Tuesday, December 22, 2020

वास्तु शास्त्र एवं दिशाओं के प्रभाव

 वास्तु शास्त्र’ मुख्यतः दिशाओं पर आधारित सैद्धांतिक विज्ञान है। अतः दिशाओं से संबंधित कौन-कौन से दोष हमारे घर एवं व्यवसायिक संस्थान में मौजूद हैं, यह जानकर तथा दिशाओं से संबंधित ग्रहों को मजबूत करके हम आज के भौतिकतावादी युग में तनाव एवं परेशानियों को दूर कर सकते हैं। इतना ही नहीं वरन् वास्तु शास्त्र एवं ज्योतिष के नियमों के आधार पर दिशाओं एवं ज्योतिषीय ग्रहों में समन्वय स्थापित करके हम धन, संपदा, सुख, शांति, ऐश्वर्य संपदा। सभी कुछ प्राप्त कर सकते हैं।


ज्योतिष एवं वास्तु दोनों ही शास्त्रों में चार मुख्य दिशाओं एवं चार उपदिशाओं अर्थात कुल आठ दिशाओं को मान्यता प्राप्त है। ये आठ दिशायें तथा उनसे संबंधित ग्रह एवं देवता इस प्रकार हैं- दिशा अधिपति ग्रह देवता 1. पूर्व सूर्य इंद्र 2. पश्चिम शनि वरुण 3. उत्तर बुध कुबेर 4. दक्षिण मंगल यम 5. उत्तर-पूर्व गुरु शिव 6. उत्तर पश्चिम चंद्र वायु देवता 7. दक्षिण पूर्व शुक्र अग्नि देवता 8.दक्षिण पश्चिम राहु-केतु नैति उ. पू. पू. द.पूउ. प. प. द.प उ. द. (गुरु) (सूर्य) (शुक्र) (बुध) (मंगल) (चंद्र) (शनि) (राहु-केतु) गायत्री मंत्र, आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें। पश्चिम दिशा: इस दिशा का स्वामी ग्रह शनि है। शनि ग्रह को मुख्यतः आयु, रोग, कठोर वाणी, सेवक, कर्मचारी इत्यादि का कारक ग्रह माना जाता है।



पश्चिम दिशाः सफलता, संपन्नता एवं उज्जवल भविष्य की नियामक दिशा है। इस दिशा में दोष होने पर वायु विकार कुष्ठ रोग, पैरों में दर्द एवं जीवन में प्रसिद्धि एवं सफलता की कमी बनी रहती है।

उपाय: पश्चिम दिशा के भूखंड या पश्चिमी भाग में गड्ढा, दरार या नीचा स्थान नहीं होना चाहिये। शनि यंत्र की उपासना करें। मांस मदिरा का सेवन न करें। भैरो की उपासना करें। 

उत्तर दिशा: ज्योतिष के अनुसार उत्तर दिशा का पूर्ण स्वामित्व ‘बुध ग्रह’ को प्राप्त है। बुध ग्रह ज्योतिषीय दृष्टि से, ज्योतिष, शिल्प, कानून हास्य-विनोद एवं वित्त व्यवस्था से संबंधित ग्रह पूर्व दिशा - ज्योतिष के अनुसार पूर्व दिशा का आधिपत्य सूर्य ग्रह को प्राप्त है। सूर्य आत्मा, आरोग्य, स्वभाव, राज्य प्रतिष्ठा, प्रभाव, यश, सौभाग्य तथा पिता का कारक ग्रह माना गया है। वास्तु एवं ज्योतिषीय दोनों ही दृष्टियों से पूर्व दिशा अच्छे स्वास्थ्य, धन, वृद्धि एवं सुख समृद्धि की दिशा मानी गई है। यदि पूर्व दिशा में दोष है अर्थात् पूर्व दिशा में कहीं भी खुला स्थान नहीं है तो घर में मुख्यतः (पितृ दोष) की संभावना होती है। जिसके फलसवरूप किसी भी कार्य में सफलता न मिलना पिता एवं बाॅस से संबंध खराब होना। घर के मुखिया का स्वास्थ्य खराब रहना तथा सरकारी नौकरी में परेशानी होती है। साथ ही सिर दर्द, नेत्र रोग, क्षय रोग, अस्थि रोग, हृदय रोग, दांत एवं जीभ के रोग मस्तिष्क एवं बुद्धि की दुर्बलता जैसी भयानक बीमारियों का सामना भी करना पड़ सकता है।


उपाय: भवन निर्माण करते समय पूर्व दिशा का कुछ हिस्सा खुला छोड़ देना चाहिए एवं पूर्व दिशा के भूखंड को थोड़ा नीचा रखना चाहिये। है। वास्तु शास्त्र के अनुसार सभी प्रकार की भौतिक सुख समृद्धि एवं भोग विलास की प्राप्ति उत्तर दिशा के शुभ होने पर ही प्राप्त की जा सकती है। इस दिशा में दोष हो अथवा बुध ग्रह कुपित हो तो घर में हमेशा नीरवता का वातावरण रहेगा, व्यवसाय मंे हानि, आर्थिक तंगी, वाणी दोष, विद्या प्राप्ति में बाधा/ त्वचा रोग एवं मतिभ्रम होने का भय रहता है। दोष दूर करने के उपाय: उत्तर दिशा को अधिक ऊंचा न रखें। उत्तर दिशा में थोड़ा खाली स्थान अवश्य रखें। बुध यंत्र की स्थापना करनी चाहिये। कुबेर, दुर्गा जी अपना गणेश जी की पूजा अवश्य करनी चाहिये।


दक्षिण दिशा - दक्षिण दिशा का स्वामी ग्रह ‘मंगल’ है। मंगल ग्रह ज्योतिषीय दृष्टि से मुख्यतः धैर्य, पराक्रम, साहस, शक्ति, क्रोध, उत्तेजना षड्यंत्र, शत्रु, विवाद, छोटे भाई, अचल संपत्ति, भूमि तथा रक्त इत्यादि का कारक ग्रह माना गया है। वास्तु की दृष्टि से यह दिशा पद, प्रतिष्ठा, पिता के सुख एवं जीवन में स्थायित्व प्रदान करने की मुख्य दिशा मानी गई है। इस दिशा में दोष हो तो जातक को निम्न कष्टों का सामना करना पड़ सकता है। - अत्यधिक क्रोध आना। - भाइयों से विवाद होना। - शत्रुओं का सक्रिय होना। फोडे-फंुंसी एवं रक्त संबंधी अशुद्धियां होना।



उपाय: दक्षिण दिशा में सदैव ऊंचा व भारी निर्माण करवाना चाहिये। हनुमान जी की पूजा एवं मंगल यंत्र की स्थापना करनी चाहिए। हर मंगलवार को गरीबों को कुछ मिठाई अवश्य देनी चाहिए।


उत्तर-पूर्व दिशा (ईशान कोण) ईशान कोण का स्वामी ग्रह ‘गुरु’ है। ज्योतिष में गुरु ग्रह को मुख्यतः धार्मिक कार्यों एवं आध्यात्मिकता का कारक ग्रह माना गया है। यह दिशा ज्ञान एवं धर्म-कर्म का सूचक है। इस दिशा में दोष होने पर अथवा पत्रिका में गुरु ग्रह के पीड़ित होने पर व्यक्ति कभी भी पूजा पाठ ढंग से नहीं करेगा, घर में धन की कमी बनी रहेगी तथा बच्चों के विवाह भी देर से होंगे। साथ ही उदर विकार, मधुमेह तथा पाचन क्रिया से संबंधित रोग भी हो सकते हैं।


उपाय: ईशान कोण को हमेशा साफ सुथरा रखना चाहये। इस दिशा में कभी भी शौचालय का निर्माण नहीं करवाना चाहिये। गुरुओं और ब्राह्मणों का सम्मान करना चाहये। धार्मिक पुस्तकों का दान करना चाहिये।


दक्षिण-पूर्व दिशा (आग्नेय कोण) इस दिशा का स्वामित्व ‘शुक्र ग्रह’ को प्राप्त है। शुक्र ग्रह को मुख्यतः विवाह प्रेम संबंध, ऐश्वर्य, सौंदर्य, वाहन, आकर्षक व्यक्तित्व, रतिक्रिया एवं कामक्रीड़ा का कारक ग्रह माना गया है। वास्तु की दृष्टि से यह दिशा उत्तम शयन सुख एवं प्रजनन क्रिया की दिशा है। यदि इस दिशा में कोई भी वास्तु दोष है अथवा शुक्र ग्रह पीड़ित है तो पत्नी सुख में बाधा/ वैवाहिक जीवन में कड़वाहट, असफल प्रेम संबंध, वाहन से कष्ट, कामेच्छा का समाप्त होना, मधुमेह/ आंखों के रोग, मूत्र रोग एवं गुप्त रोगों की संभावना बनी रहती है।


उपाय: आग्नेय कोण में कभी भी पानी का टैंक अथवा भूमिगत टैंक का निर्माण नहीं करवाना चाहये। शुक्र यंत्र की विधिवत स्थापना करनी चाहिए। चांदी अथवा स्फटिक के श्रीयंत्र की पूजा करें।


उत्तर पश्चिम दिशा (वायव्य कोण) इस दिशा का स्वामी ग्रह ‘चंद्र’ है। चंद्र ग्रह मन, माता, मस्तिष्क, घरेलू वातावरण, शिक्षा, आवास, निद्रा तथा गुप्त प्रेम संबंधों का कारक ग्रह है। वास्तु शास्त्र के अनुसार यह दिशा मानसिक विकास, मित्र-शत्रु, अतिथि अथवा रिश्तेदारों से संबंधित है। इस दिशा में दोष होने पर जातक को निम्नलिखित कष्टों का सामना करना पड़ सकता है। -माता तथा रिश्तेदारों से संबंध ठीक न होना। मानसिक परेशानी, अनिद्रा, तनाव रहना। - काक संबंधी रोग अस्थमा, मासिक चक्र अथवा प्रजनन संबंधी रोगों का बढ़ना।


उपाय: वायव्य कोण को ईशान की अपेक्षा नीचा न रक्खें। चंद्र की रोशनी में बैठकर ‘‘ऊँं श्रां श्रीं श्रौं सः चन्द्रमसे नमः’’ मंत्र का जाप करें। माता का आदर करें। शिव की उपासना करें।


दक्षिण-पश्चिम दिशा (र्नैत्य कोण ) दक्षिण, पश्चिम दिशा का स्वामित्व ज्योतिष में ‘राहु-केतु’ ग्रहों को प्राप्त है। ज्योतिषीय दृष्टि से ‘राहु’ को दादा तथा ‘केतु’ को नाना का प्रतीकात्मक ग्रह माना गया है। राहु का संबंध विदेशी भाषा, लोभ, झूठ, षड़यंत्र, दुष्टता। वैधव्य चोरी एवं जुएं तथा विदेश यात्रा से है तथा केतु मुख्यतः अचानक होने वाली घटनाएं, भूत-प्रेत, तंत्र मंत्र, जादू-टोने घमंड इत्यादि का कारक ग्रह है। ज्योतिष में राहु-केतु दोनों छाया ग्रहों को ’पृथकतावादी’ ग्रहों की संज्ञा दी गई है। वास्तु की दृष्टि से इस दिशा को ‘आसुरी दिशा’ अथवा भूत प्रेत की दिशा कहा गया है। इस दिशा में यदि दोष है तो जातक को कई परेशानियांे का सामना करना पड़ सकता है। जैसे- दादा या नाना से संबंध मधुर न रहना। ससुराल पक्ष से परेशानी पत्नी की हानि, नौकरी, अपनो से अलगाव, अहंकार उत्पन्न होना, झूठ बोलना जुए की लत, जादू टोने तथा ऊपरी हवा आदि का असर होना तथा संक्रामक रोगों का होना।


उपाय: चूंकि इस दिशा को ‘यम’ की दिशा भी कहा गया है अतः वास्तु की दृष्टि से इस स्थान को कभी भी खाली नहीं छोड़ना चाहिए। यदि र्नैत्य कोण में दोष रह गया है तो सरस्वती अथवा गणेश जी की यथाशक्ति पूजा करनी चाहिए। राहु-केतु के मंत्रों का जाप करना चाहियें सतनाजा (सात अनाज) तथा जल का दान करने से राहु-केतु ग्रहों की शांति होती है तथा इस दिशा में उत्पन्न दोषों का शमन होता है।

Thursday, September 17, 2020

जैन दर्शन और उसके उद्देश्य एवं ग्रन्थ परिचय

 दर्शन और उसका उद्देश्य  

'कर्मारातीन् जयतीति जिन:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने राग द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह 'जिन' है।


अर्हत, अरहन्त, जिनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट दर्शन जैनदर्शन हैं।

आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है।

जैन दर्शन का निर्देश है कि आचार का अनुपालन विचारपूर्वक किया जाये। धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। *अत: जैन धर्म का जो 'आत्मोदय' के साथ 'सर्वोदय'- सबका कल्याण उद्दिष्ट है।[1] उसका समर्थन करना जैन दर्शन का लक्ष्य हैं जैन धर्म में अपना ही कल्याण नहीं चाहा गया है, अपितु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और विश्व के जनसमूह, यहाँ तक कि प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है।[2]

जैन दर्शन के प्रमुख अंग

द्रव्य-मीमांसा

तत्त्व-मीमांसा

पदार्थ-मीमांसा

पंचास्तिकाय-मीमांसा

अनेकान्त-विमर्श

स्याद्वाद विमर्श

सप्तभंगी विमर्श


 

द्रव्य-मीमांसा

मुख्य लेख : द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन

वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में द्रव्य और पदार्थ दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा सांख्य दर्शन और बौद्ध दर्शनों में क्रमश: तत्त्व और आर्य सत्यों का कथन किया गया है, वेदान्त दर्शन में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और चार्वाक दर्शन में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक्-पृथक् विस्तृत निरूपण किया गया है।[3]


जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना ज़रूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं।

तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है।

भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि 'अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:' मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है।

अस्तिकाय की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो 'अस्ति' और 'काय' दोनों है। 'अस्ति' का अर्थ 'है' है और 'काय' का अर्थ 'बहुप्रदेशी' है अर्थात् जो द्रव्य है' होकर कायवाले- बहुप्रदेशी हैं, वे 'अस्तिकाय' हैं।[4] ऐसे पाँच द्रव्य हैं-

पुद्गल

धर्म

अधर्म

आकाश

जीव

कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।

तत्त्व मीमांसा

मुख्य लेख : तत्त्व मीमांसा -जैन दर्शन

तत्त्व का अर्थ है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। 'तस्य भाव: तत्त्वम्' अर्थात् वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है[5]। जैन दर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।[6]


बहिरात्मा,

अन्तरात्मा और

परमात्मा।

मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक, पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर अभ्यास से कर्म-कलङ्क से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर) हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन, आत्म विद्या की ओर लगाव अपूर्व है।


 

पदार्थ मीमांसा

मुख्य लेख : पदार्थ मीमांसा -जैन दर्शन

उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।[7]


पंचास्तिकाय मीमांसा

मुख्य लेख : पंचास्तिकाय मीमांसा -जैन दर्शन

जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं।[8]


अनेकान्त विमर्श

मुख्य लेख : अनेकान्त विमर्श -जैन दर्शन

'अनेकान्त' जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता।


स्याद्वाद विमर्श

मुख्य लेख : स्याद्वाद विमर्श -जैन दर्शन

स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है।


समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और विद्यानन्द ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।


 

आगम (श्रुत)

शब्द, संकेत, चेष्टा आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह आगम है। जैसे- 'मेरु आदिक है' शब्दों को सुनने के बाद सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है।[9] शब्द श्रवणादि मतिज्ञान पूर्वक होने से यह ज्ञान (आगम) भी परोक्ष प्रमाण है। इस तरह से स्मृत्यादि पाँचों ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं। स्मरण में धारणा रूप अनुभव (मति), प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में अनुभव, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्ति स्मरण और आगम में शब्द, संकेतादि अपेक्षित हैं- उनके बिना उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है। अतएव ये और इस जाति के अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।


नय-विमर्श

नय-स्वरूप— अभिनव धर्मभूषण ने[10] न्याय का लक्षण करते हुए कहा है कि 'प्रमाण-नयात्मको न्याय:'- प्रमाण और नय न्याय हैं, क्योंकि इन दोनों के द्वारा पदार्थों का सम्यक् ज्ञान होता है। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र के, जिसे 'महाशास्त्र' कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रमाण और मय को जीवादि तत्त्वार्थों को जानने का उपाय बताया गया है और वह है- 'प्रमाणनयैरधिगम:[11]'। वस्तुत: जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के आधार पर निर्मित हुआ है।


