Sunday, December 30, 2018

मूर्ति और दिगम्बर आचार्य चरण का स्पर्श अधिकार किसे है आगम के परिप्रेक्ष्य में ।

*🤔 क्या महिलाएं भगवान की प्रतिष्ठित मूर्तियों एवं दिगम्बर जैन साधुओं के पैर छू सकती है ❓*

*📖मूलाचार की गाथा संख्या १९५ में स्पष्ट उल्लेख है कि*
*आर्यिकाएं*
*➡️ आचार्य को पांच हाथ से दूर रहकर*
*➡️ उपाध्याय को छह हाथ से दूर रहकर*
*➡️ साधु को सात हाथ से दूर रहकर*
गवासन से ही वंदना करती हैं

*इसी गाथा के ऊपर आचारवृत्ति टीका में लिखा है कि*
➡️आर्यिकाएं आचार्य के पास आलोचना करती हैं अतः उनकी वंदना के लिए पांच हाथ के अंतराल से गवासन से बैठ कर नमस्कार करती हैं। ऐसे ही उपाध्याय के पास अध्ययन करना है अतः उन्हें छह हाथ के अंतराल से नमस्कार करती हैं तथा साधु की स्तुति करनी होती है अतः वे सात हाथ के अंतराल से उन्हें नमस्कार करती हैं, *अन्य प्रकार से नहीं।* यह क्रम भेद आलोचना, अध्ययन और स्तुति करने की अपेक्षा से हो जाता है।

➡️अगर महिलाओं का साधु के पैर छूना आगम सम्मत होता तो आर्यिकाएं जो कि उपचार से महाव्रती है और ब्रह्मचर्य की धारक हैं उनको इतने हाथों की दूरी से वंदना करने को क्यो लिखा मूलाचार में यह विचारणीय है।

*➡सामान्य महिलाएं तो आर्यिकाओं से निश्चित ही व्रत, संयम और भावों की शुद्धि में कम ही होती है फिर यदि आर्यिकाओं तक को साधुओं के पैर छूकर नमस्कार करने की अनुमति मूलाचार में नहीं दी है तो सामान्य महिलाओं को तो अवश्य ही दूर से साधुओं को नमस्कार आदि करना चाहिए*

➡️कुछ पंथवादी लोगों ने तर्क दिया कि आचार्य आर्यिका दीक्षा के समय दीक्षार्थी महिलाओं को छूते हैं तो फिर महिला साधुओं के पैर भी छू सकती है❗

➡️आर्यिका दीक्षा की विधि में आचार्य का प्रयोजन केवल दीक्षा देने का होता है और यह दीक्षा बिना छूए ऊपर से केवल संस्कार के लिए लौंग सर पर डालकर भी की जा सकती है। आर्यिका के सर पर साथिया बनाना और केश लोंच अन्य गणिनी आर्यिका भी कर सकती है फिर आचार्य को दीक्षार्थी महिलाओं को छूने की आवश्यकता नहीं पड़ती

➡ ज्ञात रहे साक्षात भगवान के १८००० शील होते ही हैं और जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमा में दीक्षा के सारे संस्कार किए जाते हैं जिसमें ब्रह्मचर्य महाव्रत का संस्कार भी होता है और जिसमें १८००० शील भी आरोपित होते हैं जो स्त्री संसर्ग की अपेक्षा शील के भेद हैं सो ही बताते हैं

*📖 मूलाचार के शीलगुणाधिकार की गाथा संख्या १०४२ के ऊपर विशेष अर्थ* में स्त्री की अपेक्षा शील का वर्णन करते हुए लिखा है

तीन प्रकार की स्त्री (देवी, मानुषी, तिर्यांचीनी)
३ ❎योग ३ ❎ कृत करीत अनुमोदना ३ ❎
संज्ञाएँ ४ ❎ इन्द्रियाँ १० (भवेन्द्रियाँ ५ +
द्रव्येन्द्रियाँ ५) ❎ कषाय १६ इन सबको गुणा करने पर १७२८० भेद होते हैं।

इनमे अचेतन स्त्री सम्बन्धी ७२० भेद जोड़ दे अर्थात अचेतन स्त्री ( काष्ठ पाषाण चित्र)३ ❎ मन काय २
योग ❎ कृत कारित अनुमोदित
३ ❎ कषाय ४ ❎ इन्द्रिय भेद १० ये सब परस्पर गुणा करने पर ७२० भेद हुए

कुल मिलाके स्त्री की अपेक्षा भगवान् में १८००० शीलों का सद्भाव होता है




*📖मूलाचार गाथा संख्या ८ पर आचारवृत्ति टीका में ब्रह्मचर्य महाव्रत का वर्णन करते हुए लिखा है कि*
वृद्धा, बाला और युवती इन तीन प्रकार की स्त्रियों को और उनके प्रतिरूप (चित्र) को माता, पुत्री और बहन के समान समझकर एवं देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी स्त्रियों के रूप देखकर उनसे विरक्त होना यह ब्रह्मचर्य महाव्रत है।

*➡️ टीका में स्त्रियों के मृदु स्पर्श का त्याग करना ऐसा स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है*

*📖 मूलाचार मूलगुणाधिकार की गाथा संख्या ८ की आचार वृत्ति टीका* में देव मनुष्य और तिर्यंच स्त्रियों से विरक्त रहना एवं स्त्रियों के स्पर्श का त्याग करना ये सब ब्रह्मचर्य महाव्रत में आया है

*📖 भगवती आराधना गाथा संख्या ८७३ की टीका* में स्त्रियों के शरीर से स्पर्श या उनके शरीर से सम्बद्ध वस्तुओं का स्पर्श भी अब्रह्म का प्रतीक माना है तब क्या स्त्रियाँ पञ्च परमेष्ठियों को स्पर्श कर सकती हैं ❓

*📖 कर्त्तिकेयानुप्रेक्ष गाथा संख्या ४०२* में भी स्त्री की अपेक्षा शील के १८००० भेदों की चर्चा आती है जिसकी टीका में लिखा है स्त्रिमात्र का चाहे वह देवांगना हो या मानुषी हो अथवा पशुयोनि हो संसर्ग जो छोड़ता है, उनके बीच में उठता बैठता नहीं है तथा उनके रूप को नहीं देखता उनका मन वचन काय कृत कारित अनुमोदना से ९ प्रकार का ब्रह्मचर्य होता है

*👉🏼 सोचो जो स्त्रियाँ साधुओं अथवा प्रतिमाओं को छूती हैं वो उनके ब्रह्मचर्य महाव्रत में दोष लगाकर कितना पाप कमा लेती हैं❗*

*👉🏼 ये भी विचारणीय तथ्य है की स्त्री द्वारा भगवान के अभिषेक को जो आगम सम्मत मानते हैं और वही स्त्रियाँ भगवान को छूती हैं, चन्दन लेपन करती हैं तथा अभिषेक के बाद कपड़े से भगवान का प्रक्षाल (सभी अंगों को पोछना) करती हैं तब ये ब्रह्मचर्य महाव्रत की अपेक्षा और १८००० शीलों की अपेक्षा भगवान को छूकर कितना पाप कमा रही हैं❗*

