Monday, January 28, 2019

सनातन नागा साधुओं को जानिये

कौन हैं ये नागा साधू ?
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महाकुंभ, अर्धकुंभ या फिर सिंहस्थ कुंभ में आपने नागा साधुओं को जरूर देखा होगा. इनको देखकर आप सभी के मन में अक्सर यह सवाल उठते होंगे कि - कौन हैं ये नागा साधु, कहां से आते हैं और कुंभ खत्म होते ही कहां चले जाते हैं ? आइए आज हम लोग चर्चा करते है हिंदू धर्म के इन सबसे रहस्यमयी लोगों के बारे में.

"नागा" शब्द बहुत पुराना है. यह शब्द संस्कृत के 'नग' शब्द से निकला है, जिसका अर्थ 'पहाड़' से होता है. इस पर रहने वाले लोग 'पहाड़ी' या 'नागा' कहलाते हैं. 'नागा' का अर्थ 'नग्न' रहने वाले व्यक्तियों से भी है. भारत में नागवंश और नागा जाति का बहुत पुराना इतिहास है. शैव पंथ से कई संन्यासी पंथों और परंपराओं की शुरुआत मानी गई है.

भारत में प्राचीन काल से नागवंशी, नागा जाति और दसनामी संप्रदाय के लोग रहते आए हैं. उत्तर भारत का एक संप्रदाय "नाथ संप्रदाय" भी दसनामी संप्रदाय से ही संबंध रखता है". 'नागा' से तात्पर्य 'एकबहादुर लड़ाकू व्यक्ति' से लिया जाता है. जैसा कि हम जानते है कि - सनातन धर्म के वर्तमान स्वरूप की नींव आध्य शंकराचार्य ने रखी थी.

शंकराचार्य का जन्म 8 वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था. उस समय भारत सम्रद्ध तो बहुत था परन्तु धर्म से विमुख होने लगा था. भारत की धन संपदा को लूटने के लालच में तमाम आक्रमणकारी यहां आ रहे थे. कुछ उस खजाने को अपने साथ वापस ले गए तो कुछ भारत की दिव्य आभा से ऐसे मोहित हुए कि यहीं बस गए,

लेकिन कुल मिलाकर सामान्य शांति-व्यवस्था बाधित थी. ईश्वर, धर्म, धर्मशास्त्रों को तर्क, शस्त्र और शास्त्र सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था. ऐसे में आध्य शंकराचार्य ने सनातन धर्म की पुनर्स्थापना के लिए कई बड़े कदम उठाए जिनमें से एक था देश के चार कोनों पर चार पीठों (चार धाम) का निर्माण करना.

आदिगुरु आध्य शंकराचार्य को लगने लगा था कि - केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है. इसके लिए अधर्मियों से युद्ध करने के लिए धर्मयोद्दाओं की भी आवश्यकता है. तब उन्होंने जोर दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को मजबूत बनाए और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें.

इसके लिए उन्होंने कुछ ऐसे मठों का निर्माण किया, जिनमे व्यायाम करने और तरह तरह के शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था, ऐसे मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा. आम बोलचाल की भाषा में भी अखाड़े उन जगहों को कहा जाता है जहां पहलवान कसरत के दांवपेंच सीखते हैं. कालांतर में कई और अखाड़े अस्तित्व में आए.

शंकराचार्य ने अखाड़ों को सुझाव दिया कि - मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए जरूरत पडऩे पर शक्ति का प्रयोग करें. इस तरह विदेशी और विधर्मी आक्रमणों के उस दौर में इन अखाड़ों ने एक भारत को सुरक्षा कवच देने का काम किया. विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं ने अनेकों युद्धों में हिस्सा लिया.

प्रथ्वीराज चौहान के समय में हुए मोहम्मद गौरी के पहले आक्रमण के समय सेना के पहुँचने से पहले ही नागा साधुओ ने कुरुक्षेत्र में गौरी की सेना को घेर लिया था जब गौरी की सेना कुरुक्षेत्र और पेहोवा के मंदिरों को नुकशान पहुंचाने की कोशिश कर रही थी. उसके बाद प्रथ्वी राज की सेना ने गौरी की सेना को तराइन (तरावडी) में काट दिया था.

इस युद्ध के बाद पड़े कुम्भ में , नागा योद्धाओं को सम्मान देने के लिए, प्रथ्वीराज चौहान ने कुम्भ में सबसे पहले स्नान करने का अधिकार दिया था. तब से यह परम्परा चली आ रही है कि - कुम्भ का पहला स्नान नागा साधू करेंगे. इन नागा धर्म योद्धाओं ने केवल एक में ही नहीं बल्कि अनेकों युद्धों में विदेशी आक्रान्ताओं को टक्कर दी.

दिल्ली को लूटने के बाद हरिद्वार के विध्वंस को निकले "तैमूर लंग" को भी हरिद्वार के पास हुई ज्वालापुर की लड़ाई में नागाओं ने मार भगाया था. तैमूर के हमले के समय जब ज्यादातर राजा डर कर छुप गए थे. जोगराज सिंह गुर्जर, हरवीर जाट, राम प्यारी, धूलाधाडी , आदि के साथ साथ नागा योद्धाओं ने तैमूर लंग को भारत से भागने पर मजबूर किया था.

इसी प्रकार खिलजी के आक्रमण के समय नाथ सम्प्रदाय के योद्धा साधुओं ने कडा मुकाबला किया था. अहेमद शाह अब्दाली के आक्रमण के समय जब उत्तर भारत के राजाओं ने नोटा दबा दिया था और मराठा सेना पानीपत में हार गई थी तब मथुरा - वृन्दावन - गोकुल की रक्षा के लिए 40,000 नागा योद्धाओं ने अब्दाली से टक्कर ली थी..

पानीपत की हार का बदला लेने के लिए जब पेशवा माधवराव ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया था तो नागा योद्धाओं ने अब्दाली के स्थानीय मददगारों को मारा था. इस प्रकार आप अब यह समझ चुके होंगे कि - नागा साधू सनातन धर्म के रक्षक धर्म योद्धा हैं. यह सांसारिक सुखों से दूर रहकर केवल धर्म के लिए जीते हैं.

अब बात करते हैं कि - नागा साधू कौन बनते हैं तथा कैसे बनते है. नागाओं को आम दुनिया से अलग और विशेष बनना होता है. नागा साधु बनने की प्रक्रिया बहुत कठिन है.  नागा साधु बनने के लिए इतनी कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है कि शायद कोई आम आदमी इसे पार ही नहीं कर पाए इस प्रक्रिया को पूरा होने में कई साल लग जाते हैं.

जब कोई व्यक्ति साधु बनने के लिए किसी अखाड़े में जाता है, तो उसे कभी सीधे-सीधे अखाड़े में शामिल नहीं किया जाता, पहले अखाड़ा अपने स्तर पर ये पता लगाता कि वह साधु क्यों बनना चाहता है? उस व्यक्ति की तथा उसके परिवार की संपूर्ण पृष्ठभूमि देखी जाती है. पहले उसे नागाा सन्यासी जीवन की कठिनता से परिचय कराया जाता है

अगर अखाड़े को ये लगता है कि वह साधु बनने के लिए सही व्यक्ति है, तो ही उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है. अखाड़े में प्रवेश के बाद उसको ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाती है. उसके तप, ब्रह्मचर्य, वैराग्य, ध्यान, संन्यास और धर्म का अनुशासन तथा निष्ठा आदि प्रमुखता से परखे-देखे जाते हैं।

इसमें 6 महीने से लेकर 12 साल तक लग जाते हैं. अगर अखाड़ा यह निश्चित कर लें कि वह दीक्षा देने लायक हो चुका है फिर उसे अगली प्रक्रिया में ले जाया जाता है. इसके बाद वह अपना श्राद्ध, मुंडन और पिंडदान करते हैं तथा गुरु मंत्र लेकर संन्यास धर्म मे दीक्षित होते है. अपना श्राद्ध करने का मतलब सांसारिक रिश्तेदारों से सम्बन्ध तोड़ लेना.

कई अखाड़ों मे महिलाओं को भी नागा साधु की दीक्षा दी जाती है.वैसे तो महिला नागा साधु और पुरुष नागा साधु के नियम कायदे समान ही है, फर्क केवल इतना ही है की महिला नागा साधु को एक पीला वस्त्र लपेटकर रखना पड़ता है और यही वस्त्र पहन कर स्नान करना पड़ता है. उन्हें नग्न स्नान की अनुमति नहीं है,

जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करने की परीक्षा से सफलतापूर्वक गुजर जाता है, तो उसे ब्रह्मचारी से महापुरुष बनाया जाता है. उसके पांच गुरु बनाए जाते हैं. ये पांच गुरु पंच देव या पंच परमेश्वर (शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश) होते हैं. इन्हें भस्म, भगवा, रूद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं. यह नागाओं के प्रतीक और आभूषण होते हैं.

महापुरुष के बाद नागाओं को अवधूत बनाया जाता है. इसमें सबसे पहले उसे अपने बाल कटवाने होते हैं. अवधूत रूप में दीक्षा लेने वाले को खुद का तर्पण और पिंडदान करना होता है. ये पिंडदान अखाड़े के पुरोहित करवाते हैं. अब ये संसार और परिवार के लिए मृत हो जाते हैं. इनका एक ही उद्देश्य होता है सनातन और वैदिक धर्म की रक्षा.

नागा साधुओं को वस्त्र धारण करने की भी अनुमति नहीं होती. अगर वस्त्र धारण करने हों, तो सिर्फ गेरुए रंग का एक वस्त्र ही नागा साधु पहन सकते हैं. नागा साधुओं को शरीर पर सिर्फ भस्म लगाने की अनुमति होती है. नागा साधुओं को विभूति एवं रुद्राक्ष धारण करना पड़ता है, उन्हें अपनी चोटी का त्याग करना होता है और जटा रखनी होती है.

नागा साधुओं को 24 घंटे में केवल एक ही समय भोजन करना होता है. वो भोजन भी भिक्षा मांग कर लिया गया होता है. एक नागा साधु को अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा लेने का अधिकार है. अगर सात घरों से भिक्षा मांगने पर कोई भिक्षा ना मिले, तो वह आठवे घर में भिक्षा मांगने भी नहीं जा सकता. उसे उस दिन भूखा ही रहना पड़ता है.

नागा साधु सोने के लिए पलंग, खाट या अन्य किसी साधन का उपयोग नहीं कर सकता. नागा साधु केवल पृथ्वी पर ही सोते हैं. यह बहुत ही कठोर नियम है, जिसका पालन हर नागा साधु को करना पड़ता है. दीक्षा के बाद गुरु से मिले गुरुमंत्र में ही उसे संपूर्ण आस्था रखनी होती है. उसकी भविष्य की सारी तपस्या इसी गुरु मंत्र पर आधारित होती है.

कुम्भ मेले के अलावा नागा साधु पूरी तरह तरह से आम आवादी से दूर रहते हैं और गुफाओं, कन्दराओं मे कठोर तप करते हैं. ये लोग बस्ती से बाहर निवास करते हैं. ये किसी को प्रणाम नहीं करते है तथा केवल संन्यासी को ही प्रणाम करते हैं. ऐसे और भी कुछ नियम हैं, जो दीक्षा लेने वाले हर नागा साधु को पालन करना पड़ते हैं.

नागाओं को सिर्फ साधु नहीं, बल्कि योद्धा माना गया है. वे युद्ध कला में माहिर, क्रोधी और बलवान शरीर के स्वामी होते हैं. अक्सर नागा साधु अपने साथ तलवार, फरसा या त्रिशूल लेकर चलते हैं. ये हथियार इनके योद्धा होने के प्रमाण  हैं, नागाओं में चिमटा रखना अनिवार्य होता है. चिमटा हथियार भी है और इनका औजार भी.

नागा साधू अपने भक्तों को चिमटे से छूकर ही आशीर्वाद देते हैं. माना जाता है कि- जिसको सिद्ध नागा साधू चिमटा छू जाए उसका कल्याण हो जाता है. आधुनिक आग्नेयास्त्रों के आने के बाद से इन अखाड़ों ने अपना पारम्परिक सैन्य चरित्र त्याग दिया है. अब इन अखाड़ों में सनातनी मूल्यों का अनुपालन करते हुए संयमित जीवन जीने पर ध्यान रहता है.

इस समय 13 प्रमुख अखाड़े हैं जिनमें प्रत्येक के शीर्ष पर महन्त आसीन होते हैं. प्रयागराज के कुंभ में उपाधि पाने वाले को नागा, उज्जैन में खूनी नागा, हरिद्वार में बर्फानी नागा, नासिक में उपाधि पाने वाले को खिचड़िया नागा कहा जाता है. इससे यह पता चल पाता है कि उसे किस कुंभ में नागा बनाया गया है.

इन प्रमुख अखाड़ों के नाम प्रकार हैः श्री निरंजनी अखाड़ा, श्री जूनादत्त या जूना अखाड़ा, श्री महानिर्वाण अखाड़ा, श्री अटल अखाड़ा, श्री आह्वान अखाड़ा, श्री आनंद अखाड़ा, श्री पंचाग्नि अखाड़ा, श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा, श्री वैष्णव अखाड़ा, श्री उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा, श्री उदासीन नया अखाड़ा, श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा, निर्मोही अखाड़ा।

वरीयता के हिसाब से इनको कोतवाल, पुजारी, बड़ा कोतवाल, भंडारी, कोठारी, बड़ा कोठारी, महंत और सचिव जैसे पद दिए जाते हैं. सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण पद सचिव का होता है. नागा साधु अखाड़े के आश्रम और मंदिरों में रहते हैं. तथा तपस्या करने के लिए हिमालय या ऊंचे पहाड़ों की गुफाओं में जीवन बिताते हैं।।

Wednesday, January 23, 2019


विवाह कब होगा?

कब होगी आपकी शादी, क्यों हो रही है देर, जानिए क्या है कारण ....

देर से शादी होने के परिणामस्वरूप कई बार उपयुक्त जीवन साथी नहीं मिल पाता। शादी में देर से अभिप्राय उस समय से है जब आप शादी करना चाहते हो और कहीं कोई बात बन नहीं पा रही है।




कुंडली का सातवां घर बताता है कि आपकी शादी किस उम्र में होगी। शादी के लिए दिशा कौन सी उपयुक्त रहेगी जहां प्रयास करने पर जल्द ही शादी हो सके।

शुक्र, बुध, गुरु और चन्द्र यह सब शुभ ग्रह हैं। इनमें से कोई एक यदि सातवें घर में बैठा हो तो शादी में आने वाली रुकावटें स्वत: समाप्त हो जाती हैं।

 अधिक इंतजार नहीं करना पड़ता परन्तु यदि इन ग्रहों के साथ कोई अन्य ग्रह भी हो तो शादी में व्यवधान अवश्य आता है। राहू, मंगल, शनि, सूर्य यह सब अशुभ ग्रह हैं |

इनका सातवें घर से किसी भी प्रकार का संबंध शादी या दाम्पत्य के लिए शुभ नहीं होगा।

20 से 25 वर्ष की उम्र में शादी

 बुध शीघ ही शादी करवाता है। सातवें घर में बुध हो तो शादी जल्दी होने के योग होते हैं। बीस वर्ष की उम्र में शादी होती है यदि बुध पर कोई किसी अन्य ग्रह का प्रभाव न हो।

बुध यदि सातवें घर में हो तो सूर्य भी एक स्थान पीछे या आगे होगा या फिर बुध के साथ सूर्य के होने की संभावना रहती है |

 सूर्य साथ हो तो दो साल का विलम्ब शादी में अवश्य होगा। इस तरह उम्र 22 में शादी का योग बनता है। यदि सूर्य के अंश क्षीण हों तो शादी केवल 20 से 21 वर्ष की उम्र में हो जाती है।

 अभिप्राय यह है कि जब बुध सातवें घर में हो तब 20 से 25 की उम्र में शादी का योग बनता है। 

 25 से 27 की उम्र में शादी

यदि शुक्र, गुरु या चन्द्र आपकी कुंडली के सातवें घर में हैं तो 24- 25  की उम्र में शादी होने की प्रबल संभावना रहती है।

गुरु सातवें घर में हो तो शादी पच्चीस की उम्र में होती है। गुरु पर सूर्य या मंगल का प्रभाव हो तो शादी में एक साल की देर समझें। राहू या शनि का प्रभाव हो तो दो साल की देर यानी 27 साल की उम्र में शादी होती है।

शुक्र सातवें हो और शुक्र पर मंगल, सूर्य का प्रभाव हो तो शादी में दो साल की देर अवश्यम्भावी है। शनि का प्रभाव होने पर एक साल यानी छब्बीस साल की उम्र में और यदि राहू का प्रभाव शुक्र पर हो तो शादी में दो साल का विलम्ब होता है।

