक्रिय रहे फलस्वरूप आपने लोकमान्य  बाल गंगाधर तिलक को दमोह आमन्त्रित किया , ब्रिटिश सरकार ने सभा पर पाबन्दी लगा दी थी फिर भी आपने श्री दि ० जैन अतिशय क्षेत्र  कुण्डलपुर मेें सभा करायी ।

 प्रथम विश्व युद्ध की सैन्य भर्ती का विरोध किया , फलस्वरूप राजद्रोह का मुकदमा चला , ब्रिटिश सरकार मुकदमा हार गयी, रतौना में खुलने वाले बूचडखाने का विरोध ,विदेशी कपड़ों का बहिष्कार , अनशन आदि किया ।

सन् 1922 कलकत्ता कांग्रेस की बैठक से लौटते समय मिर्जापुर के आस - पास अंग्रेज सैनिकों के विवाद में गोली का शिकार हुए । 

8. श्री कपूरचन्द जैन चौधरी -

आपका परिचय चौ  धरी भैयालाल जी के भतीजे के रूप में प्राप्त होता है । आपके पिता का नाम श्री दरवारीलाल चौधरी था । आपका जन्म 16 अक्टू 0 1916 को दमोह में हुआ । परिवार में स्वयं के चाचा चौधरी भैया लाल जी- के देशप्रेम की कहानियां एवं भारत माता के प्रति समर्पण को सुनकर श्री कपूरचन्द जैन चौधरी में देश प्रेम का जज्वा देखने को मिलता था । आपने भी विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया ।

सन 1942 के आन्दोलन की आमसभा में गांधी चौक पर 14 अगस्त 1942 को भाषण देते हुए गिरफ्तार किया गया और जबलपुर जेल पहुंचा दिया गया वहां आपको नाना साहब गोखले , श्री के . देशमुख राजेन्द्र मालपाणी , छक्कीलालगुप्ता , जनरल आवारी जैसे नेताओं के दर्शन मिले । आपने 2 वर्ष 6 माह का कारावास की सजा भोग भारत माता की सेवा की ।

9 पं . कामता प्रसाद शास्त्री - जैनविद्वानों की परम्परा के संवर्द्धक , दमोह में पूर्णतः शराब बन्दी के सूत्रधार , राष्ट्रीय विचार धारा के पोषक, धर्मात्मा श्री कामता प्रसाद शास्त्री का जन्म श्री मूलचन्द्र जैन के यहां 1 जनवरी 1915 ई को हुआ । आपने कटनी बोर्डिंग एवं स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस से अध्ययन किया । स्व. गणेश प्रसाद वर्णी संस्कृत विद्यालय मोरा जी सागर सेवाएं प्रदान की और 1942 के आन्दोलन में सहभागिता के कारण आपने अपनी सेवाएं समाप्त कर दीं । 

 आपके प्रयासों से सन् 1926 में दमोह का नाम विश्व पटल पर पूर्णतः ‘‘शराब बन्दी’’ के लिए प्रसिद्ध हुआ । शास्त्री जी ने शराबबंदी आंदोलन किया , दुकानें बंद करायी , नमक सत्याग्रह व जंगल सत्याग्रह किया . पुलिस द्वारा पकड़े गए ।

सन् 1932-33 में आप बनारस रहे और कान्तिकारी मन्मथनाथ गुरु से बम फेंकना , तैरना , पिस्तौल चलाना आत्मरक्षा एवं देश की सुरक्षा के लिए धर्मात्मा के अन्दर शस्त्र और शास्त्र का मणिकांचन संयोग घटित हुआ। आप कुछ दिन दिल्ली भी रहे । वहां से वापिस आकर आप को पिण्डरई में जंगल कटवाने, जैसी नगर में कोतवाली जलाने के प्रयास में 4 सितम्बर 1992 को गिरफ्तार कर लिया गया और सागर जेल में रहे वहां की दीवारों पर भारत माता के चित्र , तिरंगा के चित्र एवं देश भक्ति कविताएं सन्देशों को लिखते रहे । आपको जबलपुर जेल भेज दिया गया । । आप जेल से आने के बाद भी देश हितेषी आन्दोलनों में  सहभागिता दर्ज करते रहे 