*👉🏼 सोचे जिस स्त्री के संसर्ग को छोड़ने को कहा है क्या स्त्रियाँ ऐसे पञ्च परमेष्ठी को छूकर उनके ब्रह्मचर्य महाव्रत में दोष नहीं लगा रही ❓*

*➡विगत कुछ वर्षों से समाज में व्यभिचार के मामले काफी बढ़ने लगे हैं यह भी एक बड़ा कारण है कि महिलाओं को दूर से ही साधुओं को नमस्कार आदि करना चाहिए अन्यथा ऐसे बढ़ते मामलों से समाज की और साधुओं की ही बदनामी होती है।*

*➡सलग्न मूलाचार की गाथा संख्या ८ एवं १९५ की फ़ोटो अवश्य देखें*

*➡सलग्न वर्तमान के एक सुप्रसिद्ध आर्षमार्ग के आचार्य की महिलाओं द्वारा किया गया पाद प्रक्षालन की फ़ोटो भी देखें और सोचे कि क्या उपरोक्त आगम प्रमाण के अनुसार यह उचित है या नहीं❗*


संस्कृत भाषा की विशेषताएं

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संस्कृत में निम्नलिखित चार विशेषताएँ हैं जो उसे अन्य सभी भाषाओं से उत्कृष्ट और विशिष्ट बनाती हैं।

१ अनुस्वार (अं ) और विसर्ग(अ:)

संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभ दायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग। पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं —
यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि।
और नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं—
यथा- जलं वनं फलं पुष्पं आदि।
अब जरा ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है। अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है। जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं।
उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भौंरे की तरह गुंजन करना होता है, और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है। अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा , उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जावेगा।कपालभाति और भ्रामरी प्राणायामों से क्या लाभ है? यह बताने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि स्वामी रामदेव जी जैसे संतों ने सिद्ध करके सभी को बता दिया है। मैं तो केवल यह बताना चाहता हूँ कि संस्कृत बोलने मात्र से उक्त प्राणायाम अपने आप होते रहते हैं।
जैसे हिन्दी का एक वाक्य लें- ” राम फल खाता है“इसको संस्कृत में बोला जायेगा- ” राम: फलं खादति”
राम फल खाता है ,यह कहने से काम तो चल जायेगा ,किन्तु राम: फलं खादति कहने से अनुस्वार और विसर्ग रूपी दो प्राणायाम हो रहे हैं। यही संस्कृत भाषा का रहस्य है।
संस्कृत भाषा में एक भी वाक्य ऐसा नहीं होता जिसमें अनुस्वार और विसर्ग न हों। अत: कहा जा सकता है कि संस्कृत बोलना अर्थात् चलते फिरते योग साधना करना।
२- शब्द-रूप

संस्कृत की दूसरी विशेषता है शब्द रूप। विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक ही रूप होता है,जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं। जैसे राम शब्द के निम्नानुसार 25 रूप बनते हैं।
यथा:- रम् (मूल धातु)
राम: रामौ रामा:
रामं रामौ रामान्
रामेण रामाभ्यां रामै:
रामाय रामाभ्यां रामेभ्य:
रामत् रामाभ्यां रामेभ्य:
रामस्य रामयो: रामाणां
रामे रामयो: रामेषु
हे राम! हेरामौ! हे रामा:!

ये 25 रूप सांख्य दर्शन के 25 तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिस प्रकार पच्चीस तत्वों के ज्ञान से समस्त सृष्टि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वैसे ही संस्कृत के पच्चीस रूपों का प्रयोग करने से आत्म साक्षात्कार हो जाता है। और इन 25 तत्वों की शक्तियाँ संस्कृतज्ञ को प्राप्त होने लगती है।
सांख्य दर्शन के 25 तत्व निम्नानुसार हैं।-
आत्मा (पुरुष)
(अंत:करण 4 ) मन बुद्धि चित्त अहंकार
(ज्ञानेन्द्रियाँ 5) नासिका जिह्वा नेत्र त्वचा कर्ण
(कर्मेन्द्रियाँ 5) पाद हस्त उपस्थ पायु वाक्
(तन्मात्रायें 5) गन्ध रस रूप स्पर्श शब्द
( महाभूत 5) पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश

३- द्विवचन

संस्कृत भाषा की तीसरी विशेषता है द्विवचन। सभी भाषाओं में एक वचन और बहु वचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। इस द्विवचन पर ध्यान दें तो पायेंगे कि यह द्विवचन बहुत ही उपयोगी और लाभप्रद है।
जैसे :- राम शब्द के द्विवचन में निम्न रूप बनते हैं:- रामौ , रामाभ्यां और रामयो:। इन तीनों शब्दों के उच्चारण करने से योग के क्रमश: मूलबन्ध ,उड्डियान बन्ध और जालन्धर बन्ध लगते हैं, जो योग की बहुत ही महत्वपूर्ण क्रियायें हैं।

४ सन्धि

संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। ये संस्कृत में जब दो शब्द पास में आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। उस बदले हुए उच्चारण में जिह्वा आदि को कुछ विशेष प्रयत्न करना पड़ता है।ऐंसे सभी प्रयत्न एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के प्रयोग हैं।
”इति अहं जानामि” इस वाक्य को चार प्रकार से बोला जा सकता है, और हर प्रकार के उच्चारण में वाक् इन्द्रिय को विशेष प्रयत्न करना होता है।
यथा:- १ इत्यहं जानामि।
२ अहमिति जानामि।
३ जानाम्यहमिति ।
४ जानामीत्यहम्।
इन सभी उच्चारणों में विशेष आभ्यंतर प्रयत्न होने से एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति का सीधा प्रयोग अनायास ही हो जाता है। जिसके फल स्वरूप मन बुद्धि सहित समस्त शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं नीरोग हो जाता है।
इन समस्त तथ्यों से सिद्ध होता है कि संस्कृत भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान की भाषा ही नहीं ,अपितु मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की कुंजी है। यह वह भाषा है, जिसके उच्चारण करने मात्र से व्यक्ति का कल्याण हो सकता है। इसीलिए इसे देवभाषा और अमृतवाणी कहते हैं।

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Friday, December 28, 2018

 वर्ण किसे कहते हैं?

उन छोटी छोटी सी ध्वनियों को वर्ण कहते हैं जिसके फिर टुकड़े ना किये जा सके वर्ण कहलाते हैं। स्वर और व्यंजन के भेद से वर्ण दो प्रकार के होते हैं।स्वर 13 एवं व्यंजन 33 होते हैं।
जो हृस्व दीर्घ प्लुत के भेद से स्वर तीन प्रकार के एवम स्पर्श अन्तस्थ और उष्म के भेद से व्यंजन भी तीन प्रकार के होते हैं।

वर्णों के उच्चारण स्थान
मुख  के वे भाग जिनका प्रयोग वर्णों के उच्चारण हेतु किया जाता है अथवा वर्णों का उच्चारण करते समय  जिह्वा  मुख के अंदर के जिन भागों का स्पर्श करती है या वायु मुख के अंदर के जिन भागों से टकराकर बाहर निकलती है वे ही भाग वर्णों के उच्चारण स्थान कहलाते हैं। वर्णों के उच्चारण स्थान 9 होते हैं - वे इस प्रकार हैं  कंठ, तालु, मूर्धा, दंत,  ओष्ठ,नासिका, कंठतालु,कंठोष्ठ दंतोष्ठ ।
स्वर
स्वयं राज्यन्ते इति स्वराः ।
जिनका उच्चारण करने के लिए किसी अन्य वर्ण की सहायता नहीं नहीं ली जाती है स्वर कहलाते हैं।ये 13 होते हैं।
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ ए ऐ ओ औ