चन्द्र सातवें घर में हो और चन्द्र पर मंगल, सूर्य में से किसी एक का प्रभाव हो तो शादी 26 साल की उम्र में होने का योग होगा।

 शनि का प्रभाव मंगल पर हो तो शादी में तीन साल का विलम्ब होता है। राहू का प्रभाव होने पर 27 वर्ष की उम्र में काफी विघ्नों के बाद शादी संपन्न होती है।

कुंडली के सातवें घर में यदि सूर्य हो और उस पर किसी अशुभ ग्रह का प्रभाव न हो तो 27 वर्ष की उम्र में शादी का योग बनता है। शुभ ग्रह सूर्य के साथ हों तो विवाह में इतनी देर नहीं होती।

28 से 32 वर्ष की उम्र में शादी

मंगल, राहू केतु में से कोई एक यदि सातवें घर में हो तो शादी में काफी देर हो सकती है। जितने अशुभ ग्रह सातवें घर में होंगे शादी में देर उतनी ही अधिक होगी। मंगल सातवें घर में 27 वर्ष की उम्र से पहले शादी नहीं होने देता।

राहू यहां होने पर आसानी से विवाह नहीं हो सकता। बात पक्की होने के बावजूद रिश्ते टूट जाते हैं। केतु सातवें घर में होने पर गुप्त शत्रुओं की वजह से शादी में अडचनें पैदा करता है।

शनि सातवें हो तो जीवन साथी समझदार और विश्वासपात्र होता है। सातवें घर में शनि योगकारक होता है फिर भी शादी में देर होती है। शनि सातवें हो तो अधिकतर मामलों में शादी तीस वर्ष की उम्र के बाद ही होती है।

32 से 40 वर्ष की उम्र में शादी

शादी में इतनी देर तब होती है जब एक से अधिक अशुभ ग्रहों का प्रभाव सातवें घर पर हो। शनि, मंगल, शनि राहू, मंगल राहू या शनि सूर्य या सूर्य मंगल, सूर्य राहू एक साथ सातवें या आठवें घर में हों तो विवाह में बहुत अधिक देरी होने की संभावना रहती है।

 हालांकि ग्रहों की राशि और बलाबल पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है परन्तु कुछ भी हो इन ग्रहों का सातवें घर में होने से शादी जल्दी होने की कोई संभावना नहीं होती।

शादी में देर के लिए जो ऊपर नियम दिए गए हैं उनमे अधिक सूक्ष्म गणना की आवश्यकता जरूर है परन्तु मोटे तौर पर ये नियम अत्यंत व्यावहारिक सिद्ध होते हैं। 

 और भी अनेक प्रकार के समस्याओं में फंसे हुए हैं तो संपर्क करें और खास विधि प्रयोग करके जीवन में होने वाले हर प्रकार के समस्याओं का समाधान प्राप्त करें

विवाह में देरी क्यों :ज्योतिषीय परिप्रेक्ष्य में

विवाह में देरी का कारण और ज्योतिष

✍🏻हर माता-पिता का सपना होता है की उनके बच्चों की शादी सही समय पर हो जाए। लेकिन कभी-कभी जातक की कुंडली में कुछ ऐसे योग होते है, जिनसे विवाह में देरी होती है। इन योगों के कारण सुयोग्य लड़के या लड़की की शादी में अकारण ही बाधाएं आती हैं और बहुत कोशिशों के बाद भी विवाह जल्दी नहीं हो पाता है।
यहां जानिए विवाह में देरी कराने वाले कुछ ऐसे ही योगों के बारे में.....
१.-कुंडली के सप्तम भाव में बुध और शुक्र दोनों हो तो विवाह की बातें होती रहती हैं, लेकिन विवाह काफी समय के बाद होता है..! २.-चौथा भाव या लग्न भाव में मंगल हो और सप्तम भाव में शनि       हो तो व्यक्ति की रुचि शादी में नहीं होती है।
३.-सप्तम भाव में शनि और गुरु हो तो शादी देर से होती है।
४.-चंद्र से सप्तम में गुरु हो तो शादी देर से होती है।
५.-चंद्र की राशि कर्क से गुरु सप्तम हो तो विवाह में बाधाएं आती      हैं।
६.-सप्तम में त्रिक भाव का स्वामी हो, कोई शुभ ग्रह योगकारक        नही हो तो विवाह में देरी होती है।
७.-सूर्य, मंगल या बुध लग्न या लग्न के स्वामी पर दृष्टि डालते हों       और गुरु बारहवें भाव में बैठा हो तो व्यक्ति में आध्यात्मिकता         अधिक होने से विवाह में देरी होती है..।
८.-लग्न भाव में, सप्तम भाव में और बारहवें भाव में गुरु या शुभ        ग्रह योग कारक न हो और चंद्रमा कमजोर हो तो विवाह में            बाधाएं आती हैं...।
९.-कन्या की कुंडली में सप्तमेश या सप्तम भाव शनि से पीड़ित         हो तो विवाह देर से होता है.....इत्यादि..!!

कुंडली में विंशोत्तरी दशा का फल स्वयं जाने

विशोंत्तरी में नवग्रहों के दशा फल
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सूर्य ग्रह
सूर्य दशा फल - 6 वर्ष
सूर्य की दशा मे परदेश गमन, राज्य कार्य मे पदोन्नति, धन लाभ, व्यापार से आमदनी मे वृद्धि, ख्याति लाभ, धर्म मे अभिरुचि होती है। यदि सूर्य नीच राशि गत हो या पापयुत या पापदृष्ट हो, ऋण, पीड़ा, प्रियजनो का वियोग, कष्ट, राज्य से भय, कलह, रोगादि (मष्तिष्क पीड़ा, शूल, उदर पीड़ा, नेत्र रोग) अशुभ फल होते है।

यदि सूर्य बलवान और अनुकूल हो, तो आत्मा का विकास, आध्यात्म प्राप्ति, शानदार जीवन, लम्बी दूरी की यात्रा, अच्छा लाभांश उत्पन्न करने वाले संघर्ष या विरोध, प्रतिष्ठा और पद मे उन्नति, व्यापार से लाभ, पिता से लाभ या पिता को लाभ होता है। यदि सूर्य बलहीन अथवा पीड़ित हो, तो आतंरिक विकृति, मानसिक और शारीरिक कौशल मे पतन, शारीरिक कष्ट, प्रतिष्ठा और पद मे अवनति, सरकार की नाराजी, पिता से पीड़ित या पिता को रोग या पिता की मृत्यु होती है।

बृहद्पाराशर होरा शास्त्र अनुसार यदि सूर्य स्वगृही, उच्च, केंद्र स्थान, लाभ भाव, नवमेश (धर्मेश) या दशमेश (कर्मेश) के साथ, वर्ग मे बलवान हो, तो धनार्जन, सरकार से महान सौहार्द्र और सम्मान होता है।  जातक को पंचम भाव के स्वामी (पुत्रेश) के साथ होने पर पुत्र की प्राप्ति होती है। धनेश से युत होने पर सम्पत्ति की प्राप्ति, बंधु भाव के स्वामी (चतुर्थ स्थान) से युत होने पर वाहन सुख और आनन्द होता है। सूर्य की दशा मे जातक को सेनाध्यक्ष, राजा से सभी प्रकार की ख़ुशी का आनंद प्राप्त होता है।  इस प्रकार बलवान और अनुकूल सूर्य की दशा मे वस्त्राभूषण, सम्पत्ति, वाहन, सभी प्रकार की कृषि उपज, सम्मान प्राप्त होता है।
यदि सूर्य नीच राशि, शत्रु राशि, अरि या रन्ध्र या व्यय स्थान, अशुभ ग्रह से युत या दृष्ट, अरि या  रन्ध्र या व्यय के स्वामी ग्रह  से युत हो, तो चिंताऐ, धन हानि, सरकार से दंड, अपमान, स्वजनो से कष्ट, घर मे अशुभ घटनाऐ, पिता को कष्ट, पैतृक और मातृक चाचाओ को कष्ट, अकारण ही दूसरो से तनाव और शत्रुता के सम्बन्ध होते है।
(बृहत्पाराशर होरा शास्त्र अनुसार भावो के नाम : 1 प्रथम = तनु, 2 द्वितीय = धन, 3 तृतीय = सहज, 4 चतुर्थ = बंधु, 5 पंचम = पुत्र, 6 षष्ठ = अरि, 7 सप्तम = युवती, 8 अष्टम = रन्ध्र, 9 नवम = धर्म, 10 दशम = कर्म, 11 एकादश = लाभ, 12 द्वादश = व्यय।)

फलदीपिका (मंत्रेश्वर) अनुसार यदि सूर्य शुभ*well placed हो, तो सूर्य की दशा मे क्रूर कर्मो के माध्यम से धन अर्जन, यात्रा और झगड़े, पहाड़ो पर घूमना, उद्योगो का रखरखाव, उद्यम मे सफलता, स्वभाव और प्रकृति (मनोवृत्ति) मे कठोरता, वास्तविकता, कर्तव्य भक्ति, ख़ुशी होती है।
यदि सूर्य अशुभ* badly placed हो, तो लड़ाई-झगडे, राजा का अचानक कोप, रिश्तेदारो मे रोग, जातक व्यर्थ घूमने वाला, तीव्र पीड़ा, छुपे धन से खतरा, आग लगने का भय, स्त्री-पुत्र को कष्ट होता है।

     
सूर्य मेष राशि मे हो, तो नेत्र रोग, धन हानि. राजभय, नाना प्रकार के कष्ट;  वृषभ मे हो, तो स्त्री पुत्र के सुख से हीन, हृदय और नेत्र रोगी, मित्रो से विरोध; मिथुन मे हो, तो अन्न-धन युक्त, शास्त्र - काव्य से आनंद, विलास ; कर्क मे हो, तो राज सम्मान, धन प्राप्ति, माता-पिता व बन्धुवर्ग से पृथकता, वातजन्य रोग; सिंह मे हो, तो राजमान्य, उच्च पदासीन, प्रसन्न; कन्या मे हो, तो कन्या रत्न की प्राप्ति, धन लाभ, धर्म मे अभिरुचि होती है।
सूर्य तुला राशि मे हो, तो स्त्री-पुत्र चिंता, परदेश यात्राऐ, प्रदेश के अनेक प्रसंग;  वृश्चिक मे हो, तो प्रताप मे वृद्धि, ख्याति, विष अग्नि से पीड़ा;  धनु  मे हो, तो राज्य से प्रतिष्ठा, विद्या प्राप्ति;  मकर मे हो, तो स्त्री-पुत्र की चिंता, धन आदि की चिंता, चिंतातुर, त्रिदोष विकार, पर कार्यो से प्रेम;  कुंभ मे हो, तो  पिशुनता,  हृदय रोग, अल्प धन, कुटुम्बियों से विरोध और मीन मे हो, तो वाहन लाभ, प्रतिष्ठा मे वृद्धि, धनमान की प्राप्ति, विषम ज्वर होते है।
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चंद्र ग्रह
चंद्र दशा फल - 10 वर्ष
चंद्र की दशा साधारणतया सौभाग्य सूचक रहती है। पूर्ण, उच्च, शुभ ग्रह से युत चन्द्रमा हो, तो उसकी दशा मे अनेक सम्मान, धारासभा (विधानसभा, राजयसभा, लोकसभा, विधान परिषद्) का सदस्य, चुनाव मे विजयी, विद्या धन आदि प्राप्त करने वाला होता है। यदि चन्द्रमा नीच, शत्रु राशि, पापमध्य मे हो, तो कलह, क्रूरता, क्रूर कार्यो से प्रसन्नता, शूल, सिरदर्द, धननाश, मानसिक आघात, रोग, शोक, चिंता आदि होते है।

यदि चन्द्रमा बलवान और अनुकूल स्थति मे हो. तो प्रसन्न हृदय, सुखी और तेज दिमाग, सूक्ष्म-ख़ुशी और सुविधा का आनंद लेने वाला होता है। यदि चन्द्रमा बलहीन और पीड़ित हो, तो ख़राब स्वास्थ्य, आलस्य, निष्क्रियता, नौकरी खोना या पदावनति, स्त्री से झगड़ा, माता को रोग या माता की मृत्यु होती है।

बृहत्पाराशर होरा शाश्त्र अनुसार चन्द्रमा की दशा प्रारम्भ से अंत तक यदि चंद्र उच्च, स्वराशि, केंद्र या लाभ या धर्म या पुत्र भाव मे हो, शुभग्रह से युत या दृष्ट, बलवान, धर्म या कर्म या बंधु भाव के स्वामी से युत हो, तो  समृद्धि और प्रताप, सौभाग्य, धनागम, घर मे मांगलिक उत्सव, भाग्योदय, सरकार मे उच्चपद, वाहन, वस्त्र, शिशु जन्म, पशु होते है। यदि ऐसा चंद्र धन भाव मे हो तो असाधारण विपुल धन और विलासता होती है।
यदि चन्द्रमा क्षीण, नीच हो तो उसकी दशा मे धन हानि होती है। यदि चंद्र सहज भाव मे हो, तो खुशिया आती-जाती रहती है। यदि चंद्र अशुभ ग्रहो से युत हो, तो मूर्खता, मानसिक तनाव, कर्मचारियो और माता से परेशानी, धन की हानि होती है। यदि क्षीण चंद्र अरि या रंध्र या व्यय भाव मे हो या अशुभ ग्रहो से युत हो, तो सरकार से शत्रुता पूर्ण सम्बन्ध, धन हानि  माँ को इसी तरह के दुष्प्रभाव से परेशानी होती है। यदि बलवान चंद्र अरि या रंध्र या व्यय भाव मे हो, तो क्लेश और अच्छाइया आती जाती रहती है।

फलदीपिका (मन्त्रेश्वर) अनुसार यदि चन्द्रमा पूर्ण बलवान हो, तो मानसिक शांति, सभी उद्यमो मे सफलता, संपत्ति का अधिग्रहण, अच्छा भोजन, पत्नी-पुत्र की प्राप्ति, वस्त्राभूषण, कृषि भूमि की प्राप्ति और ब्राह्मणो की भक्ति चंद्र दशा के प्रभाव होते है। शुक्ल पक्ष की एकम से दशमी तक चन्द्रमा मध्यम बली होता है,  इस अवधि वाले चंद्र की दशा के प्रभाव भी मध्यम होगे। शुक्ल पक्ष की एकादशी से कृष्ण पक्ष की पंचमी तक चन्द्रमा पूर्ण बलि होता है, इस अवधि वाले चंद्र की दशा के प्रभाव भी प्रबल व अच्छे  होगे। कृष्ण पक्ष की षष्ठी से अमावस्या तक चन्द्रमा निरंतर बलहीन होता जाता है, इस अवधि वाले चंद्र की दशा के प्रभाव भी कमजोर होगे।
 
चंद्र मेष राशि मे हो, तो स्त्री सुख, विदेश से प्रीति, कलह, सिर रोग; वृषभ मे हो, तो धन और वाहन लाभ, स्त्री से सुख, माता की मृत्यु, पिता को कष्ट; मिथुन मे हो, तो देशांतर गमन, संपत्ति लाभ; कर्क मे हो, तो गुप्त रोग, योन रोग, धन धान्य मे वृद्धि, कला प्रेम; सिंह मे हो, तो बुद्धिमान, सम्मान, प्रतिष्ठा, धन लाभ; कन्या राशि मे हो, तो विदेश गमन, महिला प्रेम, स्त्री प्राप्ति, काव्य प्रेम, धनागम होता है।
चंद्र तुला राशि मे हो, तो विरोध, चिंता, अपमान, व्यापार से धन लाभ, मर्म स्थान मे रोग; वृश्चिक मे हो, तो मानसिक चिंता, रोग, साधारण धनलाभ या धनहानि, धर्म हानि; धनु राशि मे हो, तो धन नाश, आर्थिक हानि, वाहन लाभ;  मकर राशि मे हो, तो स्त्री-पुत्र-धन प्राप्ति, उन्माद या वायु रोग से कष्ट; कुम्भ मे हो, तो व्यसन, ऋण, नाभि के ऊपर और नीचे पीड़ा, नेत्र-दन्त रोग और मीन राशि मे चंद्र हो, तो अर्थागम, धन संग्रह, पुत्र लाभ और शत्रु  नाश आदि होता है।

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मंगल ग्रह
मंगल दशा फल - 7 वर्ष
मंगल की दशा धन योग बनाती है, परन्तु यह शुभकार्यो की अपेक्षा क्रूरकार्यो से ही धनागम योग बनाती है। इसकी दशा मे गृह-भूमि सम्बन्धी मामले, शस्त्र-चोर भय, शस्त्र-शत्रु तथा झगडे विवाद से अर्थ लाभ होता है।

