Sunday, April 24, 2022

पंचक शुभाशुभ

 पंचक में किए जा सकते हैं शुभ कार्य..


 भारतीय ज्योतिष में पंचक को अशुभ माना गया है। हालांकि कुछ ज्योतिष मानते हैं कि पंचक में आने वाले नक्षत्रों में शुभ कार्य हो भी  किये जा सकते हैं।


 पंचक में आने वाला उत्तराभाद्रपद नक्षत्र वार के साथ मिलकर सर्वार्थसिद्धि योग बनाता है, वहीं धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद व रेवती नक्षत्र यात्रा, व्यापार, मुंडन आदि शुभ कार्यों में श्रेष्ठ माने गए हैं।


 धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तरा भाद्रपद, पूर्वा भाद्रपद व रेवती नक्षत्र कुछ विशेष काम वर्जित किये गए हैं।


 1. रोग पंचक.....


 रविवार को शुरू होने वाले इस पंचक के प्रभाव से पांच दिन शारीरिक और मानसिक परेशानियों रह सकती हैं। इस दौरान कोई शुभ काम नहीं करना चाहिए,  हर तरह के मांगलिक कार्यों में ये पंचक अशुभ माना गया है।


2.राज पंचक....


 सोमवार को शुरू होने वाला पंचक राज पंचक कहलाता है। ये पंचक शुभ माना जाता है। इसके प्रभाव से इन पांच दिनों में सरकारी कामों में सफलता मिलती है। राज पंचक में संपत्ति से जुड़े काम करना भी शुभ रहता है।


 3.अग्नि पंचक.....


 मंगलवार को शुरू होने वाला पंचक अग्नि पंचक कहलाता है। इन पांच दिनों में कोर्ट कचहरी और विवाद आदि के फैसले, अपना हक प्राप्त करने वाले काम किए जा सकते हैं। 


इस पंचक में अग्नि का भय होता है। इस पंचक में किसी भी तरह का निर्माण कार्य, औजार और मशीनरी कामों की शुरुआत करना अशुभ माना गया है।


4. मृत्यु पंचक....


शनिवार को शुरू होने वाला पंचक मृत्यु पंचक कहलाता है। नाम से ही पता चलता है कि ये पंचक मृत्यु के बराबर परेशानी देने वाला होता है। इसके प्रभाव से विवाद, चोट, दुर्घटना आदि होने का खतरा रहता है।


5. चोर पंचक....


 शुक्रवार को शुरू होने वाला पंचक चोर पंचक कहलाता है। विद्वानों के अनुसार, इस पंचक में यात्रा करने की मनाही है।


 इस पंचक में लेन-देन, व्यापार और किसी भी तरह के सौदे भी नहीं करने चाहिए।


 बुधवार और गुरुवार को शुरू होने वाले पंचक में ऊपर दी गई बातों का पालन करना जरूरी नहीं माना गया है।


 इन दो दिनों में शुरू होने वाले दिनों में पंचक के पांच कामों के अलावा किसी भी तरह के शुभ काम किए जा सकते हैं।


 पंचक में शव का अंतिम संस्कार करने से पहले किसी योग्य पंडित की सलाह अवश्य लेनी चाहिए।


शव के साथ पांच पुतले आटे या कुश (एक प्रकार की घास) से बनाकर अर्थी पर रखना चाहिए और इन पांचों का भी शव की तरह पूर्ण विधि-विधान से अंतिम संस्कार करना चाहिए, तो पंचक दोष समाप्त हो जाता है। ऐसा गरुड़ पुराण में भी लिखा है।


ये शुभ कार्य कर सकते हैं


1. घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र चल संज्ञक माने जाते हैं। इनमें चलित काम करना शुभ माना गया है जैसे-यात्रा करना, वाहन खरीदना, मशीनरी संबंधित काम शुरू करना शुभ माना गया है।


2. उत्तराभाद्रपद नक्षत्र स्थिर संज्ञक नक्षत्र माना गया है। इसमें स्थिरता वाले काम करने चाहिए जैसे- बीज बोना, गृह प्रवेश, शांति पूजन और जमीन से जुड़े स्थिर कार्य करने में सफलता मिलती है।


3. रेवती नक्षत्र मैत्री संज्ञक होने से इस नक्षत्र में कपड़े, व्यापार से संबंधित सौदे करना, किसी विवाद का निपटारा करना, गहने खरीदना आदि काम शुभ माने गए हैं।