नय-भेद


उपर्युक्त प्रकार से मूल नय दो हैं[12]-


द्रव्यार्थिक और

पर्यायार्थिक।

इनमें द्रव्यार्थिक तीन प्रकार का हैं[13]-

नैगम,

संग्रह,

व्यवहार। तथा

पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं[14]-

ऋजुसूत्र,

शब्द,

समभिरूढ़ और

एवम्भूत।

नैगम नय जो धर्म और धर्मी में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें 'सुख' धर्म की प्रधानता और 'जीव' धर्मी की गौणता है अथवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें 'जीव' धर्मी की प्रधानता है, क्योंकि वह विशेष्य है और 'सुख' धर्म गौण है, क्योंकि वह विशेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण किया गया है। जो भावी कार्य के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है।


संग्रह नय जो प्रतिपक्ष की अपेक्षा के साथ 'सन्मात्र' को ग्रहण करता है वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है, किन्तु सर्वथा 'सत्' कहने पर 'चेतन, अचेतन विशेषों का निषेध होने से वह संग्रहाभास है। विधिवाद इस कोटि में समाविष्ट होता है।


व्यवहार नय संग्रहनय से ग्रहण किये 'सत्' में जो नय विधिपूर्वक यथायोग्य भेद करता है वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत 'सत्' द्रव्य हे या पर्याप्त है या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है।


ऋजुसूत्र नय भूत और भविष्यत पर्यायों को गौण कर केवल वर्तमान पर्याय को जो नय ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है। वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानना ऋजुसूत्रनय है, क्योंकि इसमें वस्तु में होने वाली भूत और भविष्यत की पर्यायों तथा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप हो जाता है।


शब्द नय


जो काल, कारक और लिङ्ग के भेद से शब्द में कथं चित् अर्थभेद को बतलाता है वह शब्दनय है। जैसे 'नक्तं निशा' दोनों पर्यायावाची हैं, किन्तु दोनों में लिंग भेद होने के कथं चित् अर्थभेद है। 'नक्तं' शब्द नंपुसक लिंग है और 'निशा' शब्द स्त्रीलिंग है। 'शब्दभेदात् ध्रुवोऽर्थभेद:' यह नय कहता है। अर्थभेद को कथं चित् माने बिना शब्दों को सर्वथा नाना बतलाकर अर्थ भेद करना शब्दनयाभास हैं


समभिरूढ़ नय


जो पर्याय भेद पदार्थ का कथंचित् भेद निरूपित करता है वह समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्याय शब्द होने से उनके अर्थ में कथं चित् भेद बताना। पर्याय भेद माने बिना उनका स्वतंत्र रूप से कथन करना समभिरूढ नयाभास है।[15]'


एवंभूत नय


जो क्रिया भेद से वस्तु के भेद का कथन करता है वह एवंभूत नय हैं जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अथवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह नय क्रिया पर निर्भर है। इसका विषय बहुत सूक्ष्म है। क्रिया की अपेक्षा न कर क्रिया वाचक शब्दों का कल्पनिक व्यवहार करना एवंभूतनयाभास है।



 

जैन दर्शन का उद्भव और विकास

उद्भव


आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निबद्ध 'षट्खंडागम' में, जो दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, 'सिया पज्जत्ता', 'सिया अपज्जता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया', 'अखंखेज्जा* 'जैसे 'सिया' (स्यात्) शब्द और प्रश्नोत्तरी शैली को लिए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।

'षट्खंडागम' के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के 'पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार' आदि आर्ष ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अधिक उद्गमबीज मिलते हैं। 'सिय अत्थिणत्थि उहयं', 'जम्हा' जैसे युक्ति प्रवण वाक्यों एवं शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूर्वक विषयों को दृढ़ किया गया है।

विकास


काल की दृष्टि से उनके विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-


आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल (ई. 200 से ई. 650)।

मध्यकाल अथवा अकलंक-काल (ई. 650 से ई. 1050)।

उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अथवा प्रभाचन्द्र-काल (ई. 1050 से 1700)। आगे विस्तार में पढ़ें:- जैन दर्शन का उद्भव और विकास

जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ

आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय


ये दोनों ही आचार्य उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंश पत्र्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रसिद्ध हुआ है।

जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण जयधवल टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। आगे विस्तार में पढ़ें:- जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ



 

जैन दर्शन में अध्यात्म

'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत् जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-


जीव,

पुद्गल,

धर्म,

अधर्म,

आकाश और

काल। आगे विस्तार में पढ़ें:- जैन दर्शन में अध्यात्म

जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ

बीसवीं शती के जैन तार्किक


बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित दर्शन और न्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय के साथ ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं। सन्तप्रवर न्यायचार्य पं. गणेशप्रसाद वर्णी न्यायचार्य, पं. माणिकचन्द्र कौन्देय, पं. सुखलाल संघवी, डा. पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री, पं. दलसुख भाइर मालवणिया एवं इस लेख के लेखक डा. पं. दरबारी लाला कोठिया न्यायाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ



 

त्रिभंगी टीका

आस्रवत्रिभंगी,

बंधत्रिभंगी,

उदयत्रिभंगी और

सत्त्वत्रिभंगी-इन 4 त्रिभंगियों को संकलित कर टीकाकार ने इन पर संस्कृत में टीका की है।

आस्रवत्रिभंगी 63 गाथा प्रमाण है।

इसके रचयिता श्रुतमुनि हैं।

बंधत्रिभंगी 44 गाथा प्रमाण है तथा उसके कर्ता नेमिचन्द शिष्य माधवचन्द्र हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- त्रिभंगी टीका

पंचसंग्रह टीका

मूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ प्राकृत भाषा में है। इस पर तीन संस्कृत-टीकाएँ हैं।


श्रीपालसुत डड्ढा विरचित पंचसंग्रह टीका,

आचार्य अमितगति रचित संस्कृत-पंचसंग्रह,

सुमतकीर्तिकृत संस्कृत-पंचसंग्रह।

पहली टीका दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत-अनुष्टुपों में परिवर्तित रूप है। इसकी श्लोक संख्या 1243 है। कहीं कहीं कुछ गद्यभाग भी पाया जाता है, जो लगभग 700 श्लोक प्रमाण है। इस तरह यह लगभग 2000 श्लोक प्रमाण है। यह 5 प्रकरणों का संग्रह है। वे 5 प्रकरण निम्न प्रकार हैं-

जीवसमास,

प्रकृतिसमुत्कीर्तन,

कर्मस्तव,

शतक और

सप्ततिका।

इसी तरह अन्य दोनों संस्कृत टीकाओं में भी समान वर्णन है।

विशेष यह है कि आचार्य अमितगति कृत पंचसंग्रह का परिमाण लगभग 2500 श्लोक प्रमाण है। तथा सुमतकीर्ति कृत पंचसंग्रह अति सरल व स्पष्ट है।

इस तरह ये तीनों टीकाएँ संस्कृत में लिखी गई हैं और समान होने पर भी उनमें अपनी अपनी विशेषताएँ पाई जाती हैं।

कर्म साहित्य के विशेषज्ञों को इन टीकाओं का भी अध्ययन करना चाहिए। आगे विस्तार में पढ़ें:- पंचसंग्रह टीका


 

मन्द्रप्रबोधिनी

शौरसेनी प्राकृत भाषा में आचार्य नेमिचन्द्र सि0 चक्रवर्ती द्वारा निबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की संस्कृत भाषा में रची यह एक विशद् और सरल व्याख्या है। इसके रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। यद्यपि यह टीका अपूर्ण है किन्तु कर्मसिद्धान्त को समझने के लिए एक अत्यन्त प्रामाणिक व्याख्या है। केशववर्णी ने इनकी इस टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिसका नाम कर्नाटकवृत्ति है, किया है। इससे ज्ञात होता है कि केशववर्णी ने उनकी इस मन्दप्रबोधिनी टीका से लाभ लिया है।

गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा लिखा गया कर्म और जीव विषयक एक प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण प्राकृत-ग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं-

एक जीवकाण्ड और

दूसरा कर्मकाण्ड।

जीवकाण्ड में 734 और कर्मकाण्ड में 972 शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गाथाएं हैं। कर्मकाण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाएं लिखी गई हैं। वे हैं-


गोम्मट पंजिका,

मन्दप्रबोधिनी,

कन्नड़ संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्वप्रदीपिका,

संस्कृत में ही रचित अन्य नेमिचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीपिका। इन टीकाओं में विषयसाम्य है पर विवेचन की शैली इनकी अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और सरलता इनमें देखी जा सकती है।

आगे विस्तार में पढ़ें:- मन्द्रप्रबोधिनी


टीका टिप्पणी और संदर्भ

 सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव–समन्तभद्र युक्त्यनु. का. 61

 क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल: काले वर्ष प्रदिशतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्। दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके, जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि॥

 त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्काय - लेश्या:, पंचान्ये चास्तिकाया व्रत समिति-गति-ज्ञान- चारित्रभेदा:। इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितै: प्रोक्तमर्हदिभरीशै: प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:॥ - स्तवनसंकलन।

 पंचास्तिकाय, गा. 4-5 द्रव्य सं. गा. 24

 श्रोतव्य:श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:। मत्वा च स्ततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥

 कुन्दकुन्द, मोक्ष प्राभृत गा. 4, 5, 6, 7

 जीवा जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठ॥–पंचास्ति., गा. 108

 द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25

 परी.मु. 3-99, 100, 101

 न्यायदीपिका, पृ. 5, संपादन डॉ. दरबारीलाल कोठिया, 1945

 तत्त्वार्थसूत्र, 1-6

 प्रमयरत्नमाला 6/74, पृ. 206, सं. 1928

 प्रमयरत्नमाला, 6/74

 प्रमयरत्नमाला, पृ. 207

 'तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च। तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्यम् श्रुतं पुन: स्वार्थं भवति परार्थं च। - सर्वार्थसिद्धि 1-6, भा. ज्ञा. संस्करण

विक्रमादित्य के 9 रत्न

 अकबर के नौरत्नों से इतिहास भर दिया पर

महाराजा विक्रमादित्य के नवरत्नों की कोई चर्चा पाठ्यपुस्तकों में नहीं है !

जबकि सत्य यह है कि अकबर को महान सिद्ध करने के लिए महाराजा विक्रमादित्य की नकल करके कुछ धूर्तों ने इतिहास में लिख दिया कि अकबर के भी नौ रत्न थे ।

राजा विक्रमादित्य के नवरत्नों को जानने का प्रयास करते हैं ...📷

राजा विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों के विषय में बहुत कुछ पढ़ा-देखा जाता है। लेकिन बहुत ही कम लोग ये जानते हैं कि आखिर ये नवरत्न थे कौन-कौन।

राजा विक्रमादित्य के दरबार में मौजूद नवरत्नों में उच्च कोटि के कवि, विद्वान, गायक और गणित के प्रकांड पंडित शामिल थे, जिनकी योग्यता का डंका देश-विदेश में बजता था। चलिए जानते हैं कौन थे।

ये हैं नवरत्न –

1–धन्वन्तरि-

नवरत्नों में इनका स्थान गिनाया गया है। इनके रचित नौ ग्रंथ पाये जाते हैं। वे सभी आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र से सम्बन्धित हैं। चिकित्सा में ये बड़े सिद्धहस्त थे। आज भी किसी वैद्य की प्रशंसा करनी हो तो उसकी ‘धन्वन्तरि’ से उपमा दी जाती है।

2–क्षपणक-

जैसा कि इनके नाम से प्रतीत होता है, ये बौद्ध संन्यासी थे।

इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि प्राचीन काल में मन्त्रित्व आजीविका का साधन नहीं था अपितु जनकल्याण की भावना से मन्त्रिपरिषद का गठन किया जाता था। यही कारण है कि संन्यासी भी मन्त्रिमण्डल के सदस्य होते थे।

इन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे जिनमें ‘भिक्षाटन’ और ‘नानार्थकोश’ ही उपलब्ध बताये जाते हैं।

3–अमरसिंह-

ये प्रकाण्ड विद्वान थे। बोध-गया के वर्तमान बुद्ध-मन्दिर से प्राप्य एक शिलालेख के आधार पर इनको उस मन्दिर का निर्माता कहा जाता है। उनके अनेक ग्रन्थों में एक मात्र ‘अमरकोश’ ग्रन्थ ऐसा है कि उसके आधार पर उनका यश अखण्ड है। संस्कृतज्ञों में एक उक्ति चरितार्थ है जिसका अर्थ है ‘अष्टाध्यायी’ पण्डितों की माता है और ‘अमरकोश’ पण्डितों का पिता। अर्थात् यदि कोई इन दोनों ग्रंथों को पढ़ ले तो वह महान् पण्डित बन जाता है।

4–शंकु –

इनका पूरा नाम ‘शङ्कुक’ है। इनका एक ही काव्य-ग्रन्थ ‘भुवनाभ्युदयम्’ बहुत प्रसिद्ध रहा है। किन्तु आज वह भी पुरातत्व का विषय बना हुआ है। इनको संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् माना गया है।

5–वेतालभट्ट –

विक्रम और वेताल की कहानी जगतप्रसिद्ध है। ‘वेताल पंचविंशति’ के रचयिता यही थे, किन्तु कहीं भी इनका नाम देखने सुनने को अब नहीं मिलता। ‘वेताल-पच्चीसी’ से ही यह सिद्ध होता है कि सम्राट विक्रम के वर्चस्व से वेतालभट्ट कितने प्रभावित थे। यही इनकी एक मात्र रचना उपलब्ध है।

6–घटखर्पर –

जो संस्कृत जानते हैं वे समझ सकते हैं कि ‘घटखर्पर’ किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता। इनका भी वास्तविक नाम यह नहीं है। मान्यता है कि इनकी प्रतिज्ञा थी कि जो कवि अनुप्रास और यमक में इनको पराजित कर देगा उनके यहां वे फूटे घड़े से पानी भरेंगे। बस तब से ही इनका नाम ‘घटखर्पर’ प्रसिद्ध हो गया और वास्तविक नाम लुप्त हो गया।

इनकी रचना का नाम भी ‘घटखर्पर काव्यम्’ ही है। यमक और अनुप्रास का वह अनुपमेय ग्रन्थ है।

इनका एक अन्य ग्रन्थ ‘नीतिसार’ के नाम से भी प्राप्त होता है।

7–कालिदास –

ऐसा माना जाता है कि कालिदास सम्राट विक्रमादित्य के प्राणप्रिय कवि थे। उन्होंने भी अपने ग्रन्थों में विक्रम के व्यक्तित्व का उज्जवल स्वरूप निरूपित किया है। कालिदास की कथा विचित्र है। कहा जाता है कि उनको देवी ‘काली’ की कृपा से विद्या प्राप्त हुई थी। इसीलिए इनका नाम ‘कालिदास’ पड़ गया। संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से यह कालीदास होना चाहिए था किन्तु अपवाद रूप में कालिदास की प्रतिभा को देखकर इसमें उसी प्रकार परिवर्तन नहीं किया गया जिस प्रकार कि ‘विश्वामित्र’ को उसी रूप में रखा गया।

जो हो, कालिदास की विद्वता और काव्य प्रतिभा के विषय में अब दो मत नहीं है। वे न केवल अपने समय के अप्रितम साहित्यकार थे अपितु आज तक भी कोई उन जैसा अप्रितम साहित्यकार उत्पन्न नहीं हुआ है। उनके चार काव्य और तीन नाटक प्रसिद्ध हैं। शकुन्तला उनकी अन्यतम कृति मानी जाती है।

8–वराहमिहिर –

भारतीय ज्योतिष-शास्त्र इनसे गौरवास्पद हो गया है। इन्होंने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनमें-‘बृहज्जातक‘, सुर्यसिद्धांत, ‘बृहस्पति संहिता’, ‘पंचसिद्धान्ती’ मुख्य हैं। गणक तरंगिणी’, ‘लघु-जातक’, ‘समास संहिता’, ‘विवाह पटल’, ‘योग यात्रा’, आदि-आदि का भी इनके नाम से उल्लेख पाया जाता है।

9–वररुचि-

कालिदास की भांति ही वररुचि भी अन्यतम काव्यकर्ताओं में गिने जाते हैं। ‘सदुक्तिकर्णामृत’, ‘सुभाषितावलि’ तथा ‘शार्ङ्धर संहिता’, इनकी रचनाओं में गिनी जाती हैं।

इनके नाम पर मतभेद है। क्योंकि इस नाम के तीन व्यक्ति हुए हैं उनमें से-

1.पाणिनीय व्याकरण के वार्तिककार-वररुचि कात्यायन,

2.‘प्राकृत प्रकाश के प्रणेता-वररुचि

3.सूक्ति ग्रन्थों में प्राप्त कवि-वररुचि

पढ़ने की प्रेरणादायक कहानी

 : पढ़ना लिखना बुरा नहीं होता है।        *पढ़ते  रहो, बढ़ते रहो*


42 यूनिवर्सिटी में पढ़े और 20 डिग्रियों वाले श्रीकांत जिचकर (Shrikant Jichkar) को देश का सबसे योग्य, सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा शख्स कहा जाता है. उन्होंने हर परीक्षा फर्स्ट डिविजिन में पास की. पहले वो  डॉक्टर बने, फिर आईएएस (IAS Officer) लेकिन महज 4 महीने में ही नौकरी से इस्तीफा देकर चुनाव लड़ा. फिर विधायक (MLA) और मंत्री (Ministar) भी बने.