 यदि मंगल उच्च या स्वग्रही या मूलत्रिकोणगत या केन्द्रगत या त्रिकोणस्थ हो, तो उसकी दशा मे यश लाभ, स्त्री-पुत्र का सुख, साहस, धन लाभ, गृह-भूमि की प्राप्ति, कृषि से लाभ, मानसिक शांति, आय के अनेक स्त्रोत होते है। यदि मंगल वक्री, अस्त, नीच, का हो तो पित्त प्रकोप, रुधिर रोग, पक्षाघात, मूर्च्छा रोग होते रहते है। पत्नी से कलह, भाइयो से वैमनस्य, अधिकारियो से उग्र मतभेद, नई-नई चिन्ता होती है।

यदि मंगल बलवान और अनुकूल स्थिति मे हो, तो भाइयो से या भाइयो के द्वारा लाभ, सेना मे प्रवेश या पदोन्नति,  भूमि लाभ, अच्छा स्वास्थ्य, आशावादी, साहसी, दृढ़, पारा मिलटरी या पुलिस मे सेवारत होता है। यदि मंगल बलहीन और पीड़ित हो, तो गिरना, घाव, रक्तल्पता, दण्डित, झगड़ालू, कटुभाषी, शत्रु बनाने वाला, नफ़रत करने वाला, मुकदमेबाज होता है।

बृहत्पाराशर होरा शास्त्र अनुसार मंगल की दशा मे यदि मंगल उच्च, मूलत्रिकोण, स्वगृही, केंद्र या धन या  लाभ  भाव मे बलवान हो या शुभ नवांश मे या शुभ ग्रह से युत या दृष्ट हो, तो राज्य की प्राप्ति (उच्च प्रशासनिक पद या सरकार मे सुदृढ़ राजनैतिक स्थति, धन व कृषि भूमि का अर्जन, सरकार द्वारा मान्यता) विदेशो से धन, वस्त्राभूषण, वाहन होते है।  भाइयो से सुख व मधुर सम्बन्ध होते है। यदि बलवान मंगल केंद्र या सहज (तृतीय) भाव में हो, तो वीरता से धनार्जन, शत्रु पराजय, पत्नी और बच्चो से ख़ुशी होती है। हलाकि दशा के अंत में कुछ प्रतिकूल प्रभावो की सम्भावना रहती है। यदि मंगल नीच, बलहीन या अशुभ भाव या अशुभ ग्रहो से युत या दृष्ट हो, तो धननाश, संकट और उपरोक्त प्रभाव प्रतिकूल होते है।     

फलदीपिका (मंत्रेश्वर) अनुसार आग और झगडे आदि से धनाजर्न, मिथ्या प्रशासन से धन लाभ, धोखाधड़ी और क्रूर कार्य, हमेशा पित्त विकारो से ग्रस्त, ताप, रक्त अशुद्धता, निम्न वर्ग की महिलाओ के साथ साजिश, अपनी पत्नी, बच्चो, रिश्तेदारो और बुजर्गो से झगड़ा और इसके कारण दुःख, दूसरो के भाग्य का आनंद जैसे प्रभाव अनुभव मे मंगल की दशा मे आते है।

मंगल मेष राशि मे हो, तो उसकी दशा मे धन लाभ, ख्याति, अग्नि पीड़ा, गृह-भूमि प्राप्ति; वृषभ मे हो, तो रोग, अन्य से धन लाभ, परोपकारी; मिथुन मे हो, तो विदेश वासी, कुटिल, खर्चीला, पित्त और वायु विकार, कर्ण रोग; कर्क में हो, तो धनयुक्त, स्त्री-पुत्र से दूर निवास, क्लेश; सिंह मे हो, तो शासन से लाभ, राज्य से धनागम, शस्त्राग्नि पीड़ा, धन व्यय और कन्या मे हो, तो पुत्र, भूमि, धन-धान्य से भरपूर होता है।
तुला राशि मे मंगल हो, तो स्त्री हीन, उत्सव हीन, अधिक झंझट, क्लेश; वृश्चिक मे हो, तो धन-धान्य से परिपूर्ण, अग्नि व शस्त्र से पीड़ा; धनु मे हो, तो विजय लाभ, धनागम, राजमान; मकर मे हो, तो अधिकार प्राप्त, स्वर्ण-रत्न लाभ, कार्यसिद्धि; कुम्भ मे हो तो आचार हीन, दरिद्र, रोग, चिंताए और मीन राशि मे हो, तो ऋण, विसूचिका रोग, चिंता, हानि, खुजली आदि रोग होते है।

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राहु ग्रह
राहु दशा फल - 18 वर्ष
राहु की दशा सामान्यतया कष्ट दायक मानते है। कुछ मत तो 18 वर्षो मे छठा, आठवा वर्ष अनिष्टकारी मानते है।उच्च का राहु हो, तो धन-संपत्ति का लाभ, विजय, उच्चपद आदि की प्राप्ति होती है। लघु पाराशरी अनुसार राहु-केतु छाया ग्रह होने से भाव अनुसार व अन्य ग्रह से युति अनुसार फल देते है। लघु पाराशरी अनुसार ही राहु-केतु केंद्र या त्रिकोण मे हो या केंद्र, त्रिकोण के स्वामियो से युत हो, तो  योगकारक होने से अपनी दशा, अन्तर्दशा मे अत्यंत शुभ फल देते है। 

यदि राहु अनुकूल हो, तो सत्तारूढ़ शक्तियो की प्राप्ति या झूठ के सहारे शासकीय पक्षो मे वृद्धि, चालाक, बेईमानी से धन लाभ ज्यादा अर्जित करना, रहवास बदलना होता है। यदि राहु प्रतिकूल हो, तो अनेक प्रकार की हानिया, सर्पदंश, दिमागी विघटन, भ्रम, दृष्टिभ्रम, अस्थमा और एक्जिमा आदि होते है। यह शिक्षा और तरक्की के लिये सबसे ख़राब दशा है जिसमे व्यवधान आते है या शिक्षा खंडित होती है। 

बृहत्पाराशर होरा शास्त्र अनुसार राहु की उच्च राशि वृषभ और केतु की उच्च राशि वृश्चिक, राहु-केतु की  मूलत्रिकोण राशि मिथुन व धनु, राहु-केतु की स्वराशि कुम्भ व वृश्चिक, (कुछ महर्षि अनुसार कन्या और मीन) होती है। यदि राहु उच्च, मूलत्रिकोण या स्वगृही (कुम्भ या कन्या) हो, तो धनार्जन व कृषि उपज से महा ख़ुशी, मित्रो और सरकार  की सहायता से वाहन की प्राप्ति, नये भवन (घर) का निर्माण, पुत्र जन्म, धार्मिक झुकाव, विदेशी सरकार से मान्यता, धनार्जन, वस्त्राभूषण आदि होते है। राहु शुभ ग्रह से दृष्ट, युत, या शुभ राशि या तनु या बंधु या युवती या कर्म  या लाभ या सहज भाव मे हो, तो उसकी दशा मे सरकार के उपकार से सभी प्रकार के आराम, विदेशी सरकार या सम्प्रभु और घर के सौहार्द्र के माध्यम से संपत्ति की प्राप्ति होती है।
यदि राहु रन्ध्र या व्यय भाव मे हो, तो राहु दशा मे विपत्ति और परेशानिया होती है। यदि राहु अशुभ ग्रह या मारक ग्रह या नीच राशि मे हो, तो राहु की दशा मे प्रतिष्ठा की हानि, आवासीय घर का विनास, मानसिक संताप, पत्नी और बच्चो को कष्ट, दुर्भाग्यवश ख़राब भोजन आदि फल होते है। राहु की दशा के प्रारम्भ मे धनहानि, स्वदेश मे  कुछ आर्थिक लाभ व राहत और दशा के अंत मे परेशानी व चिंताए होती है।

फलदीपिका (मन्त्रेश्वर) अनुसार राहु की दशा मे राजा, चोर, अग्नि, शस्त्र, जहर का खतरा, बच्चो  से मानसिक तनाव, भाइयो की हानि, नीचजाति के लोगो से अपमान, बेइज्जती, सभी उद्यमो मे हानि और असफलता, पदावनति होती है। यदि राहु शुभ ग्रह से युत या शुभ स्थान (भाव) मे हो, तो राजा की तरह वैभवशाली, उद्यमो में सफल, सुखी जीवन, अतुल सम्पदा, विश्व प्रसिद्ध होता है। यदि राहु कन्या, मीन, वृश्चिक में हो तो अपने दशा काल मे ख़ुशी, प्रतिष्ठा, जमीन का स्वामित्व वाहन, सेवक देता है परन्तु यह सब दशा समाप्त होने पर नष्ट हो जाता है। प्रभाव जैसे शत्रु से खतरा, चोरी, राजा का क्रोध, शस्त्र आघात का भय, गर्मी के रोग, पारिवारिक कलंक, अग्नि भय, गंभीर अपराधो के कारण मूल स्थान से निर्वासन फल भी होते है।
◾मन्त्रेश्वर ने उपरोक्त फल ग्रहो के सामान्य क्रम अनुसार बताये है। विंशोत्तरी ग्रह क्रम अनुसार राहु दशा काल मे स्वभाव मे दुष्ट बनना, गंभीर रोग से पीड़ित होना, जातक की पत्नी और संतान का नष्ट होना, विष का भय या खतरा, शत्रु से कष्ट या परेशानी, नेत्र और हृदय रोग, मित्र, कृषि कर्मी, राजा से वैर अनुभव मे आते है।

मेष राशि मे राहु हो, तो उसकी दशा मे अर्थलाभ, साधारण सफलता, घरेलू झगडे, भाइयो से विरोध; वृषभ मे हो, तो राज्य से लाभ, कष्ट, अधिकार प्राप्ति, सहिष्णुता, सफलता; मिथुन मे हो. तो दशा प्रारम्भ मे कष्ट, मध्य मे सुख; कर्क मे हो, तो अर्थलाभ, पुत्रलाभ, कार्य प्रारम्भ करना, धन संचित करना; सिंह मे हो, तो प्रेम, ईर्ष्या, रोग, सम्मान, कार्यो मे सफलता और कन्या राशि मे हो, तो मध्यम वर्ग के लोगो से लाभ, व्यापार से लाभ, नीच कार्यो से प्रेम, संतोष होता है।
तुला राशि मे राहु हो, तो झंझट, अचानक कष्ट, बंधु-बांधवो से क्लेश, धन लाभ, यश और प्रतिष्ठा मे वृद्धि; वृश्चिक मे हो, तो नीच कार्यो में रत, शत्रुओ से हानि, आर्थिक कष्ट; धनु मे हो, तो यश लाभ, धारा सभाओ मे प्रतिष्ठा, उच्चपद की प्राप्ति; मकर मे हो, तो सिर रोग, वात रोग आर्थिक संकट; कुम्भ मे हो तो धन लाभ, व्यापार मे साधारण लाभ, विजय और मीन राशि मे राहु हो, तो विरोध, झगड़ा, रोग, अल्पलाभ आदि फल होते है।
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गुरु ग्रह
गुरु दशा फल - 16  वर्ष
गुरु की दशा जीवन में श्रेष्ट ही रहती है।  गुरु दशा काल मे ज्ञान लाभ, धन-अस्त्र-वाहन लाभ, परीक्षा-साक्षात्कार मे सफलता, राजयकार्य मे लाभ, देवार्चना मे सलग्नता, भोग, समाज मे सम्मान, राज्य से पुरस्कार, अधिकारियो से संपर्क, धार्मिक यज्ञादि कर्म आदि फल होते है। यदि गुरु नीच, अस्त, वक्री हो, तो कण्ठरोग, गुल्मरोग, पिल्हारोग, असफलता आदि फल होते है।

यदि गुरु बलवान, शुभ भाव और योग कारक हो, तो अध्ययन के प्रति झुकाव, ज्ञान मे वृद्धि होती है।  यदि गुरु की दशा आयु की मध्य अवस्था  मे आती है, तो धनागम, पुत्र की प्राप्ति,  तीर्थ यात्रा, शुभ उत्सव होते  है। यदि गुरु की दशा आयु की अंतिम अवस्था मे आती है, तो बेहतर आय और वित्त होता है। यदि गुरु प्रतिकूल या पीड़ित हो, तो अधुरी शिक्षा, असफलता, प्रतिष्ठा गिरने से दुर्गति, ख़राब स्वास्थ्य, दरिद्रता, बुरे कर्म, निराशा, पुत्र या पोते को पीड़ा होती है। 

बृहत्पाराशर होरा शास्त्र अनुसार गुरु महा शुभ और देवताओ का शिक्षक यदि उच्च, स्वगृही, मूलत्रिकोण, कर्म  या पुत्र या धर्म भाव या स्वनवांश या उच्च नवांश मे हो, तो अपने दशा काल मे साम्राज्य अभिग्रहण, अत्यंत सुविधा, शासन से मान्यता, वस्त्राभूषण और वाहन प्राप्ति, देव-ब्राह्मण की भक्ति, पत्नी और संतान से ख़ुशी, धार्मिक बलिदान (यज्ञ, चढ़ावा) के प्रदर्शन मे सफलता होती है।
यदि गुरु नीच, अस्त, अशुभ ग्रहो से युत या अरि या रंध्र भाव मे हो, तो उसकी दशा मे रहवास परिसर का नाश, तनाव, संतान को पीड़ा, पशु हानि, तीर्थ हानि होती है। दशा प्रारम्भ मे कुछ प्रतिकूल प्रभाव देती है बाद मे अनुकूल प्रभाव अर्थ लाभ, सरकार से मान्यता और पुरस्कार आदि फल होते है।

फलदीपिका (मंत्रेश्वर) अनुसार गुरु की दशा मे धर्मिक मामलो मे भागीदारी, शिशु जन्म या शिशु से ख़ुशी, राजा द्वारा सम्मान, प्रतिष्ठित व्यक्ति द्वारा प्रशंसा, हाथी-घोड़े व अन्य वाहन की प्राप्ति, इच्छाओ की पूर्ति, पत्नी और बच्चो से स्नेहपूर्ण आत्मीय सम्बन्ध, मित्रो से मिलन आदि फल अनुभव मे आते है।

मेष राशि मे गुरु हो, तो उसकी दशा मे अफसरी अर्थात अधिकार पद, विद्या, स्त्री, पुत्र, धन, सम्मान आदि का लाभ; वृषभ राशि मे हो, तो रोग, विदेश मे निवास, धनहानि; मिथुन मे हो, तो क्लेश, विरोध, धननाश; कर्क मे हो, तो राज्य से लाभ, ऐश्वर्यलाभ, ख्यातिलाभ, मित्रता, उचपद, सेवावृत्ति; सिंह मे हो, तो राजा से मान, स्त्री-पुत्र-बंधु लाभ, हर्ष, धन-धान्य पूर्ण; कन्या मे हो, तो स्त्री के आश्रय से धनलाभ, शासन मे योगदान, भ्रमण या देशाटन, विवाद, कलह आदि फल होते है।
तुला राशि मे गुरु हो, तो फोड़ा-फुंशी, विवेक हीनता, अपमान, शत्रुता; वृश्चिक मे हो, तो पुत्रलाभ, निरोगता, धनलाभ, पूर्ण ऋण अदा होना; धनु राशि मे हो, तो मंत्री, धारासभा सदस्य (लोकसभा, विधानसभा, राज्यसभा)  उच्च पदासीन, अल्पलाभ; मकर मे हो, तो आर्थिक कष्ट, गुह्य स्थानो मे रोग; कुम्भ मे हो, तो राज्य से सम्मान, धारासभा सदस्य, विद्यालाभ, साधारण धनागम तथा साधारण आर्थिक सुख और मीन राशि मे हो, तो विद्या, धन, स्त्री-पुत्र अदि से संपन्न, प्रसन्नता, सुख आदि फल होते है।
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शनि ग्रह
शनि दशा फल 19 वर्ष
राजनैतिक कार्यो मे शनि की दशा सहायक होती है। बलवान शनि की दशा मे जातक को धन, जन, सवारी, भ्रमण, प्रताप, कीर्ति, रोग, क्रय-विक्रय से लाभ, भाग्योदय आदि फल होते है। नीच, अस्त या वक्री शनि की दशा मे आलस्य, निद्रा, त्रिदोष के रोग, व्यभिचार, स्त्री प्रसंग से विरक्ति, चर्म रोग, अनैतिकता, बेईमानी आदि होते है।