Saturday, April 23, 2022

योग शास्त्र में छः अध्व

 योग शास्त्र में छः अध्व माने गये है। 


जो सूक्ष्म से स्थूल की ओर जाकर जगत का रूप लेते है। छः अध्व है। 


१ भुवन

२ तत्व

३ कला

४ मन्त्र

५ पद 

६ वर्ण


इनसे पद व मन्त्र बनते है।  इसी प्रकार कला का सूक्ष्म है। तथा इसी से तत्व व भुवन की रचना होती है। 


जो स्थूल रूप है। इस प्रकार यह सारा जगत सूक्ष्म और पररूप में विद्यमान है। योगी इस पर चलकर सूक्ष्म का चिंतन करे तथा सूक्ष्म से भी पर स्वरूप का चिंतन करता हुवा उसी में अपने को बीलिन कर दे।


यही सारा विश्व उस विश्व और विश्वात्मक उस परब्रह्म की क्रिया शक्ति का विस्तार है। यह शब्द ब्रह्म ही छः अध्व रूप होता है।


अतः पर ही सूक्ष्म में तथा सूक्ष्म ही स्थूल में विद्यमान रहता है। ब्याप्य ब्यापक भाव से ब्यापक वाप्य रहता है।


जिस प्रकार वर्ण से पद बनते है। उसी प्रकार कला से ही तत्व व भुवन बनते है। वे सब सूक्ष्म से ही स्थूल रूप लेते है। जो अभिन्न रूप से स्थूल में विद्यमान रहते है। 


इनको भिन्न भिन्न नही माना जा सकता जिस  प्रकार घट में मिट्टी रहती है। इसी प्रकार बाद में आविभ्रृत होने वाला पदार्थ अपने पूर्णवर्ती कारण तत्व में विद्यमान रहता ही है। 


जैसे बीज में पूरा वृक्ष सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहता ही है। अन्यथा वह प्रकट कैसे हो सकता है? 


इस प्रकार विश्व के सभी पदार्थ अपने कारणतत्व मे विद्यमान रहते है। अतः सभी पदार्थ एक दूसरे से सम्बंध है। अतः ये सब सर्वात्मक है। और ये सभी उस परमेस्वर की स्वातन्त्र्य का ही विलाश है।


योगी को स्थूल से सूक्ष्म में तथा सूक्ष्म से पर भाव मे अर्थात चिन्मय के वोध में अपने मन का विलयन कर देना चाहये इसी प्रक्रिया से साधक का चित्त शिवशक्ति में विलीन हो जाता है। इस सारी शक्ति का अधिपति महेष्वर है। जो पराशक्ति के अधिष्ठाता है।


ओ३म

Tuesday, April 19, 2022

रामायण के भौगोलिक एवं ऐतिहासिक स्थान

 #रामायण_में_वर्णित_भौगोलिक मुख्य_स्थान ::


1.#तमसानदी : अयोध्या से 20 किमी दूर है तमसा नदी। यहां पर उन्होंने नाव से नदी पार की।

 

2.#श्रृंगवेरपुरतीर्थ : प्रयागराज से 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था। श्रृंगवेरपुर को वर्तमान में सिंगरौर कहा जाता है।

 

3.#कुरईगांव : सिंगरौर में गंगा पार कर श्रीराम कुरई में रुके थे।

 

4.#प्रयाग: कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे। कुछ महीने पहले तक प्रयाग को इलाहाबाद कहा जाता था ।

 

5.#चित्रकूट : प्रभु श्रीराम ने प्रयाग संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। तब जब दशरथ का देहांत हो जाता है। भारत यहां से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।

 

6.#सतना: चित्रकूट के पास ही सतना (मध्यप्रदेश) स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। हालांकि अनुसूइया पति महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे, लेकिन सतना में 'रामवन' नामक स्थान पर भी श्रीराम रुके थे, जहां ऋषि अत्रि का एक ओर आश्रम था।

 

7.#दंडकारण्य: चित्रकूट से निकलकर श्रीराम घने वन में पहुंच गए। असल में यहीं था उनका वनवास। इस वन को उस काल में दंडकारण्य कहा जाता था। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों को मिलाकर दंडकाराण्य था। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के अधिकतर हिस्से शामिल हैं। दरअसल, उड़ीसा की महानदी के इस पास से गोदावरी तक दंडकारण्य का क्षेत्र फैला हुआ था। इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे। स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।

 

8.#पंचवटीनासिक : दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। यह आश्रम नासिक के पंचवटी क्षे‍त्र में है जो गोदावरी नदी के किनारे बसा है। यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। राम-लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है।

