Monday, August 29, 2022

आत्मा के उत्थान का पर्व है :दश लक्षण



जैनधर्म में भाद्र मास के शुक्लपक्ष की पंचमी से चतुर्दशी तक दस दिनों तक मनाया जाने वाला दशलक्षण पर्व विश्व का अद्वितीय आध्यात्मिक पर्व है । इसे पर्युषण पर्व भी कहा जाता है । इस पर्व में जैनधर्मावलम्बियों के द्वारा जिनेन्द्र प्रभु की विशेष अर्चना और भक्ति के साथ-साथ आत्मपरिष्कार के लिए तप, त्याग और संयम की विशेष साधना की जाती है । 

जैनधर्म की मान्यता है कि आत्मा की यात्रा अनादि काल से अनवरत चल रही है । इस यात्रा में आत्मा ने सूक्ष्म जीव जन्तुओं से लेकर पशु - पक्षी आदि विविध रूपों को धारण किया है । इस यात्रा में आत्मा ने अनेक बार मनुष्य जन्म भी प्राप्त किया है । सभी जन्मों में मनुष्य जन्म को श्रेष्ठ माना गया है । इस श्रेष्ठता का कारण न तो मनुष्य की शारीरिक शक्ति, सौन्दर्य एवं बुद्धि है और न ही उसे मिलने वाले विषय भोग और सुख साधन हैं । ये सभी सांसारिक शक्ति और समृद्धि तो देवों में प्रचुरता से हैं । इन सांसारिक सुख साधनों की अधिकता से जो श्रेष्ठता प्राप्त होती है वह नश्वर होती है । इसलिए देवों की श्रेष्ठता भी नश्वर है । मनुष्य जन्म सर्वश्रेष्ठ इसलिए है ,क्योंकि एकमात्र मनुष्य ही है जो शाश्वत और अविनाशी श्रेष्ठता को प्राप्त करने का अधिकारी है । इसका कारण यह है कि आत्मा की अनन्त यात्रा में मनुष्य जन्म एक ऐसे पड़ाव की तरह है जहाँ उसकी चेतना परिष्कृत होती है और स्वयं को नियन्त्रित करने की चरम शक्ति होती है । जब मनुष्य अपनी इन शक्तियों को पहचान कर स्वयं को अनुशासित कर संयम और तप की साधना करता है तो वह अपनी शाश्वत अवस्था के या तो निकट पहुँच जाता है या अपनी शाश्वत अवस्था को प्राप्त कर लेता है । 


सम्यग्दृष्टि आत्मा के द्वारा स्वयं की शाश्वत सम्पदा को प्राप्त करने का पुरुषार्थ सतत चलता रहता है । दशलक्षण पर्व या पर्युषण पर्व उस पुरुषार्थ को और अधिक बढ़ाने का अवसर प्रदान करते हैं । ये पर्व साधना पथ पर होने वाली भटकन को रोककर पुनः लक्ष्य की ओर केन्द्रित कर देते हैं । पर्व शब्द का अर्थ ही है जोड़ना । स्वयं को स्वयं के लक्ष्य से जोड़ना । लक्ष्य प्राप्त होने पर तो जुड़ने या जोड़ने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है । वस्तुतः देखा जाए तो मुक्त होने की साधना किसी से जुड़कर नहीं हो सकती है । यह साधना तो अनादि से जुड़े हुए विकारों और वासनाओं से अलग होने की साधना है । आत्मा का कषायों और विकारों से जुड़े रहना आत्मा का विभाव है और इन कषायों और विकारों से पृथक् होना स्वभाव है ।


 जैनधर्म का यह उद्घोष है कि "वत्थु सहाओ धम्मो" अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म है । इसलिए आत्मा का स्वभाव ही आत्मा का वास्तविक धर्म है । वास्तविक इसलिए है, क्योंकि यह शाश्वत होता है और इसकी अनुभूति स्वाश्रित और स्वाधीन है । स्वभाव का आनन्द किसी साधन पर आश्रित नहीं है । साधनों को भोगने और उनके संग्रह एवं स्वामित्व से जो सुख प्राप्त होता है वह वास्तविक सुख न होकर सुख जैसा प्रतीत होने वाला दुःख ही है । 