यदि शनि अनुकूल है, तो अपने सख्त प्रायसो और कठिन मेहनत से सेवा मे उन्नति करता है, शनि द्वारा संकेतित चीजो से लाभ प्राप्त करता है और विरासत पाता है। किन्तु शनि प्रतिकूल हो, तो कुपोषण आदि के कारण रोग ग्रस्त, गरीबी, मुकदमा, झगड़ा, वृद्धो से अनबन, परिवार या निकट सम्बन्ध मे मृत्यु, प्रगति की राह मे रूकावट और बाधा, जीवन मे चारो ओर संकट होता है।

 बृहत्पाराशर होरा शास्त्र अनुसार शनि जो सब ग्रहो मे सबसे कमजोर और निचला माना जाता है यदि उच्च, स्वगृही, मूलत्रिकोण, मित्र राशि, स्वनवांश या उच्च नवांश या सहज या लाभ भाव  मे हो, तो शनि दशा काल मे शासन से मान्यता, समृद्धि और महिमा, नाम और प्रसिद्धि, शिक्षा के क्षेत्र मे सफलता, आभूषण और वाहनादि का अर्जन, धन लाभ, सम्पत्ति की प्राप्ति, सरकार से समर्थन, सेना अध्यक्ष जैसा उच्च पद, देवी लक्ष्मी की उदारता, राज्य की प्राप्ति, शिशु जन्म होता है।
यदि शनि अरि  या रंध्र या व्यय भाव मे हो, नीच या अस्त हो, तो उसकी दशा मे जहर से दुष्प्रभाव, शस्त्राघात, पिता से विछोह, पत्नी और बच्चो को कष्ट, सरकार की नाराजी से आपदा, जेल इत्यादि होते है।  यदि शनि शुभ ग्रह से युत या दृष्ट, केंद्र या त्रिकोण, धनु या मीन मे हो, तो राज्य, वाहन, वस्त्र का अर्जन (अधिग्रहण) होता है । 

फलदीपिका (मंत्रेश्वर) अनुसार शनि की दशा मे पत्नी और बच्चो को रूमेटिस्म या गाउट रोग की पीड़ा, कृषि मे नुकसान, ख़राब बात, दुष्ट महिलाओ के साथ सम्भोग, नौकरो द्वारा नौकरी छोड़ना, धन का नाश होना फल जातक को अनुभव मे आते है।

मेष मे शनि हो, तो  दशा मे स्वतंत्रता, मर्म स्थान मे रोग, चर्म रोग, प्रवास, बंधु-बांधव से वियोग; वृषभ मे हो, तो निरुद्यम, वायु पीड़ा, कलह, वमन, आंत के रोग, राज्य से सम्मान, विजय लाभ; मिथुन मे हो, तो कष्ट, ऋण, चिंता, परतंत्रता; कर्क मे हो, तो नेत्र-कर्ण रोग, बंधु वियोग, विपत्ति, दरिद्रता; सिंह मे हो, तो रोग, आर्थिक कष्ट; कन्या राशी मे हो, तो गृह निर्मण, भूमि लाभ, सुखी होना आदि फल होते है।
तुला राशि मे हो, तो धन-धान्य का लाभ, विलास, भोगोपभोग की वस्तुओ की प्राप्ति, विजय; वृश्चिक मे हो, तो भ्रमण, कृपणता, साधारण आर्थिक कष्ट, नीच का संग; धनु मे हो, तो राजा के समान, जनता मे ख्याति, आनन्द, प्रसन्ता, यश लाभ; मकर मे हो, तो आर्थिक संकट, विश्वासघात, बुरे व्यक्तियो का साथ; कुम्भ मे हो, तो पुत्र-धन और स्त्री का लाभ, विजय और मीन मे हो, तो अधिकार प्राप्ति, सुख, सम्मान, उन्नति आदि फल होते है।
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बुध ग्रह

बुध दशा फल - 17 वर्ष
बुध की दशा मे व्यापर मे वृद्धि, व्यवसाय मे विस्तारीकरण, गृह मे उत्सव, शुभ समाचारो की प्राप्ति, दुत्कारी मे वृद्घि, आजीविका की प्राप्ति, धार्मिक कृत्य होते है। बुध उच्च, स्वगृही, बलवान हो, तो विद्या, विज्ञान, व्यापार-व्यवसाय, शिल्पकर्म मे उन्नति, धन लाभ, स्त्री पुत्र को सुख होता है। यदि बुध नीच, अस्त, वक्री हो अथवा त्रिक 6, 8 12  भाव मे हो, तो त्रिदोष (वात-पित्त-कफ) विकार, संचित पूंजी का नाश, हानि होते है।

यदि बुघ बलवान और अनुकूल हो, तो अध्ययन और लेखन आदि मे समर्पित, सक्रीय, वाणिज्य या राजनीति या कूटनीति मे संलग्न, व्यापार और दूसरो से लेनदेन मे लाभ, मित्रो की संगती का आनंद, तनाव रहित शांत वातावरण मे रहने वाला होता है। यदि बुध बलहीन और पीड़ित हो, तो तंत्रिका (स्नायु) रोग से पीड़ित, यकृत रोग, मित्रो और रिश्तेदारो से हानि, अपनो के कारण दूसरे बईमान, मानहानि, नापसन्दी  होती है।

बृहत्पराशर होरा शास्त्र अनुसार यदि बुध उच्च, स्वगृही, मित्र राशि या लाभ या पुत्र या धर्म भाव मे हो तो बुध दशा मे धन संचय, प्रतिष्ठा मे वृद्धि, ज्ञान वृद्धि, सरकार से हितकारिता, घर मे मांगलिक कार्य (उत्सव) पत्नी और बच्चो से ख़ुशी, अच्छा स्वास्थ्य, मिष्ठानो की उपलब्धता, व्यापार मे लाभ इत्यादि होते है। यदि बुध पर धर्मेश और कर्मेश की दृष्टि हो, तो उपरोक्त फायदेमंद परिणाम पूर्ण अनुभव मे आते है और पूरे दशा काल मे हर प्रकार की सुविधा रहती है।
यदि बुध अशुभ ग्रहो से दृष्ट हो, तो सरकार द्वारा सजा, भाइयो से वैर, विदेश यात्रा, दूसरो पर निर्भरता, संभवतया मूत्र कष्ट होते है। यदि बुध अरि या रंध्र या व्यय भाव मे हो, तो स्वास्थ्य हानि, कामुक गतिविधियो मे आसक्ति होने से धन हानि, संधिशोथ, पीलिया  रोग की संभावना, चोरी का खतरा और सरकार से अपमान इत्यादि होते है।  बुध की दशा के प्रारम्भ मे संपत्ति मे वृद्धि, शैक्षणिक क्षेत्र मे सुधार, शिशु जन्म और ख़ुशी, मध्य दशा मे सरकार से मान्यता और अंतिम दशा काल रंजीदा (शोकाकुल) होती है।     

फलदीपिका (मंत्रेश्वर) अनुसार दोस्तो से मिलन, ख़ुशी, विद्वानो से प्रशंसा, प्रसिद्धि की प्राप्ति, गुरु से लाभ, भाषण मे विशिष्टता या वाक्पटुता , दूसरो की सहायता, पत्नी बच्चो रिश्तेदारो को सुख बुध की दशा मे होते है।

बुध मेष राशि मे हो, तो धन हानि, छल कपट युक्त व्यवहार के लिए प्रवृत्ति; वृषभ मे हो, तो धनागम, यश लाभ, स्त्री-पुत्र की चिंता, विष से कष्ट: मिथुन मे हो, तो अल्प लाभ, कष्ट, माता को सुख;  कर्क मे हो, तो धनार्जन, काव्य सृजन, विदेश गमन, योग्य प्रतिभा की जागृति; सिंह मे हो, तो ज्ञान, यश, धननाश; कन्या राशि मे हो, तो ग्रंथो की रचना, प्रतिभा का विकास, धन-ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
बुध तुला राशि मे हो, तो स्त्री से कलह या पीड़ा, दान या भेट देना, धार्मिक कृत्य; वृश्चिक मे हो, तो कामपीड़ा व अधिक अनाचार, व्यय; धनु मे हो, तो केंद्र या राज्य मे मंत्री, शासन की प्राप्ति, नेतागिरी, नेतृत्व; मकर मे हो, तो नीचो से मित्रता, अल्प लाभ, धनहानि; कुम्भ मे हो, तो बंधुओ को कष्ट, रोग, दरिद्रता, दुर्बलता और मीन मे हो, तो दमा-खांसी से कष्ट, क्षय रोग, विष-अग्नि-शस्त्र से पीड़ा, नाना प्रकार की झंझटें, व्याधि आदि फल होते है।
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केतु ग्रह
केतु दशा फल - 7 वर्ष
राहु की दशा की अपेक्षा केतु की दशा शुभ होती है फिर भी जातक इस दशा मे अपने कार्यो पर पछताता रहता है। योजनाओ मे असफलता, शारारिक कष्ट, मित्रो से बिगाड़, राजयकार्य मे बाधा, व्यर्थ का व्यय, धन हानि, व्याधि आदि फल होते है। शुभ दृष्टि हो, तो केतु की दशा मे अर्थ प्राप्ति, शान्ति, उन्नति आदि फल होते है।

यदि केतु अनुकूल हो, तो दर्शन ग्रंथो का अध्ययन और पूजा मे सलग्न, दवाइयो से अत्यधिक आमदनी, धरेलू आराम और विलासता, सौभाग्य और रोगो से मुक्ति होती है। यदि केतु प्रतिकूल हो, तो शरीर मे तीव्र दर्द, दिमागी पीड़ा, दुर्घटना, धाव, बुखार, नीच लोगो की संगती और उनसे बुरे परिणाम होते है। 

बृहत्पाराशर होरा शास्त्र अनुसार यदि केतु केन्द्र, त्रिकोण, लाभ भाव, शुभ ग्रह की राशि या स्वराशि मे हो, तो राजा से मधुर सम्बन्ध, देश या गांव प्रमुख बनने की इच्छा, वाहन सुख, बच्चो से ख़ुशी, विदेशो से लाभ, पत्नी से सुख, पशु धन की प्राप्ति होती है।  यदि केतु सहज या अरि या लाभ भाव मे हो, तो राज्य अधिग्रहण, मित्रो से मधुर सम्बन्ध होते है। केतु की दशा प्रारम्भ मे राज योग, मध्य मे भयानकता और दशा अंत मे बीमारियो और दूर देश की यात्राओ से कष्ट होता है। यदि केतु धन या रंध्र या व्यय मे हो, या अशुभ ग्रह से दृष्ट हो, तो जेल, भाइयो और रहवास  का नाश, तनाव, भृत्य लोगो की संगति होती है।

फलदीपिका  (मंत्रेश्वर) अनुसार केतु की दशा मे स्त्रियो से दुःख और भ्रम, अमीरो से कष्ट, सम्पत्ति का नाश होता है। व्यक्ति दूसरो के साथ अन्याय करेगा, देश या मूल स्थान से निर्वासित होगा। दांतो मे परेशानी, पैरो मे दर्द और कट्टरपंथी परेशानिया होती है।

केतु यदि मेष राशि मे हो, तो धन लाभ, यश, स्वास्थ्य; वृषभ मे हो, तो कष्ट, हानि, पीड़ा, चिंता, अल्पलाभ; मिथुन मे हो, तो कीर्ति, बंधुओ से विरोध, रोग, पीड़ा; कर्क मे हो, तो सुख, कल्याण, मित्रता, स्त्री-पुत्र लाभ; सिंह मे हो, तो अल्प सुख, धन लाभ और कन्या राशि मे हो, तो निरोग, प्रसिद्ध, सत्कार्य प्रेम आदि फल होते है।
यदि केतु तुला राशि मे हो, तो व्यसनों मे  रूचि, कार्य हानि, अल्प लाभ; वृश्चिक मे हो, तो धन-सम्मान- स्त्री-पुत्र लाभ, कफ, बंधन जन्य (कारावास) कष्ट; धनु मे हो तो सिर मे रोग, नेत्र पीड़ा, भय; मकर मे हो, तो आर्थिक संकट, पीड़ा, चिंता, बंधु-बांधवो का वियोग और मीन राशि मे हो तो साधारण लाभ, अकस्मात धन प्राप्ति, लोक मे ख्यति, विद्या लाभ कीर्ति लाभ आदि फल होते है।
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शुक्र ग्रह 
शुक्र दशा फल  - 20 वर्ष   
शुक्र की दशा मे भोग विलास की इछाओ की पूर्ति, रत्न, आभूषण, सम्मान, नवीन कार्य, मदन पीड़ा, वाहन सुख, आकस्मिक द्रव्य लाभ, ललित कला से सम्मान होते है। निर्बल शुक्र की दशा मे चित्त संताप, कलह, विरोध, धन हानि, गुप्तांगो के रोग आदि होते है।

शुक्र की दशा मे कलात्मक वस्तु और आनंद की प्राप्ति, दूसरो के साथ सामंजस्य पूर्ण तरीके लाभ मे पारस्परिक रूप से सहसञ्चालन, प्रेम मे पड़ना, विवाह  होना, पत्नी से प्रेम और स्नेह मे वृद्धि, कन्या जन्म, कुछ महिला या शुभचिंतको के पक्ष के कारण उन्नति होती है। 

बृहत्पाराशर होरा शास्त्र अनुसार यदि शुक्र उच्च, स्वराशि, केंद्र या त्रिकोण मे हो तो उसकी दशा मे वस्त्राभूषण, वाहन, जमीन, पशु, प्रतिदिन मिष्ठान की उपलब्धता, संप्रभु से मान्यता, नाट्य संगीत के विलासता पूर्ण उत्सव,  देवी लक्ष्मी की उदारता (आशीर्वाद) होती है। यदि शुक्र मूल त्रिकोण मे हो, तो निश्चित ही राज्य व धर की प्राप्ति, पुत्र या पोते का जन्म, परिवार मे विवाह का जश्न, मित्रो से मिलन, उच्च पद, खोई संपत्ति, राज्य, जमीन-जायदाद वापस प्राप्त होती है।
यदि शुक्र अरि या रंध्र या व्यय भाव मे हो, तो भाइयो से रिश्तेदारी मे कटुता, पत्नी को कष्ट, व्यापार मे घाटा, पशुओ का नष्ट होना रिश्तेदारी मे अलगाव होता है। यदि शुक्र धर्मेश या कर्मेश होकर बंधु स्थान मे स्थित हो, तो उसकी दशा काल मे देश या गावं का शासन प्रमुख, पवित्र कर्म करने वाला, जलाशय और मंदिर निर्माण कराने वाला, अनाज दान करने वाला, हर रोज मिष्ठान प्राप्त वाला, कठोर परिश्रमी, नामी और प्रसिद्ध, पत्नी बच्चो से सुखी होता है। यदि शुक्र धन या युवती  स्थान का स्वामी हो, तो उसकी दशा मे दर्द, कष्ट होता है।

फलदीपिका (मंत्रेश्वर) अनुसार अपने मनोरंजन और ख़ुशी अनुसार साम्रग्री और सुविधा, श्रेष्ट वाहन, गाय, रत्न, आभूषण, खजाना की प्राप्ति, युवती के साथ सम्भोग (आनंद) बौद्धिक गतिविधिया, समुद्री यात्राएं, राजा द्वारा सम्मान और घर मे शुभ कार्य का उत्सव शुक्र की दशा मे होते है।   

मेष राशि मे शुक्र हो, तो उसकी दशा मे चंचलता, विदेश भ्रमण, उद्वेग प्रेम, धन हानि; वृषभ मे हो, तो विद्या लाभ, कन्या रत्न की प्राप्ति, धन; मिथुन मे हो, तो काव्य प्रेम, प्रसन्नता, धन लाभ, प्रदेश गमन, व्यवसाय मे उन्नति; कर्क मे हो, तो उद्यम से धन लाभ, आभूषण लाभ, स्त्रियो से विशेष प्रेम; सिंह मे हो, तो साधारण आर्थिक कष्ट, स्त्रियो से धन लाभ, पुत्र हानि, पशुओ से लाभ और कन्या राशि मे हो, तो आर्थिक कष्ट, दुखी, प्रदेश गमन, स्त्री पुत्र से विरोध होता है।
कन्या राशि मे शुक्र हो, तो ख्याति लाभ, भ्रमण, अपमान; वृश्चिक मे हो, तो प्रताप, क्लेश, धन लाभ, सुख, चिंता; धनु राशि मे हो, तो काव्य प्रेम, प्रतिभा का विकास; मकर राशि मे हो, तो चिंता, कष्ट, वात रोग; कुम्भ राशि हो, तो व्यसन, कष्ट, धन हानि, दुर्घटना और मीन राशि मे हो, तो राजा से धन लाभ, व्यापार मे लाभ, कारोबार मे वृद्धि, नेतागिरी आदि फल होते है।

Monday, January 21, 2019

बुंदेलखंडी शब्द

बुंदेली नामों को स्मरण लाती ग़ज़ल

मउआ,डुबरी,लटा भूल गए
दूद,महेरी,मठाभूल गए

कच्चौ आंगन ,पौर उसारौ
ठाट ,बडैरौ ,अटा भूल गए

कोयल पदी डार की अमियाँ
बरिया वारे जटा भूल गए

बारी लटकत भैंस तुरैया
बथुआ,भाजी ,भटा भूल गए

बसकारे के बड़े मेंदरे
काढे फिरत्ते गटा भूल गए

चटनी रोज पिसत्ति जीसें
अब तौ वे सिलबटा भूल गए

जोंन लगात हते द्वारे पै
कांटन वारे टटा भूल गए

                       🙂🙂

भगवान ऋषभदेव कौन हैं ? जानिए

कौन हैं भगवान ऋषभदेव -?