 

9.#सर्वतीर्थ: नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया था जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड गांव में 'सर्वतीर्थ' नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है। जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पर हुई, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में मौजूद है। इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। रामजी ने यहां जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का श्राद्ध-तर्पण किया था। इसी तीर्थ पर लक्ष्मण रेखा थी।

 

10.#पर्णशाला: पर्णशाला आंध्रप्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित है। रामालय से लगभग 1 घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को 'पनशाला' या 'पनसाला' भी कहते हैं। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां से सीताजी का हरण हुआ था। हालांकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना विमान उतारा था। इस स्थल से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बिठाया था यानी सीताजी ने धरती यहां छोड़ी थी। इसी से वास्तविक हरण का स्थल यह माना जाता है। यहां पर राम-सीता का प्राचीन मंदिर है।

 

11.#तुंगभद्रा: सर्वतीर्थ और पर्णशाला के बाद श्रीराम-लक्ष्मण सीता की खोज में तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।

 

12.#शबरी_का_आश्रम : तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्‍मण चले सीता की खोज में। जटायु और कबंध से मिलने के पश्‍चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है। शबरी जाति से भीलनी थीं और उनका नाम था श्रमणा। 'पम्पा' तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम है। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। पौराणिक ग्रंथ 'रामायण' में हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है। केरल का प्रसिद्ध 'सबरिमलय मंदिर' तीर्थ इसी नदी के तट पर स्थित है।

 

13.#ऋष्यमूक_पर्वत : मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया। ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है। पास की पहाड़ी को 'मतंग पर्वत' माना जाता है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था जो हनुमानजी के गुरु थे।

 

14.#कोडीकरई : हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने वानर सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है, जो लगभग 1,000 किमी तक विस्‍तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और दक्षिण में पाल्‍क स्‍ट्रेट से घिरा हुआ है। यहां श्रीराम की सेना ने पड़ाव डाला और श्रीराम ने अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित कर विचार विमर्ष किया। लेकिन राम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तब श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया।

 

15..#रामेश्‍वरम: रामेश्‍वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है। रामेश्‍वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है। महाकाव्‍य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवान शिव की पूजा की थी। रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है।

 

16.#धनुषकोडी : वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला, जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया। धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। धनुषकोडी पंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्‍नार से करीब 18 मील पश्‍चिम में है।

 

इसका नाम धनुषकोडी इसलिए है कि यहां से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नल और नील ने जो पुल (रामसेतु) बनाया था उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है। इन पूरे इलाकों को मन्नार समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्‍थलीय सीमा है, जहां समुद्र नदी की गहराई जितना है जिसमें कहीं-कहीं भूमि नजर आती है।

 

17.'#नुवारा_एलिया' पर्वत श्रृंखला :

 वाल्मीकिय-रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। 'नुवारा एलिया' पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है।

 

श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है। आजकल भी इन स्थानों की भौगोलिक विशेषताएं, जीव, वनस्पति तथा स्मारक आदि बिलकुल वैसे ही हैं जैसे कि रामायण में वर्णित किए गए है।


#रामायण.।।

Tuesday, April 12, 2022

भगवान महावीर के अपराध उन्मूलक एवं विश्वशांति के अभिकरण सिद्धांत तथा भारतीय दंड संहिता। डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य

 महावीरोत्सव 2022 के उपलक्ष्य में                                  *भगवान महावीर के अपराध उन्मूलक एवं विश्वशांति के अभिकरण सिद्धांत तथा भारतीय दंड संहिता*    📚📚📚📚📚📚📚📚📚📚📚📚📓📓📓📔📓          *डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य*  

 अध्यक्ष, संस्कृत विभाग,

एकलव्य विश्वविद्यालय दमोह मध्यप्रदेश ©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©  


