महावीरोत्सव 2022 के उपलक्ष्य में *भगवान महावीर के अपराध उन्मूलक एवं विश्वशांति के अभिकरण सिद्धांत तथा भारतीय दंड संहिता* 📚📚📚📚📚📚📚📚📚📚📚📚📓📓📓📔📓 *डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य*
अध्यक्ष, संस्कृत विभाग,
एकलव्य विश्वविद्यालय दमोह मध्यप्रदेश ©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©
भारत को संस्कारित एवं सुव्यवस्थित करने में मूलत: वैदिक संस्कृति एवं श्रमण संस्कृति का अवदान अविस्मरणीय है । दोनों संस्कृतियों ने एक दूसरे को सुरक्षित रखा जैन संस्कृति के निवृत्ति परक सिद्धांतों ने वैदिक संस्कृति को तथा वैदिक संस्कृति के भक्ति परक गुणानुवाद प्रवृत्ति ने जैन संस्कृति को प्रभावित किया। जैन धर्म शाश्वत सिद्धांतों पर आधारित है, जिनका प्रथम प्रतिपादन एवं विवेचन भगवान ऋषभदेव ने किया था यह सभी सिद्धांत 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर तक प्रवर्तमान रहे । भगवान महावीर श्रमण संस्कृति के प्रमुख उन्नायक थे । आपने जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया था, वे किसी वर्ग विशेष से संबंद्ध ना होकर सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक होने से ,वे भगवान महावीर के काल की सामाजिक धार्मिक आर्थिक राजनैतिक परिस्थितियों में जितने उपयोगी थे,वे आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय की भावना से ओतप्रोत थे । जिसके कारण जन्म सामान्य का सुदृढ़ समाज, निरपराधी, न्याय अध्यात्म सहिष्णुता अहिंसा आत्म कल्याण और विश्व शांति की ओर मार्ग प्रशस्त हो सके ।इसीलिए उन्होंने पांच व्रतों की अवधारणा पर अधिक बल दिया
*व्रत की अवधारणा* भगवान महावीर ने विश्व शांति एवं विश्व कल्याण और प्राणी मात्र के कल्याण की भावना से समाज की तत्कालीन परिस्थितियों,समाज में व्याप्त विषमताओं, अन्याय, अधिकार हनन आदि दूरवस्था को देख उन्होंने आध्यात्मिक क्रांति के द्वारा उन्हें दूर करने का निर्णय लिया और वे त्यागी तपस्वी और ज्ञानी बन कर इस कार्य में अग्रसर हुए उन्होंने लोक कल्याण के लिए -अहिंसा,सत्य,अचौर्य और अपरिग्रहादि पांच व्रतोंकी अवधारणा को समाज के सामने अपने आचरण और उपदेशों के माध्यम से स्थापित किया जिससे समाज में व्याप्त बुराइयों पर नियंत्रण होना प्रारंभ हो गया जैन धर्म के अनुसार भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान पार्श्वनाथ के काल तक चातुर्याम धर्म प्रभावना में -अहिंसा सत्य,अस्तेय और अपरिग्रह को विशेष महत्व दिया जाता था ,तथा अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने पंच व्रतो और महाव्रतों की उद्भभावना करते हुए समग्र धर्म व्यवस्था को नवीन दिशा प्रदान की
