*भक्तामरः अंतस्तल का स्पर्श*
*श्लोक 28 . पवित्र आभामण्डल*
*उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूखः*
*माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।*
*स्पष्टोल्लसत् किरणमस्ततमोवितानं*
*बिम्बं रवेरिव पयोधर-पार्श्ववर्ति।।*
प्रस्तुत सन्दर्भ में आचार्य मानतुंग भगवान् ऋषभदेव की *बाह्य विभूतियों* का वर्णन करते हुए कहते हैं -केवलज्ञान होने के बाद तीर्थंकर जहां विराजमान होते हैं, वहां *अष्ट प्रातिहार्य* स्वयं ही सुशोभित हो जाते हैं।
1. अशोक वृक्ष
2. दिव्य पुष्प-वृष्टि
3. दिव्य ध्वनि
4. देवदुन्दुभि
5. सिंहासन
6. भामण्डल
7. चामर
8. छत्र
ये तीर्थंकर के आठ अतिशय हैं। इस श्लोक में केवल "अशोकवृक्ष" का वर्णन किया गया है।
यहां रूप का अर्थ है - शरीर।
आपके शरीर के ऊपर "अशोक वृक्ष" शोभायमान है। आपका शरीर अशोक वृक्ष से "संश्रित" है।
आपके शरीर के ऊपरी भाग से "किरणें" निकल रही हैं।
महापुरुषों के सिर के पीछे एक "आभा का वलय" दिखाया जाता है जिसे भामण्डल कहते हैं।
"उन्मयूख"का अर्थ है - भामण्डल में से किरणें निकल रही है।
जैसे सूर्य के मण्डल में से किरणें निकलती हैं, वैसे ही आपके "शरीर के चारों ओर किरणें" प्रस्फुटित हो रही हैं।
इन आभामण्डल से निकलने वाली किरणों ने "अंधकार के समस्त वितान"को अस्त कर दिया है (अस्त तमो वितानम्)।
महान् आत्माओं का आभामण्डल इतना शक्तिशाली होता है कि उसके "परिपार्श्व का अंधकार" नष्ट हो जाता है।
जिसका *आंतरिक व्यक्तित्व"निर्मल होता है, उसका आभामण्डल भी "प्रभावशाली और पवित्र" होता है। उसके प्रकाश में पाप का अंधकार विलीन हो जाता है।
आचार्य ने इसके प्रतिपादन में बहुत सुंदर उपमा दी है।
हे प्रभो! आप ऐसे लग रहे हैं,
जैसे चारों ओर "काले कजरारे बादल"(पयोधर) हैं
और बीच में "सूर्य"अपनी प्रभा से "दीप्तिमान" हो रहा है।
जैसे श्यामल आभा वाले बादलों के बीच "सूर्य"प्रतिभासित होता है,
उसी प्रकार अशोक वृक्ष के नीचे आप "सुशोभित" हो रहे हैं।
अशोक वृक्ष का रंग "गहरा नीला"होता है।
वह बादल जैसा काला-कजरारा है।
ऐसे अशोक वृक्ष के संश्रय में आपका यह प्रकाशमान शरीर "दीप्तिमान"हो रहा है।
वास्तव में आभामण्डल से ही व्यक्ति के "व्यक्तित्व की सही पहचान" होती है।
प्राचीन काल में योगी "शिष्य" बनाते थे
तो वे व्यक्ति के रूप-रंग को नहीं देखते थे
या आकृति और बनावट को नहीं देखते थे।
काला-गोरा, सुंदर-असुंदर नहीं देखते थे।
वे आभामण्डल के आधार पर यह परीक्षा करते थे कि यह व्यक्ति "शिष्य बनने योग्य" है या नहीं।
वस्तुतः आभामण्डल का विज्ञान किसी के "व्यक्तित्व के विश्लेषण"का विज्ञान है।