: इस युवक का नाम डॉ श्रीकांत जिचकर था. उन्हें भारत का सबसे पढ़ा-लिखा शख्स कहा जाता है. उन्होंने करियर की शुरुआत एमबीबीएस डॉक्टर के रूप में की थी. फिर नागपुर से एमडी की. उन्हें उस वक्त देश का सबसे ज्यादा लिखा-पढ़ा शख्स कहा जाता था. उनके पास 20 से ज्यादा डिग्रियां थीं. पहले वो आईपीएस बने. फिर आईएएस सेलेक्ट हुए. दोनों ही बार उन्होंने इन शानदार नौकरियों को ठुकरा दिया. 14 सितंबर 1954 के दिन जिचकर का जन्म हुआ था. लिम्का बुक ने उन्हें देश का सबसे योग्य व्यक्ति बताया था.


श्रीकांत 1978 में इंडियन सिविल सर्विसेज एग्जाम में बैठे. उनका सेलेक्शन भारतीय पुलिस सेवा यानी आईपीएस में हुआ. उन्होंने इसे छोड़ दिया. वो फिर इसी एग्जाम में बैठे. अबकी बार उनका चयन एक आईएएस के रूप में हो गया. चार महीने बाद ही उन्होंने इस नौकरी से इस्तीफा दे दिया. वजह थी चुनाव मैदान में कूदना. 1980 में वो महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में विजयी रहे. 26 साल की उम्र में देश के सबसे युवा विधायक बने.


 यानी इंटरनेशनल लॉ में पोस्ट ग्रेजुएशन किया. फिर डीबीएम और एमबीए (मास्टर्स इन बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन) किया. बात यहीं तक नहीं रही. श्रीकांत ने पत्रकारिता की भी पढाई की, बेचलर ऑफ जर्नलिज्म की डिग्री हासिल की. फिर संस्कृत में डीलिट (डॉक्टर ऑफ लिटरेचर) हासिल किया. जो किसी भी यूनिवर्सिटी की सबसे उच्च डिग्री होती है.

और पढ़ें

 उन्होंने समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, इतिहास, अंग

उन्होंने समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, इतिहास, अंग्रेजी साहित्य, दर्शन शास्त्र, राजनीति विज्ञान, प्राचीन भारतीय इतिहास, पुरातत्व और मनोविज्ञान में भी एमए किया था. गौरतलब बात ये भी है कि उन्होंने ये सारी डिग्रियां मेरिट में रहकर हासिल की. पढ़ाई के दौरान उन्हें कई बार गोल्ड मेडल मिले. 1973 से लेकर 1990 तक उन्होंने 42 यूनिवर्सिटी एग्जाम दिए.

और पढ़ें

विज्ञापन


 श्रीकांत यहीं नहीं रुके वो महाराष्ट्र के सबसे �

श्रीकांत यहीं नहीं रुके वो महाराष्ट्र के सबसे ताकवर मंत्री भी बने. उनके पास उस समय 14 विभाग थे. वहां उन्होंने 1982 से 85 तक काम किया.  इसके अलगे साल यानि 1986 में वो महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्य बने. यहां पर 1992 तक रहे. 1992 से 1998 के बीच वो राज्यसभा में भी रहे.

और पढ़ें

 जब 1999 में डॉ. जिचकर राज्यसभा का चुनाव हार गए तो उन

जब 1999 में डॉ. जिचकर राज्यसभा का चुनाव हार गए तो उन्होंने अपना फोकस यात्राओं पर केंद्रीत किया. वो देश के कई हिस्सों में गए और वहां स्वास्थ्य, शिक्षा और धर्म के बारे में भाषण देते रहे. उन्होंने यूनेस्को में भारत का प्रतिनिधित्व किया. श्रीकांत के पास देश की सबसे बड़ी पर्सनल लाइब्रेरी थी. जिसमें 52000 से ज्यादा किताबें थीं. डॉ. जिचकर का नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में भारत के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे व्यक्ति के तौर पर शुमार हुआ.

और पढ़ें

विज्ञापन


 जिचकर एक अकादमिक, पेंटर, प्रोफेशनल फोटोग्राफर �

जिचकर एक अकादमिक, पेंटर, प्रोफेशनल फोटोग्राफर और स्टेज एक्टर थे. उन्होंने 1992 में एक स्कूल की स्थापना की. अपनी उम्र में बाद में उन्होंने अकेले दम पर महाराष्ट्र में संस्कृत यूनिवर्सिटी स्थापित की और उसके चांसलर बने.

और पढ़ें

 इस प्रतिभाशाली शख्स का जल्दी ही देहांत भी हो गय�

इस प्रतिभाशाली शख्स का जल्दी ही देहांत भी हो गया. 02 जून 2004 की रात श्रीकांत कार से अपने दोस्त के फॉर्म से घर के लिए नागपुर निकले. वो खुद कार ड्राइव कर रहे थे. रास्ते में उनकी कार एक बस से टकरा गई. इस हादसे में 49 साल की उम्र में उनका निधन हो गया. बेशक उनकी उम्र कम थी लेकिन ये काफी मायने वाली रही. उन्होंने कई भूमिकाएं अदा कीं. खूब पढाई की. राजनीतिक के तौर पर भी भरपूर काम किया.

और पढ़ें

Friday, August 14, 2020

पंचाग के पाँच अंगों का विस्तृत वर्णन :सरल सुबोध शैली में

 *सरल शैली में पंचांग के पांच अंगों का विस्तृत वर्णन*


✍️©डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य

निदेशक-

जैन विद्या अनुसंधान केंद्र अविनाश कॉलोनी दमोह म.प्र.


पंचाग के अंग कौन कौन से हैं।

 पञ्चाङ्ग शब्द से स्वयं ज्ञात हो रहा है जिसमें पाँच अंग निहित हों या पाँच हों जिसके वह पञ्चाङ्ग है ।


अब प्रश्न ये उठता है कि वे पाँच अंग कौन कौन से हैं


ज्योतिष शास्त्रों में वे पाँच अंग बताये गए हैं-


तिथि  र्वारं च नक्षत्रं योगः  करणमेव च ।

पञ्चाङ्गस्य फलं श्रुत्वा,कार्याणां सर्वसिद्धयेत् ।।

तिथि, वार(दिवस), नक्षत्र, योग,और करण ये पंचाग के पाँच अंग हैं। जो इन पंचाङ्गों के फल का श्रवण करता है ,जानता है उसके समस्त कार्यों की सर्व सिद्धि होती है ।


तिथि किसे कहते हैं ?


तिथि-पञ्चाङ्ग का प्रमुख और प्रथम अंग तिथि है । जो चंद्रमा की कलाओं पर आधारित होती है । जिससे मास(माह) का निर्माण एवं विभाजन होता है ।

चंद्रमा की एक कला को तिथि कहा जाता है  या चन्द्रमा की एक कला बराबर एक तिथि होती है । सूर्य और चंद्रमा में जब 12 अंश का अंतर होता है तब एक तिथि का निर्माण होता है ।


पक्ष का निर्माण एवं विभाजन


सूर्य और चन्द्र के अंशो के अंतर से ही  मास को विभाजित करने वाले पक्ष का निर्माण होता है।

तिथि एक माह को दो पक्षों में विभाजित करती है । कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष ।


कृष्ण पक्ष


जब सूर्य और चंद्रमा के अंशों में 360 अंश का अंतर होता है तब उससे कृष्ण पक्ष का निर्माण होता है । इस पक्ष में 15 अंश होते हैं अर्थात 15 तिथियां होती हैं । कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा की कलाएं घटती हैं । इस पक्ष की 15 वीं तिथि को अमावश्या कहते हैं । सूर्य ग्रहण भी कृष्ण पक्ष में अमावश्या तिथि को होता है ।


शुक्ल पक्ष-


जब सूर्य और चंद्रमा के अंशों में 180 अंश का अंतर होता है तब उससे शुक्ल पक्ष का निर्माण होता है । इस पक्ष में 15 अंश होते हैं अर्थात 15 तिथियां होती हैं । शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की कलाएं बढ़ती हैं । इस पक्ष की 15 वीं तिथि को   पूर्णिमा कहते हैं । चन्द्र ग्रहण भी शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा तिथि को होता है ।


तिथियों के नाम


1.प्रतिपदा 

2.द्वितीया 

3.तृतीया 

4.चतुर्थी

5.पंचमी

6.षष्ठी 

7.सप्तमी 

8.अष्टमी

9.नवमी

10.दशमी

11.एकादशी

12.द्वादशी

13.त्रयोदशी

14.चतुर्दशी

15.अमावश्या(कृष्ण पक्ष)

15. पूर्णिमा(शुक्ल पक्ष)



वार किसे कहते हैं?

भारतीय ज्योतिष में सूर्योदय से अगले सूर्योदय पर्यन्त काल को वार कहते हैं । 

सूर्योदयात् आरम्भ सूर्योदय पर्यन्तं य:काल:स वारो ज्ञेयः ।

जैन पंचांग में नाक्षत्रमान के हिसाब से वार को रखा गया है ।


वारों की संख्या एवं संज्ञा


 ज्योतिष में वार की संख्या 7 बताई गई है । वारों का क्रम ग्रहों के अनुसार ना होकर उनके स्वामियों के अनुसार है । अन्यथा राहु और केतु ग्रह के भी वार जोडें वारों की संख्या 9 होती । सात वारों का क्रम निम्न है -


रवि: सोमस्तथा भौमौ बुधौ  गीष्पतिरेव च ।

शुक्र:शनैश्चरश्च एव वारा:सप्त प्रकीर्तिताः ।


जिस दिन का स्वामी सूर्य होता है, उसे रविवार या सूर्यवार कहतें । सभी वारो में वारपति के अनुसार ही नामकरण होगा ।


वार संज्ञाएँ

ज्योतिष शास्त्रों में तिथि, नक्षत्र ,करण एवं योगों की तरह वारों को भी विविध संज्ञा से सज्ञापित किया है । जिनसे उनके कार्यों का निर्धारण एवं   शुभ -अशुभ कार्य बोध सहज  ही हो जाता है ।  

वार संज्ञाएँ निम्न हैं-


स्थिरः सूर्यश्चरश्चन्द्रो भौमश्चोग्रो बुध: समः ।

लघुर्जीवो मृदु: शुक्र:शनिस्तीक्ष्ण: समीरित: ।।


रविवार स्थिर  संज्ञक है इसलिए स्थिर कार्य करना चाहिए, सोमवार चरसंज्ञक  है, भौमवार उग्र संज्ञक है, बुधवार सम संज्ञक है , बृहस्पतिवार लघु संज्ञक है,  शुक्रवार मृदु संज्ञक है एवं शनिवार तीक्ष्ण संज्ञक है । अतः संज्ञाओं के अनुसार ही कार्य करें ।


नक्षत्र किसे कहते हैं ?


नक्षत्र -

सूर्य जिस मार्ग में भ्रमण करता है ,उसे क्रांतिवृत्त या मेरुछिन्न- समानान्तरप्रोतवृत्त कहते हैं । क्रांतिवृत्त के दोनों तरफ 180 अंश का कटिबंध प्रदेश होता है, उसे राशिचक्र कहते हैं ।

ज्योतिष के अनुसार  कई ताराओं के समूह को नक्षत्र कहते हैं। आकाश में इन नक्षत्रों का पंक्तिचक्र रहता है जिसे भचक्र या राशिचक्र कहा जाता है ,जो 360 अंश का होता है इसके 13 अंश को तय करने में चंद्रमा को जितना  समय लगता है वह नक्षत्र कहलाता है । अर्थात 13 अंश का एक नक्षत्र होता है ।


नक्षत्रों की संख्या


 जैन ज्योतिष और वैदिक ज्योतिष  में  नक्षत्र की संख्या को लेकर थोड़ा सा मतान्तर है । जैन ज्योतिष शास्त्रों में अभिजित नक्षत्र को मान्यता प्रदान दी गई  जिससे नक्षत्रों की संख्या 28 बताई गई है । जबकि वैदिक ज्योतिष ग्रन्थों में नक्षत्रों की संख्या 27 बताई गई है ।

ज्योतिर्विदों का मत है कि उत्तराषाढ़ की अंतिम 15 घटी और श्रवण नक्षत्र के प्रारम्भ की 4 घटी के काल प्रमाण 28 वां नक्षत्र अभिजित बनता है । जिसे जैन आगम ग्रंथ धवला जी की पुस्तक 4 में पृष्ठ 318 पर धवलाकर ने  अहोरात्र के 30 मुहूर्तो के प्रकरण में दिवस सम्बन्धी रौद्र से भाग्य पर्यन्त 15 मुहूर्तो में  8वें स्थान पर अभिजित मुहूर्त का वर्णन किया है ।


 नक्षत्रों के नाम

 1.अश्विनी,  2.भरणी,  

3.कृतिका 4.रोहिणी 

5.मृगशिरा , 6.आर्द्रा, 

7.पुनर्वसु, 8.पुष्य,

 9.आश्लेषा,  10.मघा, 

11.पूर्वाफाल्गुनी 12.उत्तराफाल्गुनी, 

13.हस्त, 14.चित्रा, 

15.स्वाति, 16विशाखा,

 17.अनुराधा, 18. ज्येष्ठा, 

19.मूल, 20.पूर्वाषाढ़, 

21.उत्तराषाढ़,( अभिजित),

22.श्रवण, 23.धनिष्ठा, 

24.शतभिषा, 25.पूर्वाभाद्रपद, 

26.उत्तराभाद्रपद, 27रेवती ।


नक्षत्रों की उपादेयता


 नक्षत्रों की उपादेयता एवं उपयोगिता ज्योतिष में महत्वपूर्ण है । नक्षत्रों के आधार से मुहूर्त निर्माण, रोग चिकित्सा, जन्म कुंडली निर्माण,  वर -बधु के गुण मिलान , चोरी गई वस्तु का ज्ञान, जल वृष्टि, मेघ गर्भ, यात्रा आदि अनेक शुभ अशुभ कार्यों का  ज्ञान  एवं विचार  में सहायक होता है ।


 नक्षत्रों की संज्ञाएँ


नक्षत्रों की संज्ञाएं निम्नलिखित हैं-


ध्रुवंचरोग्र मिश्रम् , क्षिप्रं तीक्ष्णमृदुलिंगा: ।

उर्ध्वादि चौरपंचको, एता: नक्षत्रा :संज्ञका: ।


-----------------------------


 योग किसे कहते हैं ?

 योग-

जो सूर्य और चंद्रमा के अंशों के योग से उत्पन्न होता है उसे योग कहते हैं ।


विशेषता


प्राचीन जैन ग्रंथों में मुहूर्तादि के लिए योग को प्रधान अंग माना गया है । पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है । 

जैन पंचांग निर्माण विधि में इनकी संख्या 27 बताई गई है । ये शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं ।

योग निकालने के लिए दैनिक स्पष्ट सूर्य एवं चंद्र स्पष्ट के योग की कला बनाकर उसमें 800 का भाग देने से लब्धिगत योग होता है । फिर गत और भोग्यकला को 60 से गुणा कर रवि-चंद्र की गति कला योग से भाग देने से गत और भोग्य घटियां आती हैं ।


27 योगों के नाम

1.विष्कुम्भ 

2.प्रीति

3.आयुष्यमान

4.सौभाग्य

5.शोभन

6.अतिगंड

7.सुकर्मा

8.धृति

9.शूल

10.गण्ड 

11.वृद्धि

12.ध्रुव

13.व्याघात

14.हर्षण

15.वज्र

16सिद्धि.

17.व्यतिपात

18.वरियान

19.परिध 

20.शिव

21.सिद्ध

22.साध्य

23.शुभ

24.शुक्ल

25.ब्रह्म

26.ऐंद्र

27.वैधृति


करण किसे कहते हैं ?