आत्मा में स्वाभाविक रूप से विद्यमान शाश्वत गुण ही उसके धर्म हैं । जैन शास्त्रों में उत्तम क्षमा,उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम , उत्तम तप , उत्तम त्याग , उत्तम आकिंचन्य एवं उत्तम ब्रह्मचर्य को आत्मा का धर्म कहा है । इन्हें धर्म इसलिए कहा है, क्योंकि ये आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं । आत्मा में क्षमा आदि की तरह अनन्त स्वाभाविक गुण विद्यमान हैं , परन्तु ये दशधर्म आत्मा के प्रमुख गुण हैं । इन सभी स्वाभाविक गुणों को न तो आत्मा में उत्पन्न किया जा सकता है और न ही इन गुणों को नष्ट किया जा सकता है । मोह, मिथ्यात्व और अज्ञान के कारण इन गुणों पर एक आवरण पड़ जाता है । दशलक्षण पर्व के दश दिनों में इन आवरणों को हटाकर क्षमा आदि शाश्वत गुणों के प्रकटीकरण के लिए तप और संयम की साधना की जाती है । पर्व की साधना का मूल उद्देश्य आत्मा को विभावों या विकारों से हटाकर स्वभाव में केन्द्रित करने की है । 


उत्तम क्षमा,मार्दव,आर्जव एवं शौच गुणों के विभाव या विरोधी क्रोध,मान,माया और लोभ हैं । ये चारों ही विभाव आत्मा के विरोधी हैं,विकार हैं,स्वभाव के प्रकटीकरण में बाधक हैं । ये आत्मा के लिए कष्टकारी हैं इसलिए जैनशास्त्रों में इन्हें कषाय कहा गया है । क्रोध को छोड़कर ही आत्मा में क्षमा धर्म प्रकट हो सकता है । घृणा,बैर और द्वेष आदि विकृत मनोभाव भी क्रोध के ही रूप हैं । मान या अहंकार को छोड़कर आत्मा में मृदुता या कोमलता प्रकट करना ही मार्दव धर्म है । माया या छल कपट का विसर्जन करके आत्मा का सरल होना ही आर्जव धर्म है । लोभ लालच की मलिनता को हटाकर आत्मा को शुचि या पवित्र बनाना ही शौच धर्म है । असत्य वाणी, विचार और व्यवहार को छोड़ना ही सत्यधर्म है ।



इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण प्राप्त करना ही उत्तम संयम धर्म है । संयम के बिना व्रत नियमों की साधना भी संभव नहीं है । संयम के मूल में अहिंसा की पवित्र भावना है । पाँच इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण यदि इन्द्रिय संयम है तो सभी सूक्ष्म और स्थूल प्राणियों की रक्षा करना प्राणि-संयम है । इन्द्रिय संयम और प्राणि-संयम दोनों ही एक दूसरे की पूरक हैं । इन्द्रियजय के बिना हिंसा से नहीं बचा जा सकता है और अहिंसा की पवित्र भावना के बिना इन्द्रियजय भी निरर्थक है । संयम की साधना धीरे-धीरे तप की ओर ले जाती है । 


अपनी इच्छाओं को छोड़कर आत्मोन्मुखी होना उत्तम तप है । तप करने का उद्देश्य यदि सांसारिक सिद्धियां और लौकिक मनोकामनाओं की पूर्ति करना है तो ऐसा अज्ञानतापूर्ण तप व्यर्थ है । तप का मूल उद्देश्य अनादिकाल से कर्मबंधन में बद्ध आत्मा को कर्मबंधन से मुक्त करना है । इसे जैनशास्त्रों में कर्मनिर्जरा कहा है । कर्मनिर्जरा के लिए ही व्रत,उपवास,ध्यान एवं स्वाध्याय आदि तप किए जाते हैं । इन सभी तप क्रियाओं को शरीर की शक्ति और संहनन के अनुसार करना चाहिए । तपस्वी को आकुल-व्याकुल परिणाम छोड़ना चाहिए और सांसारिक कार्यों से रुचि हटाकर आत्मा और परमात्मा के ध्यान में चित्त लगाना चाहिए । तप के लिए भेदविज्ञान का ज्ञान और अभ्यास आवश्यक है । आत्मा और शरीर साथ रहते हुए भी भिन्न- भिन्न स्वभाव वाले द्रव्य हैं । शरीर से मैं भिन्न हूँ । मुझे शरीर से राग नहीं करना चाहिए - यही भावना भेदविज्ञान है ।