ऋषभदेव जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं। तीर्थंकर का अर्थ होता है जो धर्मतीर्थ की प्रवर्तन (आगे बढ़ाएं) करें। जो संसार सागर (जन्म मरण के चक्र) से मोक्ष तक के मार्ग को बताएं एवम् स्वयं उसी मार्ग पर चलें , वह तीर्थंकर कहलाते हैं। ऋषभदेव जी को आदिनाथ भी कहा जाता है। भगवान ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम दिगम्बर जैन मुनि एवम तीर्थंकर थे।
ऋषभनाथ की प्रतिमा, कुण्डलपुर,एवम् बड़वानी बावनगजा  मध्य प्रदेश में स्थापित है
 इन्हें २ नामों से जाना जाता है आदिनाथ, ऋषभनाथ, एवम् ऋषभनाथ का अपभ्रंश नाम या हिंदी रूपांतरण नाम  वृषभनाथ के नाम से भी जाना जाता है
इनकी शिक्षाएं सत्य अहिंसा अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य थीं
इनके बाद अगले तीर्थंकरअजितनाथ हैं
इनका गृहस्थ जीवन इस प्रकार है
वंश _इक्ष्वाकु
पिता _नाभिराज
माता_महारानी मरूदेवी
पुत्र भरत चक्रवर्ती, बाहुबली और ९९पुत्र
पुत्री ब्राहमी और सुंदरी
 जन्म कल्याणक चैत्र कृष्ण ९
जन्म स्थान अयोध्या
मोक्ष माघ कृष्ण चतुर्दशी १४
जोकि इसबार ३ फ़रवरी को होगा इनका मोक्ष स्थान कैलाश पर्वत है
लक्षणरंग स्वर्ण
चिन्ह वृषभ (बैल)
इनकी ऊंचाई५०० धनुष (एक धनुष ४.१/२ हाथ एक हाथ १.१/२ फिट)
इनकी कुल आयु८,४००,००० पूर्व (५९२.७०४ × १०१८ वर्ष)
शासन देवी (यक्षिणी ) चक्रेश्वरी थीं
हमारे पुराणों के अनुसार अन्तिम कुलकर राजा नाभिराय के पुत्र ऋषभदेव हुये।
तीर्थंकर युवराज ऋषभदेव का विवाह यशोमती देवी और सुनन्दा से हुआ। ऋषभदेव के १०१ पुत्र और दो पुत्रियाँ थी।उनमें भरत चक्रवर्ती सबसे बड़े थे एवं प्रथम चक्रवर्ती सम्राट हुए जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत पडा। दुसरे पुत्र बाहुबली भी एक महान राजा एवं कामदेव पद से बिभूषित थे। इनके आलावा ऋषभदेव के वृषभसेन, अनन्तविजय, अनन्तवीर्य, अच्युत, वीर, वरवीर आदि ९९ पुत्र तथा ब्राम्ही और सुन्दरी नामक दो पुत्रियां भी हुई, जिनको ऋषभदेव ने सर्वप्रथम युग के आरम्भ में क्रमश: लिपिविद्या (अक्षरविद्या) और अंकविद्या का ज्ञान दिया। बाहुबलीऔर सुंदरी की माता का नाम सुनंदा था। भरत चक्रवर्ती, ब्रह्मी और अन्य ९९ पुत्रों की माता का नाम सुमंगला था। ऋषभदेव भगवान की आयु ८४ लाख पूर्व की थी जिसमें से २० लाख पूर्व कुमार अवस्था में व्यतीत हुआ और ६३ लाख पूर्व राजा की तरह व्यतीत किया
हमारे जैन ग्रंथो के अनुसार लगभग १००० वर्षो तक तप करने के पश्चात ऋषभदेव को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
 ऋषभदेव भगवान के समवशरण में निम्नलिखित व्रती थे :
८४ गणधर
२२ हजार केवली १२,७०० मुनि मन:पर्ययज्ञान ज्ञान से विभूषित
९,००० मुनि अवधीज्ञानी ४,७५० श्रुत केवली
२०,६०० ऋद्धि धारी मुनि ३,५०,००० आर्यिका माता जी
३,००,००० श्रावक

भगवान ऋषभदेव का हिन्दू ग्रन्थों में भी वर्णन मिलता है
वैदिक धर्म में भी ॠषभदेव का संस्तवन किया गया है। भागवत में अर्हन् राजा के रूप में इनका विस्तृत वर्णन है। इसमें भरत आदि १०१ पुत्रों का कथन जैन धर्म की तरह ही किया गया है। अन्त में वे दिगम्बर (नग्न,व्राजक, इज्या,या परिव्राजक) साधु होकर सारे भारत में विहार करने का भी उल्लेख किया गया है। ॠग्वेद में ही कई जगह पर लगभग ११६ श्लोकों के माध्यम से भगवान ऋषभदेव की स्तुति की गई है और भी अन्य प्राचीन वैदिक साहित्य में भी इनका आदर के साथ संस्तवन किया गया है।
हिन्दूपुराण श्रीमद्भागवत के पाँचवें स्कन्ध के अनुसार मनु के पुत्र प्रियव्रत के पुत्र आग्नीध्र हुये जिनके पुत्र राजा नाभि (जैन धर्म में नाभिराय नाम से उल्लिखित) थे। राजा नाभि के पुत्र ऋषभदेव हुये जो कि महान प्रतापी सम्राट हुये। भागवतपुराण अनुसार भगवान ऋषभदेव का विवाह इन्द्र की पुत्री जयन्ती से हुआ। इससे इनके सौ पुत्र उत्पन्न हुये। उनमें भरत चक्रवर्ती सबसे बड़े एवं गुणवान थे।उनसे छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रस्पृक, विदर्भ और कीकट ये नौ राजकुमार शेष नब्बे भाइयों से बड़े एवं श्रेष्ठ थे। उनसे छोटे कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन ये नौ पुत्र राजकुमार भागवत धर्म का प्रचार करने वाले बड़े भगवद्भक्त थे। इनसे छोटे इक्यासी पुत्र पिता की की आज्ञा का पालन करते हुये पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करने से शुद्ध होकर ब्राह्मण हो गये इस प्रकार का वर्णन मिलता है।
भगवान ऋषभदेव जी की एक ८४ फुट की विशाल प्रतिमा भारत में मध्य प्रदेश राज्य के बड़वानी जिले में बावनगजा नामक स्थान पर उपस्थित है। मांगी तुन्गी ( महाराष्ट्र ) में भगवान ऋषभदेव की 108 फुट की विशाल प्रतिमा स्थापित की जा चुकी है।
               🙏जय जिनेन्द्र🙏
           


           
               

जैन काल चक्र

क्या है जैन कालचक्र ?

अवसर्पिणी, जैन दर्शन के अनुसार सांसारिक समय चक्र का आधा अवरोही भाग है जो वर्तमान में गतिशील है। जैन ग्रंथों के अनुसार इसमें अच्छे गुण या वस्तुओं में कमी आती जाती है। इसके विपरीत उत्सर्पिणी में अच्छी वस्तुओं या गुणों में अधिकता होती जाती है।
जैन दर्शन में काल चक्र (कल्पकाल) को दो भागों में बाटा जाता है–  उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। यह निरंतर एक के बाद एक आवर्तन करते हैं।
आरोही अवधि (उत्सर्पिणी) के दौरान भरत और ऐरावत क्षेत्रों में रहने वाले प्राणियों की उम्र, शक्ति, कद और खुशी में वृद्धि होती रहती है। इसके विपरीत अवरोही अर्ध चक्र (अवसर्पिणी) में चौतरफा गिरावट होती है। प्रत्येक अर्ध चक्र को छह अवधि में बाँटा गया है। अवसर्पिणी के छः भागों का वर्णन इस प्रकार है :-
१ सुषमा-सुषमा (बहुत अच्छा)
२ सुषमा (अच्छा)
३ सुषमा–दुःषमा (अच्छा बुरा)
४ दुःषमा–सुखम (बुरा अच्छा) : २४ तीर्थंकरों का जन्म इस युग में होता है।
५ दुःषमा (बुरा) : आज का युग
६ दुःषमा–दुःषमा : दुःख ही दुःख

पंचम काल की विशेष जानकारी
अवसर्पिणी के पांचवें काल (दुशमा) को आम भाषा में पंचम काल कहा जाता है।
 जैन ग्रंथों के अनुसार वर्तमान में यह ही काल चल रहा है जो तीर्थंकर महावीर की मोक्ष (निर्वाण) प्राप्ति के ३ वर्ष और साडे आठ माह बाद वर्तन में आया था।
 इस अवधि के अंत में, मनुष्य की अधिक से अधिक ऊंचाई एक हाथ, और उम्र बीस साल की रह जाएगी
 भरत चक्रवर्ती ने इस काल से संबंधित १६ स्वप्न देखे थे। इन स्वप्नों का फल तीर्थंकर ऋषभनाथ द्वारा समझाया गया था।
इसके अलावा करोड़ों उत्सर्पणी और अवसर्पणी  काल व्यतीत हो जाने के बाद एक हुण्डावसर्पणी काल आता है जो की अभी चल रहा है जिसमें दोनों कालों से कुछ भिन्न भिन्न क्रियाएं होती हैं
जैसे तीर्थंकर युवराज के पुत्रियों की उत्पत्ति होना
तीर्थंकर मुनिराज पर उपसर्ग होना
चक्रवर्ती का मान भंग होना
तीर्थंकर बालक का जन्म अलग अलग स्थानों पर होना
तीर्थंकर भगवान का मोक्ष अलग अलग स्थानों पर होना
(तीर्थंकर बालक का जन्म अयोध्या और तीर्थंकर भगवान का मोक्ष सम्मेद शिखर जी में ही होता है)
आदि आदि अनेक विसंगतियां इस काल के प्रभाव से होती हैं।
                   🙏 जय जिनेन्द्र 🙏
                   
                       

संस्कृत भाषा की महिमा

संस्कृत भाषा का कोई सानी नही है।

अंग्रेजी में 'A QUICK BROWN FOX JUMPS OVER THE LAZY DOG  एक प्रसिद्ध वाक्य है। अंग्रेजी वर्णमाला के सभी अक्षर उसमें समाहित हैं। किन्तु कुछ कमियाँ भी हैं :-

1) अंग्रेजी अक्षर 26 हैं और यहां जबरन 33 अक्षरों का उपयोग करना पड़ा है। चार O हैं और A,E,U तथा R दो-दो हैं।

2) अक्षरों का ABCD... यह स्थापित क्रम नहीं दिख रहा। सब अस्तव्यस्त है।       

अब संस्कृत में चमत्कार देखिये!
 
     क:खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोटौठीडढण:।
     तथोदधीन पफर्बाभीर्मयोSरिल्वाशिषां सह।।*

       (अर्थात्)- पक्षियों का प्रेम, शुद्ध बुद्धि का , दूसरे का बल अपहरण करने में पारंगत, शत्रु-संहारकों में अग्रणी, मन से निश्चल तथा निडर और महासागर का सर्जन करनार कौन? राजा मय कि जिसको शत्रुओं के भी आशीर्वाद मिले हैं।

          आप देख सकते हैं कि संस्कृत वर्णमाला के सभी 33 व्यंजन इस पद्य में आ जाते हैं। इतना ही नहीं, उनका क्रम भी यथायोग्य है।
       
एक ही अक्षरों का अद्भूत अर्थ विस्तार...

माघ कवि ने शिशुपालवधम् महाकाव्य में केवल "भ" और "र " दो ही अक्षरों से एक श्लोक बनाया है-

भूरिभिर्भारिभिर्भीभीराभूभारैरभिरेभिरे।
भेरीरेभिभिरभ्राभैरूभीरूभिरिभैरिभा:।।
              अर्थात् धरा को भी वजन लगे ऐसे वजनदार, वाद्य यंत्र जैसी आवाज निकालने वाले और मेघ जैसे काले निडर हाथी ने अपने दुश्मन हाथी पर हमला किया।

किरातार्जुनीयम् काव्य संग्रह में केवल "न"  व्यंजन से अद्भुत श्लोक बनाया है और गजब का कौशल्य प्रयोग करके भारवि नामक महाकवि ने थोडे में बहुत कहा है:-

न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नाना नना ननु।
नुन्नोSनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नन्नुनन्नुनुत्।।
         
          अर्थात्  जो मनुष्य युद्ध में अपने से दुर्बल मनुष्य के हाथों घायल हुआ है वह सच्चा मनुष्य नहीं है। ऐसे ही अपने से दुर्बल को घायल करता है वो भी मनुष्य नहीं है। घायल मनुष्य का स्वामी यदि घायल न हुआ हो तो ऐसे मनुष्य को घायल नहीं कहते और घायल मनुष्य को घायल करें वो भी मनुष्य नहीं है।