          भारत को संस्कारित एवं सुव्यवस्थित करने में मूलत: वैदिक संस्कृति एवं श्रमण संस्कृति का अवदान अविस्मरणीय है । दोनों संस्कृतियों ने एक दूसरे को सुरक्षित रखा जैन संस्कृति के निवृत्ति परक सिद्धांतों ने वैदिक संस्कृति को तथा वैदिक संस्कृति के भक्ति परक  गुणानुवाद प्रवृत्ति ने जैन संस्कृति को प्रभावित किया। जैन धर्म शाश्वत सिद्धांतों पर आधारित है, जिनका प्रथम प्रतिपादन एवं विवेचन भगवान ऋषभदेव ने किया था यह सभी सिद्धांत 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर तक प्रवर्तमान रहे । भगवान महावीर श्रमण संस्कृति के प्रमुख उन्नायक थे । आपने जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया था, वे किसी वर्ग विशेष से संबंद्ध ना होकर सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक होने से ,वे भगवान महावीर के काल की सामाजिक धार्मिक आर्थिक  राजनैतिक परिस्थितियों में जितने उपयोगी थे,वे  आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय की भावना से ओतप्रोत थे । जिसके कारण जन्म सामान्य का  सुदृढ़ समाज, निरपराधी, न्याय अध्यात्म सहिष्णुता अहिंसा आत्म कल्याण और विश्व शांति की ओर  मार्ग प्रशस्त हो सके ।इसीलिए उन्होंने पांच व्रतों की अवधारणा पर अधिक बल दिया

 *व्रत की अवधारणा* भगवान महावीर ने विश्व शांति एवं विश्व कल्याण और प्राणी मात्र के कल्याण की भावना से समाज की तत्कालीन परिस्थितियों,समाज में व्याप्त विषमताओं, अन्याय, अधिकार हनन आदि दूरवस्था को देख उन्होंने आध्यात्मिक क्रांति के द्वारा उन्हें दूर करने का निर्णय लिया और वे त्यागी तपस्वी और ज्ञानी बन कर इस कार्य में अग्रसर हुए उन्होंने लोक कल्याण के लिए -अहिंसा,सत्य,अचौर्य  और अपरिग्रहादि पांच व्रतोंकी अवधारणा को समाज के सामने अपने आचरण और उपदेशों के माध्यम से स्थापित किया जिससे समाज में व्याप्त बुराइयों पर नियंत्रण होना प्रारंभ हो गया जैन धर्म के अनुसार भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान पार्श्वनाथ के काल तक चातुर्याम धर्म प्रभावना में -अहिंसा सत्य,अस्तेय और अपरिग्रह को विशेष महत्व दिया जाता था ,तथा अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने पंच व्रतो और महाव्रतों की उद्भभावना करते हुए समग्र धर्म व्यवस्था को नवीन दिशा प्रदान की

 भगवान महावीर के द्वारा प्रतिपादित पंच महाव्रत एवं अणुव्रतरूप व्रतों को श्रमण और श्रावक के आध्यात्मिक जीवन का उत्कर्ष तथा मूल आधार कहा जाता है । इन  पंचव्रतों की परिभाषाओं, भावनाओं को उनके अतिचारों (दोषों)का अध्ययन करने से श्रमण और श्रावक स्वत: ही अपराध से मुक्त हो जाता है या जिनसे अपराध हुए हैं उन्हें स्वयं के अपराधों का बोध हो जाने से वह अपराध जन्य निराशा, हताशा, कुंठा,अस्थिरता आदि अनेक नकारात्मक मनोविकारों से मुक्त हो जाते हैं क्योंकि महावीर ने व्रतों को राग-द्वेष,शुभ-अशुभ रुप पापों की निवृत्ति का बुद्धि पूर्वक दृढ़ संकल्प कर जीवों पर अनुकंपा,दया,संयमधारण, सदाचरण ,मर्यादा पालन कर  आत्मशुद्धि पूर्वक करने का अमोघ उपाय माना है।  जो विश्व कल्याण एवं विश्व शांति के लिए आवश्यक है ।

 हिंसा झूठ चोरी कुशील और परिग्रह को जैन साधना पद्धति में पाप की संज्ञा से संज्ञापित किया गया है । श्रमण इनका  पूर्णतया त्यागी होता है सो महाव्रती कहा जाता है तथा श्रावक (गृहस्थ) इनका आंशिक त्यागी होकर पूर्णता त्यागी बनने के लिए सतत प्रयत्नशील रहकर वहअहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना में संलग्न रहता है । जैन आचार संहिता में वर्णित इन पांच पापों को संसार के समस्त अपराधों का जन्म स्थान कहा गया है और इनके कुफलों एवं दंड की चर्चा भी विस्तृत रूप से जैन आचार ग्रंथों में जैन आचार्यों एवं विद्वानों के द्वारा की गई है । इस लेख के माध्यम से मैं भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अपराध निर्मूलक पांच सिद्धांतों को भारतीय दंड विधान से जोड़कर सुधी पाठकों के मध्य प्रस्तुत कर रहा हूं जो सामान्य श्रावकों  के विधिक ज्ञान में वृद्धि करने में सहायक होगा ।