आज चिकित्सा के क्षेत्र में "डायग्नोसिस"के अनेक साधन उपलब्ध हैं, किन्तु जो प्रामाणिकता "आभाण्डल" में है वह अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकती।
शरीर, मन और भावों के आरोग्य का रहस्य है- पवित्र आभामण्डल।
आचार्य कहते हैं - हे प्रभो! आपकी "पवित्रता का द्योतक"है आपका आभामण्डल।
"इस जगत में तीर्थंकर के समान कोई भी सुन्दर नहीं है।"
अनेक लोग सुन्दर दिखाई देते हैं अपने रूप-रंग के कारण,
लेकिन जब कोई व्यक्ति उनके पास जाकर बैठता है तो उसका मन विषाद से भर जाता है।
जिसका आभामण्डल पवित्र होता है, वह भले ही सुन्दर न दिखाई देता हो,
लेकिन उसके पास बैठने से "आनन्द की अनुभूति" होती है।
आत्म-संतोष और शान्ति मिलती है।
"पवित्र आभामण्डल"
से प्रस्फुटित होने वाली "किरणों"से मन की "बेचैनी और उदासी" पल भर में "गायब" हो जाती है।
यही कारण है कि भक्त लोगों का मन अपने गुरुदेव के पास से "उठने का"नहीं होता,
चाहे वे अपने "मुख से"कुछ बोलें या नहीं।
गुरुदेव के पास जाते ही "सब प्रश्नों का समाधान"स्वयं ही मिल जाता है।
सब "विस्मृत-सा" हो जाता है कि हम क्या कहने या पूछने आए थे।
एक बार *इन्द्र* के मन में कौतुहल जाग गया।
उसने सोचा कि मुझे मनुष्यों की *परीक्षा* लेनी चाहिए। वह रूप बदल कर पृथ्वी पर आया
और एक महानगर के मुख्य बाज़ार में *सिद्ध योगी* का रूप धर कर बैठ गया।
उसने घोषणा करवा दी कि ‘तुम्हारे नगर में एक *अद्भुत संन्यासी* आया है जो किसी भी *कुरूप व भद्दी वस्तु को सुरूप व सुन्दर* बना सकता है।’
लोगों की तो भीड़ उमड़ पड़ी।
किसी ने अपना रूप बदलवाया, किसी ने रंग, किसी ने आभूषण!
*काला आदमी गोरा बन गया, कुरूप को रूप मिल गया*।
यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा।
एक दिन संन्यासी ने पूछा कि क्या नगर में कोई *ऐसा आदमी* बचा है जिसने अपनी किसी वस्तु में *बदलाव* न करवाया हो?
लोगों ने बताया कि *आमजन* में से तो कोई बाकी नहीं बचा,
केवल एक *संन्यासी* है जो आपके पास नहीं आया।
वह सिद्ध योगी बना हुआ इन्द्र *स्वयं* संन्यासी के पास गया।
वह कुछ देर तक संन्यासी को *निहारता* रहा ।
फिर बोला - ‘बाबा! तुम्हारे पास *कुछ भी नहीं* है।
शरीर भी *जर्जर और कुरूप-सा* हो रहा है।
ऐसा अवसर दोबारा नहीं मिलेगा।
मैं कल यहाँ से जा रहा हूँ।
*कुछ बदलवाना है तो बताओ।*
एकदम नौजवान बना दूंगा।’
संन्यासी ने मुस्कुराते हुए कहा - ‘महात्मन्! मुझे *कुछ नहीं चाहिए*।’
सिद्ध योगी ने विस्मित होकर पूछा - ‘बाबा! *क्यों* नहीं चाहिए?’
संन्यासी ने कहा - ‘ महात्मन्!