Saturday, January 19, 2019

आलोचना पाठ

*आलोचना पाठ*

वंदौं पाँचों परम गुरु, चौबीसों जिनराज।

करूँ शुद्ध आलोचना, शुद्धिकरण के काज॥ १॥



सुनिये जिन अरज हमारी, हम दोष किये अति भारी।

तिनकी अब निर्वृत्ति काजा, तुम सरन लही जिनराजा॥ २॥



इक वे ते चउ इन्द्री वा, मनरहित-सहित जे जीवा।

तिनकी नहिं करुणा धारी, निरदय ह्वै घात विचारी॥ ३॥



समरंभ समारंभ आरंभ,  मन  वच  तन कीने प्रारंभ।

कृत कारित मोदन करिकै , क्रोधादि चतुष्टय धरिकै ॥ ४॥



शत आठ जु इमि भेदन तैं, अघ कीने परिछेदन तैं।

तिनकी कहुँ कोलों कहानी, तुम जानत केवलज्ञानी॥ ५॥



विपरीत एकांत विनय के, संशय अज्ञान कुनय के।

वश होय घोर अघ कीने, वचतैं नहिं जाय कहीने॥ ६॥



कुगुरुन की सेवा कीनी, केवल अदयाकरि भीनी।

या विधि मिथ्यात भ्ऱमायो, चहुंगति मधि दोष उपायो॥ ७॥



हिंसा पुनि झूठ  जु  चोरी,  परवनिता सों दृगजोरी।

आरंभ परिग्रह भीनो, पन पाप जु या विधि कीनो॥ ८॥



सपरस रसना घ्राननको, चखु कान विषय-सेवनको।

बहु करम किये मनमाने, कछु न्याय अन्याय न जाने॥ ९॥



फल पंच उदम्बर खाये, मधु मांस मद्य चित चाहे।

नहिं अष्ट मूलगुण धारे, सेये कुविसन दुखकारे॥ १०॥



दुइबीस अभख जिन गाये, सो भी निशदिन भुंजाये।

कछु भेदाभेद न पायो, ज्यों-त्यों करि उदर भरायो॥ ११॥



अनंतानु जु बंधी जानो, प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो।

संज्वलन चौकड़ी गुनिये, सब भेद जु षोडश गुनिये॥ १२॥



परिहास अरति रति शोग, भय ग्लानि त्रिवेद संयोग।

पनबीस जु भेद भये इम, इनके वश पाप किये हम॥ १३॥



निद्रावश शयन  कराई,  सुपने  मधि  दोष लगाई।

फिर जागि विषय-वन धायो, नानाविध विष-फल खायो॥१४|| 



आहार विहार निहारा, इनमें नहिं जतन विचारा।

बिन देखी धरी उठाई, बिन शोधी वस्तु जु खाई॥ १५॥



तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकलप उपजायो।

कछु सुधि बुधि नाहिं रही है, मिथ्यामति छाय गयी है॥ १६॥



मरजादा तुम ढिंग लीनी, ताहू में दोस जु कीनी।

भिनभिन अब कैसे कहिये, तुम ज्ञानविषैं सब पइये॥ १७॥



हा हा! मैं दुठ अपराधी, त्रसजीवन राशि विराधी।

थावर की जतन न कीनी, उर में करुना नहिं लीनी॥ १८॥



पृथिवी बहु खोद कराई, महलादिक जागां चिनाई।

पुनि बिन गाल्यो जल ढोल्यो,पंखातैं पवन बिलोल्यो॥ १९॥



हा हा! मैं अदयाचारी, बहु हरितकाय जु विदारी।

तामधि जीवन के खंदा, हम खाये धरि आनंदा॥ २०॥



हा हा! परमाद बसाई, बिन देखे अगनि जलाई।

तामधि जीव जु आये, ते हू परलोक सिधाये॥ २१॥



बींध्यो अन राति पिसायो, ईंधन बिन-सोधि जलायो।

झाडू ले जागां बुहारी, चींटी आदिक जीव बिदारी॥ २२॥



जल छानि जिवानी कीनी, सो हू पुनि-डारि जु दीनी।

नहिं जल-थानक पहुँचाई, किरिया बिन पाप उपाई॥ २३॥



जलमल मोरिन गिरवायो, कृमिकुल बहुघात करायो।

नदियन बिच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये॥ २४॥



अन्नादिक शोध कराई, तामें जु जीव निसराई।

तिनका नहिं जतन कराया, गलियारैं धूप डराया॥ २५॥



पुनि द्रव्य कमावन काजे, बहु आरंभ हिंसा साजे।

किये तिसनावश अघ भारी, करुना नहिं रंच विचारी॥ २६॥



इत्यादिक पाप अनंता,  हम  कीने  श्री भगवंता।

संतति चिरकाल उपाई, वानी तैं कहिय न जाई॥ २७॥



ताको जु उदय अब आयो, नानाविध मोहि सतायो।

फल भुँजत जिय दुख पावै, वचतैं कैसें करि गावै॥ २८॥



तुम जानत केवलज्ञानी, दुख  दूर  करो शिवथानी।

हम तो तुम शरण लही है जिन तारन विरद सही है॥ २९॥



इक गांवपती जो होवे, सो भी दुखिया दुख खोवै।

तुम तीन भुवन के स्वामी, दुख मेटहु अन्तरजामी॥ ३०॥



द्रोपदि को चीर बढ़ायो, सीता प्रति कमल रचायो।

अंजन से किये अकामी, दुख मेटो अन्तरजामी॥ ३१॥



मेरे अवगुन न चितारो, प्रभु अपनो विरद सम्हारो।

सब दोषरहित करि स्वामी, दुख मेटहु अन्तरजामी॥ ३२॥



इंद्रादिक पद नहिं चाहूँ, विषयनि में नाहिं लुभाऊँ ।

रागादिक दोष हरीजे, परमातम निजपद दीजे॥ ३३॥

दोहा

दोष रहित जिनदेवजी,  निजपद  दीज्यो  मोय।

सब जीवन के सुख बढ़ै, आनंद-मंगल होय॥ ३४॥



अनुभव  माणिक  पारखी, ‘जौहरी’ आप जिनन्द।

ये ही वर मोहि  दीजिये, चरन-शरन आनन्द॥ ३५॥

नीति वचन




राष्ट्रं चैत्यालयं यस्य प्रजामेव देवता ।
मन्ये सेवायां पुण्यं स:राज्ञे नमो नमः।।
-------------------------------------------------
जो राष्ट्र को मंदिर और प्रजा को उसका देवता मानता हो तथा उसकी सेवा में पुण्य मानता हो वही राजा (प्रतिनिधि) नमस्कारणीय है । उसे प्रणाम हो ।

Friday, January 18, 2019

नीति वाक्यम्

अनुकरण वाक्यम्

मंत्राधीनं जगत् सर्वं , मंत्राधीना देवता ।
ते मंत्रा: पंडिता धीना, तस्मात् पंडित देवता ।

मन्त्र के अधीन समस्त जगत् होता है , मन्त्रों के अधीन देवता होते हैं ।वे सभी मन्त्र विद्वान् पंडित  के अधीन होते हैं इसलिये इस जगत् में उन्हें देवता कहा जाता है ।

ध्यान रहे विद्वान् चरितवान होना चाहिए ।अलोभवृति, ऐंद्रिय निवृत्ति वाला , देश काल की विधि का ज्ञाता, प्रत्युतपन्न्मति,निर्मल भावी, उदार वृत्ति, मधुर भाषी, प्रभावी  व्यक्तित्त्व वाला  होना चाहिए ।

यथा--

देशकाल विधि निपुनमति, निर्मलभव उदार ।
मधुर वैन नयना सुगड़, सो याजक निरधार ।।

डॉ आशीष जैन शिक्षा शास्त्री दमोह

संस्कृत के व्याकरण ग्रंथ एवम रचनाकार

संस्कृत के व्याकरण ग्रन्थ और उनके रचयिता

०१) संग्रह -- व्याडि (लगभग ई. पू. ४०० ; व्याकरण के दार्शनिक विवेचन का आदि ग्रन्थ)
०२) अष्टाध्यायी -- पाणिनि
०३) महाभाष्य -- पतञ्जलि
०४) वाक्यपदीय -- भर्तृहरि (लगभग ई. ५००, व्याकरणदर्शन का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ)
०५) त्रिपादी (या, महाभाष्यदीपिका) -- भर्तृहरि (महाभाष्य की टीका)
०६) काशिकावृत्ति -- जयादित्य तथा वामन (छठी शती)
०७) वार्तिक -- कात्यायन
०८) प्रदीप -- कैयट
०९) सूक्तिरत्नाकर -- शेषनारायण
१०) भट्टिकाव्य (या, रावणवध) -- भट्टि (सातवीं शती)
 
११) चांद्रव्याकरण -- चंद्रगोमिन्‌
१२) कच्चान व्याकरण -- कच्चान (पालि का प्राचीनतम उपलब्ध व्याकरण)
१३) मुखमत्तदीपनी -- विमलबुद्धि (कच्चान व्याकरण की टीका तथा न्यास, ११ वीं सदी)
१४) काशिकाविवरणपंजिका (या, न्यास) -- जिनेंद्रबुद्धि (लगभग ६५० ई., काशिकावृत्ति की टीका)
१५) शब्दानुशासन -- हेमचन्द्राचार्य
१६) पदमंजरी -- हरदत्त (ई. १२००, काशिकावृत्ति की टीका)
१७) सारस्वतप्रक्रिया -- स्वरूपाचार्य अनुभूति
१८) भागवृत्ति (अनुपलब्ध, काशिका की पद्धति पर लिखित)
१९) भाषावृत्ति -- पुरुषोत्तमदेव (ग्यारहवीं शताब्दी)
२०)सिद्धान्तकौमुदी -- भट्टोजि दीक्षित (प्रक्रियाकौमुदी पर आधारित)

२१) प्रौढमनोरमा -- भट्टोजि दीक्षित (स्वरचित सिद्धान्तकौमुदी की टीका)
२२) वैयाकरणभूषणकारिका -- भट्टोजि दीक्षित
२३) शब्दकौस्तुभ -- भट्टोजि दीक्षित (ई. १६००, पाणिनीय सूत्रों की अष्टाध्यायी क्रम से एक अपूर्ण व्याख्या)
२४) बालमनोरोरमा -- वासुदेव दीक्षित (सिद्धान्तकौमुदी की टीका)
२५) रूपावतार -- धर्मकीर्ति (ग्यारहवीं शताब्दी)
२६) मुग्धबोध -- वोपदेव
२७) प्रक्रियाकौमुदी -- रामचंद्र (ई. १४००)
२८) मध्यसिद्धान्तकौमुदी -- वरदराज
२९) लघुसिद्धान्तकौमुदी -- वरदराज
३०) सारसिद्धान्तकौमुदी -- वरदराज

३१) प्रक्रियासर्वस्व -- नारायण भट्ट (सोलहवीं शताब्दी)
३२) प्रसाद -- विट्ठल
३३) प्रक्रियाप्रकाश -- शेषकृष्ण
३४) तत्वबोधिनी -- ज्ञानेन्द्र सरस्वती (सिद्धांतकौमुदी की टीका)
३५) शब्दरत्न -- हरि दीक्षित (प्रौढमनोरमा की टीका)
३६) मनोरमाकुचमर्दन -- जगन्नाथ पण्डितराज (भट्टोजि दीक्षित के "प्रौढ़मनोरमा" नामक व्याकरण के टीकाग्रंथ का खंडन)
३७) स्वोपज्ञवृत्ति -- (वाक्यपदीय की टीका)
३८) वैयाकरणभूषणसार -- कौण्डभट्ट (ई. १६००)
३९) वैयाकरणसिद्धान्तमंजूषा -- नागेश भट्ट (व्याकरणदर्शनग्रंथ)
४०) परिभाषेन्दुशेखर -- नागेश भट्ट (इस यशस्वी ग्रंथ पर अनेक टीकाएँ उपलब्ध हैं।)

४१) लघुशब्देन्दुशेखर -- नागेश भट्ट (सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या)
४२) बृहच्छब्देन्दुशेखर -- नागेश भट्ट (सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या)
४३) शब्देन्दुशेखर -- नागेश भट्ट
४४) वैयाकरणसिद्धान्तलघुमंजूषा -- नागेश भट्ट
४५) वैयाकरणसिद्धान्तपरमलघुमंजूषा -- नागेश भट्ट
४६) महाभाष्य-प्रत्याख्यान-संग्रह -- नागेश भट्ट
४७) उद्योत -- नागेश भट्ट (पतंजलिकृत महाभाष्य पर टीकाग्रंथ)
४८) स्फोटवाद -- नागेश भट्ट
४९) स्फोटचंद्रिका -- कृष्णभट्टमौनि
५०) स्फोटसिद्धि -- भरतमिश्र

५१) परिभाषावृत्ति -- सीरदेव
५२) परिभाषावृत्ति -- पुरुषोत्तमदेव
५३) परिभाषाप्रकाश -- विष्णुशेष
५४) गदा -- परिभाषेंदुशेखर की टीका
५५) भैरवी -- परिभाषेंदुशेखर की टीका
५६) भावार्थदीपिका -- परिभाषेंदुशेखर की टीका
५७) हरिनामामृतव्याकरण -- जीव गोस्वामी
५८) परिमल -- अमरचन्द

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 प्रश्न (१.) – “अष्टाध्यायी” इत्यस्य ग्रन्थस्य रचनाकारः कः ?
उत्तर– पाणिनिः

प्रश्न (२.) – अष्टाध्याय्यां कति अध्यायाः ?
उत्तर– अष्टौ

प्रश्न (३.) – अष्टाध्याय्यां कति पादाः ?
उत्तर– ३२

प्रश्न (४.) – सिद्धान्तकौमुदी इत्यस्य रचयिता क: ?
उत्तर– भट्टोजिदीक्षित:।

प्रश्न (५.) – बालमनोरमाटीकाया: कर्ता क: ?
उत्तर– वासुदेवदीक्षित:।

प्रश्न (६.) – तत्त्वबोधिनीव्याख्याया: कर्ता क: ?
उत्तर– श्रीज्ञानेन्द्रसरस्वती ।

प्रश्न (७.) – प्रक्रियाकौमुदी इत्यस्य ग्रन्थस्य कर्त्ता कः ?
उत्तर– रामचन्द्रः

प्रश्न (८.) – अष्टाध्याय्यां प्रत्याहारसूत्राणि कति ?
उत्तर– चतुर्दश।

प्रश्न (९.) – प्रत्याहारसूत्रेषु को‌ऽयं वर्ण: द्विरनुबध्यते ?
उत्तर– णकार:।

प्रश्न (१०.) – प्रत्याहारसूत्रेषु को‌ऽयं वर्ण: द्विरुपदिष्ट: ?

उत्तर– हकार:।

प्रश्न (११.) – किमर्थमुपदिष्टानि प्रत्याहारसूत्राणि ?
उत्तर– अणादिप्रत्याहारसंज्ञार्थानि।

प्रश्न (१२.) – वेदपुरुषस्य मुखात्मकं वेदाङ्गं किम् ?
उत्तर– व्याकरणम् ।

प्रश्न (१३.) – हकारादिषु अकार: किमर्थम् ?
उत्तर– उच्चारणार्थ:।

प्रश्न (१४.) – सूत्राणां प्रकाराः कति ? के ते ?
उत्तर– सप्त– संज्ञा,परिभाषा, विधि:, नियम:, निषेधः, अतिदेश:,अधिकार:।

प्रश्न (१५.) – व्याकरणस्य कति सम्प्रदायाः सन्ति ?
उत्तर– अष्टौ ।

प्रश्न (१६.) – किं नाम संज्ञासूत्रम् ?
उत्तर– संज्ञासंज्ञिसम्बन्धबोधकं सूत्रम् ।

प्रश्न (१७.) – किं नाम परिभाषात्वम् ?
उत्तर– अनियमे नियमकारिणीत्वम् ।

प्रश्न (१८) – किं नाम विधिसूत्रम् ?
उत्तर– आगम-आदेशादिविधायकं सूत्रम् ।

प्रश्न (१९.) – सम्प्रति व्याकरणस्य प्रतिनिधिग्रन्थः कः ?
उत्तर– शब्दानुशासनम् ।

प्रश्न (२०.) – को नाम नियम: ?
उत्तर– सिद्धे सति आरभ्यमाण: विधि: नियम: ।

प्रश्न (२१.) – को नाम अतिदेश: ?
उत्तर– अविद्यमानस्य धर्मस्य विद्यमानत्वकल्पनम् ।

प्रश्न (२२.) – किं नाम अधिकारत्वम् ?
उत्तर– स्वदेशेफलशून्यत्वे सति उत्तरत्र फलजनकत्वम् ।

प्रश्न (२३.) – अष्टाध्याय्याः प्रथमसूत्रं किम् ?
उत्तर– वृद्धिरादैच् ।

प्रश्न (२४.) – अन्त्यहलाम् इत्संज्ञाविधायकं सूत्रं किम् ?
उत्तर– हलन्त्यम् (१.३.३)

प्रश्न (२५.) – अनुनासिकाचाम् इत्संज्ञाविधायकं सूत्रं किम् ?
उत्तर– उपदेशेऽजनुनासिक इत् (१.३.२)

प्रश्न (२६.) – आदिरन्त्येन सहेता (१.१.७१) इति सूत्रेण किं विधीयते ?
उत्तर– प्रत्याहारसंज्ञा ।

प्रश्न (२७.) – प्रत्याहारेषु इतामग्रहणे किं प्रमानम् ?
उत्तर– अनुनासिक इत्यादिनिर्देश:।

प्रश्न (२८.) – कस्य ह्रस्व: , दीर्घ:, प्लुत: इति संज्ञा ?
उत्तर– एकमात्राकालिकस्य अच: ह्रस्व: इति, द्विमात्राकालिकस्याच: दीर्घ: इति, त्रिमात्राकालिकस्य अच: प्लुत: इति संज्ञा।

प्रश्न (२९.) – अनुनासिकसंज्ञासूत्रम् किम् ?
उत्तर– मुखनासिकावचनोऽनुनासिक:(१.१.८)।

प्रश्न (३०.) – अकारस्य कति भेदा: ?
उत्तर– अष्टादश ।

प्रश्न (३१.) – लृवर्णस्य क: भेद: नास्ति ?
उत्तर– दीर्घ: ।

प्रश्न (३२.) – एचां क: भेद: नास्ति ?
उत्तर– ह्रस्व: ।

प्रश्न (३३.) – सवर्णसंज्ञासूत्रं किम् ?
उत्तर– तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् (१.१.९) ।

प्रश्न (३४.) – कण्ठस्थानं केषां वर्णानाम् ?