व्यंजन
जिन वर्णों के उच्चारण में स्वरों की सहायता लेनी पड़ती है व्यंजन कहलाते हैं। ये 33 होते हैं। ये पांच वर्गों में विभाजित होते हैं।
कु चु टु तु पु  ,य र् ल व -अन्तस्थ, श ष स् ह -उष्म

उच्चारण  स्थानस्य सूत्राणि
अकुहवीसर्जनीयानां कंठ:
इचुयशानां तालु:
ऋतुरसाणांमूर्धा
लृतुलसानां दन्त:
उपूपध्मानीयानामौष्ठौ
ञमङणनानां नासिका च
एदैतो:कण्ठ तालु:
ओदौतो कण्ठोष्ठम्
वकारस्य दन्तोष्ठम्
ये उच्चारण स्थान हैं।इनका विचार करके ही शुद्ध उच्चारण करना चाहिए।



लेश्या या मनोवृत्ति

लेश्या मनोवृत्ति 
कषायानुरंजितयोगप्रवृत्ति लेश्यो:

क्रोध मान माया लोभ से अनुरंजित मन वचन काय की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं ।
मनोविज्ञान की दृष्टि से यदि कहा जाए तो -मानव के मन की वृत्तियों- प्रवृत्तियों  जो शुभ और अशुभ रूप में देखी जाती हैं लेश्या कहलाती हैं ।

प्रवृत्तियों के स्रोत -
मानव प्रवृत्तियां बहुत होती हैं पर उनके स्रोत निम्न हैं
क्रोध
मानव का मन जब  किसी कसरत से  अपने आपको उपेक्षित महसूस करने लगे उसकी अपेक्षाओं की उपेक्षा होने लगे तब उसकी क्रोध रूप प्रवृत्ति  प्रकट होती है
मान
जब मानव अपने आप को सबसे श्रेष्ठ उत्तम समझने लगे उसका झुकाव विनय समाप्त होने लगे और अकड़पन आने लगे वह अपने आप को दूसरों से भिन्न समझकर उनके तिरस्कार ईष्या अपमान करने का भाव आने लगे तो समझ लो हमारे अंदर अहं मान अहंकार का जन्म हो गया है ।

अहंकार  के आठ कारण हैं-
मानव इन आठ कारणों से अपने आपको भिन्न समझने लगता है ज्ञान पूज्यता, कुल, जाति,बल,समृद्धि,तप, और शरीर ।

माया
छल को माया कहा जाता है । जब मानव आपने निजी स्वार्थ के पीछे दूसरों को धोखा झूँठ और फरेब करके ठगने का प्रयास करता है तो वह स्वयं के माया जाल में उलझता जाता है। उसकी सरलता नामक गुण का ह्रास होता चला जाता है जिससे उसके आत्मिक गुण में गिरावट आ जाया करती है ।

लोभ
जो मानव को लोक में भटकाये उसे लोभ कहते हैं । जब मानव में सब होते हुए भी असन्तुष्टि का भाव आने लगे और उसे भौतिकता की सामग्रियों में लगाव अनुराग का भाव उत्पन्न होने लगे तो समझिए मानव में लोभ प्रवृत्ति बढ़ रही है ।

उपरोक्त कारणों में फंस कर मानव अपने मन वचन और शरीर को संलग्न कर लेता है उन भावों में लिप्त हो जाता है तो से धर्म की भाषा में लेश्या कहा जाता है ।

सर्वतोभद्र चक्र क्या कहलाता है ?

 सर्वतोभद्र चक्र क्या है? इसे जन्मांक एवं गोचर के फलादेश के लिए कैसे प्रयोग में लाया जाता है? मेदिनीय ज्योतिष मंे इसका क्या और कैसे उपयोग किया जाता है?

*सर्वतोभद्र चक्र जन्मांक एवं गोचर फलादेश व इसका का प्रयोग तथा मेदिनीय ज्योतिष में प्रयोग*
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सर्वतोभद्र चक्र नक्षत्र आधारित फलादेश की एक विकसित तकनीक है। यह कुंडली विश्लेषण तथा दशा फलकथन में बहुत सहायक होता है। इसकी सहायता से जन्मकुंडली और उसकी नक्षत्र आधारित शुभ अशुभ विशेषताओं की महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त यह गोचर फलादेश में भी सहायता करता है। इसे सर्वतोभद्र चक्र इसलिए कहते हैं क्योंकि यह चारों ओर से एक समान होता है। इसीलिए जो मकान चारों ओर से एक सा हो और उसके चारों ओर पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण में मध्य में मुख्य द्वार हो उसे सर्वतोभद्र आकार का मकान कहते हैं। यह शतरंज की विसात की तरह होता है। इसमें 81 कोष्ठक होते हैं।

इसमें अंकित 33 अक्षरों, 16 स्वरों, 15 तिथियों, 7 वारों, 28 नक्षत्रों और 12 राशियों को सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु की गति के फलस्वरूप वेध आने के कारण उन अक्षरादि के नाम वाले जातकों की अवनति अथवा उन्नति होती है।

 सर्वतोभद्र चक्र कैसे बनाते हैं?: इस चक्र को बनाने के लिए 10 खड़ी और 10 आड़ी रेखाएं खींची जाती हैं। इस चक्र में 33 अक्षर, 16 स्वर, 15 तिथियां, 7 वार, 28 नक्षत्र और 12 राशियां इस प्रकार अंकित होती हैं। 1. अश्विन्यादि 27 नक्षत्रों के नामाक्षरों की जो सूची पंचांगों में दी गई है उसमें कृत्तिका नक्षत्र से प्रारंभ करने से निम्नलिखित अक्षर आते हैं। अ, ब, क, घ, ड़, छ, ह, ड, म, ट, प, ष, ण, ठ, र, त, न, य, भ, ध, फ, ठ, ज, ख, ग, स, द, थ, भ, ´, च, ल इनमें से रेखांकित शब्दों को एक साथ रखें तो अ ब क ह ड म ट प र त न य भ ज ख ग स द च ल ये अक्षर बनते हैं। इन्हीं 20 अक्षरों को सर्वंतोभद्र चक्र में अंदर रखा गया है।

2. ईशानादि चारों कोण दिशाओं में 16 स्वर सोलह कोष्ठकों में सीधे क्रम से एक-एक करके चार चक्करों में लिखे जाते हैं जैसे ईशान कोण में अ,उ,लृ, ओ, अग्नि कोण में ऊ,लृ,औ, ये, नैर्ऋत्य कोण में इ,ऋ,ए, अं और वायव्य कोण में ई, ऋ, ऐ, अः स्वर अंकित किए जाते हैं।