10 श्री कुन्दल जैन- 

दमोह का नाम स्वतन्त्रता संग्राम में आगे करने वाले कुन्दन लाल जी जैन का जन्म सिंघई छोटेलाल जी के यहाँ हुआ । आपने 1930 से अपनी सक्रियता  स्वतन्त्रता संग्राम में दिखाई और 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में जबलपुर में सहभागिता की परिणामतः आपको 3 वर्ष 7 माह का कारावास मिला और 65 ति वर्ष की आयु में आपका स्वर्गवास हो गया ।

11.श्री रघुवरप्रसाद मोदी -

श्री रघुवरप्रसाद मोदीजी महान व्यक्तित्व के धनी , स्वतन्त्रता संग्राम के सशक्त हस्ताक्षर , दमोह नगर की पहचान , सामाजिक सांस्कृतिक शैक्षणिक संस्थाओं के संस्थापक खोजाखेडी ग्राम के  गल्ला व्यापारी श्री गोरेलाल जी की धर्मपत्नि सुखरानी के इकलौते पुत्र के रूप में आपका जन्म सन् 1894 ई में हुआ ।

1919 में मैट्रिक उत्तीर्णता के समय भारत में रौलट एक्ट एवं जलियावाला हत्याकाण्ड  की घोर निन्दा हो रही थी साथ ही इस घटना को लेकर सभी अपने प्राणों का बलिदान देने के लिए आतुर थे । मोदी जी भी स्कूल की पढ़ाई त्याग आजादी की लड़ाई में कूद गये साथ ही आपके साथी प्रेमशंकर घगट , सिंघई गोकलचन्द्र वकील , दमोदरराव,श्री देवकीनन्दन श्रीवास्तव लक्ष्मीशंकर घगट आदि अनेक लोगों ने आपका साथ कन्धे से कंधा मिलाकर दिया ।

 1930 में खादी का कार्य आरंभ किया अंग्रेजों द्वारा आपकी दुकान जला दी गई विरोध करने पर गिरफ्तार कर लिया गया , जंगल कानून तोड़ने की योजना बनायी उसमें गिरफ्तारी दी , जंगल सत्याग्रह में साथ दिया , टाउन हाल में तिरंगा झण्डा फहराने के अभियोग  में गिरफ्तारी के साथ पिटाई खाई , गांधी चौक खून से लतपथ हो गया , कपड़े रक्त रंजित हो गये यह घटना 1942 की है , उन्हें सैन्य जूतों से निर्ममता से पीटा गया । बर्वरता से मारा गया तब भी रघुवरमोदी के मुंह में भारतमाता की जय का उद्घोष निकलता रहा । जनता भड़क उठी और प्रशासन ने उन्हें मुक्त कर दिया । स्वस्थ होने पर उन्हें गिरफ्तार  किया और 6 माह की जेल 500/ - रुपये जुर्माना लगाया आप की नेतृत्व क्षमता एवं सहनशीलता से सम्पूर्ण दमोह प्रभावित था ।

 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ और दमोह की जनता ने सन् 1952 - 1957 तक आपको विधायक पद पर  आसीन किया । आपने दमोह में शासकीय महाविद्यालय , राष्ट्रीय जैन उच्चतर माध्यमिक विद्यालय , कमलानेहरू महिला विद्यालय , जैनऔेषधालय अनेक संस्थाओं की स्थापना की । 1957 में कलेक्टर के द्वारा कम्युनिष्ट देह घोषित होने पर पुनः गिरफ्तार हुए । इस प्रकार देश और समाज की सेवा करते हुए 17 दिस . 1976 में आपने नश्वर देह त्यागी । 


  12. सिंघई रघुवर प्रसाद जुझार

गुमनाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी  सिंघई रघुवर प्रसाद जुझार वाले जिला अस्पताल दमोह के प्रथम दान दाता निर्माता रहे हैं। उनके सेवा भावी कार्यों को याद दिलाता एक शिलालेख जिला अस्पताल के प्रवेश द्वार की साइड में आज भी लगा हुआ है। जिसमें अंग्रेजी में प्रेजेंटेड बाय श्री रघुवर प्रसाद मालगुजार, दरबारी, ऑनरेविल मजिस्ट्रेट, चेयरमैन डिस्टिक काउंसिल आदि के उल्लेख के साथ डिप्टी कमिश्नर खान बहादुर द्वारा उद्घाटन किया जाना दर्ज है।