इस दुनिया में *मनुष्य-जीवन से बढ़ कर कोई सुन्दर वस्तु* नहीं हो सकती और वह मुझे प्राप्त है।
*आत्म-सन्तुष्टि से बढ़ कर कोई आनन्द* नहीं है और वह मुझे प्राप्त है।
जब यह दुर्लभ सौन्दर्य और आनन्द मुझे प्राप्त है तो मुझे अब कोई *तमन्ना शेष नहीं* है।’
सिद्ध योगी यह सुन कर *अवाक्* रह गया और उनके *पवित्र आभामण्डल* को ही देखता रह गया।
आचार्य मानतुंग तीर्थंकर भगवान की सुन्दरता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि
अशोक वृक्ष के नीचे *विराजमान* पवित्र आभामण्डल से सुशोभित *ऋषभदेव का सौन्दर्य अद्वितीय* है
और सबके लिए *सुख और आनन्द* देने वाला है।
*जहां शोक है, वहां समस्या है और जहां अशोक है, वहां आनन्द है।*
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*श्लोक 28 . पवित्र आभामण्डल*
*उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूखः*
*माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।*
*स्पष्टोल्लसत् किरणमस्ततमोवितानं*
*बिम्बं रवेरिव पयोधर-पार्श्ववर्ति।।*
प्रस्तुत सन्दर्भ में आचार्य मानतुंग भगवान् ऋषभदेव की *बाह्य विभूतियों* का वर्णन करते हुए कहते हैं -केवलज्ञान होने के बाद तीर्थंकर जहां विराजमान होते हैं, वहां *अष्ट प्रातिहार्य* स्वयं ही सुशोभित हो जाते हैं।
1. अशोक वृक्ष
2. दिव्य पुष्प-वृष्टि
3. दिव्य ध्वनि
4. देवदुन्दुभि
5. सिंहासन
6. भामण्डल
7. चामर
8. छत्र
ये तीर्थंकर के आठ अतिशय हैं। इस श्लोक में केवल "अशोकवृक्ष" का वर्णन किया गया है।
यहां रूप का अर्थ है - शरीर।
आपके शरीर के ऊपर "अशोक वृक्ष" शोभायमान है। आपका शरीर अशोक वृक्ष से "संश्रित" है।
आपके शरीर के ऊपरी भाग से "किरणें" निकल रही हैं।
महापुरुषों के सिर के पीछे एक "आभा का वलय" दिखाया जाता है जिसे भामण्डल कहते हैं।
"उन्मयूख"का अर्थ है - भामण्डल में से किरणें निकल रही है।
जैसे सूर्य के मण्डल में से किरणें निकलती हैं, वैसे ही आपके "शरीर के चारों ओर किरणें" प्रस्फुटित हो रही हैं।
इन आभामण्डल से निकलने वाली किरणों ने "अंधकार के समस्त वितान"को अस्त कर दिया है (अस्त तमो वितानम्)।
महान् आत्माओं का आभामण्डल इतना शक्तिशाली होता है कि उसके "परिपार्श्व का अंधकार" नष्ट हो जाता है।
जिसका *आंतरिक व्यक्तित्व"निर्मल होता है, उसका आभामण्डल भी "प्रभावशाली और पवित्र" होता है। उसके प्रकाश में पाप का अंधकार विलीन हो जाता है।
आचार्य ने इसके प्रतिपादन में बहुत सुंदर उपमा दी है।
हे प्रभो! आप ऐसे लग रहे हैं,
जैसे चारों ओर "काले कजरारे बादल"(पयोधर) हैं
और बीच में "सूर्य"अपनी प्रभा से "दीप्तिमान" हो रहा है।
जैसे श्यामल आभा वाले बादलों के बीच "सूर्य"प्रतिभासित होता है,
उसी प्रकार अशोक वृक्ष के नीचे आप "सुशोभित" हो रहे हैं।
अशोक वृक्ष का रंग "गहरा नीला"होता है।
वह बादल जैसा काला-कजरारा है।
ऐसे अशोक वृक्ष के संश्रय में आपका यह प्रकाशमान शरीर "दीप्तिमान"हो रहा है।
वास्तव में आभामण्डल से ही व्यक्ति के "व्यक्तित्व की सही पहचान" होती है।
प्राचीन काल में योगी "शिष्य" बनाते थे
तो वे व्यक्ति के रूप-रंग को नहीं देखते थे
या आकृति और बनावट को नहीं देखते थे।
काला-गोरा, सुंदर-असुंदर नहीं देखते थे।
वे आभामण्डल के आधार पर यह परीक्षा करते थे कि यह व्यक्ति "शिष्य बनने योग्य" है या नहीं।
वस्तुतः आभामण्डल का विज्ञान किसी के "व्यक्तित्व के विश्लेषण"का विज्ञान है।