*पांच पाप व्रत और भारतीय दंड विधान*  जैन दर्शन में हिंसा,  झूठ, चोरी, कुशील एवं परिग्रह को पांच पापों  की श्रेणी में रखा गया है ।  इन्हें जीव के इह लोक एवं परलोक पतन में कारण भी बताया गया है क्योंकि इन पांचों के आश्रय से जीव अनेकों अनेकों दोषों-अपराधों को जन्म देता है। भारतीय दंड संहिता में भी अपराधों में प्रमुख रूप से हिंसा, झूठ (असत्य)' चोरी 'कुशील (यौन अपराध) परिग्रह (संपत्ति,कर) आदि को प्रमुख अपराध माना है तथा इनके आश्रित अन्य दोषों को भी अपराध की श्रेणी में मान्यता ही नहीं दी है अपितु दंड का निर्धारण भी किया गया है । सभी अपराधों पर अलग-अलग धाराओं का निर्माण कानून निर्माताओं के द्वारा किया गया है भारतीय दंड संहिता के निर्माण के समय जैन धर्म का प्रभाव भारतीय दंड संहिता में स्पष्ट दिखाई देता है ।

 *हिंसा पाप*- प्रमत्त योगात प्राण व्यपरोपणं हिंसा प्रमाद अर्थात अयत्न,असावधानी के योग से  किसी जीव के प्राणों का घात- जिसमें उसके द्रव्य प्राण(शरीरिकरूप)भाव प्राण  (भावनात्मक विचारात्मक) का वियोग करना हिंसा है ।।       

       

  *अहिंसाणु व्रत की भावनाएं* -


वचन की प्रवृत्ति तथा मन की प्रवृत्ति को रोकना, जमीन को चार हाथ आगे देख कर चलना आदि भावनाएं एक अहिंसक की भावनाएं हैं । अतिचार या दोष  -वध, बन्धन,अंग छेदन,  अतिभार आरोपण और अन्न पान निरोध कराना  यह पांच अ अहिंसानुव्रत के अतिचार हैं दोष है और यह हिंसा को बढ़ावा देते हैं जिन्हें जैन दर्शन में दोष माना गया है उन्हें भारतीय दंड विधान में भी अपराध की श्रेणी में रखा गया है                                *हिंसा से संबंधित धाराएं* -धारा 302 धारा 304 धारा 304(अ) धारा 96से 106 तथा घरेलू हिंसा धारा 294 धारा 342 धारा 323 धारा 325 धारा 370 धारा 376 श्रम कानून अधिनियम बाल अधिकार अधिनियम 498 ये  समस्त धारायें हिंसा से संबंधित हैं।                      भगवान महावीर की अहिंसा वैचारिक हिंसा को भी हिंसा मानती है । यदि कोई इस नियम का पालन करे तो कहीं भी हिंसा ना हो, जिससे अपराध प्रवृति रुक जाएगी क्योंकि अहिंसानुव्रत का पालक स्वतः ही उपरोक्त अपराधों से परे हो जाता है ।


*झूँठ पाप* *असदभिधानमनृतम।*     


असत का अभिधान करना असत्य है । प्रमाद आलस्य के योग से जीवों को दुखदायक मिथ्यारूप वचन  बोलने को असत्य कहते हैं । जिसके अंतर्गत यथार्थ को छोड़ यथार्थ को कथन करना, यथारूप बात ना कहना, कषायाविष्ट होकर क्रोध,मान, मायाचारी और लोभ के प्रभाव में आकर दुर्भावनापूर्ण वचनों के प्रयोग करने को  झूठ कहा जाता ।हित मित्र प्रिय वचनों का प्रयोग करना सत्य है और सत्य से समाज में प्रतिष्ठा स्थापित होती है तो असत्य से खण्डित होती है  सत्यव्रत की भावनाएं- एक सत्यभाषी,सत्य निष्ठ सत्यव्रती के लिए क्रोध लोभ भय हास्य का त्याग कर शास्त्र सम्मत वचनों के प्रयोग का संकल्पी होना अनिवार्य है ।                 

 *सत्यव्रत के अतिचार दोष-*

 मिथ्या उपदेश करना, गोपनीयता भंग करना, मिथ्या लेखन एवं कूट लेखन करना, धरोहरको  हड़पना, गबन करना, गुप्त बातों का सार्वजिनिक करना सत्यव्रती के लिए महान दोष का कारण है ।।                   