  उल्लेखनीय है कि वर्ष 1920 के दशक में फैली महामारी के बाद दमोह डिस्टिक काउंसिल के तत्कालीन चेयरमैन श्री सिंघई रघुवर प्रसाद ने 1922- 23 में जिला अस्पताल के नए भवन का निर्माण कराया था। 1931-32 में दमोह के जिले का दर्जा खत्म कर दिए जाने पर उन्होंने अपने सभी पदों से इस्तीफा देते हुए सुरक्षा के लिए प्राप्त बंदूक को वापस करने से इंकार कर दिया था। वही गांधीजी के बजाए भगत सिंह से प्रभावित होकर अंग्रेजों का खुला विरोध शुरू कर दिया था। अपने माल गुजारी क्षेत्र जुझार तथा आसपास के गांवों में लगान वसूली बन्द करा दी थी। बसूली को आने वाले अंग्रेज अफसरों कर्मचारियों को वह बन्दूक की नोक पर भगा देते थे। जिस बजह से अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी बन्दूक को भी जब्त कर उनके रूतवे को कम करने की कोशिश की थी। लेकिन इसके बाद वह किसानों से लगान वसूली को आने वाले अंग्रेज अफसर तहसीलदार आदि के गांव पहुंचने पर ग्रामीणों से पकड़वाकर पेड़ से बंधवाकर कोड़ों से पिटवाते थे। जिसके बाद लगान वसूली करने के लिए जुझार तथा आसपास के क्षेत्र में जाने से अंग्रेज डरने लगे थे वही आसपास के क्षेत्र में भी लोगों ने लगान देना बंद कर दिया था।


महाराजा छत्रसाल के वंशजों के दरबारी होने की वजह से स्थानीय राजाओं से भी उनकी नहीं बनती थी। यही वजह रही की 10 जुलाई 1941 को हिंडोरिया मे राजा लक्ष्मण सिंह के तिलक समारोह के मौके पर अंग्रेजों के इशारे पर भोजन में जहर मिला कर श्री रघुवर प्रसाद को खिला दिया गया। बाद में इलाज के लिए दमोह भेजने के बजाय घोड़े की पीठ पर बांधकर उनको जुझार भेज दिया गया। जिससे उनकी असमय मौत हो गई थी। उस समय उनके इकलौते पुत्र सिंघई रतनचंद मात्र 4 वर्ष के थे। उनकी भी जान को खतरा होने से सिंघई जी की बेवा इंद्राणी बहू अपने बेटे को लेकर सब को छोड़कर मायके  जाने को मजबूर हो गई। देश की आजादी के बाद जब वह वापिस जुझार लौटी तो सब कुछ छिन चुका था। नावालिगी में दर्ज एक बगीचा जिसमें पुरानी हवेली व कुआ आदि था वही शेष बचा था।


इधर रघुवर प्रसाद की जहर देकर हत्या कराने में सफल रहे अंग्रेजों की दहशत के चलते सिंघई रघुवर प्रसाद का नाम लेने वाला भी कोई नहीं बचा था। यही वजह रही कि देश की आजादी के बाद अंग्रेजों के खिलाफ उनकी बगावत व जहर देकर हत्या के हालात गुमनामी के अंधेरे में खोकर रह गए। उनको और उनके योगदान को दस्तावेजों में भी कोई जगह नहीं मिल सकी। लेकिन शिलालेखों में उनका योगदान आज भी जीवित है। सिंघई रघुवर प्रसाद की दबंगई के संस्मरण को पुराने लोग आज भी याद करते हैं। अनेक वर्षों तक दमोह डिस्टिक काउंसिल के चेयरमैन रहे स्वर्गीय रघुवर प्रसाद सिंघई के अंग्रेजांे के खिलाफ दुस्साहस और जिला अस्पताल निर्माण में योगदान को ध्यान में रखकर 2 अक्टूबर 2014 को जिला अस्पताल के नवनिर्मित प्रवेश द्वार गेट का नामकरण सांसद श्री प्रहलाद पटेल की पहल पर श्री रघुवर प्रसाद के नाम पर किया गया था। और इसका लोकार्पण तत्कालीन कैबिनेट मंत्री जयंत मलैया ने किया था। वर्तमान में जब आजादी का अमृत महोत्सव चल रहा है ऐसे में भी यदि ऐसे गुमनाम शहीदों का स्मरण करके उनके बारे में जानकारी जुटाकर उन्हें याद नहीं किया जाता तो यह विडंबना ही होगी ।