 3. इसी प्रकार चारों दिशाओं में 28 नक्षत्र अंकित किए जाते हैं, जैसे पूर्व में कृत्तिका आदि सात नक्षत्र, दक्षिण में मघा आदि सात नक्षत्र, पश्चिम में अनुराधा आदि सात नक्षत्र एवं उत्तर में धनिष्ठा आदि 7 नक्षत्र अंकित किए जाते हैं।
4. इसी प्रकार पूर्व में अ, व, क, ह, ड पांच अक्षर, दक्षिण में म,ट,प,र,त ये पांच अक्षर, पश्चिम में न,य,भ,ज, ख पांच अक्षर एवं उत्तर में ग,स,द,च,ल पांच अक्षर अंकित किए जाते हैं।
5. इसी प्रकार पूर्व में अ,व,क,ह,ड पांच अक्षर अंकित किए जाते हैं।
6. इसी प्रकार मेषादि बारह राशियों को चारों दिशाओं में अंकित करते हैं, जैसे पूर्व में वृष, मिथुन, कर्क, दक्षिण में सिंह, कन्या, तुला,पश्चिम में वृश्चिक, धनु, मकर और उत्तर में कुंभ, मीन, मेष राशियां अंकित की जाती हैं।
7. शेष पांच कोष्ठकों में नंदादि पांच प्रकार की तिथियां अंकित की जाती हैं, जैसे पूर्व में नंदा, दक्षिण में भद्रा, पश्चिम में जया, उत्तर में रिक्ता और मध्य में पूर्णा को लिखा जाता है।
 8. अंततः रवि व मंगल वार को नंदा के साथ, सोम व बुध वार को भद्रा के साथ, गुरु को जया के साथ, शुक्र को रिक्ता के साथ एवं शनि वार को पूर्णा के साथ उसी कोष्ठक में अंकित में करते हैं।
वेध-प्रकार-सर्वतोभद्र चक्र: वेध तीन प्रकार के कहे गए हैं।

1.दक्षिण वेध: वक्र गति वाले ग्रहों की दक्षिण दृष्टि होती है अतः इनका दक्षिण वेध कहा गया है।
2. वाम वेध: मार्गी ग्रहों की वाम दृष्टि होती है इसलिए इनका वाम वेध कहा गया है। मध्यम गति से तीव्र गति वाले ग्रहों का भी वाम वेध होता है।
3.सम्मुख वेध: समगति से भ्रमण करने वाले ग्रहों की सम्मुख दृष्टि होने से इनका सम्मुख वेध कहा गया है। उपर्युक्त नियमानुसार राहु और केतु की सदैव वक्र गति होने के कारण इनका दक्षिण वेध होता है। इसी प्रकार सूर्य और चंद्रमा सर्वदा मार्गी रहते हैं। अतः इनका केवल वाम वेध होता है। भौमादि शेष ग्रहों के गति-वैभिन्य के कारण उनके दक्षिण, वाम और सम्मुख तीनों प्रकार के वेध होते हैं। ये अपने स्थान से कभी दाहिनी ओर, कभी बायीं ओर और कभी सम्मुख दिशा में वेध करते हैं।
 उदाहरण: ।। अथ अश्विनी नक्षत्र स्थित ग्रह।। 1. दक्षिण दृष्टि से ज्येष्ठा नक्षत्र, धनु और मीन राशियों तथा च.अ.य. अक्षरों को वेधता है। 2. वाम दृष्टि से रोहिणी नक्षत्र और उ अक्षर को वेधता है। 3. सम्मुख से पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र को वेधता है। ।। अथ भरणी नक्षत्र स्थित ग्रह।। 1. दाहिनी दृष्टि से अनुराधा नक्षत्र, मेष और वृश्चिक राशियों तथा ल और न अक्षरों को वेधता है। 2. वाम दृष्टि से कृत्तिका को वेधता है। 3. सम्मुख से मघा नक्षत्र को वेधता है। ।। अथ कृत्तिका नक्षत्र स्थित ग्रह।। 1. दाहिनी दृष्टि से भरणी नक्षत्र को वेधता है। 2. वाम दृष्टि से विशाखा नक्षत्र, अ. और त. अक्षरों तथा वृषभ और तुला राशियों को। 3. सम्मुख दृष्टि से श्रवण नक्षत्र को वेधता है। इसी प्रकार सत्ताईस नक्षत्रों की वेध दिशा देखी जाती हैं।
फल कथन कैसे
 सर्वतोभद्र चक्र से फलित कैसे करते हैं?: सर्वतोभद्र चक्र से फलित करने के लिए निम्नलिखित विधि है। - इस चक्र को लकड़ी पर बना लें। - अक्षरादि अर्थात अक्षर, स्वर, तिथि, नक्षत्र और राशियां पांच हैं। अतः इनकी पांच गोटियां बना लें या शतरंज की गोटियों को पहचान के अनुसार रंग लें।
इसी प्रकार नवग्रह की नौ गोटियां उनके रंगानुसार रंग लें जैसे सूर्य को नारंगी, चंद्र को श्वेत, मंगल को लाल, बुध को हरा, गुरु को पीला, शुक्र को पीतश्वेत, शनि को काला, राहु को आसमानी और केतु को बैंगनी रंग लें। - मनुष्य, पशु, पक्षी, देश, ग्राम आदि में से जिसका भी शुभाशुभ विचार करना हो या जिस किसी वस्तु की तेजी-मंदी जाननी हो उसका जन्म नाम ज्ञात हो तो वह लें और यदि नहीं ज्ञात हो तो प्रसिद्ध नाम लेकर उस अक्षर का जो नक्षत्र हो वह नक्षत्र तथा जो राशि हो वह राशि और अकारादि पांच स्वरों में से जो अक्षर हो वह स्वर तथा वर्ण, तिथि चक्र में नंदादि पांच तिथियों में से उस अक्षर की जो तिथि हो वह तिथि सर्वतोभद्र चक्र में जहां अंकित हो वहां अक्षरादि की पांच गोटियां रख दें। -
अब वेध विचारने के लिए सूर्यादि नौ ग्रहों को पंचांग में देखकर कि वे जिस नक्षत्र में हों वहां उन ग्रहों की गोटियां रख देने पर वेध देखने में आसानी होगी। मनुष्यादि में जिस अक्षरादि को शुभ ग्रह का वेध होगा उसे शुभफल और जिस अक्षरादि को अशुभ ग्रह का वेध होगा उसको अशुभ फल होगा। सर्वतोभद्र में शुभ ग्रहों का वेध होने पर मंदी तथा अशुभ ग्रहों का वेध होने पर तेजी होती है। यह फल देश एवं राजकीय परिस्थितियों के अनुसार कम एवं अधिक होता है। उदाहरणतः एक दो नक्षत्र का प्रमाण नीचे। अश्विनी नक्षत्र पर शुभ ग्रहों के वेध से चावल सहित सभी धान्य, तृण, सभी प्रकार के वस्त्र, घी, खच्चर, ऊंट आदि सस्ते और अशुभ ग्रहों के वेध से महंगे होते हैं। भरणी और अशुभ ग्रहों का वेध होने पर गेहूं, चावल, जौ, चना, ज्वार आदि धान्य, जीरा, काली मिर्च, सौंठ, पिप्पल, गर्म मसाले और किराने की सब वस्तुएं महंगी और शुभ ग्रह का वेध होने पर सस्ती होती हैं। - जिस नक्षत्र पर ग्रह रखा हो उस नक्षत्र स्थान से तीन ओर वेध होता है। मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि ग्रह कभी वक्री, कभी शीघ्रगामी और कभी मध्यचारी होते हैं। इन पांच ग्रहों में से जो वक्री होगा उसका वेध दाहिनी ओर, जो शीघ्रगामी होगा उसका बायीं ओर और जो मध्यचारी होगा उसका वेध सामने की ओर होगा। यह ध्यान रखें कि राहु तथा केतु सदैव के वक्री और सूर्य तथा चंद्र के सदैव शीघ्रगामी होने से इन चार ग्रहों का वेध सदैव तीनों ओर को एकसमान होता है। - पापी ग्रह का वेध पाप वेध और शुभ ग्रह का वेध शुभ वेध कहलाता है पाप वेध का फल नेष्ट और शुभ वेध का फल शुभ फल होता है। वेध कारक पापी ग्रह यदि वक्री हो तो अत्यंत अनिष्टकारी होता है। उसी प्रकार वेध कारक शुभ ग्रह यदि वक्री हो तो अत्यंत अनिष्ठकारी होता हो तो अत्यधिक शुभ होता है। सौम्य और क्रूर ग्रह यदि शीघ्रगामी हांे तो जिसके साथ स्थित हों उसके स्वभावानुसार फल देते हैं। अर्थात - जब क्रूर ग्रह वक्री होते हैं तो महाक्रूर फल दिखाते हैं। - जब शुभ ग्रह वक्री होते हैं तो राज्य प्राप्ति सदृश्य अत्यंत शुभ फल करते हैं। - जब शुभ ग्रह वक्री होते हैं तो अत्यंत शुभ फल देते हैं। - यदि पापी ग्रह वक्री हों तो जातक (जिसकी जन्म कुंडली का विचार करना हो) को अनेक कष्टों में डालते हैं और वह व्यर्थ में मारा-मारा फिरता है। परिश्रम करता है पर सफलता हाथ नहीं आती। नामाक्षर से फल कथन