तिथि के  भाग को करण कहते हैं । गत तिथि को 2 से गुणा कर 7 का भाग देने से जो शेष रहे उसी के हिसाब से  करण होता है ।



करण की संख्या


जैनाचार्य श्रीधर ने ''ज्योतिर्ज्ञानविधि'' नामक ग्रंथ में कारणों की संख्या 11 बताई है । जो निम्न हैं-



वव-वालव-कौलव तैत्तिलगरजा वणिजविष्टिचर करणा: ।

शकुनि चतुष्पडनागा: किंस्तुघ्न श्चेत्यमी स्थिरा:करणा:।।


ऊपर के 7 करण चर एवं 4 करण स्थिर होते हैं ।

Tuesday, August 11, 2020

मूल नक्षत्रों का जन्म कितना शुभ कितना अशुभ

 *मूल नक्षत्रों कस जन्म कितना शुभ कितना अशुभ होता*



✍️©डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य


मूल नक्षत्र कौन कौन से हैं ।


ज्योतिष शास्त्र में नक्षत्रों की संख्या 27 है । उनमें से अश्विनी, मघा, आश्लेषा, ज्येष्ठा, मूल एवं रेवती नक्षत्र ये 6 नक्षत्र मूल संज्ञक नक्षत्र हैं ।


मूल नक्षत्रों में जन्मी संतान  की शुभता-अशुभता का ज्ञान नक्षत्रों के चरणों के क्रम से होता है । उससे ही फल का ज्ञान होता है ।


*मूल कितने दिन के लगते हैं*


अश्विनी नक्षत्र के मूल 12 दिन, 

  मघा नक्षत्र के मूल - 14 दिन

रेवती नक्षत्र के मूल-   8 दिन

आश्लेषा नक्षत्र के मूल -28 दिन, 

  ज्येष्ठा नक्षत्र के मूल - 28 दिन

  मूल  नक्षत्र के मूल-   28 दिन


मूल का नक्षत्र  एवं चरण  फल


 अश्विनी नक्षत्र का फल

प्रथम चरण -   पिता को कष्ट

द्वितीय चरण-  सुख ऐश्वर्य

तृतीय चरण - श्रेष्ठ पद

चतुर्थ चरण- राज सम्मान


मघा नक्षत्र का फल

प्रथम चरण -   पिता को कष्ट

द्वितीय चरण-  माता को कष्ट

तृतीय चरण -  धन का नाश

चतुर्थ चरण-  शुभ(शान्ति उपरांत)


आश्लेषा नक्षत्र का फल

प्रथम चरण -   शुभ (शान्ति के उपरांत)

द्वितीय चरण-  धन नाश

तृतीय चरण - माता की हानि

चतुर्थ चरण- पिता की हानि


ज्येष्ठा नक्षत्र का फल

प्रथम चरण -   अग्रज को कष्ट

द्वितीय चरण-  अनुज को कष्ट

तृतीय चरण - माता की हानि

चतुर्थ चरण-  स्वयं की हानि


मूल नक्षत्र का फल

प्रथम चरण -   पिता नाशक

द्वितीय चरण-  माता नाशक

तृतीय चरण - धन हानि

चतुर्थ चरण- शांति उपरांत शुभ


रेवती  नक्षत्र का फल

प्रथम चरण -   राज्य सम्मान

द्वितीय चरण-  भाग्य पर

तृतीय चरण - धन सुख की प्राप्ति

चतुर्थ चरण- अनेक कष्ट

Sunday, August 9, 2020

सुभाषितरत्न संदोह नामक नीति शास्त्र का संक्षिप्त परिचय*

 *आचार्य अमित गति एवं  सुभाषितरत्न संदोह नामक नीति शास्त्र का संक्षिप्त परिचय*


✍️© डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य

       जिला परामर्शदाता CMCLDP दमोह


आचार्य अमितगति एक समर्थ ग्रंथकार थे । आपका संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार आपकी  उदबोधन प्रधान रचनाओं की प्रांजल रचना शैली प्रसादगुण युक्त सरल सरस् काव्यकौमुदी रसास्वादन सहज ही  सहृदय को आल्हादित करता  है ।  आप आचार्य माधवसेन जी के शिष्य थे । सभाषित रत्न संदोह की प्रशस्ति  से उसकी रचना  संवत 1050 में मुंजनृपतौ अर्थात राजा मुंज के शासनकाल में हुई थी ।


*सुभाषितरत्न संदोह*


पृथ्वी पर तीन रत्न ही रत्न हैं - जलं अन्नं सुभाषितं । उन्हीं तीन रत्नों में से सुभाषितरत्न सर्व श्रेष्ठ रत्न है । अतः संस्कृत साहित्य में सुभाषितों की प्रचुरता है। 

आचार्य अमितगति की सुभाषित रत्न संदोह नामक कृति ने जैन संस्कृत के सुभाषित रत्न  भांडागार की  श्री  वृद्धि की है ।  यह ग्रन्थ 32 प्रकरणों में विभक्त 922 पद्यों में सृजित 339 पृष्ठों  में  श्री जीवराज जैन ग्रंथमाला सोलापुर से प्रकाशित है ।  यह ग्रंथ उद्बोधन प्रधान है जिसमें मनुष्य को असत्प्रवृत्तियों  को त्यागकर सत्प्रवृत्तियों को अपनाने की प्रेरणा प्रदान की गई है ।


*सभाषित रत्न संदोह के 32 प्रकरण*


1. सांसारिक विषय विचार- 20 पद्य

2. कोप निषेध    -               20 पद्य

3. मान माया निषेध-           20 पद्य 

4. लोभ निवारण -               20 पद्य

5.इन्द्रीयराग निषेध-             20 पद्य

6.स्त्री गुण-दोष विचार -        20पद्य

7. मिथ्यात्व-सम्यक्त्वविचार -20 पद्य

8.ज्ञान निरूपण-                 30 पद्य 9.चारित्र निरूपण  -           30 पद्य 10.जन्म निरूपण-           26 पद्य 11.जरा निरूपण - 24 पद्य 

12.मरण निरूपण- 20 पद्य

13.अनित्यता निरूपण-24 पद्य 

14. दैव निरूपण- 32 पद्य

15.जठर निरूपण- 20 पद्य

16.जीव संबोधन -24 पद्य

 17. दुर्जन निरूपण -24 पद्य

18. सूजन निरूपण-18पद्य 

19.दान निरूपण -19 पद्य

20.मद्य निषेध-25 पद्य .

21.मांस निषेध- 26 पद्य 

22.मधु निषेध -22 पद्य

 23. काम निषेध- 25 पद्य 

24. वेश्यासंग निषेध- 25पद्य

 25.द्यूत निषेध -20 पद्य

26.आप्त विचार -22पद्य

27.गुरु स्वरूप  -26पद्य

28.धर्म निरूपण- 22पद्य

29.शोक निरूपण-28 पद्य

30.शौच निरूपण-22पद्य

31.श्रावक धर्म कथन-117 पद्य

32.तपश्चरण निरूपण-  36पद्य


*विशेष*

 ग्रन्थकार प्रशस्ति-8 पद्य इस प्रकार सम्पूर्ण ग्रन्थ में 922 पद्य हैं।  जिनमें उपरोक्त 32 प्रकरणों में  सुललित प्रासाद गुण युक्त पद्यों में विविध छन्दों का प्रयोग ,वर्णन शैली कल्पना शक्ति और कवित्व शक्ति आपके संस्कृत भाषा के असाधारण अधिकार को स्वाभाविक प्रकट ही नहीं करती अपितु  विषयानुकूल वर्णन का चित्र पाठक के चित्त पर अंकित भ्य करता है ।

Thursday, July 2, 2020

सामाजिक पतन के सम सामयिक कारण:एक चिंतन

सामाजिक पतन के समसामयिक कारण: एक चिंतन

                         लेखक-डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य
                                  परामर्शदाताCMCLDP-. दमोह
                                  M
ग्रामोदय विश्वविद्यालय चित्रकूट सतना

 मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसका विकास समाज में रहकर ही होता है । सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक उन्नति के लिए वह समाज में आपसी  संबंधों को व्यक्ति, परिवार, समूह और समुदाय से अपनी एवं परिवार की मनोसामाजिक, आर्थिक,सामाजिक ,सांस्कृतिक, धार्मिक आदि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव व्यवहार के द्वारा मानवीय सम्बन्धों को स्थापित कर उसमें संतुष्टि का अनुभव करता है। यही वास्तविक उन्नति है जो समाज को सामाजिक पतन होने से बचाती है ।


 समाज एक वृक्ष की भांति होता है जिसकी सभी शाखाएं  समान रूप से वृद्धि को प्राप्त होती हैं । समुचित विकास जिसका मूल उद्देश्य होता है परंतु यह तभी सम्भव है जब उस वृक्ष का यथायोग्य ध्यान रखा जाए अन्यथा वह वृक्ष अपनी ही शाखाओं -प्रशाखाओं में उलझकर स्वयं का अस्तित्व समाप्त कर लेता है ।

 आज वर्तमान में हम सभी यही देख रहे हैं कि -हम स्वयं का समुचित विकास तो चाहते हैं परंतु समाज का समुचित विकास नहीं । समाज के समुचित विकास को छोड़कर स्वयं के विकास में संलग्न हो गए हैं । हम वृक्ष की एक शाखा को सिंचित कर रहे हैं उसके जड़ मूल को नहीं। जो हमारे सामाजिक पतन में निमित्त बन रहा है ।

 इस लेख के माध्यम से मैंने अभी तक सामाजिक क्षेत्र में रहकर जो सामाजिक अनुभव प्राप्त किये उन्हें आपके समक्ष प्रत्यर्पित  करने का प्रयास कर रहा हूँ। जिन समसामयिक कारणों से सामाजिक पतन हो रहा है उनको बताने का उपक्रम कर रहा हूँ।

 सामाजिक पतन के कारण
1.स्वयं की श्रेष्ठता
2.वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा
3.संघर्ष
4.सामाजिक अनियंत्रण
5.असहयोग
6.बहु-संस्थावाद
7.जातिवाद
8.परिवारवाद
 9.हठ धर्मिता
10.चरित्र हीन संचालकत्व

 1.स्वयं की श्रेष्ठता-आज समाज के पतन का  मुख्य कारण सर्व समुदाय अपने आप को एक दूसरे को श्रेष्ठ प्रमाणित करने में लगा हुआ है ।  ज्ञान, पद, परिवार, जीवन शैली आदि अनेक प्रकार के  अहंकार को जन्म देता है और सामाजिक पतन में प्रबल कारण बनता है ।

 2.  वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा- सामाजिक दृष्टि से प्रतिस्पर्धा एक असहयोगी अथवा व्यक्तियों और समूहों, संस्थाओं को एक दूसरे से अलग -थलग करने की सामाजिक प्रकिया है । प्रतिस्पर्था अवैयक्तिक होना चाहिए जो ईष्या में कारण ना बने । सीमित वस्तु और अधिकारों को प्राप्त करने के लिए एक दूसरे से आगे निकल जाने किस प्रयत्न होता है। जिसमें द्वेष-ईष्या ,प्रतिशोध की भावना उत्पन्न होती हैं।जो समाज का नैतिक पतन कराती है

 3.संघर्ष- स्वयं की श्रेष्ठता, वैयक्तिक स्पर्धा से भी बढ़कर सामाजिक पतन करने का साक्षात कारण एवं समाज की असहयोगी प्रक्रिया का एक चर्म रूप है संघर्ष । इस प्रक्रिया में स्वयं के हित लाभ के लिये सामाजिक दबाव,बल प्रयोग अथवा उत्पीड़न के द्वारा किसी सामाजिक संस्था, समूहों, व्यक्ति के अधिकारों का हनन अपने लक्ष्यों की पूर्ति के लिए हिंसात्मक प्रयोग डराकर, धमकाकर,  किया जाता है। आज वर्तमान में हम इनसे भली भांति परिचित हैं।

 4.सामाजिक अनियंत्रण-सभ्य समाज का निर्माण सामाजिक संबंधों तथा सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था से होता है ।दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं । सामाजिक अनियंत्रण के कारण आज समाज में व्यक्ति तथा समूह अपनी शक्ति के द्वारा दूसरे पर अधिकार करने के लिए  एक-दूसरे से सतत संघर्ष में संलग्न हैं । व्यक्ति के व्यवहारों को नियंत्रण करने के लिए धार्मिक विश्वासों की अहम भूमिका है । पर धर्म के जानकार उनकी अज्ञानता का लाभ उठाकर अपने कार्यो को करने में लिप्त हैं । वे ही संस्था के नियम बनाते हैं वे ही स्वयं उन्हें तोड़ते हैं । है ना दोहरा चरित्र

 5.असहयोग- अप्रत्यक्ष विरोध का नाम असहयोग है जो अनिश्चय की दशा में रहता है । जब हम किसी व्यक्ति ,समूह,संस्था विशेष को संदेह की दृष्टि से देखने लगे जाते हैं  तब उसके प्रति अप्रत्यक्ष विरोध असहयोग की भावना पैदा होती है । जो समाज के पतन में कारण बनता है ।

 6.बहु-संस्थावाद -आज हर समाज में संस्थावाद का बोल-वाला है। जो अपनी अपनी संस्थाओ के विकास में लगे हैं जिस कारण से वे अन्य संस्थाओं एवं उनके सदस्यों को अपना प्रतिद्वन्दी भी समझ कर उन्हें संदेह की दृष्टि से देखने लगे हैं। । निजी लाभ के कारण आरोप-प्रत्यारोपों का खेल खेला जाने लगा है । जिस कारण से समाज का पतन होने में यह भी एक कारण उभर कर सामने आया है।

 7.जातिवाद- हम भले ही अपने आपको सभ्य कहने लगे गए हों पर आज भी समाज से जातिवाद का अभिकरण आज भी अस्तित्व में है। मैंने समाज अच्छे से अच्छे धर्मोपदेशकों जो गृह त्याग करके समाज को अपना निर्देशक बतलाते हैं उनके द्वारा ही समाज में ऊंच -नीच का जातिवाद वाला जहर भितर घाती तरीके से फेलाते हुए देखा है । जो सबके सामने मंच,पर माइक पर हमें राग-द्वेष त्याग का उपदेश देते हैं वे ही उसको नहीं छोड़ पाये ।

 8.परिवारवाद-आज समाज के पतन का एक कारण परिवार वाद भी है।  जिस कारण से सामाजिक संस्थाओं ,ट्रस्ट, समितियों में पीढ़ी दर पीढ़ी स्वयं के परिवार के सदस्यों का मनोनयन, सामाजिक दबाव से चयन एवं साम-दाम-दंड भेदन प्रतिचयन एक आप बात और परंपरा सी हो गई है । जिस कारण से समाज में शक्ति का वितरण सामाजिक न्याय के अनुसार नहीं हो पाता है और पारदर्शीता समाप्ति की ओर चली गई है जिससे सामाजिक पतन होना सुनिश्चित है ।

 9.हठ धर्मिता- समाज में स्वयं को स्वंयभू ,संप्रभु ,स्वयं को सर्वोपरि ज्ञानी, गुरु भक्त, प्रभु भक्त मानने वालों की कमी नहीं रही है  और उन्हें मान्यता देने वाले अल्पज्ञानी, भावुक भक्तों की की भी कमी नहीं रही है ।  आयोजनों की सफलता, गुरू के नाम पर स्वयं की उदरपूर्ति उद्देश्यपूर्ति आदि अनेक प्रकल्पों की पूर्णता के कारण उनमें हठधर्मिता का विकास हुआ है । जो समाज एवं स्वयं के लिए घातक सिद्ध होता है । इसी हठ धर्मिता के कारण वे मनमाने तरीके से जनाधार को जनादेश में बदलने में सफल होकर स्वयं के मत की स्थापना, स्वयं की पूजा कराने में सफल हो रहें हैं जो धर्म देश और समाज के पतन का कारण है ।

 10.चरित्रहीन संचालकत्व- छिद्रान्वेषी ,चरित्रहीन, छली कपटी, दोषी लोगों के हाथ में समाज का संचालन समाज के पतन का कारण है । जिन लोगों ने शासन-प्रशासन,सामाजिक संस्थाओं के धन, सामग्री का उपयोग स्वयं के लिए किया ,गबन किया , भ्रस्टाचार किया आज उन लोगों के हाथों में धार्मिकता का दिखावा करते हुए समाज का संचालन करने का भार दिया जाना । उन्हें हर बार अनदेखा करना समाज के पतन का समसामयिक कारण है ।

इसके अतिरिक्त भी कई कारण हैं जो समाज का पतन करने में मुख्य भूमिका निभाते हैं । पर उपरोक्त कारणों में अंतर्भूत हो गए हैं ।
मैं समाज से कहना चाहता हूं जिनका दोहरा चरित्र और चरित्र है उन्हें संस्था के पदों से स्वयं निवृत्त हो जाना चाहिए या समाज को उनको तत्काल प्रभाव से  संस्थाओं से पृथक कर देना चाहिये जो समाज हित में रहेगा ।