आज चिकित्सा के क्षेत्र में "डायग्नोसिस"के अनेक साधन उपलब्ध हैं, किन्तु जो प्रामाणिकता "आभाण्डल" में है वह अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकती।
शरीर, मन और भावों के आरोग्य का रहस्य है- पवित्र आभामण्डल।
आचार्य कहते हैं - हे प्रभो! आपकी "पवित्रता का द्योतक"है आपका आभामण्डल।
"इस जगत में तीर्थंकर के समान कोई भी सुन्दर नहीं है।"
अनेक लोग सुन्दर दिखाई देते हैं अपने रूप-रंग के कारण,
लेकिन जब कोई व्यक्ति उनके पास जाकर बैठता है तो उसका मन विषाद से भर जाता है।
जिसका आभामण्डल पवित्र होता है, वह भले ही सुन्दर न दिखाई देता हो,
लेकिन उसके पास बैठने से "आनन्द की अनुभूति" होती है।
आत्म-संतोष और शान्ति मिलती है।
"पवित्र आभामण्डल"
से प्रस्फुटित होने वाली "किरणों"से मन की "बेचैनी और उदासी" पल भर में "गायब" हो जाती है।
यही कारण है कि भक्त लोगों का मन अपने गुरुदेव के पास से "उठने का"नहीं होता,
चाहे वे अपने "मुख से"कुछ बोलें या नहीं।
गुरुदेव के पास जाते ही "सब प्रश्नों का समाधान"स्वयं ही मिल जाता है।
सब "विस्मृत-सा" हो जाता है कि हम क्या कहने या पूछने आए थे।
एक बार *इन्द्र* के मन में कौतुहल जाग गया।
उसने सोचा कि मुझे मनुष्यों की *परीक्षा* लेनी चाहिए। वह रूप बदल कर पृथ्वी पर आया
और एक महानगर के मुख्य बाज़ार में *सिद्ध योगी* का रूप धर कर बैठ गया।
उसने घोषणा करवा दी कि ‘तुम्हारे नगर में एक *अद्भुत संन्यासी* आया है जो किसी भी *कुरूप व भद्दी वस्तु को सुरूप व सुन्दर* बना सकता है।’
लोगों की तो भीड़ उमड़ पड़ी।
किसी ने अपना रूप बदलवाया, किसी ने रंग, किसी ने आभूषण!
*काला आदमी गोरा बन गया, कुरूप को रूप मिल गया*।
यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा।
एक दिन संन्यासी ने पूछा कि क्या नगर में कोई *ऐसा आदमी* बचा है जिसने अपनी किसी वस्तु में *बदलाव* न करवाया हो?
लोगों ने बताया कि *आमजन* में से तो कोई बाकी नहीं बचा,
केवल एक *संन्यासी* है जो आपके पास नहीं आया।
वह सिद्ध योगी बना हुआ इन्द्र *स्वयं* संन्यासी के पास गया।
वह कुछ देर तक संन्यासी को *निहारता* रहा ।
फिर बोला - ‘बाबा! तुम्हारे पास *कुछ भी नहीं* है।
शरीर भी *जर्जर और कुरूप-सा* हो रहा है।
ऐसा अवसर दोबारा नहीं मिलेगा।
मैं कल यहाँ से जा रहा हूँ।
*कुछ बदलवाना है तो बताओ।*
एकदम नौजवान बना दूंगा।’
संन्यासी ने मुस्कुराते हुए कहा - ‘महात्मन्! मुझे *कुछ नहीं चाहिए*।’
सिद्ध योगी ने विस्मित होकर पूछा - ‘बाबा! *क्यों* नहीं चाहिए?’
संन्यासी ने कहा - ‘ महात्मन्!
इस दुनिया में *मनुष्य-जीवन से बढ़ कर कोई सुन्दर वस्तु* नहीं हो सकती और वह मुझे प्राप्त है।
*आत्म-सन्तुष्टि से बढ़ कर कोई आनन्द* नहीं है और वह मुझे प्राप्त है।
जब यह दुर्लभ सौन्दर्य और आनन्द मुझे प्राप्त है तो मुझे अब कोई *तमन्ना शेष नहीं* है।’
सिद्ध योगी यह सुन कर *अवाक्* रह गया और उनके *पवित्र आभामण्डल* को ही देखता रह गया।
आचार्य मानतुंग तीर्थंकर भगवान की सुन्दरता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि
अशोक वृक्ष के नीचे *विराजमान* पवित्र आभामण्डल से सुशोभित *ऋषभदेव का सौन्दर्य अद्वितीय* है
और सबके लिए *सुख और आनन्द* देने वाला है।
*जहां शोक है, वहां समस्या है और जहां अशोक है, वहां आनन्द है।*
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