अब किसी व्यक्ति का शुभाशुभ सर्वतोभद्र से विचार करना हो तो उसके नाम का (प्रसिद्ध नाम का) प्रथम अक्षर, स्वर, जन्मनक्षत्र, जन्मतिथि तथा जन्म राशि एक कागज पर नोट करें। वर्ण स्वर मालूम करने की विधि इस प्रकार है: वर्ण स्वरचक्र क घ ड ध भ व इनका वर्ण स्वर ‘‘अ’’ ख ज ढ न म श इनका वर्ण स्वर ‘‘इ’’ ग झ त प य ष इनका वर्ण स्वर ‘‘उ’’ घ ट थ फ र स इनका वर्ण स्वर ‘‘ए’’ च ठ द ब ल ह इनका वर्ण स्वर ‘‘ओ’’ यद्यपि ;पद्ध ब और व, ;पपद्ध श और स ;पपपद्ध ष और ख इनका वर्ण स्वर ऊपर के चक्र में अलग अलग है लेकिन दोनों में से (जैसे ब और व) के एक का वर्ण स्वर विद्ध हो तो दूसरे का भी समझना चाहिए। ‘क’ से ‘ह’ तक 33 व्यंजन होते हैं। यहां चक्र में व्यंजन सिर्फ 30 ही दिए गए हैं। ड़, ´, ण नहीं दिए गए है क्योंकि इन अक्षरों से प्रायः कोई नाम शुरू नहीं होता है। यदि ड़, ´, ण, इनका वर्ण स्वर ज्ञात करना हो तो ड़ का ‘उ’ ´ का ‘इ’ तथा ण का ‘अ’ वर्ण स्वर होता है। वेध फल: ऊपर जन्म नक्षत्र, जन्मराशि, जन्मतिथि, नाम के प्रथम अक्षर और नाम के प्रथम अक्षर के वर्ण स्वर में यदि - एक का क्रूर वेध हो तो उद्वेग (चिंता परेशानी)। - दो का क्रूर वेध हो तो भय। - तीन का क्रूर वेध हो तो हानि (घाटा नुकसान)। - चार का क्रूर वेध हो तो रोग (बीमारी)। - पांचों का क्रूर वेध हो तो मृत्यु। - यदि जन्म राशि शनि, मंगल, राहु, केतु, और सूर्य पांचों का क्रूर वेध हो तो मृत्यु। - यदि जन्म राशि शनि, मंगल, राहु, केतु, सूर्य इन पांचों से वेध में आए तो भी मृत्यु या मृत्यु सदृश कष्ट होता है। जिस प्रकार पापी ग्रहों के वेध से ऊपर कष्ट फल बताया गया है उसी प्रकार शुभ ग्रहों के वेध से शुभ फल होता है। जन्म नक्षत्र, जन्म राशि आदि का शुभ ग्रह (वृहस्पति आदि) से जितना अधिक वेध होगा उतना ही अधिक शुभ फल होगा। पापी ग्रह और शुभ ग्रह दोनों वेध करते हांे तो तारतम्य करके फल कहना चाहिए। पापी ग्रह का वेध: साधारणतः जन्म नक्षत्र का वेध होने से भ्रम (इधर-उधर भटकना या मन में ऊल जलूल विचार आना), नामाक्षर के वेध से हानि, स्वर वेध होने से हानि, तिथि वेध होने से भय और जन्म राशि के वेध होने से महाविघ्न और पांचों का एक साथ वेध हो तो जातक की मृत्यु होती है। अब युद्ध के समय (अर्थात जिस आदमी का शुभाशुभ विचार कर रहे हैं वह लड़ाई के मैदान में शत्रु से लड़ रहा हो तो एक जन्म नाम, नक्षत्र आदि) के वेध से भय, दो के वेध से धनक्षय (यदि मुकदमा लड़ रहा हो), तीन के वेध से भंग (हाथ-पैर टूटना), चार के वेध से मृत्यु। - सूर्य वेध से राज्य-भय, पशु-भय, पितृ विरोध, ताप, शिरोशूल, मान हानि, कार्यहानि। - क्षीण चंद्र नक्षत्रादि का वेध करे तो संपूर्ण दिन कार्य नाशक होता है। - मंगल नक्षत्र, एवं वर्णादि को विद्ध करे तो अग्नि-भय, शस्त्र-भय, भूमिनाश, कार्य की हानि, क्रोधाधिक्य, धन-क्षय, द्वन्द्व, रक्त विकार आदि अशुभ करे। - क्रूर ग्रहों से युक्त बुध वेधकारक होने पर रोग-शोक का संकेत, विद्या एवं प्रतियोगी परीक्षाओं में अवरोध और असफलता, व्यापार में घाटा, धन का अपव्यय जैसे दुष्परिणाम देता है। शुभयुत बुध के वेध करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है। जैसे शुभागमन, शुभ-सूचना, हर्ष, व्यापार लाभ, विद्या एवं प्रतियोगी परीक्षाओं में मनोवांछित सफलता की प्राप्ति इत्यादि शुभ फल। - गुरु का वेध कल्याणकारी होता है। वेदों, पुराणों, उपनिषदों का पठन-पाठन, चिंतन-मनन, धर्म-कर्म, भक्ति भावना की अभिवृद्धि, तीर्थ, भ्रमण, विद्यालय, सौभाग्य, गौरव, गुरुत्व कार्य से लाभ, सुख संपन्नता के शुभ फल। - शुक्र का वेध सर्वोत्तम फल प्रदायक होता है। मनोरंजन के साधनों की वृद्धि, स्त्री-रति, नवीन वस्त्राभूषणों की प्राप्ति, सर्व कार्य सफलता जैसे उत्तम फल। - शनि के वेध से स्थान भय, स्वजन विरोध, आधि-व्याधि, क्लेश, शोक संदेश, बंधन, वातज रोग वृद्धि, यात्रा में हानि, चोराग्नि भय, कार्य की हानि, अविवेक। - राहु के वेध से मिरगी, मूच्र्छावस्था, कार्यों में अड़ंगे आना, बाधाएं, सर्प भय, भीषण डरावने स्वप्न, बने बनाए कार्यों का अचानक टूट जाना आदि बुरे फल। - केतु के वेध से अपकीर्ति, शरीर पीड़ा, स्त्री विरोध, चर्म रोग, एवं राज्य भय - यदि वेध के समय ग्रह वक्री हो तो दोगुना फल देता है। पापी ग्रह हो तो दोगुना कष्ट, शुभ ग्रह हो तो दोगुना लाभ या प्रसन्नता। - यदि वेध के समय ग्रह अपनी उच्च राशि में हो तो तीनगुना फल। - सामान्य स्थिति में हो तो सामान्य फल। - नीच राशि में हो तो आधा फल। मुहूर्त के समय वेध के प्रकार और फल: - जिन तिथियों, राशियों, नवांशों या नक्षत्रों का पापी ग्रह से वेध हो रहा हो उन्हें शुभ कार्य प्रारंभ के समय नहीं लेना चाहिए। - ऐसे समय जो बीमार पड़ता है वह जल्दी अच्छा नहीं होता। विवाह करता है तो दाम्पत्य सुख नहीं मिलता। यात्रा करता है तो यात्रा सफल नहीं होती। - यदि जन्म का वार विद्ध हो (देखिए सर्वतोभद्र चक्र में तिथियों के कोष्ठों में सू.चं. मं. आदि लिखे हंै- उनसे उन ग्रहों के वार समझना चाहिए) तो उस वार को मन को खुशी नहीं होती, पीड़ा होती है। अस्त दिशा और फल: - वृष, मिथुन, कर्क पूर्व की राशियां हंै। जब इन तीनों राशियों में से किसी में सूर्य हो तब पूर्व दिशा को अस्त समझना चाहिए। ईशान कोण में स्वर हो- अर्थात अ,उ,लृ,ओ-तो इसे भी अस्त समझें। - दक्षिण की ओर सिंह, कन्या, और तुला राशियां हों और यदि इनमें से किसी भी राशि में सूर्य हो तो दक्षिण दिशा को अस्त समझना चाहिए। आ,ऊ,लृ और औ स्वर हैं, इन्हें अस्त मानें। - पश्चिम दिशा की ओर वृश्चिक, धनु, मकर राशियां हैं। जब इनमें से किसी में सूर्य हो तो इस दिशा को तथा नैर्ऋत्य कोण के स्वर इ,ऋ,ए,अं, को अस्त कहा जाता है। - उत्तर दिशा में कुंभ, मीन, मेष राशियां हैं। ये राशियां तथा वायव्य कोण के चार स्वर ई, ऋ,ऐ, और अः उस समय अस्त माने जाते हैं जब कुंभ, मीन और मेष राशियों में से किसी में सूर्य हो। - जो राशिश्यां अस्त हांे उनकी दिशा की तिथियां, नक्षत्र, स्वर, वर्ण, सब अस्त समझे जाएंगे। - यदि किसी का नामाक्षर, स्वर, जन्मनक्षत्र, जन्मराशि, तिथि सब अस्त हांे तो नक्षत्र के अस्त होने से रोग, वर्षा, नामाक्षर के अस्त होने से हानि, स्वर के अस्त होने से शोक, राशि के अस्त होने से विघ्न, और तिथि के अस्त होने से भय होता है। - अस्त दिशा की ओर यात्रा नहीं करनी चाहिए। उस दिशा में मकान का दरवाजा न बनवाएं। - जब नामाक्षर अस्त हो तो कार्य में प्रायः सफलता नहीं मिलती है। - जन्म नक्षत्र उदित हो जाए अर्थात् ‘अस्त’ दोष न रहे तो पुष्टि, वर्ण नामाक्षर उदित हो तो लाभ, स्वर उदित हो तो सुख, जन्म राशि उदित हो तो जय, जन्म तिथि उदित हो तो तेज और पांचों उदित हांे तो नवीन पद की प्राप्ति। 