13. गुलाबचन्द सिंघई 

 आपका जन्म सिंघई राजाराम के यहाँ सन् 1923 में दमोह मप्र में हुआ । आपने माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की और विद्यार्थी जीवन से ही आप समाज और राष्ट्रª हित में सक्रिय रहते थे। सन् 1942 के भारत छोडो आन्दोलन में अपनी भूमिका के कारण जबलपुर और सागर में 9 माह 10 दिन का कारावास तथा 50  - रुपये का अर्थदण्ड भारत माता के प्रसाद स्वरूप स्वीकार किया था । 

14. श्री गोकुलचन्द्र सिंघई 

गोकुल चन्द सिंघई एक ऐसा नाम जो वकालत के क्षेत्र में पारंगत , कुशाग्र बुद्धि हाजिरजबाब और देश प्रेम में लाजबाब थे । आप पर अमरशहीद भैयालाल जी का अत्यंत प्रभाव था । आपने उन्हीं के सान्निध्य में खादी आश्रम , गौरक्षा , शराबबंदी जैसे कार्यों को सक्रियता के साथ किया । आप आत्मरक्षा और राष्ट्र रक्षा के लिए शौक से अखाड़े चलाते थे । फलस्वरूप आपने दमोह के समस्त अखाड़ों को संगठित कर एक संगठन बनाया और दशहरा महोत्सव प्रारंभ कराया । 

सन् 1916 में अंग्रेज पुलिस कप्तान ने दमोह जेल के सामने से बैलगाड़ियों के निकलने पर प्रतिबन्ध लगाया । जिसके लिए सिंघई जी ने आम सभाएँ की और विरोध किया । फलस्वरूप पुलिसकप्तान ने आपको मारने एक अपराधी को रिहा किया पर वह प्रयास विफल रहा । अंततः बैलगाडियां निकलने लगी । 

सन् 1931 में आपको ब्रिटिश विरोधी नीतियों के विरोध में गिरफ्तार कर रायपुर जेल भेजा गया और 1933 में 58 वर्ष की उम्र में आपका निधन हो गया ।

 15.श्री चिन्तामन जैन 

श्री चिन्तामन जैन , पुत्र- श्री दशरथ लाल जैन का जन्म दमोह ( म 0 प्र 0 ) जिले के पटेरा के निकट बमनपुरा ग्राम में 1913 में हुआ । आपकी रुचि देश - सेवा एवं सामाजिक कार्यों में बचपन से ही रही , अतः आप घूम - घूमकर देश को स्वतंत्र कराने की भावना लोगों में जागृत करते रहे । सोलह वर्ष की उम्र में ही आप भारतीय अधिनियम की धारा 379 आई ० पी ० सी ० के अन्तर्गत दिनांक 4-9-1930 से 3-1-1931 तक केन्द्रीय जेल जबलपुर में रहे । इन्द्राणी बाई से आपका विवाह हुआ था ।  जेल से छूटने के बाद आपका जीवन जबेरा जनपद के ग्राम  कठई सगरा में  सिंघई गुलाबचन्द एवं उनके पुत्र सिंघई रतनचन्द आदि के साथ राष्ट्र हितैषी कार्य करते-करते आपने अन्तिम सांस ली । 



 16. श्री डाल चन्द जैन

 आपका जन्म सन् 1915 में श्री नन्दीलाल जैन दमोह के यहां हुआ । राष्ट्रीय भावना के प्रभाव से 15 वर्ष की आयु में जीवन पर्यन्त देश की स्वतन्त्रता के कृत संकल्पित थे।  आप रघुवर प्रसाद मोदी की सभाओं झण्डा लेकर राष्ट्रीय गान गाया करते थे। आप 1949 के त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन में सपत्नीक रहे । आपने दमोह की रोड पर एक माह लगातार परेड की जिसे देखकर लोग देशप्रेम की प्रेरणा लिया करते थे । 

1940 में दिल्ल्ी चलो आन्दोलन,1942 का करो या मरो आन्दोलन में सहभागिता दर्ज की । 19 अगस्त 1942 को सभा के मध्य से आपको गिरफ्तार किया गया और 24. जुलाई 1966 को आपका निधन हो गया । 