भगवान महावीर के द्वारा प्रतिपादित पंच महाव्रत एवं अणुव्रतरूप व्रतों को श्रमण और श्रावक के आध्यात्मिक जीवन का उत्कर्ष तथा मूल आधार कहा जाता है । इन पंचव्रतों की परिभाषाओं, भावनाओं को उनके अतिचारों (दोषों)का अध्ययन करने से श्रमण और श्रावक स्वत: ही अपराध से मुक्त हो जाता है या जिनसे अपराध हुए हैं उन्हें स्वयं के अपराधों का बोध हो जाने से वह अपराध जन्य निराशा, हताशा, कुंठा,अस्थिरता आदि अनेक नकारात्मक मनोविकारों से मुक्त हो जाते हैं क्योंकि महावीर ने व्रतों को राग-द्वेष,शुभ-अशुभ रुप पापों की निवृत्ति का बुद्धि पूर्वक दृढ़ संकल्प कर जीवों पर अनुकंपा,दया,संयमधारण, सदाचरण ,मर्यादा पालन कर आत्मशुद्धि पूर्वक करने का अमोघ उपाय माना है। जो विश्व कल्याण एवं विश्व शांति के लिए आवश्यक है ।
हिंसा झूठ चोरी कुशील और परिग्रह को जैन साधना पद्धति में पाप की संज्ञा से संज्ञापित किया गया है । श्रमण इनका पूर्णतया त्यागी होता है सो महाव्रती कहा जाता है तथा श्रावक (गृहस्थ) इनका आंशिक त्यागी होकर पूर्णता त्यागी बनने के लिए सतत प्रयत्नशील रहकर वहअहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना में संलग्न रहता है । जैन आचार संहिता में वर्णित इन पांच पापों को संसार के समस्त अपराधों का जन्म स्थान कहा गया है और इनके कुफलों एवं दंड की चर्चा भी विस्तृत रूप से जैन आचार ग्रंथों में जैन आचार्यों एवं विद्वानों के द्वारा की गई है । इस लेख के माध्यम से मैं भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अपराध निर्मूलक पांच सिद्धांतों को भारतीय दंड विधान से जोड़कर सुधी पाठकों के मध्य प्रस्तुत कर रहा हूं जो सामान्य श्रावकों के विधिक ज्ञान में वृद्धि करने में सहायक होगा ।
*पांच पाप व्रत और भारतीय दंड विधान* जैन दर्शन में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं परिग्रह को पांच पापों की श्रेणी में रखा गया है । इन्हें जीव के इह लोक एवं परलोक पतन में कारण भी बताया गया है क्योंकि इन पांचों के आश्रय से जीव अनेकों अनेकों दोषों-अपराधों को जन्म देता है। भारतीय दंड संहिता में भी अपराधों में प्रमुख रूप से हिंसा, झूठ (असत्य)' चोरी 'कुशील (यौन अपराध) परिग्रह (संपत्ति,कर) आदि को प्रमुख अपराध माना है तथा इनके आश्रित अन्य दोषों को भी अपराध की श्रेणी में मान्यता ही नहीं दी है अपितु दंड का निर्धारण भी किया गया है । सभी अपराधों पर अलग-अलग धाराओं का निर्माण कानून निर्माताओं के द्वारा किया गया है भारतीय दंड संहिता के निर्माण के समय जैन धर्म का प्रभाव भारतीय दंड संहिता में स्पष्ट दिखाई देता है ।
*हिंसा पाप*- प्रमत्त योगात प्राण व्यपरोपणं हिंसा प्रमाद अर्थात अयत्न,असावधानी के योग से किसी जीव के प्राणों का घात- जिसमें उसके द्रव्य प्राण(शरीरिकरूप)भाव प्राण (भावनात्मक विचारात्मक) का वियोग करना हिंसा है ।।
*अहिंसाणु व्रत की भावनाएं* -