6. सूर्यादिग्रह वेधानुसार फल इस प्रकार करते हैं। सूर्य के वेध से मन को ताप, राज्यभय, शीतज्वर, सिर में पीड़ा, परदेश गमन, हानि, चैपायों से भय, माता-पिता से विरोध, धनहानि व पशुओं का नाश होता है। मंगल के वेध से धन हानि, बुद्धि का नाश, कार्य हानि, मन में पीड़ा, स्त्री-पुत्रादि से विवाद, स्वजनों से वियोग, उदर विकार आदि होते हंै एवं रक्त विकार होने की संभावना होती है। शनि के वेध से रोग से पीड़ा, नौकर व मित्रों से विवाद या कष्ट, बंधन, स्थान हानि, यात्रा में कष्ट, शरीर का क्षय आदि होते हंै। राहु के वेध से हृदय में पीड़ा या रोग, मूच्र्छा, घात, बाधा, नीच जाति के कारण अपयश और व्यर्थ का विवाद आदि और केतु के वेध से धनहानि, विघ्न, स्त्री को कष्ट, राज्यभय, शारीरिक कष्ट, इच्छा की अपूर्ति आदि होते हैं। वेध विचार में विशेष सावधानी: वेध विचार करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जब वेध समाप्त होता है तो कष्ट आदि से मुक्ति मिलती है। शुभ ग्रहों के वेध से सदैव शुभता मिलती है और यह तब तक रहती है जब तक उसका वेध रहता है। शुभ ग्रह के वेध होने पर यदि पापी, अस्त या निर्बल ग्रह की युति हो तो भी अशुभ फल मिलता है। फल का अनुमान ग्रहों की प्रकृति के अनुसार लगा लिया जाता है। अस्तादि का विचार भी कर लेना चाहिए। इससे फलित में और अधिक सत्यता आ जाती है। अस्तादि के लिए अधोलिखित नियमों का पालन करना चाहिए। सूर्य जिस दिशा की राशियों पर होता है वे राशियां तीन महीने के लिए अस्त हो जाती हैं और शेष राशियां नौ महीने तक उदित रहती हैं। जो राशियां अस्त होती हैं उनके नक्षत्र, स्वर, वर्ण, राशि, तिथि और दिशाएं भी अस्त होती हैं। यह अस्त अवधि तीन माह तक होती है। नक्षत्र अस्त हो तो रोग, वर्ण अस्त हो तो हानि, स्वर अस्त हो तो शोक, राशि अस्त हो तो विघ्न, तिथि अस्त हो तो भय और यदि पांचों अस्त हों तो निश्चय ही घोर कष्ट या मृत्यु तुल्य कष्ट होता है या मृत्यु तक हो जाती है। सर्वतोभद्र चक्र से रोग विचार: रोग विचार में भी इस चक्र का प्रयोग कर सकते हैं। रोग के समय क्रूर ग्रह का वेध वक्र गति से हो तो रोगी की मृत्यु होती है और शीघ्र गति से वेध हो तो रोग बना रहता है। रोग काल में सूर्य से वेध हो तो पीड़ा, मंगल से वेध हो तो श्वासकासादि से विशेष कष्ट, राहु या केतु से वेध हो तो ऊपरी हवाओं से कष्ट या मिरगी, पागलपन या अर्धविक्षिप्तता या लाइलाज रोग जैसे कैंसर आदि होते हैं। यदि नाम के नक्षत्र का वेध हो तो नेत्रविकार, मन में क्लेश, मतिभ्रष्ट या मतिभ्रम या उद्वेग होता है। क्रूर ग्रह का वेध नाम के स्वर को हो तो मुख में रोग, दांत में पीड़ा और कान में विकार होता है। यदि यह वेध नाम की तिथि को हो तो त्वचा रोग, उदर विकार, सिर में पीड़ा, पैरों में सूजन और जोड़ों में अत्यंत पीड़ा होती है। यदि क्रूर ग्रह का वेध नाम की राशि को हो तो जल से भय, कफ विकार, नाड़ी में विकार या मंदाग्नि होती है। सर्वतोभद्र चक्र और मेदिनीय ज्योतिष: मेदिनीय ज्योतिष में भी इसका प्रयोग किया जाता है। जिस दिशा में ग्रह का वेध हो उस दिशा के अनुसार देश का विचार करना चाहिए। इसके लिए देश के मानचित्र और संसार का विचार करना हो तो उसका मानचित्र देखें कि वे क्षेत्र जिनको वेध है किस दिशा में पड़ते हैं। यदि शुभ ग्रह का वेध है तो उस क्षेत्र में सुख और उन्नति और अशुभ ग्रह का वेध है तो दुर्भिक्ष, अकाल, प्राकृतिक प्रकोपवश जन धन हानि आदि हो सकते हैं। इसमें स्थान विशेष के नामाक्षर के वेध को भी ध्यान में रखना चाहिए।
नक्षत्र से फल कथन
ग्रह, नक्षत्र व राशि के वेधानुसार समन्वययुक्त फलादेश करने पर फल सटीक बैठता है। यह वेध जिस अवधि में होता है उसी के अनुसार वह फल घटित होता है। सर्वतोभद्र चक्र से मुहूर्त विचार: जब नामाक्षर अस्त हो तो उस समय कोई भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। वेध वाली तिथियां, राशियां, अंश (नवांश राशि), नक्षत्र शुभ कार्यों में त्याज्य हंै। क्रूर ग्रह का वेध राशि पर हो तो स्थान नाश, नक्षत्र पर हो तो हानि, नवांश पर हो तो कष्ट या मृत्यु होती है। इन तीनों का वेध हो तो बचने की कोई संभावना नहीं रहती है। तिथि पर वेध हो तो कार्य हानि होती है। चंद्र विचार: जन्म के समय जिस नक्षत्र में चंद्रमा हो वह जन्म नक्षत्र कहलाता है। जन्म नक्षत्र से दसवां नक्षत्र ‘कर्म’ सोलहवां नक्षत्र सांघातिक, अठारहवां ‘सामुदायिक’, उन्नीसवां नक्षत्र ‘आधान’, तेईसवां विनाशी, छव्वीसवां ‘जाति’, सत्ताईसवां देश और अट्ठाईसवां नक्षत्र ‘अभिषेक’ कहलाता है। यदि जन्म, कर्म, आधान और विनाश नक्षत्रों में पापी ग्रह का गोचर हो तो कष्ट, कलह, दुख शोक आदि होते हैं। सामुदायिक नक्षत्र में पापी ग्रह हो तो कोई अनिष्ट होता है। ‘जाति’ नक्षत्र का वेध हो तो कुटुंब कष्ट, ‘अभिषेक’ नक्षत्र का पापी ग्रह से वेध हो तो कष्ट (जेल आदि) ‘देश’ नक्षत्र में पापी ग्रह हो तो देश निष्कासन आदि अनिष्टकारी फल होते हैं। यदि शुभ ग्रहों से वेध हो तो शुभ फल होता है। निष्कर्ष: वेध कारक पापी ग्रह दुखदायी होते हैं। शुभ ग्रह वेध कारक होने से शुभफल करते हैं। अतः गोचर में सर्वतोभद्र में जो वेध द्वारा शुभ या अशुभ फल बताए गए हंै उनका भी विचार कर लेना चाहिए। यदि कोई ग्रह गोचर में अशुभ हो या किसी अनिष्टप्रद ग्रह की दशा अंतर्दशा हो तो उस ग्रह को प्रसन्न करने वाले व्रत, दान, वंदना, जप, शांति आदि सुकर्मों के द्वारा उसके अशुभ फल से बचाव करना चाहिए।