17. श्री पूरनचन्द जैन- 

पूरनचंद जी का जन्म श्री हजारीलाल जी के यहाँ सन 1916 में हुआ । 23 वर्ष की उम्र में त्रिपुरी कांग्रेस में अनेक युवकों के साथ स्वयंसेवक बनकर स्वतन्त्रता संग्राम में अपना अवदान दिया । आपको 4 सितम्बर 1942 को गिरफ्तार करके 7 माह 14दिन के कारावास के लिए सागर जेल भेजा गया । रिहा होकर कांग्रेस का कार्य करते रहे । 

18.सिंघई रतनचन्द जैन 

आपका जन्म गुलाबचन्द्र सिघई के यहाँ सन् 1918 में हुआ। आपको राष्ट्रीय भावना के संस्कार ा अपने पिताजी से मिले थे । पिता जी की मालगुजारी बांदकपुर एवं बनवार में भी । आपका राजनैतिक जीवन 1939 में त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन से प्रारंभ हुआ । आपको 11 अगस्त 1942 को गिरफ्तार किया गया और दमोह से सागर जेल और सागर से नागपुर जेल भेज दिया । 10 माह 20 दिन का कारावास अमरावती में मासूम अली जेलर के कुशासन में अनेक यातनाएं सहन करके काटा । 

19. श्री राजाराम उर्फ राजेन्द्र कुमार जैन - 

श्री राजाराम अपने भाई श्री बाबूराम जी के साथ झोली  में चना जोर गरम बोलकर  चना बेचते थे । आपका जन्म 1906 में पथरियादमोह  में हुआ ।

  1942 के आन्दोलन में आप अपने छोटे भाई के साथ पकडे गए और 2 वर्ष 4 माह का कारावास , मिला । सन् 1973 में आपका निधन हो गया ।

20. राजाराम बजाज  -

 श्री लोकमन बजाज के चतुर्थ पुत्र श्री राजाराम बजाज का जन्म सन 1900 में हुआ। आपको युवावस्था से ही राष्ट्रप्रेम था जो कि आपके पड़ोसी गोकुलचंद वकील की प्रेरणा एवं सहयोग से पनपा था।   । आपने चौधरी भैयालाल के चरखा प्रचार आन्दोलन को सम्भाला साथ ही 15000/ - नुकसान भी उठाया । 

आपने युवावस्था से ही राष्ट्र हित की प्रभात फेरियां , गौरक्षा आन्दोलन , विदेशीमाल एवं का शराब की दुकानों का बहिष्कार, विदेशी शिक्षा बहिष्कार आन्दोलनों में सक्रिय रहें  और आपने व्यायाम शौकीन होने के कारण देश रक्षा के हितार्थ  दमोेह के मुहल्लों एवं ग्रामीण अंचल में बाहुबली व्यायाम शालाएँ खुलवाई तथा जिसका मुख्य केन्द्र जैन धर्मशाला के आंगन में अपने खर्च  पर बाहुबली व्यायाम शाला बनवाई । जिसमें प्रेमचंद उस्ताद का सहयोग भी आपको प्राप्त हुआ 

 1930 के आंदोलन में 4 माह की सजा 80 रु अर्थदण्ड, 1942 के आंदोलन में अपने भतीजे रूप - चंदबजाज को 9 माह 15 दिन के लिए जेल भेजा  और आप  स्वयं भूमिगत रहकर लीलाधर सर्राफ के सहयोग से  जेल गए परिवारों की सहायता करते रहे ।  आप 30 वर्षों तक श्री दि - जैन सिद्धक्षेत्र अलपुर कमेटी अध्यक्ष रहे । 

21.श्री रूपचंद बजाज -

जैन धर्म के प्रगाढ. श्रद्धानी एवं समाज में प्रतिष्ठित श्रीदुलीचंद्र जी के यहां सन् 1912 में श्री रूपचंद बजाज का जन्म हुआ । आपको स्वतन्त्रता संग्राम में आगे आने की प्रेरणा स्वयं के चाचा श्री राजाराम बजाज से मिली।  बाहुवली व्यायाम शाला में आत्मरक्षा के हुनर सीखे और शरीर को बलशाली बनाया 

1942 में सागर जेलर ने कहा कि-  बलशाली बना था । आज हमारी जेल में सबसे बजनदार केंदी आया है ।