 भारतीय दंड संहिता में क्रोध, लोभ, भय, हास्य के प्राश्रय से अपमान के उद्देश्य अनावश्यक अनर्गल वार्तालाप छल कपट आदि को अपराध माना गया है । *असत्य से संबंधित कानूनी धाराएं* धारा 500, 417,419, 191, 177 ,203,110 से लेकर 120 तक ,120 ख, धारा 124 क, धारा 232-233-234- 235 धारा 255, 257,477 अ, धारा 208- 209 आदि समस्त धाराएं सत्यानुव्रत के अतिचारों  से संबंधित धाराएं हैं जिन्हें भारतीय दंड विधान में अपराध माना गया है और झूठ,फरेब, जालसाजी षड्यंत्र, संपत्ति हड़पना आदि के निराकरण हेतु प्रयोग किया जाता है भगवान महावीर  द्वारा उपदेशित सत्यानुव्रत का पालन करने वाले जन सामान्य के मन में इन अपराधों का स्थान ही नहीं रहता। वह सदा सत्य का सन्धाता रहता है ,असत्य का त्यागी  होता है । 


*चोरी पाप*-अदत्ता दानं स्तेयम 7/15 


 प्रमाद के योग से बिना दी हुई किसी वस्तु के ग्रहण करने को चोरी कहते हैं इसका त्याग करना अचौर्य व्रत कहलाता है । सामान्य शब्दों में कहें तो किसी की रखी हुई पड़ी हुई वस्तु को उसके स्वामी की आज्ञा के बिना ग्रहण करना चोरी है। चोरी की है यह सूक्ष्म  परिभाषा जैन दर्शन में ही प्राप्त होती है ।

 *अचौर्यव्रत की भावनाएं-*

 निर्जन स्थानों किराए की अथवा खाली मकान को स्वयं का ना मानना, स्वयं निवास करना एवं अन्य को करने देना, मानवीय आवश्यकताओं हेतु कदाचण ना करना, आनावश्यक अधिकार हेतु  सधर्मीयों  से विवाद ना करना ये अचौर्य व्रत की भावनाएं है। जिससे उनका व्रत दृढ़ होता है ।   *अचौर्य व्रत अतिचार* -चोरी करने की प्रेरणा एवं उपाय बताना, चुराए हुए माल को खरीदना ,शासन एवं शासक के विरुद्ध कार्य करना ,शासकीय करों की चोरी करना, नापतोल परिमाण में घटा बड़ी करना, समान दिखने वाली वस्तुओं में व्यापारिक लाभ हेतु मिलावट करना आदि यह चोरी को बढ़ावा देने वाले दोष हैं । अचौर्य व्रती को इनसे बचना चाहिए ।कानून की दृष्टि से ये अपराध है।


चोरी से संबंधित कानूनी धाराएं 


धारा 379, 380, 381, 392,414, 363, 363 क, धारा 411, 412, 413, 216, 153 ख, 171 ख, धारा 265, 266, 267, 246, 247, धारा 270 ,272 ,273, 274, 275, 260 और 249 यह सभी धाराएं चोरी से संबंधित धाराएं हैं ।जो अपराध निराकरण में सहायक होती हैं और अपराधी को दंडित करने में सक्षम है भगवान महावीर स्वामी के द्वारा उपदेशित अचौरव्रत का पालन करने से इन सभी धाराओं के दंड से बचा जा सकता है ।।   

     

  *कुशील पाप-* मैथुनमब्रह्म


 मैथुन को अब्रह्म कहा है तथा मैथुन का त्याग ब्रह्मचर्य है ।प्रत्येक जीव के आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार  संज्ञाए होती हैं या यूं कहें यह चार आवश्यकताएं होती है जिनमें से मैथुन संज्ञा कुशील पाप  में मुख्य भूमिका निभाती है। असंयम ही इस पाप  में मुख्य कारण है जिसके कारण प्राणी का स्वयं की इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं रह पाता है और वह कुशील पाप में प्रवृत्त हो जाता है। जैन धर्म एवं दर्शन में ब्रह्मचर्य व्रत का उपाय ही कुशील पाप से बचा सकने में सक्षम है।।                                      जीवन के विकास एवं सामाजिक उत्थान, धार्मिक, सांस्कृतिक,आध्यात्मिक एवं न्याय आदि अनेक दृष्टियों से इस व्रत का पालन श्रेष्ठ है। ब्रह्मचर्य व्रत को स्वदारसंतोष व्रत कहा जाता है जिसका अर्थ यह है कि स्वयं की पत्नी में संतुष्टि रखने का संकल्प करना और शेष समस्त स्त्री जाति चाहे वह मनुष्य तिर्यंच,देव जाति की जड़-चेतन स्त्रियां हो उनका मन वचन काया से उनके सेवन का त्याग करना यह व्रत मानसिक वाचनिक एवं शारीरिक रूप से व्रती को समस्त अपराधों से बचाता है दूर रखता है।।                                