उत्तर– अकुहविसर्जनीयानाम् ।

प्रश्न (३५) – तालुस्थाने के के वर्णा: निष्पद्यन्ते ?
उत्तर– इचुयशा:। (इ,ई,च्,छ्,ज्,झ्,ञ्,य्,श्)

प्रश्न (३६.) – केषां वर्णानाम् उत्पत्तिस्थानं मूर्धा ?
उत्तर– ऋटुरषाणाम् ।

प्रश्न (३७.) – लृतुलसा: कुत्र निष्पद्यन्ते ?
उत्तर– दन्तेषु ।

प्रश्न (३८.) – उपूपधमानीयानाम् उत्पत्तिस्थानं किम् ?
उत्तर– ओष्ठौ।

प्रश्न (३९.) – ञमङणनानां क: अधिक: गुण: ?
उत्तर– नासिका ।

प्रश्न (४०.) – वकारस्य निस्पत्तिस्थानं किम् ?
उत्तर– दन्तोष्ठम् ।

प्रश्न (४१.) – अनुस्वार: क्व निष्पद्यते ?
उत्तर– नासिकायाम् ।

प्रश्न (४२.) – प्रयत्न: कतिविध: ?
उत्तर– द्विविध: ।

प्रश्न (४३.) – – तौ प्रयत्नौ कौ ?
उत्तर– आभ्यन्तर:, बाह्य: ।

प्रश्न (४४.) – आभ्यन्तर: कतिविध: ?
उत्तर– पञ्चविधः ।

प्रश्न (४५.) – ते आभ्यन्तरा: के ?
उत्तर– स्पृष्टम् , ईषत्-स्पृष्टम् , विवृतम् , ईषत्-विवृतम् , संवृतम् च ।

प्रश्न (४६.) – स्पृष्टप्रयत्न: केषां वर्णानाम् ?
उत्तर– स्पर्शानाम्।

प्रश्न (४७.) – ईषत्स्पृष्टं केषां वर्णानाम् ?
उत्तर– अन्त:स्थानाम्।

प्रश्न (४८.) – केषां वर्णानां विवृतप्रयत्न: ?
उत्तर– ऊष्माणां स्वराणाञ्च ।

प्रश्न (४९.) – कस्य संवृतम् ?
उत्तर– ह्रस्वस्य अकारस्य प्रयोगे संवृतम्।

प्रश्न (५०.) – विवृतस्य अकारस्य संवृतत्वं केन सूत्रेण विधीयते ?
उत्तर– अ अ (८.४.६७)

प्रश्न (५१.) – पूर्वत्रासिद्धं (८.२.१) कीदृशं सूत्रम् ?
उत्तर– अधिकारसूत्रम् ।

प्रश्न (५२.) – यमो नाम क: ?
उत्तर– वर्गेषु आद्यानां चतुर्णां पञ्चमे वर्णे परे पूर्व सदृश: कश्चिद् वर्ण: ” यम:” भवति।

प्रश्न (५३.) – स्पर्शवर्णा: के ?
उत्तर– ककारादारभ्य मकारपर्यन्तम्। (कादयो मावसानाः ।

प्रश्न (५४.) – अन्त:स्था: के ?
उत्तर– य्, र्, ल्, व् ।

प्रश्न (५५.) – ऊष्माण: के ?
उत्तर– श्, ष्, स्, ह् ।

प्रश्न (५६.) – स्वरा: के ?
उत्तर– अच: ।

प्रश्न (५७.) – को नाम जिह्वामूलीय: ?
उत्तर– ॅ क ॅ ख इति कखाभ्यां प्राग् अर्धविसर्गसदृश: ।

प्रश्न (५८.) – उपध्मानीयो नाम क: ?
उत्तर– ॅ प ॅ फ इति पफाभ्यां प्राग् अर्धविसर्गसदृश: ।

प्रश्न (५९.) – सवर्णग्राहकं सूत्रं किम् ?
उत्तर–अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्यय:(१.१.६८)

प्रश्न (६०.) – बाह्यप्रयत्ना: कति ?
उत्तर– एकादश ।

प्रश्न (६१.) – ते च के ?
उत्तर– विवार:, संवार:, श्वास:, नाद: घोष:, अघोष:, अल्पप्राण:, महाप्राण:, उदात्त: अनुदात्त:, स्वरित: ।

प्रश्न (६२.) – तपर: इत्यत्र कथं विग्रह: ? क: समास: ?
उत्तर– त: परो यस्मात् सो तपर इति बहुव्रीहि:, तात् पर: तपर: इति तत्पुरुषो वा ।

प्रश्न (६३.) – वृद्धिरादैच् इति कीदृशं सूत्रम् ?
उत्तर– संज्ञासूत्रम् ।

प्रश्न (६४.) – गुणसंज्ञासूत्रं किम् ?
उत्तर– अदेङ् गुण: । (१.१.२)

प्रश्न (६५.) – धातुसंज्ञासूत्रं किम् ?
उत्तर– भूवादयो धातव: ।(१.३.१)

प्रश्न (६६.) – प्रादय: कति ?
उत्तर– द्वाविंशति: (२२)

प्रश्न (६७.) – के च ते ?
उत्तर– प्र ,परा ,अप ,सम्,अनु, अव, निस् , निर्, दुस् , दुर् ,वि , आङ् , नि , अधि, अपि ,अति , सु , उत् , अभि , प्रति ,परि , उप ।

प्रश्न (६८.) – उपसर्गसंज्ञासूत्रं किम् ?
उत्तर– प्रादयः उपसर्गा: क्रियायोगे (१.४.५८)

प्रश्न (६९.) – लिङ्गानुशासनम् इत्यस्य कर्त्ता कः ?
उत्तर– व्याडिः ।

प्रश्न (७०.) – वाक्यपदीयम् कस्य रचना ?
उत्तर– भर्तृहरेः ।

प्रश्न (७१.) – पतञ्जलि-प्रणीतः ग्रन्थः कः ?
उत्तर– महाभाष्यम् ।

प्रश्न (७२.) – व्याकरण-शब्दस्य व्युत्पत्तिः का ?
उत्तर– व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दाः अनेनेति व्याकरणम् ।

प्रश्न (७३.) – व्याकरणस्य सम्प्रदायः कति के च ?
उत्तर– अष्टौ–ऐन्दम्, चान्द्रम्, काशकृत्स्नम्, कौमारम्, शाकटायनम्, सारस्वतम्, आपिशलम्, शाकलम् ।

प्रश्न (७४.) – प्रसिद्धं व्याकरणम् किम् ?
उत्तर– पाणिनीयम् ।

प्रश्न (७५.) – मुनित्रये केषां समावेशो भवति ?
उत्तर– पाणिनिः, कात्यायनः, पतञ्जलिः ।

प्रश्न (७६.) – वार्तिकारः कः ?
उत्तर– कात्यायनः ।

प्रश्न (७७.) – भट्टोजिदीक्षित-कृत-प्रौढमनोरमायाः खण्डनं केन कृतम् ?
उत्तर– जगन्नाथेन ।

प्रश्न (७८.) – मनोरमाकूचमर्दनम् इत्यस्य लेखकः कः ?
उत्तर– पंडितराजो जगन्नाथः ।

प्रश्न (७९.) – वरदराजस्य रचनाकार्याणि कानि ?
उत्तर– लघुसिद्धान्तकौमुदी, मध्यसिद्धान्कौमुदी, सारकौमुदी च ।

प्रश्न (८०.) – पाणिनीये अष्टाध्यायी-ग्रन्थे कति सूत्राणि ?
उत्तर– ३९६४

प्रश्न (८१.) – धातवः कतिषु गणेषु विभक्ताः सन्ति ?
उत्तर– दशषु गणेषु ।

प्रश्न (८२.) – धातु-गणानां नामानि कानि ?
उत्तर– भ्वादिः, अदादिः, जुहोत्यादिः, दिवादिः, स्वादिः, तुदादिः, रुधादिः, तनादिः, क्र्यादिः, चुरादिः ।

प्रश्न (८३.) – शब्देन्दुशेखरः इत्यस्य लेखकः कः ?
उत्तर– नागेशभट्टः ।

प्रश्न (८४.) – कति धातवः सन्ति ?
उत्तर– १९७०

प्रश्न (८५.) – प्रत्याहारसूत्रेषु मूल-स्वराः के ?
उत्तर– पञ्च–अ, इ, उ, ऋ, लृ ।

प्रश्न (८६.) – वाक्यपदीयस्य कति काण्डानि सन्ति ?
उत्तर– त्रीणि–ब्राह्मकाण्डम्, वाक्यकाण्डम्, पदकाण्डम् ।

प्रश्न (८७.) – महाभाष्यस्य कैयटरचिता व्याख्या का ?
उत्तर– प्रदीपः ।

प्रश्न (८८.) – अष्टाध्याय्याः प्रथमा वृत्तिः का ?
उत्तर– काशिका ।

प्रश्न (८९.) – काशिकायाः लेखकौ कौ ?
उत्तर– जयादित्यः वामनश्च ।

प्रश्न (९०.) – काशिकायाः व्याख्या–काशिका-विवरण-पञ्जिका इत्यस्य लेखकः कः ?
उत्तर– जिनेन्द्रबुद्धिः ।

प्रश्न (९१.) – काशिका-विवरण-पञ्जिका इत्यस्य अपरं नाम किम् ?
उत्तर– न्यासः ।

प्रश्न (९२.) – – काशिकायाः अपरा व्याख्या का ?
उत्तर– पदमञ्जरी ।

प्रश्न (९३.) –पदमञ्जरी इत्यस्य रचनाकारः कः ?–हरदत्तमिश्रः ।

प्रश्न (९४.) – वैयाकरणभूषणसारः इत्यस्य प्रणेता कः ?
उत्तर– कौण्डभट्टः ।

प्रश्न (९५.) – परिभाषेन्दुशेखरः इत्यस्य लेखकः कः ?
उत्तर– नागेशभट्टः ।

प्रश्न (९६.) – परिभाषेन्दुशेखरस्य विषय़ः कः ?
उत्तर– पाणिनीयव्याकरणस्य परिभाषायाः विवेचनम् ।

प्रश्न (९७.) – महाभाष्यप्रदीपस्य सुप्रसिद्धा व्याख्या का ?
उत्तर– उद्योतः ।

प्रश्न (९८.) – उद्योतस्य लेखकः कः ?
उत्तर– नागेशः ।

प्रश्न (९९.) – नागेशस्यान्या रचना का ?
उत्तर– वैयाकरणसिद्धान्तमञ्जूषा, लघुमञ्जूषा, परमलघुमञ्जूषा ।

प्रश्न (१००.) – शब्दकौस्तुभः इत्यस्य लेखकः कः ?
उत्तर– भट्टोजिदीक्षित

Thursday, January 17, 2019

मंगलाष्टक स्तोत्रम

*श्री मंगलाष्टक स्त्रोत*

अर्हन्तो भगवत इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा,
आचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः
श्रीसिद्धान्तसुपाठकाः, मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः,
पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु नः मंगलम्

अर्थ - इन्द्रों द्वारा जिनकी पूजा की गई, ऐसे अरिहन्त भगवान, सिद्ध पद के स्वामी ऐसे सिद्ध भगवान, जिन शासन को प्रकाशित करने वाले ऐसे आचार्य, जैन सिद्धांत को सुव्यवस्थित पढ़ाने वाले ऐसे उपाध्याय, रत्नत्रय के आराधक ऐसे साधु, ये पाँचों मरमेष्ठी प्रतिदिन हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करे!



श्रीमन्नम्र – सुरासुरेन्द्र – मुकुट – प्रद्योत – रत्नप्रभा-
भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः
ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः
स्तुत्या योगीजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु नः मंगलम्

अर्थ - शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रो के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कान्ति से जिनके श्री चरणों के नखरुपी चन्द्रमा की ज्योति स्फुरायमान हो रही है, और जो प्रवचन रुप सागर की वृद्धि करने के लिए स्थायी चन्द्रमा हैं एवं योगीजन जिनकी स्तुति करते रहते हैं, ऐसे अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांचों परमेष्ठी हमारे पापों को क्षय करें और हमें सुखी करें!



सम्यग्दर्शन-बोध-व्रत्तममलं, रत्नत्रयं पावनं,
मुक्ति श्रीनगराधिनाथ – जिनपत्युक्तोऽपवर्गप्रदः
धर्म सूक्तिसुधा च चैत्यमखिलं, चैत्यालयं श्रयालयं,
प्रोक्तं च त्रिविधं चतुर्विधममी, कुर्वन्तु नः मंगलम्

अर्थ - निर्मल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये पवित्र रत्नत्रय हैं श्रीसम्पन्न मुक्तिनगर के स्वामी भगवान् जिनदेव ने इसे अपवर्ग (मोक्ष) को देने वाला कहा है इस त्रयी के साथ धर्म सूक्तिसुधा (जिनागम), समस्त जिन-प्रतिमा और लक्ष्मी का आकारभूत जिनालय मिलकर चार प्रकार का धर्म कहा गया है वह हमारे पापों का क्षय करें और हमें सुखी करे!



नाभेयादिजिनाः प्रशस्त-वदनाः ख्याताश्चतुर्विंशतिः,
श्रीमन्तो भरतेश्वर-प्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश
ये विष्णु-प्रतिविष्णु-लांगलधराः सप्तोत्तराविंशतिः,
त्रैकाल्ये प्रथितास्त्रिषष्टि-पुरुषाः कुर्वन्तु नः मंगलम्

अर्थ - तीनों लोकों में विख्यात और बाह्य तथा अभ्यन्तर लक्ष्मी सम्पन्न ऋषभनाथ भगवान आदि 24 तीर्थंकर, श्रीमान् भरतेश्वर आदि 12 चक्रवर्ती, 9 नारायण, 9 प्रतिनारायण और 9 बलभद्र, ये 63 शलाका महापुरुष हमारे पापों का क्षय करें और हमें सुखी करे!



ये सर्वौषध-ऋद्धयः सुतपसो वृद्धिंगताः पञ्च ये,
ये चाष्टाँग-महानिमित्तकुशलाः येऽष्टाविधाश्चारणाः
पञ्चज्ञानधरास्त्रयोऽपि बलिनो ये बुद्धिऋद्धिश्वराः,
सप्तैते सकलार्चिता मुनिवराः कुर्वन्तु नः मंगलम्

अर्थ - सभी औषधि ऋद्धिधारी, उत्तम तप से वृद्धिगत पांच, अष्टांग महानिमित्तज्ञानी, आठ प्रकार की चारण ऋद्धि के धारी, पांच प्रकार की ज्ञान ऋद्धियों के धारी, तीन प्रकार की बल ऋद्धियों के धारी, बुद्धि ऋद्धिधारी ऐसे सातों प्रकारों के जगत पूज्य गणनायक मुनिवर हमारा मंगल करे!



ज्योतिर्व्यन्तर-भावनामरग्रहे मेरौ कुलाद्रौ स्थिताः,
जम्बूशाल्मलि-चैत्य-शखिषु तथा वक्षार-रुप्याद्रिषु
इक्ष्वाकार-गिरौ च कुण्डलादि द्वीपे च नन्दीश्वरे,
शैले ये मनुजोत्तरे जिन-ग्रहाः कुर्वन्तु नः मंगलम्

अर्थ - ज्योतिषी, व्यंतर, भवनवासी और वैमानिकों केआवासों के, मेरुओं, कुलाचकों, जम्बू वृक्षों औरशाल्मलि वृक्षों, वक्षारों विजयार्धपर्वतों,इक्ष्वाकार पर्वतों, कुण्डलवर (तथा रुचिक वर), नन्दीश्वर द्वीप, और मानुषोत्तर पर्वत के सभी अकृत्रिम जिन चैत्यालय हमारे पापों काक्षयकरेंऔरहमें सुखी बनावें!



कैलाशे वृषभस्य निर्व्रतिमही वीरस्य पावापुरे
चम्पायां वसुपूज्यसुज्जिनपतेः सम्मेदशैलेऽर्हताम्
शेषाणामपि चोर्जयन्तशिखरे नेमीश्वरस्यार्हतः,
निर्वाणावनयः प्रसिद्धविभवाः कुर्वन्तु नः मंगलम्

अर्थ - भगवान ऋषभदेव की निर्वाणभूमि – कैलाश पर्वत, महावीर स्वामी कीपावापुर, वासुपूज्य स्वामी (राजा वसुपूज्य के पुत्र) की चम्पापुरी, नेमिनाथ स्वामी की ऊर्जयन्त पर्वत शिखर, और शेष बीस तीर्थंकरों की श्री सम्मेदशिखर पर्वत, जिनका अतिशय और वैभव विख्यात है ऐसी ये सभी निर्वाण भूमियाँ हमें निष्पाप बनावें और हमें सुखी करें!



यो गर्भावतरोत्सवो भगवतां जन्माभिषेकोत्सवो,
यो जातः परिनिष्क्रमेण विभवो यः केवलज्ञानभाक्
यः कैवल्यपुर-प्रवेश-महिमा सम्पदितः स्वर्गिभिः
कल्याणानि च तानि पंच सततं कुर्वन्तु नः मंगलम्

अर्थ - तीर्थंकरों के गर्भकल्याणक, जन्माभिषेक कल्याणक, दीक्षा कल्याणक, केवलज्ञान कल्याणक और कैवल्यपुर प्रवेश (निर्वाण) कल्याणक के देवों द्वारा सम्पादित महोत्सव हमें सर्वदा मांगलिक रहें!