 आपने खादी का प्रचार , विदेशी वस्तुओं एवं शिक्षा का बहिष्कार,शराबबंदी आन्दोलनों में भागीदारी की । 1930 में आप त्रिपुरी कांग्रेस से जुड़े 21दिन वहां रुके । 

 17 अगस्त 1942 को गांधी चौक से गिरफ्तार हुए सागर जेल से नागपुर जेल पुनः सागर जेल 16.03.1943 को  3 माह के कठार कारावास के लिए अमरावती जेल भेजा गया वहां मासूम अली क्रुर निर्दयी जेलर की अमानवीय यातनाऐ सहन की।  जून -43 में आप रिहा हुए । वहां से मुक्तागिरि जैन सिद्धक्षेत्र के दर्शन कर दमोह वापिस आए और समाज कार्य और शैक्षणिक गतिविधियों में संलग्न रहे 7जनवरी1988 को  धर्म ध्यान पूर्वक आपका निधन हो गया । 

22. श्री रामचरण जैन दमोह-

 श्री रामचरण जैन  का जन्म दमोह के नन्हेंलाल जी के यहां सन् 1923 में हुआ । 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में आपने भाग लिया । जेल यात्रा की तथा पराधीनता की कठोर यातनायें सहीं । शासन ने सम्मान पत्र प्रदान कर आपको सम्मानित किया है ।

23. सवाई सिंघई रूपचंद जैन -

 अपनी निस्पृहता , उदारता , सरलता व स्वाभिमान के लिए पूरे क्षेत्र में विख्यात पटेरा , जिला - दमोह ( म 0 प्र 0 ) के सवाई सिंघई रूपचंद जैन , पुत्र - श्री रतनचंद जैन का जन्म 1917 में हुआ । ओरछा सेवा संघ , देशी राज प्रजा परिषद् आदि से जुड़े रहे रूपचंद जी ने जबलपुर के त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया था । 1942 के आन्दोलन में पुलिस काफी प्रयत्न के बाद भी गिरफ्तार नहीं कर सकी । भूमिगत रहकर श्री जैन ने स्वतंत्रता की अलख जगाई । अपनी निस्पृह वृत्ति के कारण सरकार से मिलने वाली तमाम सुविधाओं को उन्होंने तिलाञ्जलि दे दी । सिंघई जी ने श्री दि ० जैन सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर के विकास में महनीय योगदान दिया था । पटेरा को विकासखण्ड बनवाने तथा हाईस्कूल , बैंक आदि की स्थापना में भी उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई थी । 1994 में आपका निधन हो गया ।

24. नगर सेठ श्री लालचंद  जैन-

 राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने वाले ‘पहले देश- फिर समाज’ के सिद्धांत को अपनाने वाले थे । श्री लालचंद जैन ऐसे ही व्यक्तित्व थे । वे जहाँ राष्ट्रीय आन्दोलन में जेल गये , वहीं उन्होंने जैन संस्थाओं को भी भरपूर दान दिया । शुभ्र खादी का कुर्ता , बंद गले का कोट और ऊँची पट्टी की खादी की टोपी लगाये सेठ लालचंद जी प्रायःदमोह की हर सामाजिक सभा में सभापति बने दिखायी देते थे । जब जनता कांग्रेस की सभाओं में आने से भी डरती थी और मजाक उड़ाती थी । तब भी सेठ साहब तखत पर बैठे भाषण देते रहते थे । आपका जन्म दमोह ( म ० प्र ० ) के सुप्रसिद्ध सेठ घराने में पिता श्री नाथूराम जी के यहाँ हुआ था । धार्मिक , सामाजिक एवं राजनीतिक सभी क्षेत्रों में आप निपुण थे और सिद्धान्त के पक्के थे । सरकार के खिलाफ महात्मा गांधी ने जब असहयोग आन्दोलन चलाया , तब उसमें आपका विशेष योगदान रहा , तभी आप जेल भी गये । बाद में आप जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने । आपके पूर्वजों ने श्री कुण्डलपुर जी , श्री नैनागिरि जी एवं दमोह में मन्दिरों का निर्माण कराकर पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के साथ गजरथ भी चलवाये थे । सेठ लालचंद जी धार्मिक अनुष्ठानों में नियम से भाग लेते थे । श्री सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर के अध्यक्ष पद पर 15 वर्षों तक रहकर आपने क्षेत्र की सेवा की