Friday, June 26, 2020

आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज का शैक्षणिक दृष्टिकोण

*दिगम्बराचार्य 108 श्री विद्यासागर महामुनिराज जी का शैक्षिक दृष्टिकोण*

✍️ ©डॉ आशीष जैन शिक्षाचार्य

 उपलक्ष्य  -53 वे दीक्षादिवस पर
 दिनांक 25/06/2020    आषाढ शुक्ल पंचमी

 संत शिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज जी का व्यक्तित्व अपार वारिधि की राशि सम अनंत,विराट, विशाल ,अनुपमेय ,अतुलनीय ,अकथनीय ,गंभीर एवं अवर्णनीय है ,फिर भी केवल आत्म संतुष्टि के लिए उनके व्यापक शैक्षिक दृष्टिकोण को दृष्टि में रखकर उनके व्यक्तित्व एवं व्यापक चिंतन के द्वारा आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं । कहा भी गया है - अचिंत्यो हि महामना प्रभावः

शिक्षा का अर्थ
*शिक्षा की उत्पत्ति संस्कृत की शिक्ष धातु से आ प्रत्यय लगाने से हुई है ,जिसका अर्थ है सीखना और सिखाना ।*

शिक्षा -विद्योपादने = शिर्क्षेजिज्ञासायाम

*शिक्षा नाम अभ्यासः- शिक्षा कस नाम अभ्यास है ।*

 बीसवीं शताब्दी के भारतीय  दिगम्बर शिक्षाचार्य श्री विद्यासागर जी यतिराज जी ने  शिक्षा को सीखने -सीखने की प्रक्रिया माना है,जो मानव जीवन के किसी विशिष्ट स्तर तक सीमित नहीं  रहती अपितु सतत प्रवर्तमान रहती है ।
[
उनका मानना है कि--
*शिक्षा एक ऐसी सामाजिक एवं गतिशील प्रकिया है जो व्यक्ति के जन्मजात गुणों का विकास करके अर्जित अनुभवों एवं सीखने-सिखाते उसके व्यक्तित्व को इतना निखरती है जिससे वह उम्र के अनुसार सामाजिक-आध्यात्मिक वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके और कर्तव्य  एवं आचार-विचार-व्यवहार में कल्याणकारी परिवर्तन हो सके ।*

शिक्षा वह है जो मृत्यु -पर्यंत सहायक बनकर मृत्यु के बाद भी आत्मोत्कर्ष में निमित्त बने ।
कहा भी गया है
*सा विद्या या विमुक्तये -विद्या वह है जो मुक्ति दिलाये ।*

आचार्य श्री ने शिक्षा को सत्यान्वेषण के साथ चरित्र और चारित्र को चरितार्थ करने वाली माना है ।जो व्यक्ति का नैतिक उत्थान कर सके ।

*आचार्य श्री के निम्न शैक्षणिक दृष्टिकोण -*

मानवीय गुणों के विकास का दृष्टिकोण
सामूहिक नैतिक उत्थान का दृष्टिकोण
अंतर्निहित योग्यता के विकास का दृष्टिकोण
सम्यक व्यक्तित्व के उचित विकास का दृष्टिकोण
राष्ट्रीय एकता की भावना का दृष्टिकोण
सार्वजनिक एवं सामाजिक हित का दृष्टिकोण
शिक्षा का धार्मिक दृष्टिकोण
शिक्षा का साहित्यिक दृष्टिकोण आदि

*मानवीय गुणों के विकास का दृष्टिकोण*
मानवीय गुणों के विकास का दृष्टिकोण -  आचार्य श्री की शिक्षा की प्रत्यक्ष विधि से -मानव में मानवीय गुणों- आपसी प्रेम, सद्भावना, सहकारिता,दया आदि गुणों का विकास होता है ।  जिससे घृणा,द्वेष, क्रोध -कुंठा आदि से छुटकारा मिलता है । इसे सफल करने के लिए उन्होंने सागर और जबलपुर में ब्राह्मी-विद्या आश्रम खोला, जीव दया के लिए दयोदय संघ , जीव पालन एवं आत्म निर्भरता के लिए शान्ति धारा आदि के प्रेरित किया ।

 *सामूहिक नैतिक उत्थान का दृष्टिकोण*

सामूहिक नैतिक उत्थान का दृष्टिकोण-आचार्य श्री ने शिक्षा में चरित्र  की अभिन्न भूमिका को स्वीकार किया है । उन्होंने चरित्र और चारित्र को उच्च स्थान प्रदान किया है। जिससे शिक्षार्थी में गुण-दुर्गुण, सज्जन-दुर्जन,विवेक-अविवेक सद वृत्ति-दुरवृत्ति के भेद का ज्ञान होता है। जो सामुदायिक नैतिक पतन से बचाता है । समाज में अपराध वृत्ति पाप वृत्ति को रोकता है । जिसे  सफल करने के लिए आचार्य संघ का जीवंत कृतित्व अहम भूमिका निभा रहा है । मुनि प्रमाण सागर, मुनि सुधा सागर , आर्यिका गुरूमती जी, आर्यिका आदर्शमती  ,प्रभावना मति जी आदि।

 *अंतर्निहित योग्यता के विकास का दृष्टिकोण*
अंतर्निहित योग्यता के विकास का दृष्टिकोण - आचार्य श्री का मानना है कि शिक्षा मनुष्य की अंतर्निहित योग्यताओं, क्षमताओं एवं शक्तियों का विकास करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । जिससे अभ्यर्थी में  अंतर्निहित आत्म निर्णय क्षमता, आत्म शक्ति, आत्मानुशासन, प्रबन्धकीय एवं  प्रशासकीय  क्षमता का विकास किया जा सकता है । इस दृष्टिकोण को दृष्टि में रखते हुए उन्होंने अनुशासन प्रशासकीय सेवा प्रशिक्षण संस्थान दिल्ली -भोपाल में एवं भारत वर्षीय दिगम्बर जैन प्रशासकीय प्रशिक्षण संस्थान जबलपुर में खोला ।

 *सम्यक व्यक्तित्व के उचित विकास का दृष्टिकोण*
सम्यक व्यक्तित्व के उचित विकास का दृष्टिकोण- आचार्य श्री का ऐसा मानना है कि शिक्षा के द्वारा व्यक्ति के शारीरिक ,मानसिक,धार्मिक, नैतिक, आध्यात्मिक ,संवेगात्मक एवं आत्म निर्भर सम्यक व्यक्तित्व का  विकास होता है । अतः उन्होंने भारत के शारीरिक -मानसिक आदि व्यक्तित्वों के विकास को ध्यान में रखते हुए  स्वावलंबीता की भावना से हथकरघा -वस्त्रोद्योग की प्रेरणा प्रदान की जिससे श्रावकों में अहिंसक वस्त्र निर्माण-प्रयोग की भावना को स्थान मिला साथ ही जेल के बन्दियों में जीवन की आशा ने जन्म लिया ।

 *सार्वजनिक  एवं सामाजिक हित का दृष्टिकोण*
 सार्वजनिक  एवं सामाजिक हित का दृष्टिकोण- आचार्य श्री का शिक्षा -दर्शन यह कहता है कि शिक्षा  स्वयं के उद्धार एवं कल्याण के साथ स्वतः परमार्थी होना चाहिए केवल स्वान्तः सुखाय नहीं। शिक्षा स्वयं के हित को केंद्र में रखकर बहुजन हिताय -बहुजन सुखाय ,परोपकार जीव दया, प्राणी रक्षा एवं सेवा भविता युक्त होना चाहिये। जिससे पर के भाग्योदय  का चिंतन स्वयं के भाग्योदय में निमित्त भूत होगा। आपने प्राणियों की सेवा, उनकी स्वास्थ्य रक्षा के लिए सागर मध्यप्रदेश में भाग्योदय तीर्थ जैसा चिकित्सा सेवा संस्थान सामाजिक सार्वजनिक हित के दृष्टिकोण से खोला जो समाज को परोपकार एवं सेवा की शिक्षा प्रदान करता है ।

*राष्ट्रीय एकता की भावना का* दृष्टिकोणआचार्य श्री ने राष्ट्रीय एकता की  शैक्षिक भावना को ध्यान में रखकर भारत को पुरातन अस्तित्व में लाने के लिए "इंडिया नहीं भारत बोलो"  मातृभाषा रक्षा, स्वेदशी अपनाओ, स्व रोजगार, आत्म निर्भर भारत जैसे राष्ट्रीय अभियान चलाया फलस्वरूप भारत के जातिवाद,  राज्यवाद, ,वर्ग वाद में बंटे भारत को राष्ट्रीय  एकता की भावना का संदेश जन-जन तक पहुंचाया । जिसका प्रभाव सुप्रीम कोर्ट पर भी पड़ा और उन्होंने इस याचिका का पर शीघ्र ही संज्ञान में लिया । जिससे देश के जन प्रतिनिधियों, शासकों-प्रशासकों,नीति निर्धारकों को एक पथ आवर पाथेय की शिक्षा प्रदान की ।

*स्वावलंबी शिक्षा का दर्शन-*
आचार्य श्री ये कहते हैं -वतन और वेतन ,
 आचार्य श्री के शिक्षा सम्बन्धी अनुभव-जो सीख देते हैं हमें

शिक्षा सर्वोपयोगी, सर्वांगी,सर्वोदयी,  एवं स्वानुभूति पूर्ण हो ।

 छात्रों को ना खोजकर शिक्षकों को खोजें । जो स्वयं सीखें और अपने उत्तराधिकारी को सिखा सके वही शिक्षक है ।

 भारत में भारतीयता की शिक्षा के दर्शन हों तभी भारत शैक्षिक रूप से स्वतंत्र हो सकता है ।

 हम केवल शरीर से भारतीय ना रहें हम मन से ,संस्कृति और संस्कारों से युक्त विचारों से भी  भारतीय बनें ।

 शिक्षा स्वाबलंबी हो जो आत्म निर्भर बना सके । दास नहीं ।

 शिक्षा वही जो कुशलता और दक्षता  आंतरिक स्वच्छता के साथ  आत्मिक विकास दे ।

 मातृ-भाषा के पल्लवन के बिना शिक्षा अपूर्ण है ।

Monday, June 15, 2020

भारत का नाम किस भरत के नाम पर रखा गया

भारतवर्ष नामकरण - परम्परा एवं प्रमाण
(एक प्रामाणिक आलेख)

डॉ शुद्धात्मप्रकाश जैन
निदेशक, के जे सोमैया जैन अध्ययन केंद्र, सोमैया विद्याविहार विश्वविद्यालय, मुम्बई

भारत हमारा देश है और हम सब भारतवासी हैं. इस भारत के निवासियों को भारतीय कहा जाता है. यद्यपि हमारी भारतभूमि को प्राचीन काल से ही विविध नामों से अभिहित किया जाता रहा है, यथा-इंडिया, हिंदुस्तान हिन्दुस्तां आदि. लेकिन यह नाम हमारे देश को या तो दूसरों के द्वारा दिए गए हैं या एकांगी है, जैसे कि इस देश में प्रवाहित सिंधु नदी को इण्डस कहने के कारण इंडिया नाम दिया गया. इसी प्रकार पुराकाल में - 'स' वर्ण को 'ह'  के रूप में उच्चारित करने के कारण इसे हिन्दु कहा गया और मुस्लिम शासकों ने इसे हिन्दुस्तां कहकर पुकारा.  यह सभी नाम सर्वांगीण ना होने के कारण हमारे देश के गौरव को कम करते रहे.

यही कारण है कि हमारे देश का नाम भारत ही अधिक श्रेष्ठ और गौरवपूर्ण होगा, क्योंकि इसका हमारे प्राचीन सांस्कृतिक इतिहास से सीधा संबंध है. इसका सविस्तार उत्तर इस आलेख में स्पष्ट किया ही जा रहा है. आज हमारे देश को पूरे विश्व में इंडिया के नाम से जाना जाता है, जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है.

देश का नाम इंडिया से बदलकर भारत करने के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट में WP(C) क्रमांक 000 422/ 20202 को स्वीकार करके तदनुसार देश का वास्तविक नाम भारत रखने की अपील की गई है.  इस केस की सुनवाई चल रही है.  यद्यपि इस बारे में कहा गया है कि हमारे देश का पहले से नाम भारत है,  किन्तु अब इस नाम को ही बढ़ावा दिया जाएगा.

तो आइए!  यह जानने का प्रयास करें कि इसका नाम भारतवर्ष ही क्यों होना चाहिए. जैसा कि 'भारत' शब्द से ही यह स्पष्ट होता है कि इसका नाम किसी न किसी भरत के नाम से सुनिश्चित हुआ क्योंकि भरत से संबंधित को ही भारत कहा जाता है.

उपर्युक्त संदर्भ में भारत नामक तीन महापुरुषों के साथ इसका संबंध बताया जाता है जो कि निम्न हैं :
1. ऋषभ पुत्र भरत
2. दशरथ पुत्र भरत एवं
3. दुष्यंत पुत्र भरत.
यद्यपि यह सच है कि उक्त तीनों ही भरत महान पराक्रमी, शूरवीर और महापुरुष के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन यह निर्णय करना आवश्यक है कि किस भरत के नाम से हमारे देश का नाम भारत पड़ा.  इस संदर्भ में डॉक्टर प्रेम सागर जैन का कथन उल्लेखनीय है -"राम के भाई भरत कभी राज सिंहासन पर नहीं बैठे अतः उनके आधार पर इस देश के नामकरण का प्रश्न ही नहीं उठता. कतिपय विद्वानों ने दौष्यन्ति भरत के नाम को मूलाधार स्वीकार किया है. यह स्वाभाविक था. कालिदास के 'शाकुंतलम्' की विश्वविख्याति ने दौष्यन्ति भरत को जनमानस में प्रतिष्ठित कर दिया. उसी को लोग इस देश के 'भारत' नाम का मूलमंत्र मान बैठे."

इस विषय पर गंभीर विचार करने पर और अनेक उद्धरणों को देखने पर स्थिति एकदम साफ हो जाती है कि जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम पर ही हमारे देश का नाम भारत पड़ा है.  भरत चक्रवर्ती ने जम्बूद्वीप के संपूर्ण भरतक्षेत्र (पृथ्वी) को जीतकर उसका स्वामित्व प्राप्त किया, जिसके कारण उस सम्पूर्ण भरतक्षेत्र का एक नाम भारतवर्ष पड़ गया.

यहां ध्यातव्य है कि उस सम्पूर्ण क्षेत्र का एक नाम भरत तो जैनदर्शन के अनुसार अनादि से ही सुनिश्चित रहा है. और यह संयोग ही कहा जाएगा कि प्रथम चक्रवर्ती ऋषभपुत्र का नाम भी भरत था, अतः उस क्षेत्र का नाम भी भरत और उस चक्रवर्ती के नाम भी भरत था. जैसा कि यह स्पष्ट किया जा चुका है कि भरत से संबंधित को भारत कहा जाता है. यह घटना असंख्य वर्षों पूर्व होने के कारण कालक्रम से भारत की सीमा भी संकुचित होती चली गई और आज हम भारत को एक निश्चित भौगोलिक भूभाग के रूप में जानते हैं.

अब यह अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि भारत तो ठीक लेकिन उसके साथ वर्ष क्यों लिखा जाता है. इस संदर्भ में मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि पुराकाल में क्षेत्र के लिए वर्ष शब्द का प्रयोग किया गया है.  जम्बूद्वीप में स्थित छह पर्वतों से विभाजित होने के कारण उसके सात क्षेत्रों को वर्ष कहा गया है.  जैसा कि आचार्य उमास्वामी के द्वारा आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व रचित तत्वार्थसूत्र में इसका प्रयोग इस प्रकार हुआ है -
(1) भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैहैरण्यवतैरावतवर्षा: क्षेत्राणि ।।10।।
(2) तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वता ।।11।।

ये दोनों सूत्र तत्वार्थसूत्र के तृतीय अध्याय के दसवें और ग्यारहवें सूत्र हैं. दसवें सूत्र में जम्बूद्वीप के साथ क्षेत्रों को 'वर्ष' के नाम से कहा गया है, जैसे भरतवर्ष, हेमवतवर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष आदि. ग्यारहवें सूत्र में इन क्षेत्रों के विभाजन के आधारभूत छह पर्वतों को 'वर्षधर' कहा गया है.  जैसा कि आपको विदित होगा कि पृथ्वी का एक पर्यायवाची 'क्षिति' भी होने के कारण पर्वतों को क्षितिघर कहा जाता है.  उसी प्रकार यहां उन पर्वतों को वर्षधर कहा गया है. स्पष्ट हो जाता है कि यहां क्षेत्र का नाम वर्ष है.