  *ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाएं* 

स्त्रियों में राग बढ़ाने वाली कथाओं के पढ़ने सुनने का त्याग,स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखने का त्याग, पूर्व में भोगे भोगों के स्मरण का त्याग कामोद्दीपक पदार्थों का त्याग और अपने शरीर को श्रृंगार करने का त्याग आदि भावनाएं ब्रह्मचर्य व्रत को दृढ़ करती हैं ।। 

           *ब्रह्मचर्य व्रत के  दोष - अतिचार-* 


पर विवाह करण ,स्त्रियों से संबंध एवं संपर्क में रहना, वेश्या स्त्रियों तथा देह व्यापार में संलिप्त स्त्री समूहों से संबंध एवं संपर्क में रहना ,अप्राकृतिक काम सेवन करना, विषय वासनाओं से संबंधित कार्यों को स्वयं करना एवं अन्य को प्रेरणा देना यथा- यौन शोषण, अश्लीलता, बाल यौन शोषण ,बाल दुर्व्यवहार, लिंग आधारित शोषण ,बलात्कार ,यौन उत्पीड़न से संबंधित यातनाएं ,स्त्री बंधन ,अपहरण,स्त्री दुष्प्रेरण आदि कार्य करना अपराध की श्रेणी में आते हैं ।।       

      

  *कुशील पाप से संबंधित कानूनी धाराएं* 


धारा 354 अ ब स  , धारा 375, 376, 378 धारा 292 293 धारा 498 ,493 ,494, 496 धारा 370 ,295 का धारा 366 का 372 ,373 बाल दुर्व्यवहार अधिनियम 2003, बाल यौन शोषण अधिनियम 2012, पास्को एक्ट 2012  ये सभी कुशील पाप से सम्बंधित धाराएं हैं । जिनके द्वारा अपराध पर नियंत्रण किया जाता है। पर महावीर भगवान के ब्रह्मचर्याणुव्रत के सिद्धांत का अनुपालन इन अपराधों से स्वत:सुरक्षित रखता है ।।     


 *परिग्रह पाप*                     

  *मूर्च्छा परिग्रह:* मूर्छा से तात्पर्य आसक्ति एवं ममत्व भाव से है, जिसे परिग्रह कहा गया है ।बाह्य धन-धान्य आदि तथा अंतरंग क्रोधादि कषायों ,इन्द्रिय विषयों में  ये मेरे हैं ऐसा भाव मूर्च्छा है और मूर्च्छा को परिग्रह कहते हैं । धन -संपत्ति की आसक्ति ,लोभ ही  पारिवारिक कलह ,आपसी मनमुटाव,अधिकार-"उत्तराधिकार की भावनाओं को जन्म देता है । जो क्षेत्र-वास्तु,हिरण्य-स्वर्ण, धन-धान्य,दासी-दास आदि के आवश्यकता से अधिक संग्रह और उनमें आसक्ति के भाव यह मेरे हैं का भाव उत्पन्न करता है ।जिसे महावीर ने महान दुख का कारण बताया है । परिग्रह परमाण व्रत की भावनाएं स्पर्शन, रसना,घ्राण, चक्षु, कर्ण इन पांच इंद्रियों के विषयों में राग-द्वेष नहीं करना परिग्रहपरमाण व्रत की भावनाएं हैं ।    


                  परिग्रह पाप की कानूनी धाराएं    ----     

  जब आवश्यकता से अधिक संग्रह होता है तो उसके प्रबंधन ,संचालन एवं व्यवस्थापन में समस्या उत्पन्न होने लगती है जिनसे अनेक विषमताओं का जन्म होता है और वे ही विषमताएं अपराध की ओर अग्रसर करती हैं ।परिग्रह के कारण हिंसा-झूठ-चोरी कुशील ये सभी पाप होने लग जाते हैं।  धन-संपत्ति और स्त्री के ममत्व के कारण हिंसादि भाव उत्पन्न होते हैं जो अपराध वृत्ति को बढ़ावा देते हैं । कानूनी धाराओं के विषय में यह कह सकते हैं जो हिंसा ,झूँठ,चोरी और कुशील पाप  की धाराएं हैं वे सभी धाराएं इस पाप में  है अंतर्निहित हैं।।         


