योग शास्त्र में छः अध्व माने गये है।
जो सूक्ष्म से स्थूल की ओर जाकर जगत का रूप लेते है। छः अध्व है।
१ भुवन
२ तत्व
३ कला
४ मन्त्र
५ पद
६ वर्ण
इनसे पद व मन्त्र बनते है। इसी प्रकार कला का सूक्ष्म है। तथा इसी से तत्व व भुवन की रचना होती है।
जो स्थूल रूप है। इस प्रकार यह सारा जगत सूक्ष्म और पररूप में विद्यमान है। योगी इस पर चलकर सूक्ष्म का चिंतन करे तथा सूक्ष्म से भी पर स्वरूप का चिंतन करता हुवा उसी में अपने को बीलिन कर दे।
यही सारा विश्व उस विश्व और विश्वात्मक उस परब्रह्म की क्रिया शक्ति का विस्तार है। यह शब्द ब्रह्म ही छः अध्व रूप होता है।
अतः पर ही सूक्ष्म में तथा सूक्ष्म ही स्थूल में विद्यमान रहता है। ब्याप्य ब्यापक भाव से ब्यापक वाप्य रहता है।
जिस प्रकार वर्ण से पद बनते है। उसी प्रकार कला से ही तत्व व भुवन बनते है। वे सब सूक्ष्म से ही स्थूल रूप लेते है। जो अभिन्न रूप से स्थूल में विद्यमान रहते है।
इनको भिन्न भिन्न नही माना जा सकता जिस प्रकार घट में मिट्टी रहती है। इसी प्रकार बाद में आविभ्रृत होने वाला पदार्थ अपने पूर्णवर्ती कारण तत्व में विद्यमान रहता ही है।
जैसे बीज में पूरा वृक्ष सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहता ही है। अन्यथा वह प्रकट कैसे हो सकता है?
इस प्रकार विश्व के सभी पदार्थ अपने कारणतत्व मे विद्यमान रहते है। अतः सभी पदार्थ एक दूसरे से सम्बंध है। अतः ये सब सर्वात्मक है। और ये सभी उस परमेस्वर की स्वातन्त्र्य का ही विलाश है।
योगी को स्थूल से सूक्ष्म में तथा सूक्ष्म से पर भाव मे अर्थात चिन्मय के वोध में अपने मन का विलयन कर देना चाहये इसी प्रक्रिया से साधक का चित्त शिवशक्ति में विलीन हो जाता है। इस सारी शक्ति का अधिपति महेष्वर है। जो पराशक्ति के अधिष्ठाता है।
ओ३म
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