इस प्रकार उस क्षेत्र को वर्ष तथा उसके भरत से संबंधित होने के कारण भारतवर्ष कहा गया. यह नाम बहुत वर्षों तक चलता रहा. किंतु मध्य-मध्य में परिस्थितिजन्य और भी अनेक नामों का प्रयोग इस देश के लिए हुआ, जैसे आर्यावर्त, आर्यखण्ड,  हिन्दुस्तान आदि. किन्तु जब सन 1949 में भारतीय संविधान का निर्माण हुआ और इसके प्रचलित विभिन्न नामों में से किसी सर्वाधिक उपयुक्त नाम का चयन करना था, तब देश के उपयुक्त नाम के लिए प्रमाण एकत्रित करने का प्रयास किया गया. और उसी क्रम में विविध साक्ष्यों, पुस्तकीय आधारों और शिलालेखों को प्रमाण के रूप में खोजा गया तो उड़ीसा राज्य की
हाथीगुंफा में उल्लिखित सम्राट खारवेल के एक शिलालेख में इसका नाम भारतवर्ष प्राप्त हुआ जो कि ब्राह्मी लिपि और प्राकृतभाषा में होने के कारण वहां 'भरदवस्स' शब्द लिखा था.  उस समय हिंदुस्तान नाम को इसलिए स्वीकार नहीं किया गया] यह नाम हमें मुस्लिम शासकों ने दिया. अतः भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत शब्द का ही प्रयोग कियाा गया है।

हमारे देश के नाम भारत की प्रामाणिकता प्रस्तुत करते हुए आचार्य अकलंक ने तत्वार्थवार्तिक में लिखा है, जिसका हिंदी भाव है --"अभिप्राय यह है कि भरत क्षत्रिय के योग से यह क्षेत्र भरत कहलाया है.  अयोध्या नाम की नगरी में सर्वराजलक्षण से संपन्न भरत नाम के चक्रवर्ती हैं, छह खण्ड के अधिपति हुए हैं, जिन्होंने इसे सर्वप्रथम भोगा है, अतः इस क्षेत्र को भारतवर्ष -- ऐसा कहते हैं.

इसी प्रकार का भाव आचार्य जिनसेन ने महापुराण में अभिव्यक्त किया है "भरत से पूर्व इस देश का नाम भरत के पिता नाभिराय के नाम पर 'नाभिखण्ड' या 'अजनाभवर्ष' कहा जाता था.  पुरुदेवचम्पू में भी इसका प्रमाण प्रस्तुत करते हुए -- महाकवि अहर्दददास ने लिखा है कि --"उसके नाम से (भरत के नाम से) यह देश भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ --ऐसा इतिहास है. हिमवान  कुलाचल से लेकर लवणसमुद्र तक का यह क्षेत्र चक्रवर्तियों का क्षेत्र कहलाता है.

सूरसागर में भी सूरदास जी ने लिखा है कि-
बहुरो रिषभ बड़े जब भये,
नाभिराज दे वन को गए।
रिषभ राज पर जा सुख पायो,
जस ताको सब जग में छायो।।
रिषभदेव जब वन को गए,
नवसुत नवौ खण्ड नृप भए।
भरत सो भरतखण्ड को राव,
करे सदा ही धर्म अरु न्याव।।

उपर्युक्त हिंदी छंद का अर्थ अति सरल है कि भरत ने भरतखंड के राजा बनकर धर्म और न्याय से प्रजा को सुख प्रदान किया. 
यहां अभी तक कुछ प्रमुख जैन ग्रन्थों के प्रमाण प्रस्तुत किये गये, लेकिन न केवल जैनग्रन्थों में, अपितु हिन्दू ग्रन्थों में भी इस बात के प्रबल प्रमाण उपलब्ध होते हैं, जो इसप्रकार हैं-
 अग्निपुराण में भरत से भारतवर्ष नाम का उल्लेख-
सर्वप्रथम ‘अग्निपुराण’ का निम्नलिखित कथन द्रष्टव्य है-
जरामृत्युभयं नास्ति धर्माधर्मौ युगादिकम्।
नाधमं मध्यमं तुल्या हिमादेशात्तु नाभितः।।
ऋषभो मरुदेव्यां च ऋषभाद् भरतोऽभवत्।
भरतात् भारतं वर्षं भरतात् सुमतिस्त्वभूत।।
अर्थात् उस हिमवत् प्रदेश में जरा और मृत्यु का भय नहीं था, धर्म और अधर्म भी नहीं थे, सर्वत्र मध्यम भाव- समभाव था। वहां नाभिराजा की पत्नी मरूदेवी से ऋषभ का जन्म हुआ। ऋषभ से भरत हुए। ऋषभ ने भरत को राज्यश्री प्रदान कर संन्यास ले लिया। तब भरत से ही इस देश का नाम ‘भारतवर्ष’ हुआ।
श्रीमद्भागवत में भरत से भारत नामकरण का उल्लेख-
इसीप्रकार श्रीमद्भागवत के अनुसार भी ऋषभपुत्र भरत के नाम से ही हमारे देश का नाम भारत सुनिश्चित हुआ- ‘‘अजनाभं नामैतद्वर्षं भारतमिति यत आरभ्य व्यपदिशन्ति।’’  अर्थात् ‘अजनाभवर्ष’ ही आगे चलकर ‘भारतवर्ष’  संज्ञा से अभिहित हुआ। यहां अजनाभ भगवान ऋषभदेव के लिए प्रयुक्त शब्द है, जो भारतदेश पहले ऋषभ के नाम पर था, वही भारतदेश पश्चात् भरत के नाम से कहा जाने लगा। अथवा ‘‘येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीत् येनेदं वर्षं भारतमिति व्यपदिशन्ति।’’  अर्थात् श्रेष्ठ गुणों के आश्रयभूत, महायोगी भरत अपने सौ भाइयों में श्रेष्ठ थे, उन्हीं के नाम पर इस देश को ‘भारतवर्ष’ कहते हैं।
आग्नीध्रसूनोर्नाभेस्तु ऋषभोऽभूत् सुतो द्विजः।
ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताद् वरः।।
सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्रं महाप्राव्राज्यमास्थितः।
तपस्तेपे   महाभागः   पुलहाश्रमसंश्रयः।।
अर्थात् अग्नीध्र-पुत्र नाभि से ऋषभ उत्पन्न हुए। उनसे भरत का जन्म हुआ, जो अपने सौ भाइयों में अग्रज था। महाभाग्यशाली ऋषभ ने ज्येष्ठ पुत्र भरत का राज्याभिषेक कर महाप्रवज्या ग्रहण की और ‘पुलह’ आश्रम में तप किया।
 मार्कण्डेयपुराण के अनुसार- 
आग्नीध्रसूनोर्नाभेस्तु ऋषभोऽभूत् सुतो द्विजः।
ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताद् वरः।।
सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्रः महाप्राव्राज्यमास्थितः।
तपस्तेपे महाभागः पुलहाश्रमसंश्रयः।।
हिमाह्वं दक्षिणं वर्षं भरताय पिता ददौ।
तस्मात्तु भारतं वर्षं तस्य नाम्ना महात्मनः।।
अर्थात् अग्नीध्र-पुत्र नाभि से ऋषभ उत्पन्न हुए। उनसे भरत का जन्म हुआ, जो अपने सौ भाइयों में अग्रज था। महाभाग्यशाली ऋषभ ने ज्येष्ठ पुत्र भरत का राज्याभिषेक कर महाप्रव्रज्या ग्रहण की और ‘पुलह’ आश्रम में तप किया। ऋषभ ने भरत को ‘हिमवत’ नामक दक्षिण प्रदेश शासन के लिए दिया था। उस महात्मा ‘भरत’ के नाम से इस देश का नाम ‘भारतवर्ष’ हुआ।
ब्रह्माण्डपुराण में भरत से भारतवर्ष नाम का उल्लेख-
नाभिस्त्वजनयत् पुत्रं मरुदेव्यां महाद्युतिम्।
ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठं सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम्।।
ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रजः।
सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्रं महाप्रव्रज्यया स्थितः।।
अर्थात् नाभि ने मरुदेवी से महाद्युतिवान् ‘ऋषभ’ नाम के पुत्र को जन्म दिया। ऋषभदेव ‘पार्थिव श्रेष्ठ’ और ‘सब क्षत्रियों के पूर्वज’ थे। उनके सौ पुत्रों में वीर ‘भरत’ अग्रज थे और ऋषभ ने उनका राज्याभिषेक कर महाप्रव्रज्या ग्रहण की।
स्कन्दपुराण में भरत से भारतवर्ष नाम का उल्लेख-
नाभेः पुत्रश्च ऋषभः ऋषभाद् भरतोऽभवत्।
तस्य नाम्ना त्विदं वर्षं भारतं चेति कीत्र्यते।।
अर्थात् नाभि का पुत्र ऋषभ हुआ, ऋषभ का पुत्र भरत हुआ। उसी भरत के नाम से यह देश ‘भारत’ कहा जाता है।
लिंगपुराण में भरत से भारतवर्ष नाम का उल्लेख--
नाभिस्त्वजनयत् पुत्रं मरुदेव्यां महामतिः।
ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठं सर्वक्षेत्रसुपूजितम्।।
ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रजः।
सोऽभिषिच्याथ ऋषभो भरतं पुत्रवत्सलः।।
ज्ञानवैराग्यमाश्रित्य जित्वेन्द्रियमहोरगान्।
सर्वात्मनात्मनि स्थाप्य परमात्मानमीश्वरम्।।
नग्नो जटी निराहारोऽचीवरो ध्वान्तगतो हि सः।
निराशस्त्यक्तसन्देहः शैवमाप परं पदम्।।
महामति नाभि को मरुदेवी नाम की धर्मपत्नी से ‘ऋषभ’ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह ऋषभ नृपतियों में उत्तम था और सम्पूर्ण क्षत्रियों द्वारा सुपूजित था। ऋषभ से भरत की उत्पत्ति हुई, जो अपने सौ भ्राताओं में अग्रजन्मा था। पुत्र-वत्सल ऋषभदेव ने भरत को राज्यपद अभिषिक्त किया और स्वयं ज्ञान-वैराग्य को धारण कर, इन्द्रियरूपी महान् सर्पों को जीत सर्वभाव से ईश्वर परमात्मा को अपनी आत्मा में स्थापित कर तपश्चर्या में लग गये। वे उस समय नग्न थे, जटायुक्त, निराहार, वस्त्ररहित तथा मलिन थे। उन्होंने सब आशाओं का त्याग कर दिया था, सन्देह का परित्याग कर परमशिवपद को प्राप्त कर लिया था।
वायुपुराण में भरत से भारतवर्ष नाम का उल्लेख--
नाभिस्त्वजनयत् पुत्रं मरुदेव्यां महामतिः।
ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठं सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम्।।
ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रजः।
सोऽभिषिच्याथ भरतं पुत्रं प्रावाज्यमात्थितः।।
अर्थात् नाभि के मरुदेवी से महाद्युतिवान् ‘ऋषभ’ नाम के पुत्र को जन्म दिया। ऋषभदेव ‘पार्थिव श्रेष्ठ’ और ‘सब क्षत्रियों के पूर्वज’ थे। उनके सौ पुत्रों में वीर ‘भरत’ अग्रज थे और ऋषभ ने उनका राज्याभिषेक कर महाप्रव्रज्या ग्रहण की।
नारदपुराण में भरत से भारतवर्ष नाम का उल्लेख-
आसीत् पुरा मुनिश्रेष्ठः भरतो नाम भूपतिः।
आर्षभो यस्य नाम्नेदं भारतं खण्डमुच्यते।।
स राजा प्राप्तराज्यस्तु पितृपैतामहं क्रमात्।
पालयामास धर्मेण पितृवद्रंजयन् प्रजाः।।
अर्थात् पूर्व समय में मुनियों में श्रेष्ठ भरत नाम के राजा थे। वे ऋषभदेव के पुत्र थे। उन्हीं के नाम से यह देश ‘भारतवर्ष’ कहा जाता है। उस राजा भरत ने राज्य प्राप्त कर अपने पिता-पितामह की तरह से ही धर्मपूर्वक प्रजा का पालन-पोषण किया था।
शिवपुराण में भरत से भारतवर्ष नाम का उल्लेख-
नाभेः पुत्रश्च ऋषभः ऋषभाद् भरतोऽभवत्।
तस्य नाम्ना त्विदं वर्षं भारतं चेति कीत्र्यते।।
तात्पर्य यह है कि नाभि का पुत्र ऋषभ हुआ, ऋषभ का पुत्र भरत हुआ। उसी भरत के नाम से इस देश को ‘भारत’ कहा जाता है।
वराहपुराण में भरत से भारतवर्ष नाम का उल्लेख-
नाभिर्मरुदेव्यां पुत्रमजनयत् ऋषभनामानं तस्य भरतः
पुत्रश्च तावदग्रजः तस्य भरतस्य पिता ऋषभः।
हेमाद्रेर्दक्षिणं वर्षं महद् भारतं नाम शशास।।
तात्पर्य यह है कि नाभि ने अपनी स्त्री मरूदेवी से ऋषभ नाम के पुत्र को उत्पन्न किया। वह अपने सहोदरों से ज्येष्ठ था, उसके पिता स्वयं ऋषभ थे। उसी भरत ने हिमालय से लेकर दक्षिण पर्यन्त सम्पूर्ण क्षेत्र को शासित किया, इसलिए यह क्षेत्र भारतवर्ष के नाम से जाना जाता है।

कूर्मपुराण में भरत से भारतवर्ष नाम का उल्लेख-
हिमाह्वयं तु यद्वर्षं नाभेरासीन्महात्मनः।
तस्यर्षभोऽभवत्पुत्रो मरुदेव्यां महाद्युतिः।।
ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रः शताग्रजः।
सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्रः भरतं पृथिवीपतिः।।
उपर्युक्त श्लोक में भी इसी प्रकार का अर्थ व्यक्त किया गया है कि नाभि के मरुदेवी से महाद्युतिवान् ‘ऋषभ’ नाम के पुत्र को जन्म दिया। उनके शत पुत्रों में अग्रज भरत राज्याभिषिक्त होकर पृथ्वीपति हुए।
विष्णुपुराण में भरत से भारतवर्ष नाम का उल्लेख-
न ते स्वस्ति युगावस्था क्षेत्रेष्वष्टसु सर्वदा।
हिमाह्वयं तु वै वर्षं नाभेरासीन्महात्मनः।।
तस्यर्षभोऽभवत्पुत्रो मरुदेव्यां महाद्युतिः।
ऋषभाद्भरतो जज्ञे ज्येष्ठः पुत्रशतस्य सः।।
इस श्लोक में भी उपर्युक्त अर्थानुसार ऋषभपुत्र भरत के नाम से ही भारतदेश के नामकरण की बात कही गई है। तथापि कुछ लोग अज्ञानवश कभी दशरथपुत्र भरत अथवा दुष्यन्तपुत्र भरत के नाम से भारतदेश के नामकरण की बात करते हैं, जो कि उपर्युक्त उद्धरणों से पूरी तरह खण्डित हो चुका है।

डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने भी एक बार दुष्यन्तपुत्र भरत के नाम पर ‘भारत’ के नामकरण की बात लिखी थी, किन्तु बाद में उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपनी भूल को स्वीकार किया और लिखा कि- ‘‘मैंने अपनी ‘‘भारत की मौलिक एकता’’ नामक पुस्तक के पृष्ठ 22-24 पर दौष्यन्तिक भरत से भारतवर्ष लिखकर भूल की थी। इसकी ओर मेरा ध्यान कुछ मित्रों ने आकर्षित किया। उसे अब सुधार लेना चाहिए।’’
यहां भी ऋषभपुत्र भरत का ही उल्लेख है, किन्तु इतना स्पष्ट होने पर भी कुछ लोग अज्ञानवश कभी दशरथपुत्र भरत अथवा दुष्यंतपुत्र भरत के नाम से भारत देश के नामकरण की बात करते हैं जो कि उपर्युक्त उद्धरण से पूरी तरह खंडित हो चुका है. यह अत्यंत स्पष्ट हो चुका है कि ऋषभपुत्र भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा. जैसाकि हम उपरि-उद्धृत अनेक ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं में देख चुके हैं. अतः यथा शीघ्र हमारे देश को भारतवर्ष नामकरण होना चाहिए क्योंकि यही नाम है जो हमें ब्रिटिश शासकों की दासता भरी यादों से मुक्त करता है और गौरवपूर्ण इतिहास की याद दिलाता है.