 भगवान महावीर के अहिंसादि पांच अणुव्रतों के अतिरिक्त दिग्व्रत,देशव्रत, अर्थदण्ड व्रत, शिक्षा व्रतों का अध्ययन और परिपालन से भारतीय कानून की व्यवस्था में चिंतनीय सहयोग अपराध निर्मूलन में मिलेगा । मेरा एक निवेदन है कि भारत की दंड व्यस्था के साथ महावीर के इन सिद्धांतों का अध्ययन कानून के अध्येताओं को करना चाहिये और जेल में रहने वाले कैदियों को भी इनकी शिक्षा प्रदान की जाना चाहिए । क्योंकि ये सिद्धांत अपराध उन्मूलक हैं और विश्व शांति के अभिकरण हैं ।

भगवान महावीर की अहिंसा का सिद्धांत विश्वयुद्धों की शांति का अमोघ उपाय

 *भगवान महावीर की अहिंसा का सिद्धांत विश्वयुद्धों की शांति का अमोघ उपाय* 


 डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य अध्यक्ष,संस्कृत विभाग, एकलव्य विश्विद्यालय दमोह मध्यप्रदेश


  *भगवान महावीर की अहिंसा*


 अहिंसा का सिद्धांत प्राचीन काल से ही जैन दर्शन में सर्वोपरि रहा है। जैन धर्म में महावीर एवं अहिंसा एक मूलभूत तत्व नहीं अपितु अहिंसा सिद्धांत का प्रतिपादन जैन धर्म के पांच मुख्य सिद्धांतों अहिंसा,सत्य,अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह में भगवान महावीर स्वामी के लिए सर्वोपरि और श्रेष्ठ प्रतिपादक के रूप में स्थान प्रदान करता है ,उन्होंने अहिंसा की परिभाषा प्रतिपादित की है -- मानसिक, वाचनिक, शारीरिक या अस्पष्ट या स्पष्ट रूप से जाने या अनजाने में साभिप्राय  और बिना शर्त के स्वयं से या दूसरों के द्वारा किसी छोटे-बड़े जीव को आघात ना पहुंचाना,आहत ना करना और ना ही हत्या करना है, अहिंसा है ।          

जियो और जीने दो का सिद्धांत वाक्य अहिंसा है । 

दूसरों की पीड़ा दूर करने में सहायता करना और जीने में सहायता एवं प्रेरणा मार्गदर्शन देना अहिंसा है ।।              

*अहिंसक के गुण-*


स्नेह, हर्ष, शांति,सहनशीलता, दया, विश्वसनीयता, सज्जनता तथा आत्मनियंत्रण महावीर की अहिंसा के पालक के गुण हैं । जिनका विकास मानव में होते ही उसके मन में सबके प्रति आदर का भाव, दूसरों के विचारों के प्रति सम्मान, घृणा और मोह का परित्याग,कर्मों के अंत:प्रवाह में कमी, शत्रु के प्रति क्षमा-सद्भावना का सर्वोत्कृष्ट विकास स्वतः ही होने लग जाता है ।।  


 जीव दया, अनुकम्पा,क्षमा संयम,समता, सुखोपलब्धि में सहायता,क्रोधादि कषाय शांति,क्लेशोपशान्ति आदि अनेक गुणों की खान अहिंसा मानव संस्कृति व प्राणी मात्र की संरक्षक होने से विश्व शांति का बीज मंत्र है । जो विश्वयुद्धों को शांत करने में सक्षम है।  


सुत्रकृतांग में कहा भी गया है-

*सर्वाणि सत्वानि सुखे रतानि,*

*दुःखाच्च सर्वाणि समुद विजन्ति ।*

*तस्मात सुखार्थी सुखमेव दद्यात ,*

*सुख प्रदाता लभते सुखानि ।*      

 सभी जीव सुख चाहते हैं, दुख से भयभीत रहते हैं, इसलिए सुखार्थी के लिए सुख देने वाले सुख प्रदाता को सुख की प्राप्ति होती है ।                         

   अर्थात जो व्यवहार  स्वयं के लिए अप्रिय है वह दूसरों के लिए कैसे प्रिय हो सकता है ।

गाय के गोबर का महत्व

 आयुर्वेद ग्रंथों  में हमारे ऋषि मुनियों ने पहले ही बता दिया गया  था कि   *धोवन पानी पीने का वैज्ञानिक तथ्य और आज की आवश्यकता* वायुमण्डल में...