वचन की प्रवृत्ति तथा मन की प्रवृत्ति को रोकना, जमीन को चार हाथ आगे देख कर चलना आदि भावनाएं एक अहिंसक की भावनाएं हैं । अतिचार या दोष -वध, बन्धन,अंग छेदन, अतिभार आरोपण और अन्न पान निरोध कराना यह पांच अ अहिंसानुव्रत के अतिचार हैं दोष है और यह हिंसा को बढ़ावा देते हैं जिन्हें जैन दर्शन में दोष माना गया है उन्हें भारतीय दंड विधान में भी अपराध की श्रेणी में रखा गया है *हिंसा से संबंधित धाराएं* -धारा 302 धारा 304 धारा 304(अ) धारा 96से 106 तथा घरेलू हिंसा धारा 294 धारा 342 धारा 323 धारा 325 धारा 370 धारा 376 श्रम कानून अधिनियम बाल अधिकार अधिनियम 498 ये समस्त धारायें हिंसा से संबंधित हैं। भगवान महावीर की अहिंसा वैचारिक हिंसा को भी हिंसा मानती है । यदि कोई इस नियम का पालन करे तो कहीं भी हिंसा ना हो, जिससे अपराध प्रवृति रुक जाएगी क्योंकि अहिंसानुव्रत का पालक स्वतः ही उपरोक्त अपराधों से परे हो जाता है ।
*झूँठ पाप* *असदभिधानमनृतम।*
असत का अभिधान करना असत्य है । प्रमाद आलस्य के योग से जीवों को दुखदायक मिथ्यारूप वचन बोलने को असत्य कहते हैं । जिसके अंतर्गत यथार्थ को छोड़ यथार्थ को कथन करना, यथारूप बात ना कहना, कषायाविष्ट होकर क्रोध,मान, मायाचारी और लोभ के प्रभाव में आकर दुर्भावनापूर्ण वचनों के प्रयोग करने को झूठ कहा जाता ।हित मित्र प्रिय वचनों का प्रयोग करना सत्य है और सत्य से समाज में प्रतिष्ठा स्थापित होती है तो असत्य से खण्डित होती है सत्यव्रत की भावनाएं- एक सत्यभाषी,सत्य निष्ठ सत्यव्रती के लिए क्रोध लोभ भय हास्य का त्याग कर शास्त्र सम्मत वचनों के प्रयोग का संकल्पी होना अनिवार्य है ।
*सत्यव्रत के अतिचार दोष-*
मिथ्या उपदेश करना, गोपनीयता भंग करना, मिथ्या लेखन एवं कूट लेखन करना, धरोहरको हड़पना, गबन करना, गुप्त बातों का सार्वजिनिक करना सत्यव्रती के लिए महान दोष का कारण है ।।
भारतीय दंड संहिता में क्रोध, लोभ, भय, हास्य के प्राश्रय से अपमान के उद्देश्य अनावश्यक अनर्गल वार्तालाप छल कपट आदि को अपराध माना गया है । *असत्य से संबंधित कानूनी धाराएं* धारा 500, 417,419, 191, 177 ,203,110 से लेकर 120 तक ,120 ख, धारा 124 क, धारा 232-233-234- 235 धारा 255, 257,477 अ, धारा 208- 209 आदि समस्त धाराएं सत्यानुव्रत के अतिचारों से संबंधित धाराएं हैं जिन्हें भारतीय दंड विधान में अपराध माना गया है और झूठ,फरेब, जालसाजी षड्यंत्र, संपत्ति हड़पना आदि के निराकरण हेतु प्रयोग किया जाता है भगवान महावीर द्वारा उपदेशित सत्यानुव्रत का पालन करने वाले जन सामान्य के मन में इन अपराधों का स्थान ही नहीं रहता। वह सदा सत्य का सन्धाता रहता है ,असत्य का त्यागी होता है ।
*चोरी पाप*-अदत्ता दानं स्तेयम 7/15
प्रमाद के योग से बिना दी हुई किसी वस्तु के ग्रहण करने को चोरी कहते हैं इसका त्याग करना अचौर्य व्रत कहलाता है । सामान्य शब्दों में कहें तो किसी की रखी हुई पड़ी हुई वस्तु को उसके स्वामी की आज्ञा के बिना ग्रहण करना चोरी है। चोरी की है यह सूक्ष्म परिभाषा जैन दर्शन में ही प्राप्त होती है ।
*अचौर्यव्रत की भावनाएं-*