आत्मकल्याण के लिए तप के साथ-साथ त्याग धर्म का पालन करना भी अनिवार्य है । गृहस्थों के लिए दान क्रिया ही त्याग धर्म है । आत्मकल्याण के लिए उत्तम पात्रों को आहार,औषधि,शास्त्र आदि विधिपूर्वक दान देना त्यागधर्म है । गृहत्यागी श्रमणों को उत्तम पात्र कहा गया है । मोक्षमार्ग पर चलने वाले अन्य साधक भी पात्र हैं । दान देने वाले दाता में पात्र के प्रति श्रद्धा और विनय होनी चाहिए । दाता को संतोषी और निरभिमानी होना चाहिए । वस्तुतः पर पदार्थों के प्रति राग-द्वेष को छोड़ना ही उत्तम त्यागधर्म है । त्याग धर्म में पर पदार्थों और उनके प्रति राग से आंशिक निवृत्ति होती है । वस्तुओं का दान करने के लिए पहले वस्तुओं को ग्रहण करना पड़ता है ।


 जब साधक समस्त प्रकार के धन सम्पत्ति आदि बाह्य परिग्रह और लोभ, मोह आदि अन्तरंग परिग्रह से मुक्त होने की साधना करता है तब उसकी आत्मा में उत्तम आकिञ्चन्य धर्म प्रकट होता है । आत्म गुणों के अतिरिक्त अन्य सभी पर पदार्थों और उनके रागभाव से शून्य होना ही आकिञ्चन्य धर्म है ।


 समस्त परिग्रह के त्याग से जो रिक्तता या खालीपन आ जाता है वह दुःखद नहीं है । पर पदार्थों से राग समाप्त होने पर आत्मा का उपयोग शुद्ध होकर स्वयं में लीन होकर अक्षय और असीम आनन्द की अनुभूति करने लगता है । यही उत्तम ब्रह्मचर्य है । ब्रह्म का अर्थ आत्मा है और चर्य का अर्थ लीनता या विचरण करना है । स्वयं में स्वयं की लीनता से प्राप्त होने वाला सुख अवर्णनीय और अकल्पनीय है । इसके आगे पांँच इन्द्रियों के द्वारा काम वासना और भोगों से मिलने वाला सुख तुच्छ है ।स्त्री पुरुषों में परस्पर दैहिक सम्बन्धों से उत्पन्न सुख क्षणिक और पापजन्य होने के कारण अब्रह्म है । इसलिए साधक ब्रह्मचारी की दृष्टि में पवित्रता रहती है । ब्रह्मचर्य की साधना के लिए स्त्रियों के प्रति विकार भाव छोड़कर उनके प्रति माता बहिन के समान दृष्टि रखना आवश्यक है । 


क्षमा आदि गुण तब उत्तम अवस्था को प्राप्त होते हैं जब कषायों से रहित होकर इन्हें आत्मा में अन्तरंग से प्रकट किया जाता है । यदि लोभ और स्वार्थ की पूर्ति के लिए कोई क्षमा धारण करता है तो वह मात्र कषाय परिवर्तन करता है । वह अपने क्रोध को लोभ में बदल देता है । कषाय परिवर्तन का नाम धर्म नहीं है । धर्म तो कषाय के उन्मूलन से प्रकट होता है । आत्मपरिणामों में विशुद्धि और क्रियाचरण में पवित्रता से आत्मोत्थान होता है । यही उत्तम क्षमा आदि दशधर्मों के परिपालन का ध्येय है ।

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