 । आपके सहयोग से दमोह जिला में कई संस्थायें चल रही हैं । आपने श्री वर्णी दि ० जैन पाठशाला को 60 एकड़ भूमि देकर उसके सञ्चालन में लाखों रुपयों का दान दिया था । पूज्य श्री वर्णी जी महाराज ,  जिन्होंने आजादी  के लिए अपनी चादर भी दे दी थी ,के दमोह पदार्पण के समय आपने उनके उपदेशों से प्रभावित होकर उस समय एक मुस्त 50 हजार रुपये का दान दिया था । आपकी धर्मपत्नी भी उदार एवं दानशीला थीं । श्री सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर की 20 एकड़ जमीन , जो फतेपुर के बगीचे के नाम से जानी जाती है , को आपने ही दान में दिया था । उस बगीचे से क्षेत्र को है आज भी हजारों रुपयों की वार्षिक आमदनी है ।

 25. श्री लीलाधर सराफ -

व्यायाम के शौक ने जिन्हें आजादी का दीवाना बना दिया , ऐसे श्री लीलाधर सराफ , पुत्र श्री मल्थूराम सराफ का जन्म दमोह ( म 0 प्र 0 ) में 1895 में हुआ । आपने जैन और अजैन सभी को श्री बाहुबली व्यायाम शाला का सदस्य बनाया । यहाँ तक कि श्री गजाधर प्रसाद मास्टर को प्रेरणा देकर लाठी , लेजिम , तलवार , भाला , पटा , बनेटी और मलखम्म के खेल  सीखने के लिए श्री हनुमान व्यायाम शाला  अमरावती भिजवाया और लौटने पर बाहुबली व्यायाम शाला के सभी सदस्यों और अपनी लड़की सहित बहुत - सी से लड़कियों को लेजिम आदि की ट्रेनिंग दिलवायी । 

1942 के आन्दोलन में आपने बाहुबली व्यायाम शाला के सदस्यों को झौंक दिया । बहुत से पकड़े थे गये और बहुत से छिपकर बुलेटिन छापने का काम इनके निवासस्थान पर करते रहे । परन्तु पुलिस को इसकी अंत तक भनक भी न हुई । दमोह में होने वाले अनेक क्रांतिकारी कार्यों का सञ्चालन आपके निवासस्थान से ही होता था । आपका कार्य पुलिस से मिलकर रहना और यह पता लगाना था कि आज किसके पकड़े जाने की आशा है व कहाँ तलाशी होने वाली है । जो सेनानी जेल चले जाते , उनके घरों की खान - पान सहायता की जिम्मेदारी श्री प्रेमचंद उस्ताद  के साथ श्री लीलधर सराफ और श्री राजाराम बजाज की ही रहती थी । क्रान्तिकारी गतिविधियों के कारण म 0 प्र 0 शासन ने आपको स्वतंत्रता सैनानी का ताम्रपत्रादि प्रदान कर सम्मानित किया था । 2-8-80 को आपका निधन हो गया ।

26.श्री शंकरलाल जैन- 

दमोह ( म 0 प्र 0 ) के श्री शंकरलाल जैन का जन्म 1921 में हुआ । आपके पिता का नाम श्री भैयालाल था । आपने प्राथमिक तक शिक्षा ग्रहण की । त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन में स्वयंसेवक के रूप में तथा 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में आपने भाग लिया एवं अर्थदण्ड पाया ।

27. श्री शिवप्रसाद सिंघई -

 दमोह के प्रसिद्ध सिंघई परिवार का राष्ट्रीय आन्दोलन में अग्रगण्य स्थान है । इस परिवार के श्री सिंघई गोकुलचंद वकील , सिं ० गुलाबचंद , सिं ० शिवप्रसाद , सिं ० रतनचंद जी जेल गये । सिं ० गुलाबचंद के पुत्र सिंघई शिवप्रसाद का का जन्म 29-5-1921 को हुआ । आप माध्यमिक शाला में अध्ययनरत थे कि दमोह में महात्मा गांधी का आगमन हुआ । छात्र शिवप्रसाद भाषण सुनने चला गया । फिर क्या था - हेडमास्टर ने बेतों से पीटा और स्कूल से बाहर निकाल दिया और यहीं समापन हो गया सिंघई जी की शिक्षा का । 