निर्जन स्थानों किराए की अथवा खाली मकान को स्वयं का ना मानना, स्वयं निवास करना एवं अन्य को करने देना, मानवीय आवश्यकताओं हेतु कदाचण ना करना, आनावश्यक अधिकार हेतु सधर्मीयों से विवाद ना करना ये अचौर्य व्रत की भावनाएं है। जिससे उनका व्रत दृढ़ होता है । *अचौर्य व्रत अतिचार* -चोरी करने की प्रेरणा एवं उपाय बताना, चुराए हुए माल को खरीदना ,शासन एवं शासक के विरुद्ध कार्य करना ,शासकीय करों की चोरी करना, नापतोल परिमाण में घटा बड़ी करना, समान दिखने वाली वस्तुओं में व्यापारिक लाभ हेतु मिलावट करना आदि यह चोरी को बढ़ावा देने वाले दोष हैं । अचौर्य व्रती को इनसे बचना चाहिए ।कानून की दृष्टि से ये अपराध है।
चोरी से संबंधित कानूनी धाराएं
धारा 379, 380, 381, 392,414, 363, 363 क, धारा 411, 412, 413, 216, 153 ख, 171 ख, धारा 265, 266, 267, 246, 247, धारा 270 ,272 ,273, 274, 275, 260 और 249 यह सभी धाराएं चोरी से संबंधित धाराएं हैं ।जो अपराध निराकरण में सहायक होती हैं और अपराधी को दंडित करने में सक्षम है भगवान महावीर स्वामी के द्वारा उपदेशित अचौरव्रत का पालन करने से इन सभी धाराओं के दंड से बचा जा सकता है ।।
*कुशील पाप-* मैथुनमब्रह्म
मैथुन को अब्रह्म कहा है तथा मैथुन का त्याग ब्रह्मचर्य है ।प्रत्येक जीव के आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञाए होती हैं या यूं कहें यह चार आवश्यकताएं होती है जिनमें से मैथुन संज्ञा कुशील पाप में मुख्य भूमिका निभाती है। असंयम ही इस पाप में मुख्य कारण है जिसके कारण प्राणी का स्वयं की इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं रह पाता है और वह कुशील पाप में प्रवृत्त हो जाता है। जैन धर्म एवं दर्शन में ब्रह्मचर्य व्रत का उपाय ही कुशील पाप से बचा सकने में सक्षम है।। जीवन के विकास एवं सामाजिक उत्थान, धार्मिक, सांस्कृतिक,आध्यात्मिक एवं न्याय आदि अनेक दृष्टियों से इस व्रत का पालन श्रेष्ठ है। ब्रह्मचर्य व्रत को स्वदारसंतोष व्रत कहा जाता है जिसका अर्थ यह है कि स्वयं की पत्नी में संतुष्टि रखने का संकल्प करना और शेष समस्त स्त्री जाति चाहे वह मनुष्य तिर्यंच,देव जाति की जड़-चेतन स्त्रियां हो उनका मन वचन काया से उनके सेवन का त्याग करना यह व्रत मानसिक वाचनिक एवं शारीरिक रूप से व्रती को समस्त अपराधों से बचाता है दूर रखता है।।
*ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाएं*
स्त्रियों में राग बढ़ाने वाली कथाओं के पढ़ने सुनने का त्याग,स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखने का त्याग, पूर्व में भोगे भोगों के स्मरण का त्याग कामोद्दीपक पदार्थों का त्याग और अपने शरीर को श्रृंगार करने का त्याग आदि भावनाएं ब्रह्मचर्य व्रत को दृढ़ करती हैं ।।
*ब्रह्मचर्य व्रत के दोष - अतिचार-*