सर्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पुष्पदामायते,
सम्पद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते रिपुः
देवाः यान्ति वशं प्रसन्नमनसः किं वा बहु ब्रूमहे,
धर्मादेव नभोऽपि वर्षति नगैः कुर्वन्तु नः मंगलम्

अर्थ - धर्म के प्रभाव से सर्प माला बन जाता है, तलवार फूलों के समान कोमल बन जाती है, विष अमृत बन जाता है, शत्रु प्रेम करने वाला मित्र बन जाता है और देवता प्रसन्न मन से धर्मात्मा के वश में हो जाते हैं अधिक क्या कहें, धर्म से ही आकाश से रत्नों की वर्षा होने लगती है वही धर्म हम सबका कल्याणकरे!



इत्थं श्रीजिन-मंगलाष्टकमिदं सौभाग्य-सम्पत्करम्,
कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थंकराणामुषः
ये श्र्रण्वन्ति पठन्ति तैश्च सुजनैः धर्मार्थ-कामाविन्ताः,
लक्ष्मीराश्रयते व्यपाय-रहिता निर्वाण-लक्ष्मीरपि

अर्थ - सोभाग्यसम्पत्ति को प्रदान करने वाले इस श्री जिनेन्द्र मंगलाष्टक को जो सुधी तीर्थंकरों के पंच कल्याणक के महोत्सवों के अवसर पर तथा प्रभातकाल में भावपूर्वक सुनते और पढ़ते हैं, वे सज्जन धर्म, अर्थ और काम से समन्वित लक्ष्मी के आश्रय बनते हैं और पश्चात् अविनश्वर मुक्तिलक्ष्मी को भी प्राप्त करते हैं!

Thursday, January 10, 2019

वीतराग स्तोत्र

*श्री वीरतराग स्त्रोत*

शिवं शुद्धबुद्धं परं विश्वनाथं,

न देवो न बंधुर्न कर्मा न कर्ता।

न अङ्गं न सङ्गं न स्वेच्छा न कायं,

चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्॥ १॥



न बन्धो न मोक्षो न रागादिदोष:,

न योगं न भोगं न व्याधिर्न शोक:।

न कोपं न मानं न माया न लोभं,

चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्॥ २॥



न हस्तौ न पादौ न घ्राणं न जिह्वा,

न चक्षुर्न कर्ण न वक्त्रं न निद्रा।

न स्वामी न भृत्यो न देवो न मत्र्य:,

चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्॥ ३॥



न जन्म न मृत्यु: न मोहं न चिंता,

न क्षुद्रो न भीतो न काश्र्यं न तन्द्रा।

न स्वेदं न खेदं न वर्णं न मुद्रा,

चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्॥ ४॥



त्रिदण्डे त्रिखण्डे हरे विश्वनाथं,

हृषी-केशविध्वस्त-कर्मादिजालम्।

न पुण्यं न पापं न चाक्षादि-गात्रं,

चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्॥ ५॥



न बालो न वृद्धो न तुच्छो न मूढो,

न स्वेदं न भेदं न मूर्तिर्न स्नेह:।

न कृष्णं न शुक्लं न मोहं न तंद्रा,

चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्॥ ६॥



न आद्यं न मध्यं न अन्तं न चान्यत्,

न द्रव्यं न क्षेत्रं न कालो न भाव:।

न शिष्यो गुरुर्नापि हीनं न दीनं,

चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्॥ ७॥



इदं ज्ञानरूपं स्वयं तत्त्ववेदी,

न पूर्णं न शून्यं न चैत्यस्वरूपम्।

न चान्यो न भिन्नं न परमार्थमेकं,

चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्॥ ८॥



आत्माराम - गुणाकरं  गुणनिधिं, चैतन्यरत्नाकरं,

सर्वे भूतगता-गते सुखदुखे, ज्ञाते त्वयि सर्वगे,

त्रैलोक्याधिपते  स्वयं  स्वमनसा, ध्यायन्ति योगीश्वरा:,

वंदे तं हरिवंशहर्ष-हृदयं, श्रीमान् हृदाभ्युद्यताम्॥ ९॥

Wednesday, January 9, 2019

स्तोत्र पाठ

*श्री आद्याष्टक स्त्रोत*

अद्य मे सफलं जन्म,    नेत्रे च सफले मम।

त्वामद्राक्षं यतो देव,   हेतुमक्षयसंपद:॥ १॥



अद्य संसार-गम्भीर,  पारावार:  सुदुस्तर:।

सुतरोऽयं क्षणेनैव, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ २॥



अद्य मे क्षालितं गात्रं, नेत्रे च विमले कृते।

स्नातोऽहं धर्मतीर्थेषु, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ३॥



अद्य मे सफलं जन्म, प्रशस्तं सर्वमङ्गलम्।

संसारार्णवतीर्णोऽहं, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ४॥



अद्य कर्माष्टक-ज्वालं, विधूतं सकषायकम्।

दुर्गतेर्विनिवृत्तोऽहं,  जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ५॥



अद्य सौम्या ग्रहा: सर्वे, शुभाश्चैकादश-स्थिता:।

नष्टानि विघ्नजालानि, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ६॥



अद्य नष्टो महाबन्ध:, कर्मणां दु:खदायक:।

सुख-सङ्गं समापन्नो, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ७॥



अद्य कर्माष्टकं नष्टं, दु:खोत्पादन-कारकम्।

सुखाम्भोधि-र्निमग्नोऽहं, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ८॥



अद्य मिथ्यान्धकारस्य,  हन्ता ज्ञान-दिवाकर:।

उदितो मच्छरीरेऽस्मिन्, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ९॥



अद्याहं सुकृतीभूतो,  निर्धूताशेषकल्मष:।

भुवन-त्रय-पूज्योऽहं, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ १०॥



अद्याष्टकं पठेद्यस्तु,  गुणानन्दित-मानस:।

तस्य सर्वार्थसंसिद्धि-र्जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ११॥

Tuesday, January 8, 2019

मिलते जुलते रहा करो - कविता



*मिलते जुलते रहा करो*

धार वक़्त की बड़ी प्रबल है,
इसमें लय से बहा करो,
जीवन कितना क्षणभंगुर है,
मिलते जुलते रहा करो।

यादों की भरपूर पोटली,
क्षणभर में न बिखर जाए,
दोस्तों की अनकही कहानी,
तुम भी थोड़ी कहा करो।

हँसते चेहरों के पीछे भी,
दर्द भरा हो सकता है,
यही सोच मन में रखकर के,
हाथ दोस्त का गहा करो।

सबके अपने-अपने दुःख हैं,
अपनी-अपनी पीड़ा है,
यारों के संग थोड़े से दुःख,
मिलजुल कर के सहा करो।

किसका साथ कहाँ तक होगा,
कौन भला कह सकता है,
मिलने के कुछ नए बहाने,
रचते-बुनते रहा करो।

मिलने जुलने से कुछ यादें,
फिर ताज़ा हो उठती हैं,
इसीलिए यारों नाहक भी,
मिलते जुलते रहा करो।🌹

Saturday, January 5, 2019

चार अनुयोग को समझे

*जैन दर्शन के चारों अनुयोग को एक उदाहरण से समझे*

एक माँ अपने छोटे से बच्चे को लेकर बाजार गई,बच्चा रास्ते में गिरा और ज़ोर से रोने लगा,वह माँ उसको चुप करने के लिये क्या उपाय करती है।
*पहला उपाय* माँ कहती है की जब दीदी गिरी थी वो तो नहीं रोई,फिर तू क्यों रोता है,चुप हो जाओ अर्थात आचार्य भगवंत हमसे कहते हैं कि पूर्व में जो महापुरुष हुए हैं उनको भी उनके कर्म के उदय मे कैसी कैसी विपत्तियां आईं वह तो अपने धर्म से विचलित नहीं हुए तुम क्यों विचलित होते हो?उनकी तरह तुम भी धर्म में लगो और पाप से बचो। *ये प्रथमानुयोग की पद्धति है*|
*दूसरा उपाय* माँ कहती है कि सुबह दीदी से झगड़ा किया था इसलिए तुम्हे लगी!अर्थात आचार्य भगवंत हमें समझाते हैं कि जैसे पूर्व में परिणाम किये थे अब उसका फल भुगत रहे है,अपने परिणाम सम्हालो,इन्हीं को सम्हालने से अपना कल्याण हो सकता है।ये *करणानुयोग की पद्धति है*
*तीसरा उपाय* माँ कहती है देख कर तो चलते नहीं हो अब गिर गये तो रोते हो,अर्थात आचार्य भगवंत हमें समझाते है कि बाह्य आचरण को सम्हालो व्रत,नियम,संयम,तप आदि एवं अंतरंग में वीतराग भाव धारण करोगे तो तुम्हारा कल्याण होगा ये *चरणानुयोग की पद्धति है*
*चौथा उपाय* माँ बच्चे को गोद में लेती है और कहती है वो तो घोड़ा गिरा था तू तो मेरा राजा बेटा है तुझे थोड़े ही चोट लगती है अर्थात आचार्य भगवंत हमें समझाते है कि कहाँ तुम इस देह में आपा मान रहे हो वो तो पर्याय हैं,इन पर्याय में हर्ष विषाद नहीं करना चाहिए अपना स्व-भाव देखना चाहिए! *ये द्रव्यानुयोग की पद्धति है*
👉इस तरह हम किसी भी अनुयोग के माध्यम से अपने दुःख को दूर कर सकते हैं।
*🔴जैनम् जयतु शासनम् वंदे श्री वीरशासनम्🔴*

शरीर के अंगों की वैज्ञानिकता

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*(वैज्ञानिकों ने बताया कितना दिलचस्प है इंसान का शरीर )*

*अद्भुत है इंसान का शरीर*

*जबरदस्त फेफड़े*

हमारे फेफड़े हर दिन 20 लाख लीटर हवा को फिल्टर करते हैं. हमें इस बात की भनक भी नहीं लगती. फेफड़ों को अगर खींचा जाए तो यह टेनिस कोर्ट के एक हिस्से को ढंक देंगे.

*ऐसी और कोई फैक्ट्री नहीं*

हमारा शरीर हर सेकंड 2.5 करोड़ नई कोशिकाएं बनाता है. साथ ही, हर दिन 200 अरब से ज्यादा रक्त कोशिकाओं का निर्माण करता है. हर वक्त शरीर में 2500 अरब रक्त कोशिकाएं मौजूद होती हैं. एक बूंद खून में 25 करोड़ कोशिकाएं होती हैं.

*लाखों किलोमीटर की यात्रा*

इंसान का खून हर दिन शरीर में 1,92,000 किलोमीटर का सफर करता है. हमारे शरीर में औसतन 5.6 लीटर खून होता है जो हर 20 सेकेंड में एक बार पूरे शरीर में चक्कर काट लेता है.

*धड़कन, धड़कन*

एक स्वस्थ इंसान का हृदय हर दिन 1,00,000 बार धड़कता है. साल भर में यह 3 करोड़ से ज्यादा बार धड़क चुका होता है. दिल का पम्पिंग प्रेशर इतना तेज होता है कि वह खून को 30 फुट ऊपर उछाल सकता है.

*सारे कैमरे और दूरबीनें फेल*

इंसान की आंख एक करोड़ रंगों में बारीक से बारीक अंतर पहचान सकती है. फिलहाल दुनिया में ऐसी कोई मशीन नहीं है जो इसका मुकाबला कर सके.

*नाक में एंयर कंडीशनर*

हमारी नाक में प्राकृतिक एयर कंडीशनर होता है. यह गर्म हवा को ठंडा और ठंडी हवा को गर्म कर फेफड़ों तक पहुंचाता है.

*400 किमी प्रतिघंटा की रफ्तार*

तंत्रिका तंत्र 400 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से शरीर के बाकी हिस्सों तक जरूरी निर्देश पहुंचाता है. इंसानी मस्तिष्क में 100 अरब से ज्यादा तंत्रिका कोशिकाएं होती हैं.

*जबरदस्त मिश्रण*

शरीर में 70 फीसदी पानी होता है. इसके अलावा बड़ी मात्रा में कार्बन, जिंक, कोबाल्ट, कैल्शियम, मैग्नीशियम, फॉस्फेट, निकिल और सिलिकॉन होता है.

*बेजोड़ झींक*

झींकते समय बाहर निकले वाली हवा की रफ्तार 166 से 300 किलोमीटर प्रतिघंटा हो सकती है. आंखें खोलकर झींक मारना नामुमकिन है.

*बैक्टीरिया का गोदाम*

इंसान के वजन का 10 फीसदी हिस्सा, शरीर में मौजूद बैक्टीरिया की वजह से होता है. एक वर्ग इंच त्वचा में 3.2 करोड़ बैक्टीरिया होते हैं.

*ईएनटी की विचित्र दुनिया*

आंखें बचपन में ही पूरी तरह विकसित हो जाती हैं. बाद में उनमें कोई विकास नहीं होता. वहीं नाक और कान पूरी जिंदगी विकसित होते रहते हैं. कान लाखों आवाजों में अंतर पहचान सकते हैं. कान 1,000 से 50,000 हर्ट्ज के बीच की ध्वनि तरंगे सुनते हैं.

*दांत संभाल के*

इंसान के दांत चट्टान की तरह मजबूत होते हैं. लेकिन शरीर के दूसरे हिस्से अपनी मरम्मत खुद कर लेते हैं, वहीं दांत बीमार होने पर खुद को दुरुस्त नहीं कर पाते.

*मुंह में नमी*

इंसान के मुंह में हर दिन 1.7 लीटर लार बनती है. लार खाने को पचाने के साथ ही जीभ में मौजूद 10,000 से ज्यादा स्वाद ग्रंथियों को नम बनाए रखती है.

*झपकती पलकें*

वैज्ञानिकों को लगता है कि पलकें आंखों से पसीना बाहर निकालने और उनमें नमी बनाए रखने के लिए झपकती है. महिलाएं पुरुषों की तुलना में दोगुनी बार पलके झपकती हैं.

*नाखून भी कमाल के*

अंगूठे का नाखून सबसे धीमी रफ्तार से बढ़ता है. वहीं मध्यमा या मिडिल फिंगर का नाखून सबसे तेजी से बढ़ता है.

*तेज रफ्तार दाढ़ी*

पुरुषों में दाढ़ी के बाल सबसे तेजी से बढ़ते हैं. अगर कोई शख्स पूरी जिंदगी शेविंग न करे तो दाढ़ी 30 फुट लंबी हो सकती है.

*खाने का अंबार*

एक इंसान आम तौर पर जिंदगी के पांच साल खाना खाने में गुजार देता है. हम ताउम्र अपने वजन से 7,000 गुना ज्यादा भोजन खा चुके होते हैं.

*बाल गिरने से परेशान*

एक स्वस्थ इंसान के सिर से हर दिन 80 बाल झड़ते हैं.

*सपनों की दुनिया*

इंसान दुनिया में आने से पहले ही यानी मां के गर्भ में ही सपने देखना शुरू कर देता है. बच्चे का विकास वसंत में तेजी से होता है.

*नींद का महत्व*

नींद के दौरान इंसान की ऊर्जा जलती है. दिमाग अहम सूचनाओं को स्टोर करता है. शरीर को आराम मिलता है और रिपेयरिंग का काम भी होता है. नींद के ही दौरान शारीरिक विकास के लिए जिम्मेदार हार्मोन्स निकलते हैं.

*OUR BODY IS VERY PRECIOUS*
*PLEASE TAKE CARE OF YOURSELF*

🙏🏻🙏🏻🙏🏻

मुनि श्री योगसागर जी की भव्य आगवानी दमोह नगर में

मुनि श्री योगसागर जी की दमोह नगर में भव्य आगवानी 

Wednesday, January 2, 2019

जन्म राशि के अनुसार किस भगवान की मूर्ति स्थापना करनी चाहिए

मंदिर में किस श्रावक को कौन से भगवान  की मूर्ति विराजमान करना चाहिए । कौन से भगवान आपकी राशि पर सर्वोत्तम उत्तम एवम मध्यम हैं

 *जानिए अपनी जन्म राशि के अनुसार*

*जानिए अपने जन्म नक्षत्र के अनुसार*

*जानिए अपने प्रचलित नामाक्षर के अनुसार*

 https://youtu.be/egF_UgKCh-g

*मेष राशि वाले श्रावक के लिए*
*वृषभ राशि*
*मिथुन राशि*
*कर्क राशि*
*सिंह राशि वाले श्रावकों के लिए*
 https://youtu.be/j__2q4YpuxE
 https://youtu.be/6Gi1MgnpQUY
 https://youtu.be/i5NA7d_TEW0
https://youtu.be/8Ryv_rIlv7w
 https://youtu.be/EABmUcMUf7E

गाय के गोबर का महत्व

 आयुर्वेद ग्रंथों  में हमारे ऋषि मुनियों ने पहले ही बता दिया गया  था कि   *धोवन पानी पीने का वैज्ञानिक तथ्य और आज की आवश्यकता* वायुमण्डल में...