आप नमक सत्याग्रह के अवसर पर वानर सेना में शामिल रहे । कांग्रेस कार्यालय में सचिव पद पर भी आपने कार्य किया । 1942 में आपके छोटे भाई सिंघई रतनचंद को पकड़ा गया तो आप भूमिगत हो गये । घर की तलाशी ली गई , जब ये न मिले तो इनके पिता सिं ० गुलाबचंद जी को पुलिस पकड़कर ले गई । दिनांक 1-10-1942 को शिवप्रसाद जी पकड़ लिये गये । बदले में पिता गुलाबचन्द जी को छोड़ दिया गया । शिवप्रसाद जी को 5 माह , 5 दिन की सजा दी गई और सागर जेल में रखा गया । सजा पिूरी होने पर दि ० 16-3-1943 को छोड़ दिया गया ।


 28. साबूलाल कामरेड-  जन्म पथरिया , जिला- दमोह ( म ० प्र ० ) में दिनांक 14-9-1922 को श्री अनन्तराम जी के यहाँ हुआ । 1939 में आप दमोह जिला कांग्रेस कार्यालय में कार्य करने लगे , जिसमें डुंडी पीटने से लेकर दफ्तर का पूरा कार्य आपने संभाला । 1939 में त्रिपुरी अधिवेशन में तीन हफ्ते स्वयंसेवक बनकर रहे । साथ ही जैन सेवादल से जुड़ गये तथा सामाजिक कार्यों में भी भाग लेने लगे एवं श्री साबूलाल कामरेड़ हँसमुख स्वभावी श्री साबूलाल जैन कामरेड़ दि 0 11 अगस्त , 1942 को आप जुलूस का नेतृत्व करते हुए पकड़े गये , मुकदमा चला तथा 50/  - जुर्माना की सजा हुई । पुत्र को छुड़ाने के लिए अनन्तराम जी ने बंजी ( घोड़ा आदि पर सामान बांध कर गांव - गांव बेचने का काम ) करने का घोड़ा बेच डाला , परन्तु गांधी चौक की आम सभा का डिक्टेटर बनकर भाषण देते हुए आप फिर पकड़ लिये गये तथा सागर जेल में 7 माह नजरबन्द रहे , बाद मुकदमा चला तथा तीन माह की सजा दी गई ।

29.श्री साबूलाल जैन-  स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण शिक्षक पद से निलम्बित किये गये , दमोह ( म 0 प्र 0 ) के श्री साबूलाल जैन , पुत्र - श्री सुखलाल जैन का जन्म 1906 में हुआ । अल्पवय में ही आप 1921 से स्वतंत्रता संग्राम में जबलपुर में सक्रिय हो गये । विदेशी वस्त्र बहिष्कार तथा 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में आपने भाग लिया । आपने अध्यापन और प्रशिक्षण प्राप्त किया और शिक्षक बन गये । शिक्षण कार्य करते हुए भी जेल क्रांतिकारियों को सामग्री पहुँचाते रहे और प्रचार साहित्य का वितरण किया । राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने के कारण शिक्षक पद से आपको निलम्बित कर दिया गया था ।

30 श्री प्रेमचंद विद्यार्थी -श्रीमान प्रेम चंद जी जैन विद्यार्थी का जन्म ग्राम कुआं खेड़ा जिला दमोह 15 जनवरी 1936 को श्री कार्य लाल जी जैन के यहां होगा आपने अपने जीवन में शिक्षा को महत्व देते हुए महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन में काव्य पत्रकारिता एवं भाषण तथा स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित साहित्य को प्रकाशित करके सहयोग किया और इसी सहयोग के कारण ब्रिटिश सरकार ने आपको गिरफ्तार करने की कई बार कोशिश की लेकिन आप भूमिगत रहे और चुप करके आपने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के परिवारों का भरण पोषण और उनके भोजन पानी और सुरक्षा की व्यवस्था करते रहे ब्रिटिश सरकार आप को गिरफ्तार नहीं कर पाई और आपका देहांत 2021 में हुआ

उपरोक्त सेनायियों के अतिक्ति भी अनेक गुमनाम सेनानी रहे हैं जिन्हांेेने इन सबका किसी ना किसी रूप में अपना सहयोग किया होगा उनकी खोज करना अत्यन्त आवश्यक है । हमें इनके त्याग बलिदान,समर्पण से बहुत कुछ सीखना चाहिए । 

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