Friday, May 1, 2020

राहु ग्रह और उसके नक्षत्र विचरण का फल

सभी ग्रहो के तीन तीन नक्षत्र होते हैं.गोचर में ग्रह जिस नक्षत्र में होता है उस नक्षत्र के अनुसार इनका फल भी परिवर्तित होता है.राहु जब बृहस्पति से केतु के नक्षत्र में होता है तो इस प्रकार से अपना फल देता है

राहु और बृहस्पति नक्षत्र (Rahu and Brahaspati Nakshatra) 
सभी ग्रहों के समान बृहस्पति के भी तीन नक्षत्र हैं पुनर्वसु, विशाखा और पूर्वाभाद्रपद.राहु जन्म कुण्डली में अगर इन नक्षत्रों में स्थित होता है और गुरू शुभस्थ स्थान पर होता है तो राहु की दशा काल में आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है.आय के साधनों में वृद्धि होती है.भौतिक सुख प्राप्त होता है.परिवार में आनन्द और खुशियों का आगमन होता है.समाज एवं परिवार में उच्च स्थान प्राप्त होता है.गुरू मंद अथवा कमज़ोर होने पर कार्य में रूकावट का सामना करना होता है.धन की हानि होती है.पराजय का सामना करना होता है.अकारण अपमान सहना पड़ता है.


राहु और शुक्र नक्षत्र (Rahu and Shukra Nakshatra) 
शुक्र राहु का मित्र ग्रह है.शुक्र के साथ राहु शुभ फल देता है.जन्मपत्रिका में शुक्र के नक्षत्र भरणी, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा में राहु की स्थिति होने पर राहु अपनी दशा अवधि में शुक्र से सम्बन्धित वस्तुओं का लाभ देता है.भौतिक साधनों में वृद्धि होती है.वाहन सुख प्राप्त होता है.वस्त्राभूषण का लाभ मिलता है.स्त्री सुख प्राप्त होता है.स्त्रियों से अपेक्षित सहयोग प्राप्त होता है.शुक्र नीच अथवा पीड़ित होने पर इस अवधि में सुख में कमी आती है.स्त्रियों के कारण नुकसान उठाना पड़ता है.इनके कारण अपमान भी सहना होता है.बनते हुए काम बिगड़ जाते हैं.स्वास्थ्य भी मंदा रहता है.


राहु और शनि नक्षत्र (Rahu and Shani Nakshatra)
राहु और शनि दोनों पाप ग्रह हैं.दोनो ग्रहों में मैत्री सम्बन्ध है.जन्मांग में राहु शनि के नक्षत्र पुष्य, अनुराधा अथवा उत्तराभाद्रपद में होता है तो राहु अपनी दशा अवधि में शनि के समान पीड़ा देता है.इस समय व्यक्ति की हड्डियो में कष्ट रहता है.चोट लगने की संभावना रहती है.स्वास्थ्य मंदा रहता है.तामसी भोजन के प्रति आसक्ति बढ़ती है.गृहस्थी में कलहपूर्ण स्थिति रहती है.जीवनसाथी से अनबन के कारण बात तलाक तक पहुंच जाती है.शनि शुभ स्थिति में होने पर परिश्रम का पूर्ण फल प्राप्त होता है.धन सम्बन्धी चिन्ताएं दूर होती है.


राहु और राहु नक्षत्र (Rahu and Rahu Nakshatra) 
आर्द्रा, स्वाति और शतभिषा ये राहु के नक्षत्र हैं.जन्म कुण्डली में राहु जब स्वनक्षत्री होता है तो अपनी दशा काल में मानसिक एवं शारीरिक कष्ट देता है.दशा काल के दौरान हड्डियो में दर्द रहता है.चोट लगने की संभावना रहती है.कई प्रकार की चिंताओं से मन बेचैन रहता है.जीवनसाथी से दूरियां बढ़ती हैं.परिवार का कोई बुजुर्ग गम्भीर रूप से बीमार होता है जिससे मन दु:खी रहता है.मान सम्मान में कमी आती है एवं अपयश का भागी बनना पड़ता है.


राहु और केतु नक्षत्र (Rahu and Ketu Nakshatra) 
केतु राहु के समान नैसर्गिक पाप ग्रह होता है.जन्मपत्री में केतु मंदा हो और राहु केतु के नक्षत्र अश्विनी, मघा या मूल में है तो इस स्थिति व्यक्ति अविश्वासी होता है.ग्रहों की इस स्थिति में राहु की दशा के समय हड्डी टूटने की संभावना रहती है.सर्प दंश का भय होता है.स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियां आती हैं.गृहस्थी मे तनाव रहता है.शत्रुओं की संख्या बढ़ जाती है.आर्थिक क्षति एवं मान सम्मान को आघात पहुंचता है.केतु शुभ स्थिति में होने पर भूमि एवं मकान का स्वामित्व प्राप्त होता है.नये सम्बन्ध बनते हैं.भौतिक सुख मिलता है.कारोबार एवं नौकरी में सफलता मिलती है.


Sunday, April 26, 2020

भगवान आदिनाथ जी का संक्षिप्त जीवन परिचय

आदिनाथ भगवान का परिचय

आदिनाथ भगवान के‌ प्रथम आहार के निमित्त दान तीर्थ का प्रवर्तन अक्षय तृतीया महापर्व महोत्सव दिनांक 26-4-2020 दिन ‌रविवार
 श्री आदिनाथ भगवान का संक्षिप्त जीवन परिचय


*प्रथम तीर्थंकर* 

नाम - *आदिनाथ जी*

चिन्ह - *वृषभ*

द्वीप का नाम - *जम्बूदीप*

क्षैत्र - *पूर्व विदेह*

देश प्रांत - *पुष्कलावती*

नगर - *पुंडरीकिनी*

वहाँ का नाम - *वज्रनाभि* *(ऋषभदेव का जीव तो चक्रवर्ती 11 अंग 14 पूर्व का वेत्ता था।)*

वहाँ के गुरु - *वज्रसेन*

कहां से आये - *सर्वार्थ सिद्धि विमान*

जन्म भूमि - *अयोध्या (साकेत पुरृ)*

वंश - *इक्ष्वाकु वंश*

पिता -  *नाभिराज जी*

माता - *मरुदेवी* 

गर्भ तिथि - *आषाढ़ कृष्णा   दूज*

गर्भ नक्षत्र - *उत्तराषाढ़ा*

जन्म तिथि - *चैत्र कृष्णा नवमी*

जन्म नक्षत्र - *अभिजित*

जन्म राशि - *धनु*

शरीर वर्ण - *तपा हुआ स्वर्ण*

शरीर की ऊंचाई - *500 धनुष*

कुमार काल - *20 लाख पूर्व वर्ष*

राजभोग काल - *63 लाख पूर्व*

केवली काल  - *एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व वर्ष*

पूर्ण आयु - *84 लाख पूर्व वर्ष*

दीक्षा तिथि - *चैत्र कृष्णा 9*

दीक्षा समय , नक्षत्र - *अपरान्ह , उत्तराषाढ़ा*

दीक्षा पालकी - *सुदर्शन*

दीक्षा नगर ,वन - *प्रयाग , सिद्धार्थ वन* 

दीक्षा वृक्ष ,वृक्ष ऊंचाई - *वट वृक्ष , 6000 धनुष*

वैराग्य निमित्त - *नीलांजना की मृत्यु*

दीक्षा उपवास नियम - *6 माह का उपवास*

कितने दिनों के बाद आहार -   *13 माह 9 दिन बाद*

प्रथम आहार - *इक्षुरस*


आहार दाता - *श्रेयांस राजा*

पारणा नगर - *हस्तिनापुर*

दीक्षित राजा - *चार हजार*

केवलज्ञान तिथि - *फाल्गुन कृष्ण 11*

केवलज्ञान समय ,नक्षत्र - *पूर्वान्ह उत्तराषाढ़ा*

केवलज्ञान वन ,वृक्ष - *शकटावन , वटवृक्ष*

समोशरण विस्तार - *12 योजन*

कुल गणधर - *84*

मुख्य गणधर - *वृषभसेन*

समवशरण में सामान्य केवली- *20000 हजार*

पूर्वधारी - *4750*

शिक्षक - *4150*

विपुलमति मन: पर्यय ज्ञानी - *12705*

विक्रिया ऋद्धिधारी - *20600*

अवधिज्ञानी - *9000*

वादियों की संख्या - *12750*

मुख्य गणिनी - *ब्राम्ही*

मुख्य श्रोता - *भरत*

श्रावक - *तीन लाख*

श्राविका - *5 लाख*

यक्ष - *गोमुख (वृषभ)*

यक्षिणी - *चक्रश्वरी*

योग निरोध - *14 दिन पहले*

मोक्ष तिथि - *माघ कृष्ण चौदस*

मोक्ष समय , नक्षत्र - *पूर्वान्ह उत्तराषाढ़ा*

मोक्षस्थली - *कैलाश पर्वत*

मोक्ष आसन - *पद्मासन*

ऋषभनाथ तीर्थ प्रवर्तन काल-  *50 लाख करोड़ सागरोपम + 1 पूर्वांग*
 🙏🏻अक्षय तृतीया पर्व  की  हार्दिक शुभकामनाएं 🙏
🙏🏻दान दिवस जयवंत हो🙏🏻

Thursday, April 23, 2020

महामंत्र णमोकार और नवग्रह का संबंध

 
   
      महामन्त्र णमोकार और नवग्रह का सम्बन्ध
                                   आचार्य श्री सुविधिसागर
                        ❇❇❇❇❇❇❇

🔯     णमोकार मंत्र और नव ग्रह

जैन आर्ष परंपरानुसार भवनवासी , व्यन्तर , ज्योतिषी और कल्पवासी ये देवोंके चार भेद है .उनमें ज्योतिषी देवों के सुर्य , चंद्र , ग्रह ,नक्षत्र और तारे ये 5 भेद माने गये है. चन्द्रमा ज्योतिषी देवोंके इंद्र है और सुर्य प्रतीन्द्र है.

त्रिलोकसार आदि करणानुयोग ग्रंथों में सुर्य और चंद्र को ग्रह नही माना है बल्की उनके संबंधित 88 ग्रह है.

ज्योतिर्विदो ने 9 ग्रह स्वीकार किये है . उनके अनुसार जीव  शुभ अशुभ कर्मोंका फल प्राप्त करता है , उसे जानने के लिए ग्रह साधन है.

णमोकारमन्त्र के द्वारा कर्मों के शुभफलदायक रस की अभिव्रुध्दि होती है और अशुभफलदायक रस की हानी होती है.

आइये देखते है 9 ग्रहोंके अशुभ फल को विनिष्ट  कर जीवन की सर्वतोमुखी प्रगति के लिए णमोकारमन्त्र किस प्रकार सहयोगी बन सकता है.

1.  सूर्य ग्रह -णमो सिद्धाणं
 इसका प्रकोप कम करने के लिए, लक्ष्मी व्रुध्दी करने के लिए , प्रताप बढाने के  लिए, तथा आसक्ती कम करने के लिए
णमो सिद्धाणं इस  पद का जप तथा ध्यान करना चाहीये.

2.चंद्र ग्रह -णमो अरिहंताणं -
  चन्द्रमा की पाप प्रक्रुति का शमन करने के लिए , मानसिक शुध्दी के लिए , पुज्यजनों की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए तथा धनलाभ के लिए  *णमो अरिहंताणं* इस पद का जाप करना चाहिये.

3.मंगल ग्रह -णमो सिद्धाणं-
 पराक्रम के वृद्धि के लिए, बहन भाइयों के साथ स्नेहभाव बढाने के लिए, शत्रुता नष्ट करने के लिए,  किसी कार्य में विजय प्राप्त करने के लिए तथा रोगों का क्षय करने के लिए मंगल का प्रकोप उपशमित होना आवश्यक है . इसलिए  *णमो सिध्दाणं*  इस पद का जप तथा ध्यान करना चाहीये.

*4.बुधग्रह -णमोआइरियाणं-
विद्या की वृद्धि के लिए, वचनो के शुध्दी के लिए, तथा बुध ग्रह के अनिष्ठ फल के को दूर करने के लिए, *णमो आइरियाणं* इस पद का जप और ध्यान करना चाहीये.

5.गुरु ग्रह णमो आइरियाणं -
- गुरु के शुभ फल के रसभाग की अभिवृृद्धि के लिए, शरीर को पुष्ट करने के लिए, बुध्दी के विकास के लिए तथा आकाश तत्व के संतुलन के लिए *णमो आइरियाणं* इस पद का जप तथा ध्यान करना चाहीये.

5.शुक्र ग्रह- णमो आइरियाणं-
स्वार्थ को परमार्थ में परिवर्तीत करने के लिए , व्यापार व्रुध्दी के लिये ,वाहनादि विभुतियों के सम्प्राप्ति के लिए, तथा कार्मोजा को आत्मोर्जा में रुपांतरीत करने के लिए *णमो आइरियाणं* इस पद का जप तथा ध्यान करना चाहीये .

7. शनि ग्रह -णमो लोएसव्वसाहूणं 
शनि का दुष्फल दूर करने के लिए, आयु की व्रुध्दी के लिए, विपत्तियोंका निवारण करने के लिए, सम्पत्ति को बढाने के लिए, वैराग्य के व्रुध्दी के लिए तथा मन को प्रसन्न करने के लिए *णमो लोए सव्वसाहुणं* इस पद का जप तथा ध्यान करना चाहीये.

 8-राहु ग्रह-णमो लोए सव्वसाहूणं
राहु कि क्रूरता को कम करने के लिए, वैराग्य की स्थिरता के लिए, तथा सार्वभौमिक उन्नती के लिए *णमो लोए सव्व साहुणं*, इस पद का जप तथा ध्यान करना चाहीये.

9. केतु ग्रह -णमो उवझायाणं-
केतु की क्रूरता का उपशम करने के लिए, जैविक उन्नती के लिए तथा अध्यात्मिक विकास के लिए *णमो उवज्झायणं* इस पद का जप तथा ध्यान करना चाहीये.

Wednesday, April 22, 2020

बुधादित्य योग का बारह भावों में फल

*भावानुसार बुध आदित्य योग*
〰️〰️🔸〰️🔸〰️🔸〰️〰️         
वैदिक ज्योतिष में प्रचलित परिभाषा के अनुसार किसी कुंडली के किसी घर में जब सूर्य तथा बुध संयुक्त रूप से स्थित हो जाते हैं यूति होती हे  तो ऐसी कुंडली में बुध आदित्य योग का निर्माण हो जाता है।
इस योग का शुभ प्रभाव जातक को बुद्धि, विशलेषणात्मक क्षमता, वाक कुशलता, संचार कुशलता, नेतृत्व करने की क्षमता, मान, सम्मान, प्रतिष्ठा तथा ऐसी ही अन्य कई विशेषताएं प्रदान कर सकता है। बुध हमारे सौर मंडल का सबसे भीतरी ग्रह है जिसका अर्थ यह है कि बुध सूर्य के सबसे समीप रहता है तथा बहुत सी कुंडलियों में बुध तथा सूर्य एक साथ ही देखे जाते हैं जिसका अर्थ यह हुआ कि इन सभी कुंडलियों में बुध आदित्य योग बन जाता है जिससे अधिकतर जातक इस योग से मिलने वाले शुभ फलों को प्राप्त करते हैं।
जो वास्तविक जीवन में देखने को नहीं मिलता क्योंकि इस योग के द्वारा प्रदान की जाने वालीं विशेषताएं केवल कुछ विशेष जातकों में ही देखने को मिलतीं हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि बुध आदित्य योग की परिभाषा अपने आप में पूर्ण नहीं है तथा किसी कुंडली में इस योग का निर्माण निश्चित करने के लिए कुछ अन्य तथ्यों के विषय में विचार कर लेना भी आवश्यक है।

किसी कुंडली में किसी भी शुभ योग के बनने के लिए यह आवश्यक है कि उस योग का निर्माण करने वाले सभी ग्रह कुंडली में शुभ रूप से काम कर रहे हों क्योंकि अशुभ ग्रह शुभ योगों का निर्माण नहीं करते अपितु अशुभ योगों अथवा दोषों का निर्माण करते हैं। इसी आधार पर यह कहा जा सकता है कि किसी कुंडली में बुध आदित्य योग के बनने के लिए कुंडली में सूर्य तथा बुध, दोनों का शुभ होना आवश्यक है तथा इन दोनों में से किसी एक ग्रह के अथवा दोनों के ही कुंडली में अशुभ होने से उस कुंडली में बुधादित्य योग का निर्माण नहीं होता बल्कि किसी प्रकार के दोष का निर्माण हो सकता है। उदाहरण के लिए किसी कुंडली में सूर्य के अशुभ होने पर, बुध के शुभ होने पर तथा सूर्य बुध के संयुक्त होने पर कुंडली में बुधादित्य योग का निर्माण नहीं होगा बल्कि इस स्थिति में अशुभ सूर्य के कारण शुभ बुध को हानि पहुंचेगी जिसके कारण बुध की विशेषताओं से जुड़े हुए क्षेत्रों में जातक को हानि उठानी पड़ सकती है तथा कुंडली में बुध के अशुभ और सूर्य के शुभ होकर संयुक्त होने की स्थिति में भी इस दोष का निर्माण नहीं होगा बल्कि जातक को सूर्य की विशेषताओं से संबंधित क्षेत्रों में हानि उठानी पड़ेगी। किसी कुंडली में सबसे बुरी स्थिति तब पैदा हो सकती है जब कुंडली में सूर्य तथा बुध दोनों ही अशुभ होकर संयुक्त हों क्योंकि इस स्थिति में जातक को दोनों ही ग्रहों की विशेषताओं से संबंधित क्षेत्रों में हानि उठानी पड़ सकती है। इसलिए किसी कुंडली में बुधादित्य योग के निर्माण के लिए सूर्य तथा बुध दोनों का ही शुभ होना आवश्यक है।

यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि कुंडली में सूर्य तथा बुध दोनों के शुभ होकर संयुक्त हो जाने से बुधादित्य योग का निर्माण होने पर भी इस योग से संबंधित शुभ फलों को बताने से पहले कुंडली में सूर्य तथा बुध का बल तथा स्थिति देख लेनी अति आवश्यक है जिसके कारण इस योग के शुभ फलों में बहुत अंतर आ सकता है।
उदाहरण के लिए इस योग के किसी कुंडली में तुला अथवा मीन राशि में स्थित सूर्य तथा बुध के संयोग से बनने पर यह योग जातक के लिए अधिक फलदायी नहीं होगा क्योंकि तुला में सूर्य तथा मीन में बुध बलहीन अथवा नीच रहते हैं तथा कोई भी बलहीन ग्रह कोई शुभ योग बनाने पर भी जातक को बहुत अधिक शुभ फल प्रदान नहीं कर सकता। यह योग उस स्थिति में और भी कमजोर हो जाएगा जब शुभ सूर्य तथा बुध किसी कुंडली में मीन राशि में स्थित हों क्योंकि मीन राशि में बुधादित्य योग के बनने से बुध को दोहरी बलहीनता का सामना करना पड़ सकता है जिसमें से एक तो बुध के मीन राशि में स्थित होने से है तथा दूसरी सूर्य के अधिक पास होने के कारण बुध के अस्त हो जाने के कारण हो सकती है जिससे इस योग की फल प्रदान करने की क्षमता में और भी कमी आ जाएगी। इसी प्रकार कुंडली के किसी बलहीन घर में बनने वाला बुध आदित्य योग भी अपेक्षाकृत कम शुभ फल प्रदान करेगा तथा किसी कुंडली में सूर्य पर किसी अशुभ ग्रह का प्रभाव होने के कारण पित्र दोष बनने पर भी इस योग का शुभ फल बहुत सीमा तक कम हो जाएगा। इसलिए बुध आदित्य योग के किसी कुंडली में बनने तथा इसके शुभ फलों से संबंधित निर्णय करने से पहले इस योग के निर्माण तथा फलादेश से संबंधित सभी महत्वपूर्ण तथ्यों पर भली भांति विचार कर लेना चाहिए तथा उसके पश्चात ही किसी कुंडली में इस योग का बनना तथा इसके शुभ फलों का निर्णय करना चाहिए।

किसी कुंडली में ठीक प्रकार से बनने पर बुधादित्य योग जातक को कुंडली के विभिन्न घर में अपनी स्थिति के आधार पर नीचे बताए गए कुछ संभावित फल प्रदान कर सकता है।

बुधादित्य योग यदि लग्न में हो तो
प्रथम भाव में बुधादित्य योग

👉  बालक का कद माता-पिता के बीच का होता है। यदि वृष, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, कुंभ, राशि लग्न में हो तो लंबा कद होता है। जातक का स्वभाव कठोर तथा वात-पित्त-कफ से पीड़ित होता है।

बाल्यावस्था में कान, नाक, आंख, गला, दांत आदि में कष्ट सहन करना पड़ता है। स्वभाव से वीर, क्षमाशील, कुशाग्र बुद्धि, उदार, साहसी एवं आत्मसम्मानी होता है। स्त्री जातक में प्राय: चिड़चिड़ापन तथा बालों में भूरापन भी देखा जाता है।

मतांतर से लग्न में स्थित बुधादित्य योग जातक को मान, सम्मान, प्रसिद्धि, व्यवसायिक सफलता तथा अन्य कई प्रकार के शुभ फल प्रदान कर सकता है।

 द्वितीय भाव में यदि बु‍धादित्य योग हो तो
👉 जातक की तार्किक अभिव्यक्ति होती है, लेकिन व्यवहार में शून्यता-सी झलकती है। कई अभियंताओं, घूसखोरों एवं ऋण लेकर तथा दूसरों के धन से व्यवसाय करने वाले या दूसरों की पुस्तकें लेकर अध्ययन करने वाले लोगों के लिए स्‍थिति प्राय: बनी हुई होती है। यह योग जातक को धन, संपत्ति, ऐश्वर्य, सुखी वैवाहिक जीवन तथा अन्य कई प्रकार के शुभ फल प्रदान कर सकता है।

 तृतीय भाव में यदि बुधादित्य योग हो तो
👉  जातक स्वयं परिश्रमी होता है तथा भाई-बहनों में आत्मीय स्नेह नहीं पा सकता। मौसी को कष्ट रहता है तथा भाग्योदय के अनेक अवसर खो देता है। पात्रता के अनुरूप नौकरीपेशा तथा व्यवसाय अवश्य प्रदान करवाता है, लेकिन पारिवारिक खुशहाली में बाधक होता है।
तीसरे घर मे यह योग जातक को बहुत अच्छी रचनात्मक क्षमता प्रदान कर सकता है जिसके चलते ऐसे जातक रचनात्मक क्षेत्रों में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त तीसर घर का बुध आदित्य योग जातक को सेना अथवा पुलिस में किसी अच्छे पद की प्राप्ति भी करवा सकता है।

चतुर्थ भाव में बुधादित्य योग
👉 इस भाव के योग को अधिकतर विद्वान एवं ग्रंथ श्रेष्ठ मानते हैं। चतुर्थ भाव में बुधादित्य योग मनुष्य को आशातीत सफलता प्रदान करने वाला होता है। संस्था प्रधान, तार्किक मति, कुलपति, प्रोफेसर, इंजीनियर, सफल राजनेता, न्यायाधीश या उच्च कोटि का अपराधी भी बना देता है।

माता का स्वास्थ्य चिंताजनक तथा पत्नी के भाग्य का भी सहारा मिलता है। अपनी स्थायी संपत्ति होते हुए भी दूसरों या सरकारी वाहनों, भवनों का उपयोग करने वाला तथा विषमलिंगी मित्रों का सहयोग एवं प्रेम करने वाला होता है। यह योग जातक को सुखमय वैवाहिक जीवन, ऐश्वर्य, रहने के लिए सुंदर तथा सुविधाजनक घर, वाहन सुख तथा विदेश भ्रमण आदि जैसे शुभ फल प्रदान कर सकता है।

पंचम भाव में 
👉  अल्प संतान लेकिन प्रतिभा संपन्न संतान प्रदान करवाता है। चित्त में उद्विग्नता वात रोग एवं यकृत विकार की प्रबल संभावना बन जाती है। घर में भाभी या बड़ी बहन से वैचारिक मतभेद होते हैं। मेष, सिंह, वृश्चिक, धनु, मीन राशि में यह योग अल्प संतान प्रदाता होता है। स्त्री ग्रहों से दृष्ट होने पर कन्या संतान की अधिकता संभव होती है। पांचवे घर का बुध आदित्य योग जातक को बहुत अच्छी कलात्मक क्षमता, नेतृत्व क्षमता तथा आध्यातमिक शक्ति प्रदान कर सकता है जिसके चलते ऐसा जातक अपने जीवन के अनेक क्षेत्रों में सफलता प्राप्त कर सकता है।

छठवें भाव में  सूर्य बुध के साथ हो तो
👉  शत्रुओं की मिथ्या विरोधी क्रियाओं से चिंतायुक्त होते हुए भी आत्मविश्वास बना रहता है। मामा पक्ष से बचपन में लाभ मिलता है, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर सहयोग नहीं मिल पाता है। इस भाव मे यह योग जातक को एक सफल वकील, जज, चिकित्सक, ज्योतिषी आदि बना सकता है तथा इस योग के प्रभाव में आने वाले जातक अपने व्यवसाय के माध्यम से बहुत धन तथा ख्याति अर्जित कर सकते हैं।

सप्तम भाव में सूर्य बुध के साथ हो तो
👉  शत्रुओं की मिथ्या विरोधी क्रियाओं से चिंतायुक्त होते हुए भी आत्मविश्वास बना रहता है। मामा पक्ष से बचपन में लाभ मिलता है लेकिन आवश्यकता पड़ने पर सहयोग नहीं मिल पाता है। सप्तम भाव में बुधादित्य योग यौन रोगों को उत्पन्न करने वाला तथा अत्यंत कामी भाव को समय एवं परिस्थिति को ध्यान में रखकर उत्पन्न करने वाला होता है। ऐसे लोग अपने जीवनसाथी की उपेक्षा कर दूसरों की ओर विशेष आकृष्ट होने वाले होते हैं लेकिन कभी भी अंतरंग संबंधों में नहीं बंध पाते हैं। सप्तम के बुधादित्य योग वाले प्राय: चिकित्सक, अभिनेता निजी सहायक, रत्न व्यवसायी, समाजसेवा एवं स्वयंसेवी संस्थाओं से संबद्ध होते हैं। सिंह या मेष राशि सप्तम में हो तो एकनिष्ठ होते हैं। शुभ ग्रहों की दृष्टि एवं सान्निध्य इन योगों में बड़ा भारी परिवर्तन भी कर देता है। जातक के वैवाहिक जीवन को सुखमय बना सकता है तथा यह योग जातक को सामाजिक प्रतिष्ठा तथा प्रभुत्व वाला कोई पद भी दिला सकता है।

आठवें भाव में यदि बु‍धादित्य योग हो तो
👉  जातक किसी को सहयोग करने के चक्कर में स्वयं उलझ जाता है। दुर्घटना में पैर, हाथ, गाल, नाखून एवं दांत पर चोट का भय बना रहता है। विदेशी मुद्रा से व्यापार, किडनी स्टोन, आमाशय में जलन तथा आंतों में विकार भी इस योग का परिणाम बन जाता है। कुंडली के आठवें घर में बनने वाला बुधादित्य योग जातक को किसी वसीयत आदि के माध्यम से धन प्राप्त करवा सकता है तथा यह योग जातक को आध्यात्म तथा परा विज्ञान के क्षेत्रों में भी सफलता प्रदान कर सकता है
नवमें भाव में 
👉 जातक को स्वाभिमानी के साथ-साथ अहंकारी बना देता है तथा प्रारंभ में कई सुअवसरों का परित्याग बड़े भारी पश्चाताप का कारण बनता है। नौवें घर में बुध आदित्य योग जातक को उसके जीवन के अनेक क्षेत्रों में सफलता प्रदान कर सकता है तथा इस योग के शुभ प्रभाव में आने वाले जातक सरकार में मंत्री पद अथवा किसी प्रतिष्ठित धार्मिक संस्था में उच्च पद भी प्राप्त कर सकते हैं।

दशम भाव में बुधादित्य योग
👉  बुद्धिमान, धन कमाने में चतुर, साहसी एवं संगीत प्रेमी बनाता है। पुत्र-पौत्रादि सुख से संपन्न लेकिन एक संतान से चिंतित भी बनाता है। धार्मिक स्थानों का निर्माण लंबी ख्याति प्रदान कराता है। इस घर में बनने वाला बुधादित्य योग जातक को उसके व्यवसायिक क्षेत्र में सफलता प्रदान कर सकता है तथा ऐसा जातक अपने किसी अविष्कार, खोज अथवा अनुसंधान के सफल होने के कारण बहुत ख्याति भी प्राप्त कर सकता है।

एकादश भाव में यदि सूर्य बुध के साथ हो तो
👉👉यशस्वी, ज्ञानी, संगीत विद्या प्रिय, रूपवान एवं धनधान्य से संपन्न करवाता है। लोकसेवा के लिए सरकार एवं अनेक प्रतिष्ठानों से धन की प्राप्ति होती है।ग्यारहवें घर में बनने वाला बुधादित्य योग जातक को बहुत मात्रा में धन प्रदान कर सकता है तथा इस प्रकार के बुध आदित्य योग के प्रभाव में आने वाला जातक सरकार में मंत्री पद अथवा कोई अन्य प्रतिष्ठा अथवा प्रभुत्व वाला पद भी प्राप्त कर सकता है।

द्वादश भाव में बुधादित्य योग
👉  चाचा-ताऊ से विरोध करवाता है तथा अपनी संपत्ति उनके चंगुल में फंस जाती है। जुआ, सट्टा, शेयर या अन्य आकस्मिक धन-लाभ के व्यवसायों में फंसकर अपना सर्वस्व लूटा देता है। बारहवें घर में बुधादित्य योग जातक को विदेशों में सफलता, वैवाहिक जीवन में सुख तथा आध्यात्मिक विकास प्रदान कर सकता है।
इस योग के कई अपवाद भी है बुधादित्य योग को राशि एवं अन्य ग्रहों के संबंध भी प्रभावित करते हैं लेकिन अलग-अलग भावों में एकाकी हो तो ऐसा ही फल प्रदान करता है।

Monday, April 20, 2020

जानिए अष्टांग निमित्त क्या हैं ? उनसे आप सब कुछ जान साजरे हैं

अष्टांग निमत्त

जिन लक्षणों को देखकर भूत और भविष्यत् में घटित हुई और होने वाली घटनाओं का निरुपण किया जाता है, उन्हें निमित्त कहते हैं।

इन्हीं सूचक निमित्तों के संहिता ग्रन्थों में आठ भेद किये गये हैं।

(1) *व्यंजन* (2) *अंग*(3) *स्वर*(4) भौम
(5) *छिन्न*(6) *अंतरिक्ष*(7) लक्षण (8) स्वप्न ।

(1) व्यंजन- *तिल , मस्सा , चट्टा, आदि को देखकर शुभाशुभ का निरुपण करना व्यंजन निमित्त ज्ञान है*

*साधारणत: पुरुष के शरीर में दाहिनी और तिल मस्सा चट्टा शुभ समझा जाता है।*

* *नारी के शरीर में इन्ही व्यंजनों का बायीं ओर होना शुभ माना जाता है।*

(2) अंग निमित्त हाथ पांव, ललाट, मस्तक और वृक्ष: स्थल को देखकर शुभाशुभ फल का निरुपण करना अंग निमित्त है।*

*नासिका , नैत्र , दन्त , ललाट , मस्तक , वृक्ष स्थल ये छ: अवयव उन्नत होने से मनुष्य सुलक्षण युक्त होता है।*

*करतल , पदतल , नयनप्रान्त ,नख , तालु , अधर , और जिह्वा ये सात अंग लाल हो तो शुभप्रद है।*

(3)स्वर निमित्त - चेतन प्राणियों के और अचेतन वस्तुओं के शब्द सुनकर शुभाशुभ का निरुपण करना स्वर निमित्त कहलाता है।*

(4) भौम निमित्त भूमि के रंग, चिकनाहट ,रूखेपन , आदि के द्वारा शुभाशुभत्व अवगत करना भौम निमित्त कहलाता है।*

*(इस निमित्त से गृह-निर्माण योग्य भूमि , देवालय-निर्माण योग्य भूमि, , जलाशय- निर्माण योग्य भूमि आदि बातों की जानकारी प्राप्त की जाती है। )*

(5) छिन्न निमित्त - वस्त्र, शस्त्र , आसन और छत्रादि को हुआ देखकर शुभाशुभ फल कहना छिन्न निमित्त ज्ञान है।*

(6) अंतरिक्ष निमित्त- *ग्रह नक्षत्रों के उदयास्त द्वारा शुभाशुभ का निरुपण करना अन्तरिक्ष निमित्त है।*

*(शुक्र , बुध , मंगल , गुरु और शनि इन पांचों ग्रहों के उदयास्त द्वारा ही शुभाशुभ फल का निरुपण किया जाता है)*

(7) लक्षण निमित्त -स्वस्तिक , कलश , शंख , चक्र आदि चिन्हों के द्वारा एवं हस्त , मस्तक , और पदतल की रेखाओं द्वारा शुभाशुभ का निरुपण करना लक्षण निमित्त है।*

(8)  स्वप्न निमित्त-स्वप्न द्वारा शुभाशुभ का वर्णन करना स्वप्न निमित्त है।*

उपरोक्त निमित्तों का ज्ञान सम्यक रीत्या करना चाहिए 

गाय के गोबर का महत्व

 आयुर्वेद ग्रंथों  में हमारे ऋषि मुनियों ने पहले ही बता दिया गया  था कि   *धोवन पानी पीने का वैज्ञानिक तथ्य और आज की आवश्यकता* वायुमण्डल में...