   

भक्तामर स्तोत्र श्लोक 28 का भावार्थ

*भक्तामरः अंतस्तल का स्पर्श*
*श्लोक 28 . पवित्र आभामण्डल*

*उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूखः*
*माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।*
*स्पष्टोल्लसत् किरणमस्ततमोवितानं*
*बिम्बं रवेरिव पयोधर-पार्श्ववर्ति।।*

प्रस्तुत सन्दर्भ में आचार्य मानतुंग भगवान् ऋषभदेव की *बाह्य विभूतियों* का वर्णन करते हुए कहते हैं -केवलज्ञान होने के बाद तीर्थंकर जहां विराजमान होते हैं, वहां *अष्ट प्रातिहार्य* स्वयं ही सुशोभित हो जाते हैं।
1. अशोक वृक्ष
2. दिव्य पुष्प-वृष्टि
3. दिव्य ध्वनि
4. देवदुन्दुभि
5. सिंहासन
6. भामण्डल
7. चामर
8. छत्र
ये तीर्थंकर के आठ अतिशय हैं। इस श्लोक में केवल "अशोकवृक्ष" का वर्णन किया गया है।

यहां रूप का अर्थ है - शरीर।
आपके शरीर के ऊपर "अशोक वृक्ष" शोभायमान है। आपका शरीर अशोक वृक्ष से "संश्रित" है।
आपके शरीर के ऊपरी भाग से "किरणें" निकल रही हैं।

 महापुरुषों के सिर के पीछे एक "आभा का वलय" दिखाया जाता है जिसे भामण्डल कहते हैं।
 "उन्मयूख"का अर्थ है - भामण्डल में से किरणें निकल रही है।
जैसे सूर्य के मण्डल में से किरणें निकलती हैं, वैसे ही आपके "शरीर के चारों ओर किरणें" प्रस्फुटित हो रही हैं।

इन आभामण्डल से निकलने वाली किरणों ने "अंधकार के समस्त वितान"को अस्त कर दिया है (अस्त तमो वितानम्)।
महान् आत्माओं का आभामण्डल इतना शक्तिशाली होता है कि उसके "परिपार्श्व का अंधकार" नष्ट हो जाता है।

 जिसका *आंतरिक व्यक्तित्व"निर्मल होता है, उसका आभामण्डल भी "प्रभावशाली और पवित्र" होता है। उसके प्रकाश में पाप का अंधकार विलीन हो जाता है।

