क्या है जैन कालचक्र ?
अवसर्पिणी, जैन दर्शन के अनुसार सांसारिक समय चक्र का आधा अवरोही भाग है जो वर्तमान में गतिशील है। जैन ग्रंथों के अनुसार इसमें अच्छे गुण या वस्तुओं में कमी आती जाती है। इसके विपरीत उत्सर्पिणी में अच्छी वस्तुओं या गुणों में अधिकता होती जाती है।
जैन दर्शन में काल चक्र (कल्पकाल) को दो भागों में बाटा जाता है– उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। यह निरंतर एक के बाद एक आवर्तन करते हैं।
आरोही अवधि (उत्सर्पिणी) के दौरान भरत और ऐरावत क्षेत्रों में रहने वाले प्राणियों की उम्र, शक्ति, कद और खुशी में वृद्धि होती रहती है। इसके विपरीत अवरोही अर्ध चक्र (अवसर्पिणी) में चौतरफा गिरावट होती है। प्रत्येक अर्ध चक्र को छह अवधि में बाँटा गया है। अवसर्पिणी के छः भागों का वर्णन इस प्रकार है :-
१ सुषमा-सुषमा (बहुत अच्छा)
२ सुषमा (अच्छा)
३ सुषमा–दुःषमा (अच्छा बुरा)
४ दुःषमा–सुखम (बुरा अच्छा) : २४ तीर्थंकरों का जन्म इस युग में होता है।
५ दुःषमा (बुरा) : आज का युग
६ दुःषमा–दुःषमा : दुःख ही दुःख
पंचम काल की विशेष जानकारी
अवसर्पिणी के पांचवें काल (दुशमा) को आम भाषा में पंचम काल कहा जाता है।
जैन ग्रंथों के अनुसार वर्तमान में यह ही काल चल रहा है जो तीर्थंकर महावीर की मोक्ष (निर्वाण) प्राप्ति के ३ वर्ष और साडे आठ माह बाद वर्तन में आया था।
इस अवधि के अंत में, मनुष्य की अधिक से अधिक ऊंचाई एक हाथ, और उम्र बीस साल की रह जाएगी
भरत चक्रवर्ती ने इस काल से संबंधित १६ स्वप्न देखे थे। इन स्वप्नों का फल तीर्थंकर ऋषभनाथ द्वारा समझाया गया था।
इसके अलावा करोड़ों उत्सर्पणी और अवसर्पणी काल व्यतीत हो जाने के बाद एक हुण्डावसर्पणी काल आता है जो की अभी चल रहा है जिसमें दोनों कालों से कुछ भिन्न भिन्न क्रियाएं होती हैं
जैसे तीर्थंकर युवराज के पुत्रियों की उत्पत्ति होना
तीर्थंकर मुनिराज पर उपसर्ग होना
चक्रवर्ती का मान भंग होना
तीर्थंकर बालक का जन्म अलग अलग स्थानों पर होना
तीर्थंकर भगवान का मोक्ष अलग अलग स्थानों पर होना
(तीर्थंकर बालक का जन्म अयोध्या और तीर्थंकर भगवान का मोक्ष सम्मेद शिखर जी में ही होता है)
आदि आदि अनेक विसंगतियां इस काल के प्रभाव से होती हैं।
🙏 जय जिनेन्द्र 🙏
अवसर्पिणी, जैन दर्शन के अनुसार सांसारिक समय चक्र का आधा अवरोही भाग है जो वर्तमान में गतिशील है। जैन ग्रंथों के अनुसार इसमें अच्छे गुण या वस्तुओं में कमी आती जाती है। इसके विपरीत उत्सर्पिणी में अच्छी वस्तुओं या गुणों में अधिकता होती जाती है।
जैन दर्शन में काल चक्र (कल्पकाल) को दो भागों में बाटा जाता है– उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। यह निरंतर एक के बाद एक आवर्तन करते हैं।
आरोही अवधि (उत्सर्पिणी) के दौरान भरत और ऐरावत क्षेत्रों में रहने वाले प्राणियों की उम्र, शक्ति, कद और खुशी में वृद्धि होती रहती है। इसके विपरीत अवरोही अर्ध चक्र (अवसर्पिणी) में चौतरफा गिरावट होती है। प्रत्येक अर्ध चक्र को छह अवधि में बाँटा गया है। अवसर्पिणी के छः भागों का वर्णन इस प्रकार है :-
१ सुषमा-सुषमा (बहुत अच्छा)
२ सुषमा (अच्छा)
३ सुषमा–दुःषमा (अच्छा बुरा)
४ दुःषमा–सुखम (बुरा अच्छा) : २४ तीर्थंकरों का जन्म इस युग में होता है।
५ दुःषमा (बुरा) : आज का युग
६ दुःषमा–दुःषमा : दुःख ही दुःख
पंचम काल की विशेष जानकारी
अवसर्पिणी के पांचवें काल (दुशमा) को आम भाषा में पंचम काल कहा जाता है।
जैन ग्रंथों के अनुसार वर्तमान में यह ही काल चल रहा है जो तीर्थंकर महावीर की मोक्ष (निर्वाण) प्राप्ति के ३ वर्ष और साडे आठ माह बाद वर्तन में आया था।
इस अवधि के अंत में, मनुष्य की अधिक से अधिक ऊंचाई एक हाथ, और उम्र बीस साल की रह जाएगी
भरत चक्रवर्ती ने इस काल से संबंधित १६ स्वप्न देखे थे। इन स्वप्नों का फल तीर्थंकर ऋषभनाथ द्वारा समझाया गया था।
इसके अलावा करोड़ों उत्सर्पणी और अवसर्पणी काल व्यतीत हो जाने के बाद एक हुण्डावसर्पणी काल आता है जो की अभी चल रहा है जिसमें दोनों कालों से कुछ भिन्न भिन्न क्रियाएं होती हैं
जैसे तीर्थंकर युवराज के पुत्रियों की उत्पत्ति होना
तीर्थंकर मुनिराज पर उपसर्ग होना
चक्रवर्ती का मान भंग होना
तीर्थंकर बालक का जन्म अलग अलग स्थानों पर होना
तीर्थंकर भगवान का मोक्ष अलग अलग स्थानों पर होना
(तीर्थंकर बालक का जन्म अयोध्या और तीर्थंकर भगवान का मोक्ष सम्मेद शिखर जी में ही होता है)
आदि आदि अनेक विसंगतियां इस काल के प्रभाव से होती हैं।
🙏 जय जिनेन्द्र 🙏
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