पर विवाह करण ,स्त्रियों से संबंध एवं संपर्क में रहना, वेश्या स्त्रियों तथा देह व्यापार में संलिप्त स्त्री समूहों से संबंध एवं संपर्क में रहना ,अप्राकृतिक काम सेवन करना, विषय वासनाओं से संबंधित कार्यों को स्वयं करना एवं अन्य को प्रेरणा देना यथा- यौन शोषण, अश्लीलता, बाल यौन शोषण ,बाल दुर्व्यवहार, लिंग आधारित शोषण ,बलात्कार ,यौन उत्पीड़न से संबंधित यातनाएं ,स्त्री बंधन ,अपहरण,स्त्री दुष्प्रेरण आदि कार्य करना अपराध की श्रेणी में आते हैं ।।
*कुशील पाप से संबंधित कानूनी धाराएं*
धारा 354 अ ब स , धारा 375, 376, 378 धारा 292 293 धारा 498 ,493 ,494, 496 धारा 370 ,295 का धारा 366 का 372 ,373 बाल दुर्व्यवहार अधिनियम 2003, बाल यौन शोषण अधिनियम 2012, पास्को एक्ट 2012 ये सभी कुशील पाप से सम्बंधित धाराएं हैं । जिनके द्वारा अपराध पर नियंत्रण किया जाता है। पर महावीर भगवान के ब्रह्मचर्याणुव्रत के सिद्धांत का अनुपालन इन अपराधों से स्वत:सुरक्षित रखता है ।।
*परिग्रह पाप*
*मूर्च्छा परिग्रह:* मूर्छा से तात्पर्य आसक्ति एवं ममत्व भाव से है, जिसे परिग्रह कहा गया है ।बाह्य धन-धान्य आदि तथा अंतरंग क्रोधादि कषायों ,इन्द्रिय विषयों में ये मेरे हैं ऐसा भाव मूर्च्छा है और मूर्च्छा को परिग्रह कहते हैं । धन -संपत्ति की आसक्ति ,लोभ ही पारिवारिक कलह ,आपसी मनमुटाव,अधिकार-"उत्तराधिकार की भावनाओं को जन्म देता है । जो क्षेत्र-वास्तु,हिरण्य-स्वर्ण, धन-धान्य,दासी-दास आदि के आवश्यकता से अधिक संग्रह और उनमें आसक्ति के भाव यह मेरे हैं का भाव उत्पन्न करता है ।जिसे महावीर ने महान दुख का कारण बताया है । परिग्रह परमाण व्रत की भावनाएं स्पर्शन, रसना,घ्राण, चक्षु, कर्ण इन पांच इंद्रियों के विषयों में राग-द्वेष नहीं करना परिग्रहपरमाण व्रत की भावनाएं हैं ।
परिग्रह पाप की कानूनी धाराएं ----
जब आवश्यकता से अधिक संग्रह होता है तो उसके प्रबंधन ,संचालन एवं व्यवस्थापन में समस्या उत्पन्न होने लगती है जिनसे अनेक विषमताओं का जन्म होता है और वे ही विषमताएं अपराध की ओर अग्रसर करती हैं ।परिग्रह के कारण हिंसा-झूठ-चोरी कुशील ये सभी पाप होने लग जाते हैं। धन-संपत्ति और स्त्री के ममत्व के कारण हिंसादि भाव उत्पन्न होते हैं जो अपराध वृत्ति को बढ़ावा देते हैं । कानूनी धाराओं के विषय में यह कह सकते हैं जो हिंसा ,झूँठ,चोरी और कुशील पाप की धाराएं हैं वे सभी धाराएं इस पाप में है अंतर्निहित हैं।।
भगवान महावीर के अहिंसादि पांच अणुव्रतों के अतिरिक्त दिग्व्रत,देशव्रत, अर्थदण्ड व्रत, शिक्षा व्रतों का अध्ययन और परिपालन से भारतीय कानून की व्यवस्था में चिंतनीय सहयोग अपराध निर्मूलन में मिलेगा । मेरा एक निवेदन है कि भारत की दंड व्यस्था के साथ महावीर के इन सिद्धांतों का अध्ययन कानून के अध्येताओं को करना चाहिये और जेल में रहने वाले कैदियों को भी इनकी शिक्षा प्रदान की जाना चाहिए । क्योंकि ये सिद्धांत अपराध उन्मूलक हैं और विश्व शांति के अभिकरण हैं ।
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