आचार्य ने इसके प्रतिपादन में बहुत सुंदर उपमा दी है।

 हे प्रभो! आप ऐसे लग रहे हैं,
जैसे चारों ओर "काले कजरारे बादल"(पयोधर) हैं
और बीच में "सूर्य"अपनी प्रभा से "दीप्तिमान" हो रहा है।

जैसे श्यामल आभा वाले बादलों के बीच "सूर्य"प्रतिभासित होता है,
उसी प्रकार अशोक वृक्ष के नीचे आप "सुशोभित" हो रहे हैं।
अशोक वृक्ष का रंग "गहरा नीला"होता है।
वह बादल जैसा काला-कजरारा है।
ऐसे अशोक वृक्ष के संश्रय में आपका यह प्रकाशमान शरीर "दीप्तिमान"हो रहा है।

वास्तव में आभामण्डल से ही व्यक्ति के "व्यक्तित्व की सही पहचान" होती है।
प्राचीन काल में योगी "शिष्य" बनाते थे
तो वे व्यक्ति के रूप-रंग को नहीं देखते थे
या आकृति और बनावट को नहीं देखते थे।
काला-गोरा, सुंदर-असुंदर नहीं देखते थे।
 वे आभामण्डल के आधार पर यह परीक्षा करते थे कि यह व्यक्ति "शिष्य बनने योग्य" है या नहीं।
वस्तुतः आभामण्डल का विज्ञान किसी के "व्यक्तित्व के विश्लेषण"का विज्ञान है।

आज चिकित्सा के क्षेत्र में "डायग्नोसिस"के अनेक साधन उपलब्ध हैं, किन्तु जो प्रामाणिकता "आभाण्डल" में है वह अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकती।

शरीर, मन और भावों के आरोग्य का रहस्य है- पवित्र आभामण्डल।
आचार्य कहते हैं - हे प्रभो! आपकी "पवित्रता का द्योतक"है आपका आभामण्डल।

"इस जगत में तीर्थंकर के समान कोई भी सुन्दर नहीं है।"

अनेक लोग सुन्दर दिखाई देते हैं अपने रूप-रंग के कारण,
लेकिन जब कोई व्यक्ति उनके पास जाकर बैठता है तो उसका मन विषाद से भर जाता है।

जिसका आभामण्डल पवित्र होता है, वह भले ही सुन्दर न दिखाई देता हो,
लेकिन उसके पास बैठने से "आनन्द की अनुभूति" होती है।
आत्म-संतोष और शान्ति मिलती है।
"पवित्र आभामण्डल"
 से प्रस्फुटित होने वाली "किरणों"से मन की "बेचैनी और उदासी" पल भर में "गायब" हो जाती है।

यही कारण है कि भक्त लोगों का मन अपने गुरुदेव के पास से "उठने का"नहीं होता,
चाहे वे अपने "मुख से"कुछ बोलें या नहीं।
गुरुदेव के पास जाते ही "सब प्रश्नों का समाधान"स्वयं ही मिल जाता है।
सब "विस्मृत-सा" हो जाता है कि हम क्या कहने या पूछने आए थे।

एक बार *इन्द्र* के मन में कौतुहल जाग गया।
उसने सोचा कि मुझे मनुष्यों की *परीक्षा* लेनी चाहिए। वह रूप बदल कर पृथ्वी पर आया
और एक महानगर के मुख्य बाज़ार में *सिद्ध योगी* का रूप धर कर बैठ गया।
उसने घोषणा करवा दी कि ‘तुम्हारे नगर में एक *अद्भुत संन्यासी* आया है जो किसी भी *कुरूप व भद्दी वस्तु को सुरूप व सुन्दर* बना सकता है।’

लोगों की तो भीड़ उमड़ पड़ी।
किसी ने अपना रूप बदलवाया, किसी ने रंग, किसी ने आभूषण!
*काला आदमी गोरा बन गया, कुरूप को रूप मिल गया*।
यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा।

एक दिन संन्यासी ने पूछा कि क्या नगर में कोई *ऐसा आदमी* बचा है जिसने अपनी किसी वस्तु में *बदलाव* न करवाया हो?
लोगों ने बताया कि *आमजन* में से तो कोई बाकी नहीं बचा,
केवल एक *संन्यासी* है जो आपके पास नहीं आया।

वह सिद्ध योगी बना हुआ इन्द्र *स्वयं* संन्यासी के पास गया।
वह कुछ देर तक संन्यासी को *निहारता* रहा ।
फिर बोला - ‘बाबा! तुम्हारे पास *कुछ भी नहीं* है।
शरीर भी *जर्जर और कुरूप-सा* हो रहा है।
ऐसा अवसर दोबारा नहीं मिलेगा।
मैं कल यहाँ से जा रहा हूँ।
*कुछ बदलवाना है तो बताओ।*
 एकदम नौजवान बना दूंगा।’
संन्यासी ने मुस्कुराते हुए कहा - ‘महात्मन्! मुझे *कुछ नहीं चाहिए*।’
सिद्ध योगी ने विस्मित होकर पूछा - ‘बाबा! *क्यों* नहीं चाहिए?’
संन्यासी ने कहा - ‘ महात्मन्!
इस दुनिया में *मनुष्य-जीवन से बढ़ कर कोई सुन्दर वस्तु* नहीं हो सकती और वह मुझे प्राप्त है।
*आत्म-सन्तुष्टि से बढ़ कर कोई आनन्द* नहीं है और वह मुझे प्राप्त है।
जब यह दुर्लभ सौन्दर्य और आनन्द मुझे प्राप्त है तो मुझे अब कोई *तमन्ना शेष नहीं* है।’
सिद्ध योगी यह सुन कर *अवाक्* रह गया और उनके *पवित्र आभामण्डल* को ही देखता रह गया।

आचार्य मानतुंग तीर्थंकर भगवान की सुन्दरता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि

अशोक वृक्ष के नीचे *विराजमान* पवित्र आभामण्डल से सुशोभित *ऋषभदेव का सौन्दर्य अद्वितीय* है
और सबके लिए *सुख और आनन्द* देने वाला है।

*जहां शोक है, वहां समस्या है और जहां अशोक है, वहां आनन्द है।*
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मोक्ष के मूल तत्व

इन्हें जानना अनिवार्य है ।
त्रिकालः षटद्रव्यानि तत्वा पदार्था: लेश्याषटकाया:।
व्रततसमितिगत्यस्तिश्चारित्र ज्ञानं ते मोक्षमूलं मंगलम् ।।

अर्थ-तीन काल, 6 द्रव्य, 9 पदार्थ,6 लेश्या, 24 जीव षटकाय,5 व्रत, 5 समिति, 4 गति, 5 अस्तिकाय ,5 ज्ञान, 5 चारित्र ये सभी मोक्ष के मूल हैं और मंगल हैं।

         संत शिरोमणी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

jai jinendra

जय जिनेंद्र

गाय के गोबर का महत्व

 आयुर्वेद ग्रंथों  में हमारे ऋषि मुनियों ने पहले ही बता दिया गया  था कि   *धोवन पानी पीने का वैज्ञानिक तथ्य और आज की आवश्यकता* वायुमण्डल में...